राजनीति विज्ञान / Political Science

नागरिकों के मौलिक अधिकार- अर्थ, आवश्यकता एवं महत्व, विशेषताएँ, स्थगन तथा आलोचना

नागरिकों के मौलिक अधिकार
नागरिकों के मौलिक अधिकार

नागरिकों के मौलिक अधिकार (Fundamental Rights of Citizens)

व्यक्ति और राज्य के आपसी सम्बन्धों की समस्या सदैव से ही बहुत अधिक जटिल रही है और वर्तमान की प्रजातंत्रीय व्यवस्था में इस समस्या ने विशेष महत्व प्राप्त कर लिया है। यदि एक ओर शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के लिए नागरिकों के जीवन पर राज्य का है नियन्त्रण आवश्यक है तो दूसरी ओर राज्य की शक्ति पर भी कुछ ऐसी सीमाएँ लगा देना आवश्यक है जिससे राज्य मनमाने तरीके से आचरण करते हुए व्यक्तियों की स्वतंत्रता और अधिकारों के विरुद्ध कार्य न कर सके। मौलिक अधिकार, व्यक्ति स्वातंत्र्य और अधिकारों के हित में राज्य की शक्ति पर प्रतिबन्ध लगाने के श्रेष्ठ उपाय हैं।

प्रो. एम. वी. पायली के शब्दों में, “मौलिक अधिकार एक ही समय पर शासकीय शक्ति से व्यक्ति स्वातंत्र्य की रक्षा करते हैं और शासकीय शक्ति द्वारा व्यक्ति स्वातंत्र्य को सीमित करते हैं। इस प्रकार मौलिक अधिकार व्यक्ति और राज्य के बीच सामंजस्य स्थापित कर राष्ट्रीय एकता और शक्ति में वृद्धि करते हैं।”

मौलिक अधिकार का अर्थ (Meaning of Fundamental Right)

वे अधिकार जो व्यक्ति के जीवन के लिए मौलिक तथा अनिवार्य होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किये जाते हैं और जिन अधिकारों में राज्य द्वारा भी हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता, मौलिक अधिकार कहलाते हैं।

व्यक्ति के इन अधिकारों को निम्नांकित रूप में मौलिक अधिकार कहा जाता है। प्रथम, व्यक्ति के पूर्ण मानसिक, भौतिक और नैतिक विकास के लिए ये अधिकार बहुत आवश्यक हैं। इनके अभाव में उनके व्यक्तित्व का विकास रुक गायेगा। इसलिए लोकतंत्रात्मक राज्य में प्रत्येक नागरिक को बिना किसी भेद-भाव के मौलिक अधिकार प्रदान किये जाते हैं। इन अधिकारों को मौलिक कहने का द्वितीय, कारण यह है कि इन्हें देश की मौलिक विधि अर्थात् संविधान में स्थान दिया जाता है और साधारणतया संवैधानिक संशोधन की प्रक्रिया के अलावा इसमें और किसी प्रकार से परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। गोपालन बनाम मद्रास राज्य के विवाद में मुख्य न्यायाधीश पातंजलि शास्त्री ने कहा था, “मौलिक अधिकारों की मुख्य विशेषता यह है कि वे राज्य द्वारा पारित विधियों से ऊपर हैं।” तृतीय, मौलिक अधिकार साधारणतया अनुल्लंघनीय है अर्थात् व्यवस्थापिका, कार्यपालिका या बहुमत दल द्वारा उनका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है। चतुर्थ, मौलिक अधिकार न्याय-योग्य (Justiciable) होते हैं अर्थात् न्यायपालिका इन अधिकारों की रक्षा के लिए सभी आवश्यक कदम उठा सकती है।

मौलिक अधिकार : आवश्यकता एवं महत्व (Fundamental Rights: Necessity and Importance)

मौलिक अधिकार भारतीय संविधान की एक प्रमुख व्यवस्था । किसी भी सभ्य व स्वतंत्र राष्ट्र में मौलिक अधिकार अत्यावश्यक हैं।

