दिवालिया की कौन सी परिस्थितियाँ है। दिवाली कार्यवाही को स्पष्ट कीजिए।
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दिवालिया का अर्थ एवं परिभाषा
सामान्य शब्दों में, “कोई भी व्यक्ति जो निम्न दो शर्तें पूरी करता हो, दिवालिया कहा जा सकता है –
(क) उसके दायित्व उसकी सम्पत्ति के मूल्य से अधिक हो, तथा
(ख) अधिनियम द्वारा उसे अपने दायित्वों के भुगतान से मुक्त मिल गयी हो।”
वस्तु विक्रय अधिनियम, 1930 की धारा 2 (8) के अनुसार, “दिवालिया से आशय ऐसे व्यक्ति से है जिसने अपने साधारण व्यापार की प्रगति में अपने ऋणों का भुगतान करना बन्द कर दिया हो अथवा जो अपने ऋणों के देय होने पर चुकाने के असमर्थ रहा हो, चाहे उसने दिवालियापन का कोई कार्य किया है अथवा नहीं।”
इस प्रकार के व्यक्ति दिवालिया तब होगा, जबकि उसकी सम्पत्तियाँ दायित्वों की तुलना में कम हो एवं न्यायालय ने ऐसे व्यक्ति को दिवालिया घोषित कर दिया हो।
दिवालियापन की परिस्थितियाँ
कोई भी व्यक्ति दिवाला कानून के अन्तर्गत दिवालिया तभी घोषित होगा, जबकि वह दिवालिया के कार्य करे। दिवालियापन की परिस्थितियाँ अग्रलिखित कार्यों से उत्पन्न होती हैं-
- यदि ऋणी रु. 500 या अधिक राशि के ऋण का भुगतान करने में असमर्थ है।
- ॠणी द्वारा अपनी समस्त सम्पत्ति के एक बड़े भाग का तीसरे पक्ष को हस्तान्तरण कर दिया जाये ताकि ऋणदाताओं को भुगतान न मिले अथवा विलम्ब से मिले।
- यदि वह अपने लेनदारों को भुगतान स्थगित कर दे या ऐसे इरादे की जानकारी दे।
- अपने ऋणदाताओं को भुगतान करने के बचाव से ॠणी की गाँव, शहर, प्रदेश या देश से बाहर रहना अथवा व्यवसाय के स्थान या अपने निवास स्थान से बाहर रहना अथवा लगातार अनुपस्थित रहना।
- ॠणी का कपटपूर्ण प्राथमिकता का दोषी होना।
- किसी न्यायालय की राशि-शोधन के आदेश के निष्पादन में उसकी सम्पत्ति कुर्क कर ली गयी हो अथवा उसे गिरफ्तार कर लिया गया हो।
दिवाला-कार्यवाही
दिवालिया घोषित किये जाने की विधि को निम्नानुसार सात भागों में बाँटा जा सकता है-
1. प्रार्थना पत्र (Petition)- सर्वप्रथम, स्वयं ऋणी द्वारा अथवा किसी ऋणदाता या ऋणदाताओं द्वारा न्यायालय में ऋणी को दिवालिया अभिनिर्णीत किये जाने के लिए एक प्रार्थना पत्र दिया जाता है। दोनों पक्षकारों को प्रार्थना पत्र हेतु पहल करने की स्थितियाँ निम्नानुसार हैं-
लेनदार द्वारा | स्वयं ॠणी द्वारा |
जबकि वह रु. 500 इससे अधिक का लेनदार हो। | जबकि उस पर रु500 या इससे अधिक राशि का दायित्व हो । |
ऋण, अनुबन्ध द्वारा उसे किसी नियत अवधि अथवा तिथि पर प्राप्य हो लेकिन प्राप्त न हुआ हो। | वह ऋण का भुगतान न कर सकने के कारण जेल में बन्द किया गया हो। |
उसे इस तथ्य का सही प्रमाण ज्ञात हो कि ऋणी की आर्थिक दशा भुगतान न कर सकने की स्थिति में हैं। | ऋणी के लेनदारों को भुगतान करने की क्षमता सतत् घट रही हो। |
ॠणी द्वारा दिवालियापन का कोई कार्य, ऋणदाता के आवेदन पत्र प्रस्तुत करने की तिथि से 3 माह पूर्व किया गया हो। | ॠणी की सम्पत्ति पर डिक्री के सम्बन्ध में कुर्की का आदेश (Attachment Order) न्यायालय द्वारा जारी किया गया हो। |
पीड़ित पक्षकारों से प्राप्त आवेदन पत्रों के अवलोकन के पश्चात् दिवाला सम्बन्धी सुनवाई न्यायालय करता है।
