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पुरुषत्व एवं नारीत्व से क्या अभिप्राय है ? इसके गुण एवं आवश्यकता | What do you mean by Masculine and Feminine? its merits and needs

पुरुषत्व एवं नारीत्व से क्या अभिप्राय है ? इसके गुण एवं आवश्यकता | What do you mean by Masculine and Feminine? its merits and needs
पुरुषत्व एवं नारीत्व से क्या अभिप्राय है ? इसके गुण एवं आवश्यकता | What do you mean by Masculine and Feminine? its merits and needs

पुरुषत्व एवं नारीत्व से क्या अभिप्राय है ?  What do you mean by Masculine and Feminine? 

बालक तथा बालिकायें ही भविष्य में जाकर पुरुष तथा स्त्रियाँ बनते हैं। मनुष्य जब जन्म लेता है तो वह शिशु जन्म से पूर्व गर्भावस्था में भ्रूण के रूप में जाना जाता है जन्म के पश्चात् शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था तथा प्रौढ़ावस्था इत्यादि अवस्थायें आती हैं। जन्म के पश्चात् लिंग के आधार पर वे बालक तथा बालिकायें कहलाते हैं और लिंगीय गुण भी हमें देखने को प्राप्त होते हैं। बालक तथा बालिकाओं की रुचियाँ, रहन-सहन, पसन्द और नापसन्द पर उनके लिंगीय गुणों का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, परन्तु यहाँ पर वे सामान्य रूप से एक-दूसरे के साथ खेलते हैं और अन्य क्रिया-कलाप करते हैं । किशोरावस्था की देहलीज पर कदम रखने के साथ-ही-साथ बालकों और बालिकाओं के बाल-सुलभ गुण तथा खेल-कूद गायब होने लगते हैं। अब उनकी रुचियाँ और एक-दूसरे के प्रति व्यवहार में परिवर्तन आने लगता है। यह अवस्था बालकों तथा बालिकाओं दोनों के लिए तूफान की तरह की होती है, क्योंकि उनमें शारीरिक तथा हार्मोन्स सम्बन्धी परिवर्तन बड़ी ही तेजी से होते हैं। ये परिवर्तन बालकों की अपेक्षा बालिकाओं में शीघ्र प्रारम्भ होते हैं ।

पुरुषत्व के गुण अब बालक में आने लगते हैं और बालिकाओं में नारीत्व के । पुरुषत्व तथा नारीत्व इस प्रकार वह स्थिति है या विकास की अवस्था है जब लिंगाधारित सोच, प्रकृति तथा शारीरिक बनावट में स्पष्टता आने लगती है।

पुरुषत्व एवं नारीत्व के गुण एवं आवश्यकता (Merits and Needs of Masculine and Faminies)

पुरुषत्व तथा नारीत्व के कुछ गुण होते हैं जो निम्न प्रकार हैं-

1. पुरुषत्व के गुण – पुरुषत्व के गुण निम्न प्रकार हैं-

(i) पुरुषों में पाई जाने वाली गम्भीरता का आ जाना ।

(ii) श्रेष्ठता का भाव आना ।

(iii) पारिवारिक दायित्वों का बोध ।

(iv) शारीरिक परिवर्तन |

(v) आवाज में गम्भीरता का आना ।

(vi) पुरुषों में पाई जाने वाली रुचियों का विकास ।

(vii) सांवेगिक कठोरता तथा मानसिक दृढ़ता।

(viii) निर्णय शक्ति का विकास ।

(ix) पारिवारिक विषयों में हस्तक्षेप ।

(x) विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण तथा उनकी सुरक्षात्मक जिम्मेदारी की भावना ।

इस प्रकार पुरुष के गुणों से तात्पर्य ऐसे गुणों से है जो सामान्यतः पुरुषों में अधिकता से पाये जाते हैं।

आवश्यकता – पुरुषत्व की भावना की आवश्यकता समाज के लिए क्या है, इसका निरूपण निम्नवत् है—

(i) सृष्टि की प्रक्रिया हेतु ।

(ii) स्त्री यदि कोमल है तो उसके विपरीत पुरुष को कठोर होना पड़ेगा, अत: पुरुषत्व आवश्यक है।

(iii) पुरुषत्व के द्वारा ही पुरुषों में जोखिम उठाने की प्रवृत्ति पनपती है जिससे नये-नये क्षेत्रों में विकास तथा आर्थिक विकास को गति प्राप्त होती है।