लास्की के अनुसार, “किसी राज्य द्वारा प्रदत्त अधिकार ही उसकी श्रेष्ठता की जाँच करने के की कसौटी है। अदिकार लोकतंत्रीय शरीर में रक्तवाहिनी धमनियों के समान होते हैं। यह व्यक्तित्व के विकास की आवश्यक दशायें होती हैं। इसलिए वर्तमान समय में लगभग सभी श्रेष्ठ संविधानों में मौलिक अधिकारों का वर्णन किया जाता है। “

संक्षेप में मौलिक अधिकारों की आवश्यकता एवं महत्व इस प्रकार है-

(1) राज्य का अस्तित्व नागरिकों का हित साधन करने के लिए ही होता है। अतः राज्य द्वारा ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए जो नागरिकों के व्यक्तित्व का विकास करने में सहायक हो सके।

(2) भारत का संविधान लोकतंत्रात्मक संविधान है और लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में शासन जनता द्वारा चलाया जाता है। अतः स्वतंत्र निर्वाचन आदि बातों के लिए जनता को संघ बनाने, मत देने, विचार व्यक्त करने आदि की स्वतंत्रता मिलनी आवश्यक है। मौलिक अधिकारों की व्यवस्था होने से नागरिक अपनी इस स्वतंत्रताओं का वास्तविक रूप में उपभोग कर सकते हैं।

(3) भारत का जनमत इस बात के पक्ष था कि मौलिक अधिकारों को संविधान में स्थान दिया जाये।

(4) भारतीय संविधान में अन्य देशों के संविधानों की तरह मौलिक अधिकारों का समावेश किया जाना नितान्त आवश्यक था।

मौलिक अधिकारों की विशेषताएँ (Characteristics of Fundamental Rights)

भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

(1) भारतीय संविधान में अन्य संविधानों की अपेक्षा मौलिक अधिकारों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।

(2) मौलिक अधिकारों को दो व्यक्तियों केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों और स्थानीय संस्थाओं के आघात से पूर्णतया सुरक्षित कर दिया गया है।

(3) केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकारें मौलिक अधिकारों का विरोध करने वाले कानूनों को नहीं बना सकती है।

(4) राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक सुरक्षा, नैतिकता एवं जन-हित की दृष्टि से मौलिक  अधिकारों पर कुछ प्रतिबन्ध भी लगाये गये हैं।

(5) संविधान लागू होने से पूर्व वे सभी कानून जो मौलिक अधिकारों के विरुद्ध थे, अवैध घोषित कर दिये गये।

(6) सर्वोच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों का संरक्षक बनाया गया है।

संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार (Fundamental Rights Granted by the Constitution)

भारतीय संविधान द्वारा भारतीय नागरिकों को निम्नलिखित 7 मौलिक अधिकार प्रदान किये गये थे, किन्तु 44 वें संवैधानिक संशोधन (1979) द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में समाप्त कर दिया गया है। अब सम्पत्ति का अधिकार केवल एक कानूनी अधिकार के रूप में है। इस प्रकार अब भारतीय नागरिकों को निम्न 6 मौलिक अधिकार प्राप्त हैं-

(1) समानता का अधिकार, (2) स्वतंत्रता का अधिकार, (3) शोषण के विरुद्ध अधिकार, (4) धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, (5) संस्कृति तथा शिक्षा सम्बन्धी अधिकार, (6) संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

