तुलसीदास की प्रमुख रचनाएँ
तुलसीदास, मध्ययुगीन रामभक्ति शाखा के प्रमुख कवि थे। उनकी काव्य रचना मुख्य रूप से राम की कलाओं से सम्बन्धित है। तुलसीदास की रचनाओं के संदर्भ में उनकी प्रामाणिकता एवं ऐतिहासिकता पर अनेक विद्धानों ने कार्य किया है। नागरी प्रचारिणी सभा की खोज रिपोर्टों के आधार पर उनकी 37 रचनाओं की सूचना मिलती है। शिवसिंह सेंगर तथा ग्रियर्सन ने तुलसी के रचनाओं की संख्या 42 तक मानी है। शिवबिहारीलाल बाजपेजी ने इनके प्रन्थों की संख्या 45 बतायी है। जहाँ तक इन ग्रंथों की प्रामाणिकता का प्रश्न है, नागरी प्रचारिणी सभा की तुलसी-पन्थावली में तुलसीदास की कुल 12 रचनाएँ संग्रहीत हैं और वे अत्यंत प्रामाणिक जान पड़ती हैं। शेष अन्य रचनाएँ या तो नगण्य हैं या फिर उनका होना या न होना महत्वहीन है। हो सकता है कि तुलसीदास के बाद सम्भवतः कुछ लोगों ने अपनी रचनाओं पर तुलसीदास की मुहर दी हो, परन्तु तुलसी ग्रंथावली में संग्रहीत सभी रचनाएँ पूर्णरूप से प्रामाणिक अन्तः साक्ष्यों एवं बर्हिसाक्ष्यों से पुष्ट हैं। वे बारह रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
(1) गीतावली – सं० 1625 के लगभग
(2) कृष्ण-गीतावली – सं० 1649-50
(3) रामचरितमानस – सं० 1631
(4) विनय-पत्रिका – सं० 1668
(5) दोहावली – सं० 1670-71
(6) जानकी-मङल – सं० 1644
(7) पार्वती-मङ्गल – सं० 1643
(8) रामलला नहछू – ——
(9) वैराग्य-संदीपनी – सं० 1620
(10) रामाज्ञा प्रश्न – सं० 1620-25
(11) कवितावली – सं० 1675-80
(12) बरवैरामायण – सं० 1660
इन रचनाओं के काल-निरूपण पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, रामबहोरी शुक्ल, डॉ० वर्मा एवं डॉ० रसाल आदि ने बहुत विचार किया है। डाँ० माता-प्रसाद गुप्त, पं० राम नरेश त्रिपाठी, मूल गोसाईं चरित के काल-निर्धारण अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं। इनमें पं० रामनरेश त्रिपाठी का काल-निर्धारण अधिक प्रामाणिक कहा जा सकता है इन रचनाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
गीतावली – गीतावली का वर्ण्य विषय रामचरित मानस का ही वर्ण्य विषय है, परन्तु इसके कथा-क्रम में पर्याप्त अन्तर है । यह ग्रंथ गीतात्मक शैली में लिखा गया है। प्रबन्ध का कोई बन्धन कवि ने इसमें स्वीकार नहीं किया है। एक मुक्तककार के रूप में पूरी रामकथा कही गयी है। इसलिए प्रसंगों एवं घटनाओं के वर्णनक्रम एवं विस्तार के अनुपात में कवि ने कोई ध्यान नहीं दिया है। इस ग्रन्थ को भी कांड में विभाजित किया गया है। इसमें वही कांड है जो मानस में हैं। अन्तर इतना है कि मानस का क्रम ‘आध्यात्मिक रामायण’ के अनुसार रखा गया है। बालकांड में 110, अयोध्याकांड में 89, अरण्यकांड में 17, किष्किंधाकांड में 2, सुन्दरकांड में 51, लंकाकांड में 23 और उत्तरकांड में 38 पद या गीत हैं। इसकी भाषा ब्रजभाषा है। इसमें अलंकारों का चातुर्य एवं संगीत की मोहकता है। राग-रागनियों का प्रचुर प्रयोग हुआ है। रस की दृष्टि से तुलसी की यह रचना भी अत्यन्त उत्तम कोटि की है। वात्सल्य एवं शृंगार रस का सुन्दर चित्रण इसमें किया गया है।
