‘पृथ्वीराज रासो’ प्रामाणिकता के पक्ष तथा विपक्ष में विद्वानों के तर्क प्रस्तुत करते हुए अपना मत प्रस्तुत कीजिए ।
‘पृथ्वीराज रासो’ की प्रामाणिकता
‘क्या ‘रासो’ एक जाली ग्रन्थ है- विद्वानों का एक वर्ण रासो को पूर्णतया जाली ग्रन्थ मानता है। इन विद्वानों में डॉ. बूलर का स्थान महत्वपूर्ण है। डॉ. वूलर के हाथ पृथ्वीराज विजय की खण्डित प्रति लगी और उसकी प्रामाणिकता प्राचीन अभिलेख से सिद्ध हुई, तभी से रासो जाली माना जाने लगा। ‘रासो’ को जाली ग्रन्थ मानने वालों में प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता साहित्य वाचस्पति गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का नाम विशेष महत्व का हैं। ‘रासो’ को प्रामाणिक मानने में ओझा जी को सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि उसमें अनेक इतिहासिक त्रुटियाँ हैं जो ‘पृथ्वीराज विजय’ प्राचीन शिलालेखों में सिद्ध हो जाती है। ‘रासो’ में दिए गए अधिकांश नाम और घटनाएँ इतिहास से मेल नहीं खाते। पृथ्वीराज की माता का नाम, माता का वंश, पुत्र का नाम, सामन्तों के नाम गत हैं। ‘रासो’ में परमार, चालुक्य, चौहान अग्विशी माने गये हैं-शिलालेखों व प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर वे सूर्यवंशी ठहरते हैं, अग्निवंशी की कल्पना पीछे की गई और इसका श्रेय रासो को है। ‘रासो’ में चौहानों की वंशावली, पृथ्वीराज के निकट के पूर्वजों के नाम भी शिलालेखों और पृथ्वीराज विजय से भिन्न हैं। उसमें पृथ्वीराज को दिल्ली के तोमर राजा अनंगपाल का दोहित्र और उसके यहाँ गोद जाना लिखा है। पृथ्वीराज की माता अनंगपाल की पुत्री नहीं थी वे कलचुरी वंश की थी। ‘रासो’ में जयचन्द को अनंगपाल का दौहित्र और राठौर वंशीय कहा है, किन्तु शिलालेखों में सर्वत्र गहरवार लिखे गये हैं। पृथ्वीराज रासो की अनैतिहासिकता के प्रकरण में ओझा जी संयोगिता स्वयंवर तथा जयचन्द और पृथ्वीराज की शत्रुता को भी कपोल कल्पित बतलाते हैं। ‘रासो’ के अनुसार गुजरात का राजा भीमसेन पृथ्वीराज के हाथों मारा गया, किन्तु शिलालेखों के अनुसार वह पृथ्वीराज के बहुत समय बाद तक जीवित रहा। ‘राम्रो’ के अनुसार शहाबुद्दीन को पृथ्वीराज ने तीर मारा, किन्तु ऐतिहासिक तथ्य यह है कि वह सन् 1203 में गक्करों के हाथों में मारा गया। इसी प्रकार ‘रासो’ के अनुसार पृथ्वीराज की पुत्री पृथाकुंवरि की शादी चित्तौड़ के राजा समरसिंह से हुई, किन्तु इतिहास के अनुसार समरसिंह पृथ्वीराज के बाद हुए।
त्रुटियों का समाधान – ओझा जी की बात हुई ऐतिहासिक प्रांतियों का समाधान करने का प्रयत्न मिश्रबन्धु करते हैं। उनके अनुसार ‘राम्रो’ में ये त्रुटियाँ कल्पना के आधिक्य एवं अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन से आ गई है। आचार्य डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘राम्रो’ की लिखित घटनाओं को ऐतिहासिक सिद्ध करने के प्रयत्न बन्द कर देना ही उचित समझा है। प्रसिद्ध ऐतिहासिक लेखकों (जैसे- डॉ. बुलर, मारिसन, गौरीशंकर हीरानन्द ओझा, मुंशी देवी प्रसाद आदि) ने इसकी ऐतिहासिक त्रुटियों को पूर्णतया सिद्ध कर दिया है।
दूसरी आपत्ति – ओझा जी की दूसरी आपत्ति ‘रासो’ की तिथियों के सम्बन्ध में है। ‘रासो’ पृथ्वीराज का जन्म सम्वत् 1115 तथा मृत्यु सम्बत् 1158 दिया है। इतिहास से यह क्रमशः सम्वत् 1220 और सम्वत् 1248 सिद्ध होता है। इस प्रकार की तिथियों की भान्ति का परिहार करने का ही कुछ विद्वानों ने प्रयत्न किया है। पं. मोहनलाल विष्णुलाल पाण्ड्या ने ‘रासो’ तथा इतिहास की तिथियों में सर्वत्र 90 वर्ष का अन्तर पाया है। और इसलिए उन्होंने ‘अनन्द सम्वत् की कल्पना करके नन्दवंशीय शूद्र राजाओं के राजत्व काल के 90 वर्षों को पटाकर ‘रासो’ की तिथियों को प्रामाणिक सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। किन्तु वास्तविकता यह है कि ऐसा करने पर भी ‘रासो’ की तिथियों इतिहास से मेल नहीं खातीं।