(1) समानता का अधिकार

समता प्रजातंत्र के तत्वों में से एक महत्वपूर्ण तत्व है जिस राज्य में नागरिकों के समता के अधिकार का सिद्धान्त स्वीकृत नहीं किया जाता है वहाँ प्रजातंत्र शासन का अभाव है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए इस सिद्धान्त को भारतीय राजनीतिक भवन की शिलाधार माना गया। संविधान के चौदहवें, पन्द्रहवें, सोलहवें, सत्रहवें व अठारहवें अनुच्छेदों में समता सम्बन्धी अधिकारों की व्याख्या की गई है। इसके अनुसार हमारे संविधान में भारत के समस्त नागरिकों को समान अधिकारों से सुशोभित किया है। यह अधिकार केवल नागरिकों को ही प्राप्त नहीं, वरन् अनागरिकों को भी प्राप्त हैं। संविधान ने दलित वर्ग के लिए कुछ स्थान कुछ समय के लिए अवश्य सुरक्षित किये हैं। संविधान ने यह अवधि केवल दस वर्ष तक की निश्चित की थी। यदि राष्ट्रपति इस अवधि में वृद्धि करना चाहे तो उनको ऐसा करने का अधिकार संविधान ने प्रदान किया है। बाद में यह अवधि 20 वर्ष हो में गई। वर्तमान में इसे सन् 2010 तक बढ़ा दिया गया है। इस शीर्षक के अन्तर्गत नागरिकों को निम्नलिखित समानता पाने का अधिकार है

(i) कानून के समक्ष समानता (अनुच्छेद 14) — अनुच्छेद 14 के अनुसार, भारत के राज्य क्षेत्र में राज्य किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या कानून के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।

(ii) सामाजिक एकता- कानून के समक्ष समानता के साथ-साथ अनुच्छेद 15 में कहा गया है कि “राज्य के द्वारा धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर नागरिकों के प्रति जीवन के किसी क्षेत्र में भेद-भाव नहीं किया जायेगा।”

(iii) अवसरों की समानता-अनुच्छेद 16 के अनुसार, “सब नागरिकों को सरकारी पद पर नियुक्ति के समान अवसर प्राप्त होंगे और इस सम्बन्ध में केवल धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर सरकारी नौकरी या पद प्रदान करने में भेदभाव नहीं किया जायेगा। इसके अन्तर्गत राज्य को यह अधिकार है कि वह राजकीय सेवाओं के लिये आवश्यक योग्यताएँ निर्धारित कर दे।”

(iv) अस्पृश्यता का निषेध (अनुच्छेद 17)- सामाजिक समानता को और अधिक पूर्णता देने के लिए अस्पृश्यता का निषेध किया गया है। अनुच्छेद 17 में कहा गया है कि “अस्पृश्यता से उत्पन्न किसी अयोग्यता का लागू करना एक दण्डनीय अपराध होगा।”

(v) उपाधियों का निषेध (अनुच्छेद 18)- ब्रिटिश शासनकाल में सम्पत्ति आदि के आधार पर उपाधियाँ प्रदान की जाती थीं, जो सामाजिक जीवन में भेद उत्पन्न करती थीं। अतः नवीन संविधान में इनका निषेध कर दिया गया है। अनुच्छेद 18 में व्यवस्था की गयी है कि “सेना अथवा विद्या सम्बन्धी उपाधियों के अलावा राज्य अन्य कोई उपाधियाँ प्रदान नहीं कर सकता।” इसके साथ ही भारतवर्ष का कोई नागरिक बिना राष्ट्रपति की आज्ञा के विदेशी राज्य से भी कोई उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता।

(2) स्वतंत्रता का अधिकार

अनुच्छेद 19-22 मूल संविधान के अनुच्छेद 19 द्वारा नागरिकों को 7 स्वतंत्रताएँ प्रदान की गयी थीं और इनमें छठी स्वतंत्रता ‘सम्पत्ति की स्वतंत्रता’ थी। 44वें संवैधानिक संशोधन द्वारा सम्पत्ति के मौलिक अधिकार के साथ-साथ ‘सम्पत्ति की स्वतंत्रता’ भी समाप्त कर दी गयी है और अब नागरिकों को 6 स्वतंत्रताएँ ही प्राप्त हैं।

(i) विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता- भारत के सभी नागरिकों को विचार व्यक्त करने, भाषण देने और अपने तथा अन्य व्यक्तियों के विचारों के प्रचार की स्वतंत्रता प्राप्त है। विचारों के प्रचार का एक साधन होने के कारण इसी में प्रेस की स्वतंत्रता भी शामिल है।