कृष्ण गीतावली- इस ग्रंथ में तुलसीदास ने कृष्ण के चरित का गान किया है। गीतावली की तरह यह रचना भी गीत-शैली तथा अनेक राग-रागनियों में विभाजित है । यद्यपि गीतावली जैसी आर्द्रता इसमें नहीं मिलती, तथापि बालक कृष्ण के कुछ वर्णनों को पढ़कर एक आनन्दानुभूति होती है। इसके कुछ पद सूरसागर से मिलते हैं। भाषा भी इनकी बजभाषा है।
रामचरितमानस- रामचरितमानस हिन्दी साहित्य का ही नहीं अपितु भारतीय संस्कृति को पूर्णता प्रदान करने वाला तुलसीदास का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में तुलसीदास के व्यक्तित्व, साहित्य, धर्म, कला, संस्कृति आदि की पूर्णतः लक्षित होती है। इसमें प्रबन्ध-काव्य के सभी लक्षण मिलते हैं। भावपक्ष एवं कलापक्ष का इसमें सुन्दर समन्वय हुआ है। इसके अतिरिक्त इस ग्रंथ से तुलसी की भक्ति, साधना, दर्शन एवं आध्यात्मिक विचारों की पुष्टि होती है। इसकी भाषा अवधी है। प्रबन्ध के रूप में रामचरितमानस की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए आचार्य शुक्ल कहते हैं कि ‘रचना-कौशल’ प्रबन्ध-पटुता, एवं सहृदयता इत्यादि गुणों का समाहार हमें रामचरितमानस में मिलता है।
विनय पत्रिका – प्रस्तुत पंथ में तुलसीदास की विनय भावना का निरूपण हुआ है। दरबारी संस्कृति में दरबार तक पहुँचने के लिए सामान्य व्यक्तियों को दरबान से लेकर सदर तक के आदमियों को प्रसन्न रखना पड़ता है, तब कहीं जाकर वह दरबार तक पहुँचता है। तिस पर भी हाकिम ध्यान दे इसके लिये हाकिम के निकटवर्ती व्यक्ति की सिफारिश करनी पड़ती है। इन्हीं सब बातों का सच्चा निदर्शन विनय-पत्रिका में किया गया है। तुलसीदास जी अपनी विनय पत्रिका अपने आराध्य राम तक पहुंचाना चाहते हैं। इसके लिए वे आरम्भ में अनेक देवी-देवताओं की स्तुति करते हुए उनसे राम के प्रसन्न होने की खुशामद करते हैं। तदुपरान्त हनुमान, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न सबके सामने गिड़गिड़ाते हुए आराध्य राम से सिफारिश करने की प्रार्थना करते हैं। अन्त में माता सीता की स्तुति करते हुए राम के पास पत्रिका पहुँचाने का उपाय भी बता देते हैं-
कबहुँक अम्ब अवसर पाई
मेरियो सुधि द्यावी कखु करुण कथा चलाई।
नाम ले मरे उदर एक प्रभु दासी दास कहाई
अन्ततः तुलसीदास जी की विनय पत्रिका राम दरबार में पहुंच जाती है और आराध्य राम उसे स्वीकृत कर देते हैं। इस तरह तुलसीदास ने अपनी दीनता का द्रावक चित्र सम्पूर्ण विनय पत्रिका में प्रस्तुत किया। वस्तुतः दीनता का यह भाव केवल तुलसी अनुभव कर सकते थे, जिन्हें अपने स्वामी के ऐश्वर्य और अपनी दोनता के प्रति कभी अपमान का अनुभव नहीं होता था। भक्ति एवं दर्शन के स्वरूप के साथ राग-रागनियों की कलात्मक योजना, अलंकार और शब्द शक्ति का अद्भुत उपयोग विनय पत्रिका की अपनी अलग विशेषताएँ हैं। ब्रजभाषा का इतना कोमल रूप अन्यत्र दुर्लभ है।
दोहावली- इस ग्रंथ में दोहों का संग्रह है। बीच-बीच में सुन्दर सोरठे भी हैं। इसमें कुल छन्द संख्या 573 है। सामान्यतया नीति, धर्म भक्ति राम के विविध गुण सज्जनों प्रशंसा खल-निन्दा आदि इन दोहों एवं सोरठों के वर्ण्य विषय हैं।
जानकी मंगल- यह ग्रन्थ राम जानकी विवाह पर मंगल- छन्द में लिखा गया है कुल 216 छन्दों में यह ग्रंथ पूरा हुआ है। राम और जानकी के सौन्दर्य का सुन्दर काव्यमय चित्र इस ग्रन्थ में देखे जा सकते हैं।
