पद्मावत के आधार पर जायसी की प्रेम भावना का परिचय दीजिए।
सूफी कवियों का सर्वस्व प्रेम है। वहाँ प्रेम ही कर्म है, प्रेम ही धर्म है, प्रेम हो पंथ है, प्रेम ही मंत्र है और प्रेम ही परमात्मा है। एक प्रकार से सम्पूर्ण सूफी काव्य का मूलाधार प्रेम ही है। जायसी ने प्रेम की व्याख्या करते हुए लिखा है-
‘झान दिस्ट सो जाय पहुँचा। प्रेम अदिस्ट गगन ते ऊंचा ।
ध्रुव ते ऊंचे प्रेम धुव ऊआ सिर देइ पाँव देइ सो छुआ ।।’
जिसके हृदय में प्रभु का प्रेम जापत हो जावे, उस व्यक्ति को प्रति-क्षण सावधान रहने की आवश्यकता है उसके मार्ग में काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अवरोधक बन कर खड़े होते हैं-
उपजी प्रेम पीर जेहि होई। परबोधन होई अधिक सो आई ।।
पद्मावत में भी जायसी ने इसी प्रेम की महत्ता को चित्रित किया है-
‘मानुष प्रेम भयउ बैकुंठी। नाहित काह छारि भरि मूठी ।।
विक्रम धंसा प्रेम के वारा सपनवति कह गयउ पतारा ।।
मधू पीछ मृगधावति लागा। गगन पूर होगा बैरागा ||
जायसी ने कान्ता रति अथवा मधुर भाव की साधना को अपने काव्य का आधार बनाया है। साधक प्रभु से मिलने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहता है-
“बसे मीन जल धरती अम्बा बसे अकास।
जो जाही को भावता सो ताही के पास ।।’
परन्तु प्रेमरसता के दर्शन सबको सहज ही प्राप्त नहीं होते हैं, प्रभु जिसके हृदय को प्रेम के बाणों से वेध देता है, केवल उसी को प्रेम की यह अनुभूति होती है-
‘कठिन प्रेम चिनगी विधि मेला’
संसार का कण-कण प्रभु प्रेम के बाणों से विधा हुआ है, बिना प्रियतम से मिले मानव को आनन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती है-
‘उन बानन्ह अस को न मारा।
वेधि रहा सगरी संसारा ।।’
धरति गगन वेधि सव साखी सारखी ठाढ़ देहि सब साखी।
गगन नखत जो नाहि न गर्ने। ये सब बान ओहिं के हने।।’
जायसी ने अपने अन्य ग्रन्थ ‘चित्रलेखा’ में तो स्पष्ट शब्दों में प्रेम और विरह की प्रधानता का चित्रण किया है-
‘जब लगि विरह व सोइ तन, हिये न उपजड़ प्रेम।
तब लगि हाथ न आव तप, करम, धरम, सत नेम ॥
अर्थात् हृदय में विरह का उत्पन्न होना परम आवश्यक है। ‘पद्मावत’ की सम्पूर्ण कथा का केन्द्र-बिन्दु ‘प्रेम’ ही है, इसीलिए जायसी की स्पष्टोक्ति है-
‘पेम पिलाया पंथ लखावा। आपु चाखि मोहि बूँद चखावा ।।’
‘पेम पिलाया जिन्ह पिया, किया पेम चिम बंध
साँचा मारग जिन लिया, तजि झूठा जग धंध ।।’
हीरामन तोते भी प्रेम की महानता का उपदेश रत्नसेन को देता है-
‘पेम सुनत मन भूल न राजा। कठिन पेम सिर देइ जो छाजा।
पेम फाँद सो परा न छूटा। जीउ दीन्ह बहु फाँद न छूटा।।’