(ii) अस्त्र-शस्त्र रहित तथा शान्तिपूर्वक सम्मेलन की स्वतंत्रता- व्यक्तियों द्वारा अपने विचारों के प्रचार के लिये शान्तिपूर्वक और बिना किन्हीं शस्त्रों के सभा या सम्मेलन किया जा सकता है तथा उनके द्वारा जुलूस या प्रदर्शन का आयोजन भी किया जा सकता है।

(iii) समुदाय और संघ के निर्माण की स्वतंत्रता- संविधान के द्वारा सभी नागरिकों को समुदायों और संघ के निर्माण की स्वतंत्रता प्रदान की गयी है, परन्तु यह स्वतंत्रता भी उन प्रतिबन्धों के अधीन है, जिन्हें राज्य साधारण जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए लगा सकता है।

(iv) भारत राज्य क्षेत्र में अबाध भ्रमण की स्वतंत्रता- भारत के सभी नागरिक बिना किसी प्रतिबन्ध या विशेष अधिकार पत्र के सम्पूर्ण भारत के क्षेत्र में घूम सकते हैं।

(v) भारत राज्य क्षेत्र में अबाध निवास की स्वतंत्रता- भारत के सभी नागरिक अपनी इच्छानुसार स्थायी या अस्थायी रूप से भारत में किसी भी स्थान पर बस सकते हैं।

(vi) वृत्ति, उपजीविका या कारोबार की स्वतंत्रता- संविधान में सभी नागरिकों को वृत्ति, उपजीविका, व्यापार अथवा व्यवसाय की स्वतंत्रता प्रदान की है, किन्तु राज्य जनता के हित में इन स्वतंत्रताओं पर उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है।

(vii) अपराध की दोष सिद्धि के विषय में संरक्षक (अनुच्छेद 20)– अनुच्छेद 20 में कहा गया है कि “किसी व्यक्ति को उस समय तक अपराधी नहीं ठहराया जा सकता जब तक कि उसने अपराध के समय में लागू किसी कानून का उल्लंघन न किया हो।” इसके साथ ही एक अपराध के लिए व्यक्ति को एक ही बार दण्ड दिया जा सकता है और किसी अपराध में अभियुक्त व्यक्ति को स्वयं अपने विरुद्ध गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

(viii) व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा जीवन की सुरक्षा (अनुच्छेद 21) — अनुच्छेद 21 में जीवन के अधिकार को मान्यता प्रदान की गयी है। इसमें कहा गया है कि “किसी व्यक्ति को उसके प्राण तथा दैहिक स्वाधीनता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर अन्य किसी प्रकार से वंचित नहीं किया जा सकता।”

(ix) बन्दीकरण की अवस्था में संरक्षण (अनुच्छेद 22)–अनुच्छेद 22 के द्वारा बन्दी बनाये जाने वाले व्यक्ति को कुछ अधिकार प्रदान किये गये हैं। इसमें कहा गया है कि उसके अपराध के बारे में अथवा बन्दी बनाने के कारणों को बतलाये बिना किसी व्यक्ति को अधिक समय तक बन्दीगृह में नहीं रखा जायेगा। उसे वकील से परामर्श करने और अपने बचाव के लिये प्रबन्ध करने का अधिकार होगा तथा बन्दी बनाये जाने के बाद 24 घण्टे के अन्दर अन्दर (इसमें बन्दीगृह से न्यायालय तक जाने का समय शामिल नहीं है) उसे निकटतम न्यायाधीश के सामने उपस्थित किया जायेगा ।

निवारक निरोध— अनुच्छेद 22 के खण्ड 4 में निवारक निरोध की चर्चा की गयी है और यह भारतीय संविधान की सबसे अधिक विवादास्पद धारा है। यद्यपि संविधान में निवारक निरोध की परिभाषा नहीं दी गयी है. फिर भी यह कहा जा सकता है कि निवारक निरोध का तात्पर्य वास्तव में, किसी प्रकार का अपराध किये जाने से पूर्व और बिना किसी प्रकार की न्यायिक प्रक्रिया के ही नजरबन्दी है। निवारक निरोध का उद्देश्य व्यक्ति को अपराध के लिए दण्ड देना नहीं, वरन् उसे अपराध करने से रोकना है।