पार्वती मंगल- इस ग्रन्थ में मानस के बाल काण्ड में शिव विवाह की जो कथा है उसी को 164 मङ्गल छन्दों में वर्णित किया गया है। ‘जानकी मङ्गल तथा पार्वती मङ्गल’ दोनों ग्रंथों में समानता है। जानकी मंगल में राम विवाह वर्णित है। किन्तु प्रौढ़ता की दृष्टि से विद्वानों ने पार्वती मंगल को अधिक महत्व प्रदान किया है।
रामलला नहछू-हिन्दू घरों में यज्ञोपवीत, विवाह आदि के अवसर पर गाये जाने वाले लोक प्रचलित छन्द सेहर से इस ग्रन्थ की रचना हुई है। चार-चार पंक्तियों के कुल 20 छन्द इसमें है। लोक-जीवन का पूर्ण चित्र उभारने में तुलसीदास जी का यह ग्रंथ अप्रतिभ है। काव्य-सौन्दर्य एवं शैली का ललित्य इसमें सुन्दर बन पड़ा है।
वैराग्य-संदीपनी- यह तुलसीदास की सर्वप्रथम रचना है। इसमें राम-लखन सीता ध्यान एवं राम की महत्ता का वर्णन किया गया है। इसके साथ कर्म की प्रधानता संत-स्वभाव सन्त महिमा और शान्ति महत्व का वर्णन किया गया है। इसमें कुल 62 दोहे और चौपाइयाँ हैं।
रामाज्ञाप्रश्न –तुलसीदास ने रामचरित से सम्बन्धित दोहों को लेकर एक ग्रंथ तैयार किया जिससे जन साधारण को अपने कार्यों की सिद्धि-असिद्धि, शकुन-अपशकुन आदि का पता बिना दक्षिणा दिये चल जाय। चूँकि उस समय समाज में एक अभिशाप एवं निराशा का वातावरण व्याप्त था। सामान्य जनता में जीवन के प्रति निराशा एवं भविष्य के प्रति अनिश्चित आशंका थी । वह सदा अपने भविष्य, ग्रह नक्षत्रों की गति जानने के लिए व्याकुल रहता था। जनता की इस मनोवृत्ति का अधिकाधिक लाभ उस समय फैले हुए अगणित ढोंगी ज्योतिषी, गणितज्ञ, और पण्डित उठा रहे थे। इस दृष्टि से तुलसी का रामाज्ञा प्रश्न नामक ग्रन्थ अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ है। इस ग्रन्थ में सात सर्ग हैं और प्रत्येक सर्ग में सात-सात दोहे हैं। सम्पूर्ण रामचरित इन दोनों में समाविष्ट हो गया है।
कवितावली- तुलसीदास के इस ग्रंथ को प्रबन्धात्मक-मुक्तक की संज्ञा दी जा सकती है इसे भी रामचरित मानस की तरह सात खण्डों में विभाजित किया गया है। इसमें राम की कथा को कविता-शैली में लिखा गया है। इस ग्रंथ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसकी भाषा भावानुरूप है। उसमें कलात्मकता है और अलंकारों का सुन्दर प्रयोग हुआ है। कुल मिलाकर यह ग्रंथ मुक्तकों में श्रेष्ठ कहा जा सकता है।
बरवै रामायण- कुल 69 बरवै छन्दों में ‘मानस’ की पूरी कथा इस ग्रन्थ में वर्णित की गयी है। यह सात कांडों में विभाजित है। बाल काण्ड में 19, अयोध्या में 8, अरण्य में 6, किष्किंधा काण्ड में 2, सुन्दर काण्ड में 6, लंका कांड में 1, और उत्तर काण्ड में 2 बरवै है। कलेवर में छोटा होने पर भी यह ग्रंथ अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
उपर्युक्त परिचय के आधार पर तुलसी काव्य का एक स्पष्ट आभास मिल जाता है। इन ग्रन्थों के रचना- काल पर बहुत अधिक मंचन किया गया है। अनेक मतमतान्तरों के बावजूद रचनाओं का काल इस पुस्तक में लिखे होने के कारण प्रामाणिक मान लिया गया है।
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