राजा रत्नसेन पद्मावती के रूप में सौन्दर्य को सुनकर मूर्च्छित हो जाता है, प्रेम का प्रभाव भी अनन्त है, इसके मर्म को पूर्ण रूपेण जान सकने में कोई समर्थ्य नहीं हो सका है। प्रेम का घाव जिस हृदय में लगता है वही उसकी तीव्रता व प्रभाव को समझ सकने में समर्थ हो सकता है। यद्यपि प्रेम मार्ग दुर्गम, कठिन और पीड़ा देने वाला है, परन्तु प्रेम की वेदना में ही सुख व अमृत का स्रोत भी छिपा हुआ है, सच्चे प्रेम को प्राप्त करने में वही व्यक्ति समर्थ होता है, जो प्रेम के लिए मृत्यु से भी अधिक पीड़ा सहने को तत्पर हो-
‘भलेहि प्रेम है कठिन दुहेला। दुइ जग तरा प्रेम जेइ खेला ।।
दुख भीतर जो प्रेम मधु राखा। जग नहि मरन सहैं जो चाखा ॥
जो नहि सीस प्रेम पथ लावा। सो प्रिथिवी महुँ काह के आवा।
अब मैं पथ प्रेम सिर मेला। पाँव न ठेलु राखि कै चेला ॥
पेम-बार सो कहैं जो देखा। जो न देख न जान विसेखा ।।
ती लगि दुख पीतजम नहि भेंटा। मिलै तौ बाइ जनम दुख मेटा ।।’
प्रेम का प्रारम्भिक रूप वासनात्मक होता है किन्तु साधक अनवरत प्रयत्नशील रहता है और अन्त में वह विरह की अग्नि में जलकर ‘कंचन’ की भांति कोटिमान हो जाता है। इसीलिए पद्मावती हीरामन तोता से कहती है कि मैं उससे (रत्नसेन) शीघ्र ही मिल सकती हूँ परन्तु अभी उसे प्रेम के मार्ग का सच्चा ज्ञान नहीं है अतः अभी उसे और प्रेम की पीर में पक्का होने दो तभी उससे भेंट होगी-
‘पै सो परमु न जानै मोरा। जाने प्रीति जोअरि कै जोरा ।।
हौं जानति हौं अबही काँचा ना वह प्रीति रंग चिर राँचा ।।
ना वह भय मलयगर बासा। ना वह रवि होइ चढ़ा अकासा ।।
ना वह भयउ भौर के रंगू ना वह दीपक भयउ पतंग ||
कै ना वह करा भृंग के होई ना वह आप मरा जिउ खोई ।।”
प्रेम के मार्ग का जो पथिक है, उसके लिए यह आवश्यक है कि उसका हृदय पवित्र हो। पाप-युक्त हृदय से प्रभु का भेट नहीं हो सकती है अतः महादेव जी ने रत्नसेन को उपदेश दिया था-
कहेसि न रोव बहुत तै सेवा अब ईसर भा दारिद खोवा ।
अब तै सिंघ भपि सिद्ध पाई। दरपन दया छूट गई काई ॥
कही बात अब ही उपदेशी । लागू पथ भूल परदेशी ।।
जो प्रेम मार्ग का पथिक है, उसके हृदय में फिर किसी भी प्रकार का क्रोध, ईर्ष्या, हिंसा का भाव नहीं होना चाहिये, वह उदार और सरल बन जाता है-
गुरु कहा चेला सिंध होहू। पेम-बार होइ करहु न कोहु ।।
गा कह सीस जाइ कै दीजै। रंग न होई ऊभै जो कीजै ।।
जेहि जीउ पेमपानि भा कोई। जेहि रंग मिले ओहि रंग होई ।।
जो पे जाड़ पेप सौ जूझा। कित तप मरहिं खिद्ध जो बूझा ॥
‘सीस दीन्ह में अगमन पेम पानि सिर मेलि।
अब सों प्रीति निबाहों, चलौ सिद्ध होइ खेलि ॥’
जायसी के अनुसार विरह की चिनगारी सबके हृदय में नहीं उत्पन्न होती है-
‘मुहम्मद जिगनी पेम कै, सुनि महिं गगन डराइ
धनि विरही औ धनि हिया, तह अस अगिनि समाइ ।’
विरह ज्वाला बड़ी दाहक भी है-
‘जग महँ कठिन खरग के धारा ।
तेहि ते अधिक विरह के झारा।
निष्कर्ष स्वरूप हम कह सकते हैं कि प्रेम-पीर के साधनात्मक जीवन-दर्शन का जैसा काव्यात्मक निरूपण पद्मावत में है। वैसा शायद ही हिन्दी के किसी काव्य में हुआ हो।
IMPORTANT LINK
Disclaimer: Target Notes does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: targetnotes1@gmail.com