(3) शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 और 24)

अनुच्छेद 23 के द्वारा बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य जबरदस्ती लिया हुआ श्रम निषिद्ध ठहराया गया है, जिसका उल्लंघन विधि के अनुसार दण्डनीय अपराध है।

बाल श्रम का निषेध-अनुच्छेद 24 में कहा गया है कि 14 वर्ष से कम आयु वाले किसी में बच्चे को कारखानों, खानों या अन्य किसी जोखिम भरे काम पर नियुक्त नहीं किया जा सकता, लेकिन बच्चों को अन्य प्रकार के कार्यों में लगाया जा सकता है।

(4) धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करते हैं।

(i) अन्तःकरण की स्वतंत्रता- अनुच्छेद 25 में कहा गया है कि सार्वजनिक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबन्धों के अधीन रहते हुए सभी व्यक्तियों को अन्तःकरण की स्वतंत्रता तथा कोई भी धर्म अंगीकार करने, उसका अनुसरण एवं प्रचार करने का अधिकार प्राप्त होगा। सिक्खों द्वारा कृपाल धारण करना और लेकर चलना धार्मिक स्वतंत्रता का अंग माना जाता है।

(ii) धार्मिक मामलों का प्रबन्ध करने की स्वतंत्रता- अनुच्छेद 26 प्रत्येक धर्म के अनुयायियों को-

(क) धार्मिक संस्थाओं तथा दान से स्थापित सार्वजनिक सेवा संस्थाओं की स्थापना तथा उनके पोषण ।

(ख) धर्म सम्बन्धी निजी मामलों का स्वयं प्रबन्ध ।

(ग) चल और अचल सम्पत्ति के अर्जन और स्वामित्व ।

(घ) उक्त सम्पत्ति का विधि के अनुसार संचालन करने का अधिकार प्रदान करता है।

(iii) धार्मिक व्यय के लिए निश्चित धन पर कर की अदायगी से छूट-अनुच्छेद 27 में कहा गया है कि राज्य किसी भी व्यक्ति को ऐसे कर देने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है जिसकी आय किसी विशेष धर्म अथवा धार्मिक सम्प्रदाय की उन्नति या पोषण में व्यय करने के लिए विशेष रूप से निश्चित कर दी गयी हो।

(iv) राजकीय शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा निषिद्ध- भारत राज्य का स्वरूप धर्म-निरपेक्ष राज्य है, जिसके अन्तर्गत धार्मिक क्षेत्र में निष्पक्ष रहना है। अतः अनुच्छेद 28 में कहा गया है कि “राजकीय निधि से संचालित किसी भी शिक्षण संस्था में किसी प्रकार की धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं की जायेगी।”

(5) संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार (अनुच्छेद 29 और 30)

हमारे संविधान के द्वारा भारत के सभी नागरिकों को संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी स्वतंत्रता का अधिकार भी प्रदान किया गया है। अनुच्छेद 29 के अनुसार, “नागरिकों के प्रत्येक वर्ग को अपनी भाषा, लिपि या संस्कृति सुरक्षित रखने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। “

अनुच्छेद 30 के अनुसार, धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना तथा उनके प्रशासन का अधिकार होगा। यह भी व्यवस्था की गयी है कि शिक्षण संस्थाओं को अनुदान देने में राज्य इस आधार पर भेद-भाव नहीं करेगा कि वे धर्म या भाषा पर आधारित किसी अल्पसंख्यक वर्ग के अधीन है।

(6) संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)

संविधान में मौलिक अधिकारों के उल्लेख से अधिक महत्वपूर्ण बात उन्हें क्रियान्वित करने की व्यवस्था है, जिसके बिना मौलिक अधिकार अर्थहीन सिद्ध होंगे।