2. अभिनिर्णयन का आदेश (Order of Adjudication) – दोनों पक्षकारों को प्रारम्भिक कार्यवाही हेतु प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों के अनुसार सुनवाई एवं बचाव के लिए पर्याप्त अवसर न्यायालय द्वारा प्रदान किया जाता है। न्यायालय असन्तुष्ट होने पर आवेदन पत्र निरस्त कर सकता है। अथवा ऋणी को दिवालिया न्याय निर्णीत (Adjudicate) करने हेतु प्रस्तुत साक्ष्यों एवं प्रमाणों के आधार पर दिवालिया का आदेश देता है।
3. संरक्षण आदेश (Protection Order) – साधारणतः न्यायालय द्वारा दिवालिया को संरक्षण आदेश भी दे दिया जाता है जिसका प्रभाव यह होता है कि-
(i) दिवालिया को किसी भी ऋण के सम्बन्ध में गिरफ्तार या कारावास में नजरबन्द नहीं किया जा सकता;
(ii) यदि दिवालिया पहले से ही कैद में हो तो उसे मुक्ति प्राप्त का अधिकार मिल जाता है।
4. सम्पत्तियों की वसूली (Realisation of Assets)- न्यायालय द्वारा नियुक्त अधिकारी (सरकारी आदाता अथवा निस्तारक) ऋणी की सम्पत्ति से वसूली की कार्यवाही आरम्भ कर देता है। इस कार्य में सहायता हेतु वह वकील या एजेण्ट की नियुक्ति भी कर सकता है। अधिकारी द्वारा दिवालिया की सम्पत्तियों में निम्नलिखित को सम्मिलित नहीं किया जाता है- (i) ऐसी सम्पत्ति जो दिवालिया के अधिकार में किसी अन्य व्यक्ति के ट्रस्टी के रूप में है। (ii) दिवालिया के व्यवसाय के उपकरण तथा दिवालिया के पहनने के कपड़े, बिस्तर, भोजन बनाने के बर्तन आदि जिनका मूल्य रु.300 तक हो सकता है।
5. लेनदारों से प्रमाण (Proof by Creditors)- ऋणी द्वारा अभिनिर्णयन का आदेश प्राप्त हो जाने के बाद, उसके लेनदार या ऋणदाता उन्हें देय ॠण इत्यादि की राशि दिवाला कार्यवाही के अन्तर्गत सिद्ध कर सकते हैं। यदि कोई लेनदार या ऋणदाता ऐसा करने में असफल रहता है तो ऋणी की मुक्ति के बाद वह उसके लिए वाद प्रस्तुत नहीं कर सकता।
6. सम्पत्ति का वितरण (Distribution of Assets)- दिवालिया की सम्पत्ति से रोकीकृत हुई राशि का वितरण निम्नानुसार किया जाता है-
(i) पूर्णतः रक्षित लेनदारों को भुगतान; (ii) अंशतः रहित लेनदारों को भुगतान; (iii) रोकीकरण व्यय एवं निस्तारक के पारिश्रमिक का भुगतान; (iv) पूर्वाधिकारी लेनदारों को भुगतान; (v) अरक्षित लेनदारों को भुगतान।
उपर्युक्त सभी भुगतानों के पश्चात् यदि कोई राशि शेष रह जाती है तो वह दिवालिया व्यक्ति को हस्तान्तरित कर दी जाती है।
7. मुक्ति आदेश (Discharge Order)- यदि न्यायालय समस्त आवश्यक बातों के सम्बन्ध में सन्तुष्ट हो जाता है तो उसके द्वारा ऋणी को मुक्ति का आदेश प्रदान कर दिया जाता है। मुक्ति का आदेश मिल जाने के बाद ऋणी (दिवालिया) अपने समस्त दायित्वों से मुक्त हो जाता है और पुनः नये रूप में अपना व्यापार प्रारम्भ कर सकता है।
भारत में दिवालिया सम्बन्धी अधिनियम
भारत में दिवालिया सम्बन्धी दो अधिनियम प्रचलित हैं :
(1) प्रान्तीय दिवालिया अधिनियम (1909)- मुम्बई, कलकत्ता और चेन्नई को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में लागू होता है।
(2) प्रेसीडेन्सी टाउन्स दिवालिया अधिनियम (1920)- जो सिर्फ मुम्बई, कलकत्ता और चेन्नई महानगरों में ही लागू होता है।
यदि प्रश्न में दिवालिया के स्थान का उल्लेख न हो तो प्रान्तीय दिवालिया अधिनियम लागू होगा।
इन दोनों अधिनियमों में प्रमुख अन्तर निम्नानुसार है-
अन्तर का आधार | प्रेसीडेन्सी टाउन्स दिवालिया अधिनियम | प्रान्तीय दिवालिया अधिनियम |
वर्ष | भारत में यह अधिनियम सन् 1909 में पारित हुआ। | भारत में यह अधिनियम सन् 1920 में पारित हुआ। |
