हिन्दी साहित्य

तुलसी के प्रबन्ध कौशल | Tulsi’s Management Skills in Hindi

तुलसी के प्रबन्ध कौशल | Tulsi's Management Skills in Hindi
तुलसी के प्रबन्ध कौशल | Tulsi’s Management Skills in Hindi
तुलसी के प्रबन्ध कौशल की व्याख्या कीजिए। 

हिन्दी साहित्य में प्रबन्ध सौष्ठव की दृष्टि से तुलसी का स्थान सर्वोच्च है। ‘रामचरितमानस’ तुलसी की ही नहीं, हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ रचना कही जा सकती है। ‘मानस’ की प्रारम्भिक घोषणाओं से ही सभी बातों का पता चल जाता है। राम के चरित्र में पग-पग पर एक मर्यादा है समाज में उन्हीं मर्यादाओं की व्यावहारिक स्थापना से सुख का विस्तार हो सकता है। समाज क्या चाहता है, अर्थ, धर्म, काम तथा मोक्ष। ‘मानस’ के अन्त में भी तुलसी समाज के उसी ‘शिव’ की याद दिलाते हैं।

रामचरितमानस के प्रथम श्लोक में ही काव्य-शास्त्र के सम्पूर्ण मानदण्ड एकत्र करके प्रतिष्ठित कर दिये गये हैं। ऐसा विचित्र मंगलाचरण अथवा काव्यारम्भ संसार में कहाँ मिलेगा? तुलसी का नाद-सौन्दर्य तथा स्वाभाविक अलंकार विधान प्रभाव की वृद्धि करने वाला है। गीतावली तथा विनयपत्रिका के गेय-पदों में भावों की तन्मयता है। इन ग्रन्थों की रागिनियाँ सामान्य जनता तथा गुणज्ञ गायकों द्वारा बड़ी तन्मयता से गाई जाती हैं।

तुलसी के साहित्य में विचित्र अर्थ-योजना मिलती है। इस अर्थ-योजना में तुलसी की कल्पना-शक्ति अनुभतियों की गहराई तथा अभिव्यंजना का अद्भुत चमत्कार दिखाई देता है। तुलसी की सम्पूर्ण साहित्य भक्ति-रस से सराबोर है। उस रस का वर्ण वही है जो राम का है। अर्थात् ऐसा नीलवर्ण है जो काव्य के सभी रसों के रंग-रंग स्थान-स्थान पर दिखाई देता है। किन्तु अलग कर देने पर उसका वही रूप दिखाई देता है। उस रस में अलौकिक लैकिकता है।

छन्द तथा रीतियों की दृष्टि से तुलसी प्रतिनिध कवि हैं। श्री गौरीशंकर चतुर्वेदी ने लिखा है- आगे चलकर रीति-कवि केशव ने जितने छन्दों के प्रयोग किये उतने किसी ने नहीं किये, क्योंकि ‘रामचन्द्रिका’ में यही उनका उद्देश्य था। परन्तु तुलसी के प्रयोगों में विशेषता है। पहली विशेषता यह है कि ग्रामीण लोक-छन्दों से लेकर रीतिशास्त्रों में वर्णित उन सभी छन्दों के प्रयोग किये जिनके वीरगाथा काल से लेकर उनके समय तक हो चुके थे। दूसरी विशेषता यह है कि प्रसंग तथा भाव के अनुकूल ही उनका प्रयोग किया। मुक्त भावों को गेय पदों में, प्रबन्ध-प्रवाह के लिये दोहे, चौपाई में, वीर तथा भयानक रसों के लिये, छप्पय, कवित्त तथा सवैया में हम उनका कौशल देखते हैं। तुलसी के समान, भाव, भाषा तथा छुन्द की एकाकारता अन्यत्र दुर्लभ है।