डॉ. अम्बेदकर ने कहा था, “यदि कोई मुझसे यह पूछे कि संविधान का वह कौन सा अनुच्छेद है जिसके बिना संविधान शून्य प्रायः हो जायेगा, तो इस अनुच्छेद (अनुच्छेद 32) छोड़कर मैं और किसी अनुच्छेद की ओर संकेत नहीं कर सकता। यह तो संविधान का हृदय तथा आत्मा है।”

सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए निम्न पाँच प्रकार के लेख जारी किये जा सकते हैं-

(i) बन्दी प्रत्यक्षीकरण– व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिये यह लेख सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यह उस व्यक्ति की प्रार्थना पर जारी किया जाता है जो यह समझता है कि उसे अवैध रूप से बन्दी बनाया गया है। इसके द्वारा न्यायालय, बन्दीकरण करने वाले अधिकारी को आदेश देता है कि वह बन्दी बनाये गये व्यक्ति को निश्चित समय और स्थान पर उपस्थित करे, जिससे न्यायालय बन्दी बनाये जाने के कारणों पर विचार कर सके ।

(ii) परमादेश- परमादेश का लेख उस समय जारी किया जाता है जब कोई पदाधिकारी अपने सार्वजनिक कर्त्तव्य का निर्वाह नहीं करता।

(iii) प्रतिषेध– यह आज्ञापत्र सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों द्वारा निम्न न्यायालयों तथा अर्द्ध-न्यायिक न्यायाधिकरणों को जारी करते हुए आदेश दिया जाता है कि इस मामले में अपने यहाँ कार्यवाही स्थगित कर दें, क्योंकि यह मामला उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है।

(iv) उत्प्रेरण- यह आज्ञापत्र अधिकांशतः किसी विवाद को निम्न न्यायालय से उच्च न्यायालय में भेजने के लिये जारी किया जाता है जिससे वह अपनी शक्ति से अधिक अधिकारों का उपयोग न करे या अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते हुए न्याय के प्राकृतिक सिद्धान्तों को भंग न करे।

(v) अधिकार पृच्छा- जब कोई व्यक्ति ऐसे पदाधिकारी के रूप में कार्य करने लगता है, जिसके रूप में कार्य करने का उसे वैधानिक रूप से अधिकार नहीं है तो न्यायालय अधिकार पृच्छा के आदेश द्वारा उस व्यक्ति से पूछता है कि वह किस आधार पर इस पद पर कार्य कर रहा है।

मौलिक अधिकारों का स्थगन (Suspension of Fundamental Rights)

साधारणतया संसद, कार्यपालिका अथवा राज्यों की विधानसभायें नागरिकों के मौलिक अधिकारों को स्थगित नहीं कर सकती हैं परन्तु कुछ विशेष परिस्थितियों में उनको स्थगित किया जा सकता है। ये विशेष परिस्थितियाँ निम्नलिखित हैं-

(1) संविधान में संशोधन करने पर- यदि भारतीय संसद संविधान में संशोधन कर देती है तो नागरिकों के मौलिक अधिकारों में कमी की जा सकती है अथवा उनका अन्त किया जा सकता है। सन् 1972 के संशोधन अधिनियम द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सीमित कर दिया गया है।

(2) रक्षित सेना में भर्ती होने पर- संविधान ने भारतीय संसद को यह अधिकार दिया है कि वह इस बात को निश्चित कर सकती है कि सेना या सार्वजनिक शान्ति की सुरक्षा करने वाली सेनाओं में किस सीमा तक मौलिक अधिकारों के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाये। ये प्रतिबन्ध केवल सार्वजनिक हित की दृष्टि से ही लगाये जा सकते हैं ताकि सेना पूर्ण अनुशासित रहकर देश की रक्षा कर सके। संसद के इस कार्य का विरोध न्यायालय नहीं कर सकते हैं।