क्षेत्र | यह अधिनियम मुम्बई, कलकत्ता एवं चेन्नई में ही लागू होता है। | यह अधिनियम मुम्बई, कलकत्ता एवं चेन्नई को छोड़कर शेष भारत में लागू होता है। |
सरकारी अधिकारी | इस अधिनियम के अन्तर्गत नियुक्त सरकारी अधिकारी को ‘सरकारी आदाता’ कहा जाता है। | इस अधिनियम के अन्तर्गत नियुक्त सरकारी अधिकारी को ‘निस्तारक’ कहा जाता है। |
पूर्वाधिका. री लेनदार | इस अधिनियमके अन्तर्गत (क) केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार व स्थानीय सत्ता को देय कर, (ख) कारखाना अधिनियम, कर्मचारी क्षतिपूर्ति अधिनियम अथवा अन्य अधिनियम के अन्तर्गत देय धनराशि, (ग) याचिका प्रस्तुत करने की तिथि के पूर्व चार माह के अन्तर्गत दिवालिया के यहाँ की गयी सेवाओं के सम्बन्ध में लिपिक का वेतनजो रु. 300 से अधिक न हो तथा प्रत्येक मजदूर के लिए रु. 100 से अधिक न हो, (घ) भूस्वामी का एक माह का किराया, पूर्वाधिकारी लेनदार माने जाते हैं। | इस अधिनियम के अन्तर्गत (क) केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार व स्थानीय सत्ता को देय कर, (ख) वैधानिक दायित्व, (ग) याचिका प्रस्तुत करने के पूर्व के चार माह के अन्तर्गत दिवालिया के यहां की गयी सेवाओं के सम्बन्ध में किसी लिपिक कर्मचारी या मजदूर का वेतन या मज दूरी को प्रत्येक के लिए रु.20 से अधिक न हो, पूर्वाधिकारी लेनदार माने जाते हैं। |
मुक्त सम्पत्तियाँ | इस अधिनियम के अन्तर्गत दिवालिया व उसके परिवार को कपड़े, बर्तन आदि रु. 300 तक दिवालिया की सम्पत्ति में सम्मिलित नहीं होते। | इसमें ऐसी सम्पत्तियाँ सम्मलित नहीं की जाती जो दीवानी प्रक्रिया संहिता के अनुसार कुर्की से मुक्त हों। |
छोटा दिवालिया | इस अधिनियम में दिवालिया की सम्पत्ति का मूल्य रु. 3000 से अधिक न होने की सम्भावना होने पर दिवालिया को छोटा दिवालिया माना जाता है। | इसमें यह राशि रु. 500 से अधिक नहीं होती। |
क्षेत्र – प्रेसीडेन्सी टाउन्स दिवाला अधिनियम तथा प्रान्तीय दिवाला अधिनियम एक व्यक्ति, फर्म, हिन्दू अभिभाजित परिवार तथा व्यक्तियों के ऐसे समुदायों पर लागू होते हैं जिसका पंजीयन अनिवार्य न हो। ये अधिनियम संयुक्त पूंजी कम्पनियों (निगमों) तथा अवयस्कों पर लागू नहीं होते।
दिवाला अधिनियमों के गुण एवं दोष
गुण या लाभ (Merits)-
(1) इन अधिनियमों से ऋणी के स्वाभिमान की रक्षा होती है।
(2) इन अधिनियमों के अन्तर्गत समस्त सम्पत्तियों पर सरकारी अधिकार होने के लेनदारों के हितों की रक्षा होती है।
(3) इन अधिनियमों से व्यापार को प्रोत्साहन मिलता है।
(4) इन अधिनियमों का लाभ प्राप्त करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति अपने लेखे सुचारु. रूप से रखता है तथा लेखे वास्तविक आर्थिक स्थिति प्रकट करते हैं।
(5) इन अधिनियमों से मुक्ति प्राप्त होने पर ऋणी पुनः अपना नया व्यापार प्रारम्भ कर सकता है।
दोष या हानियाँ (Demerits) –
(1) इन अधिनियमों से व्यक्तियों में छल-कपट एवं बेईमानी की भावना जागृत होती है।
(2) इसमें लेनदारों (उत्तमणों) को पूर्ण राशि प्राप्त नहीं हो पाती।
(3) इन अधिनियमों के सहारे बहुत से अयोग्य व्यक्ति भी व्यापार प्रारम्भ कर व्यापार की प्रगति में बाधा पहुँचाते हैं।
उपर्युक्त दोष दिवाला अधिनियम के नहीं वरन् व्यक्तियों के स्वयं के कार्यों से उत्पन्न होते हैं। अतः वर्तमान में इन अधिनियमों की उपयोगिता नहीं भुलाई जा सकती है।
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