(iv) पुरुषत्व की भावना के द्वारा बालक परिवार और समाज का जिम्मेदार नागरिक बनता है, अत: यह आवश्यक है।

(v) पुरुषत्व की भावना के द्वारा उत्तरदायित्व के बोध का विकास होता है।

(vi) स्त्रियों के प्रति सम्मान और सुरक्षा की सुनिश्चितता का भाव जाग्रत कराने हेतु ।

(vii) विभिन्न प्रकार के क्रिया-कलापों के सम्पादन हेतु

(viii) पुरुषत्व के द्वारा सामाजिक व्यवस्था अबाध रूप से चलती रहती है।

नारीत्व के गुण – पुरुषत्व और नारीत्व कोई अवस्था न होकर एक भाव है जो एक आयु के पश्चात् बालक तथा बालिकाओं में लिंग के आधार पर पनपने लगता है। इस आयु में अपने आप ही शारीरिक तथा मानसिक परिवर्तन होने लगते हैं और नारीत्व के निम्नांकित गुणों को किसी भी बालिका में सहज रूप से देखा जा सकता है-

  1. नारी सुलभ लज्जा ।
  2. बनावटी – बुंगार के प्रति आकर्षण ।
  3. मातृत्व तथा दया का भाव ।
  4. खेल – कूद के प्रति रुचि का कम होना
  5. संकोच का भाव
  6. शारीरिक परिवर्तन ।
  7. वाणी में मिठास
  8. पुरुषों से दूरी रखना या शर्म का भाव, परन्तु विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण ।
  9. चंचलता का कम होना ।
  10. गम्भीर होना, बोलने में, चलने में भी परिवर्तन ।
  11. घरेलू कार्यों में हाथ बँटाना
  12. स्त्री सुलभ कार्यों के प्रति आकर्षण

इस प्रकार नारीत्व के गुणों के द्वारा बालिका नारी होने के गौरव को प्राप्त करती नारी होना स्वयं में गौरव की बात है, क्योंकि नारियाँ करुणा, मातृत्व, दया, प्रेम तथा सहयोग की प्रतिमूर्ति समझी जाती है। उनकी आकृति और वेश-भूषा तो मनोरम होती ही है, साथ-ही-साथ उनकी वाणी तथा स्वभाव में भी पुरुषों की अपेक्षा अधिक मिठास और प्रेम होता है। इसी से ईश्वर से सृजन की प्रक्रिया में गर्भ धारण करने हेतु धैर्य तथा शिशु के पालन-पोषण और परिवार को एकजुट करने की जिम्मेदारी नारियों को दी गयी है।

आवश्यकता — स्त्री तथा पुरुष इन दोनों ही धुरियों के इर्द-गिर्द सम्पूर्ण सृष्टि है । यदि स्त्री न होती तो पुरुष न होते और पुरुष न होते तो स्त्रियाँ न होतीं । इस प्रकार दोनों के मध्य अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । यदि गुणों की दृष्टि से देखा जाये तो स्त्री और पुरुष के गुणों में विरोधाभास । एक कोमल, दया तथा प्रेममयी निर्झर है तो पुरुष कठोर, बौद्धिक निर्णय सम्पन्न पाषाण है । परन्तु जब ये दोनों मिलते हैं तभी तो सृजन होता है। इनके विपरीत गुणों के कारण ही सृष्टि प्रक्रिया अविरल गति से चल रही है। इनकी आवश्यकता का आकलन अग्र बिन्दुओं के अन्तर्गत प्रस्तुत किया जा रहा है-

  1. सृष्टि प्रक्रिया के सुचारु रूप से क्रियान्वयन हेतु ।
  2. मानवता तथा प्रेम हेतु ।
  3. जीव की सृष्टि, धारण तथा पालन-पोषण हेतु ।
  4. श्रेष्ठ संततियों को तैयार करने हेतु ।
  5. विश्व शान्ति तथा अवबोध की स्थापना के लिए ।
  6. पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन हेतु ।
  7. त्याग, करुणा तथा मातृत्व से मनुष्य का परिचय हीन हो जाता यदि नारीत्व न होता ।
  8. सभ्य समाज के निर्माण के लिए ।
  9. पुरुषों को आत्मिक बल प्रदान करने हेतु ।
  10. सांस्कृतिक संरक्षण तथा हस्तान्तरण हेतु ।

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Anjali Yadav

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