(3) सेना विधि लगे हुए क्षेत्रों में- भारतीय संसद को संविधान ने यह अधिकार दिया है कि वह किसी क्षेत्र में विशेष परिस्थिति में सेना विधि को लागू कर दे। ऐसी स्थिति में उस क्षेत्र के नागरिक अपने मौलिक अधिकारों का प्रयोग नहीं कर सकते। उस क्षेत्र का न्यायालय सैनिक न्यायालय कहलाता है और वह सेना विधि का उल्लंघन करने वालों को दण्ड देता है।

(4) संकटकालीन परिस्थितियों में- जब देश में आन्तरिक अशान्ति या विद्रोह उठ खड़ा होता है अथवा देश पर किसी विदेशी शत्रु का आक्रमण होता है, तब राष्ट्रपति संकटकालीन परिस्थितियों की घोषणा कर सकता है। इस परिस्थिति में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का अन्त कर दिया जाता है और राष्ट्रपति के आदेश द्वारा संकटकाल समाप्त होने पर ये मौलिक अधिकार नागरिकों को पुनः प्रदान कर दिये जाते हैं।

मौलिक अधिकारों की आलोचना (Criticism of the Fundamental Rights)

(1) आलोचकों का कहना है कि हमारे संविधान में मौलिक अधिकारों का उल्लेख तो व्यापक रूप में कर दिया है, परन्तु उन पर प्रतिबन्ध लगाकर उनकी वास्तविक उपयोगिता को समाप्त कर दिया है। एक हाथ से संविधान मौलिक अधिकार देता है, परन्तु प्रतिबन्धों के द्वारा उन्हें सीमित करके दूसरे हाथ से छीन लेता है।

(2) भारत के संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों को स्थगित और सीमित करने की जो व्यवस्था है, उसे प्रजातन्त्रवाद अनुरूप नहीं माना जा सकता।

(3) कुछ विद्वानों का मत है कि भारत के संविधान में जहाँ मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है, वहाँ कर्तव्यों के कि भारत होनस भी अनिवार्य था, किन्तु हमारा संविधान कर्त्तव्यों के बारे में मौन है परतु अब यह व्यवस्था है।

(4) मौलिक अधिकारों में समता के अधिकार का उद्देश्य विषमता का निवारण है, परन्तु आलोचकों का कहना है कि आर्थिक समता के अभाव में सारी समता व्यर्थ है

(5) नजरबन्दी कानून भी मौलिक अधिकारों पर एक बहुत बड़ा प्रतिबन्ध है । संविधान द्वारा नागरिकों को जो स्वतन्त्रता सम्बन्धी अधिकार दिये गये हैं, उन सब पर इस कानून के द्वारा पानी फेर दिया गया है। इस कानून का प्रयोग सरकार अपने राजनीतिक विरोधियों को गिरफ्तार करने के लिये कर सकती है। आपातकाल में सरकार द्वारा इसका व्यापक रूप से प्रयोग इसका प्रमाण है।

(6) हमारे मूलाधिकारों की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसमें अन्य समाजवादी देशों द्वारा अपने नागरिकों को प्रदत्त ‘काम करने के अधिकार’ (Right to work) को सम्मिलित नहीं किया गया है।

निष्कर्ष–उपरोक्त आलोचनाओं में यद्यपि सत्य का अंश निहित है, परन्तु फिर भी हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा, यदि नागरिक अपने अधिकारों के लिये जागरूक रहते हैं, तो उनके अधिकारों का अतिक्रमण सरलता से नहीं हो सकता। हमारे देशवासियों में लोकतान्त्रिक परम्पराओं तथा प्रवृत्तियों के प्रति आस्था का अभाव है। साथ ही देश में पृथकतावादी, साम्प्रदायिक एवं विघटनकारी तत्वों के करण मूलाधिकारों के उन्मुक्त उपभोग की स्वतन्त्रता देने से प्रजातन्त्र के लिये खतरा उपस्थित हो सकता है। इसीलिये इन्हें निरपेक्ष नहीं रखा गया ।

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Anjali Yadav

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