तुलसी के सम्पूर्ण साहित्य का एक ही उद्देश्य है और वह है जग-मंगल। वर्ण, अर्थ, रस तथा छन्दादि तो साधन मात्र हैं, जिनके द्वारा उस मंगल का विस्तार किया जा सकता है। तुलसी साहित्य के नायक राम उसी मंगल के अवतार है। संसार में उसी मंगल (शिव) की स्थापना में उन्होंने अपने जीवन को लगा दिया। प्रत्येक अंग की दृढ़ता से ही समाज का संगठित मंगल हो सकता है। व्यक्ति-व्यक्ति में सम्बन्धों की मर्यादा तथा व्यक्ति और संगठन की मर्यादा तुलसी-साहित्य में दर्शनीय है।

चरित्र-निर्माण- पिता-पुत्र, माता-पुत्र, सास-बहू, पिता-पुत्री, माता-पुत्री, गुरू-शिष्य, राजा-प्रजा, यजमान-पुरोहित, स्वामी-सेवक, प्रिय-प्रेमी, भक्त-भगवान, देव-दनुज, मनुज दनुज, श्रोता-वक्ता, साधु-असाधु, गुण-दोष, स्वार्थ-परमार्थ, लोक-परलोक, जीव-ब्रह्म, जीव निर्जीव, ज्ञान-भक्ति आदि के सम्बन्धों तथा मर्यादाओं का जो चित्र तुलसी ने जिस हृदयग्राही रूप में खींचा है, उसके मूल में उनकी मंगल-भावना ही है।

भाषा- तुलसी का मुख्य लक्ष्य था लोक-संग। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भाषा का यह रूप उन्हें परम्परा से प्राप्त नहीं हुआ था, उसका निर्माण तो उन्होंने अपनी शक्ति से किया था। तुलसी की साधना से भाषा को व्यापक अभिव्यंजन शक्ति मिली है। उनकी भाषा कला का साधन है, साध्य नहीं। अवधी तथा ब्रज भाषा में तुलसी ने संस्कृत पदावलियों का पर्याप्त प्रयोग किया है।

छन्द- भावों तथा विचारों की स्वाभाविकता तथा यथार्थ अभिव्यंजना के लिये तुलसी की भाषा, अनुकूल छन्दों तथा शैलियों के वेष में हमारे सामने आती है। स्थूल रूप से यही कहा जा सकता है कि जीवन की गति का आभास छन्दों में रूप का दर्शन भाषा में तथा रागादि गुण शैली में लक्षित होते हैं। सबके भीतर आत्मा एक ही है।

शैली- प्रबन्ध-प्रवाह में चौपाइयों के बाद तुलसी आवश्यकतानुसार दोहों और सोरठों का विधान करते गये हैं। इनके प्रयोग का उद्देश्य विश्राम, नूतन प्रसंग के प्रारम्भ का अवसर, कथा का सार अथवा गम्भीर तत्वों की प्रतिष्ठा करना है। गति तथा लय इनके लिये अनुकूल है। उनकी शैली शुद्ध, परिष्कृत और परिमार्जित है। इसके अतिरिक्त उनकी शैली में पात्रानुकूलता, रसानुरूपता और कथानुरूपता का गुण भी विद्यमान है। आपके साहित्य में वर्णनात्मक, दार्शनिक, चिन्तनात्मक, उपदेशात्मक आदि शैलियों के भी दर्शन होते हैं।

संक्षेप में कह सकते हैं कि मानस कथा- सौष्ठव, प्रसंगानुकूल संवाद, उत्कृष्ट भाव व्यंजना, वस्तु-व्यापार वर्णन और पात्रों का चरित्र-चित्रण अपनी तुलना नहीं करता। वर्णन में कहीं भी शिथिलता लेशमात्र को भी नहीं है तथा प्रासंगिक कथाएँ भी अरूचिकर और लम्बी नहीं होने पाई हैं। कथा को कहाँ बढ़ाना और कहाँ घटाना चाहिए, इन सब बातों में तुलसीदास जी निपुण थे। तुलसी का सम्पूर्ण साहित्य भक्ति-रस में सराबोर है। उस रस का वर्ण वही है जो राम का है अर्थात् ऐसा नीलवर्ण है जो काव्य के सभी रसों के रंग-रंग में स्थान-स्थान पर दिखायी देता है। किन्तु अलग कर देने पर उसका वही रूप दिखायी देता है, उस रस में अलौकिकता है।

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Anjali Yadav

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