ओझा जी की तीसरी आपत्ति यह है कि ‘रासो’ में प्रायः दस प्रतिशत शब्द अरबी-फारसी के हैं। इस प्रकार ‘रासो’ की भाषा चन्द के समय की न होकर 16वीं शताब्दी की है।
समाधान- ओझा जी के इस मत के विरुद्ध मिश्रबन्धु दो कारण देते हैं-पहली बात तो यह है कि भारत पर उस काल से बहुत पहले ही मुसलमानों के आक्रमण शुरू हो गये थे। सिद्धान्त और मुलतान पर उनका अधिकार हो चुका था। चन्द लाहौर का रहने वाला था, अतः उसकी बाल्यावस्था में ही अरबी-फारसी के शब्द उसके मस्तिष्क में प्रवेश करने लगे थे। दूसरे ‘रासो’ बहुत-सा भाग प्रक्षिप्त है। अतः परवर्ती काल में मुसलमानी आतंक के साथ भाषा और अरबी-फारसी भाषा का आतंक होना भी स्वाभाविक है। इसीलिए प्रक्षिप्त अंकों में और भी मुसलमानी शब्द आ जाने से ‘रासो’ में दस प्रतिशत शब्द अरबी-फारसी के हैं।
ओझा जी की चौथी आपत्ति भाषा में अनुस्वारान्त शब्दों की अधिकता के सम्बन्ध में है। ‘राम्रो’ की भाषा का स्वरूप 16वीं शती का प्रतीत होता है। इसकी डिंगल भाषा में जो कहीं-कहीं प्राचीनता का आभास होता है, वह तो ‘डिंगल’ की विशेषता है।
इसलिए ओझा जी का मत है कि चन्द पृथ्वीराज का समकालीन नहीं था, ‘रासो’ की रचना वि.सं. 1600 के आस-पास हुई है।
इस प्रकार ‘रासो’ की प्रामाणिकता पर दो पक्ष हो गये हैं। एक पक्ष इसे पूर्णतया जाली ग्रन्थ मानता है और पृथ्वीराज के दरबार में चन्द का अस्तित्व तथा ‘रासो’ को पृथ्वीराज की समकालीन रचना भी नहीं मानता। इस पक्ष के समर्थकों में डॉ. बूलर, मारिसन, कविराज श्यामलदास, कविराज, मुरारिदीन, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, मुंशी देवी प्रसाद तथा रामचन्द्र शुक्ल प्रभृति विद्वान् हैं। पहले तो आचार्य पं. रामचन्द्र शुक्ल, बाबू श्यामसुन्दरदास से सहमत होकर इसे प्रक्षेपों से पूर्ण प्रामाणिक ग्रन्थ मानते थे किन्तु अन्त में उन्हें विश्वास हो गया कि वह जाली है। तब उन्होंने लिखा- “इस सम्बन्ध में इसके अतिरिक्त और कुछ कहने की जगह नहीं कि यह ग्रन्थ पूरा जाली है। यह हो सकता है कि उसमें इधर-उधर चन्द के कुछ पद्य बिखरे हों। पर उनका ता लगाना असम्भव है। यदि यह किसी समसामयिक कवि का रचा होता और इसमें कुछ थोड़े अंश ही पीछे से मिले होते तो कुछ घटनाएँ और सम्वत् तो ठीक होते । “
‘रासो’ एक प्रामाणिक रचना है !
डॉ. श्यामसुन्दरदास प्रभृति विद्वान्- दूसरा पक्ष ‘रासो’ के वर्तमान रूप में प्रक्षिप्त अंश मानकर उसे प्रामाणिक रचना मानने वालों का है। इस मत के समर्थकों में बाबू श्यामसुन्दरदास, मथुरा प्रसाद दीक्षित, पं. मोहन लाल विष्णुलाल पण्ड्या, श्री मिश्रबन्धु, कर्नल टॉड प्रभृति विद्वान् हैं। इन्होंने विभिन्न तर्क देकर रासो को प्रामाणिक ग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, जैसे पाण्ड्या जी की ‘अनन्द सम्वत्’ की कल्पना । श्यामसुन्दरदास का कहना है कि चन्द पृथ्वीराज का राजदरबारी कवि था, किन्तु ‘मूल रासो’ समयानुसार भाषा और वर्णित विषय विकृत हो गए हैं। वस्तुतः उनकी राय का पुष्ट आधार प्रतीत नहीं होता।
रासो के चार रूपान्तन उपलब्ध- अब तक ‘रासो’ के चार रूपान्तर प्राप्त हुए हैं। इनमें सबसे बड़ा काशी नागरी प्रचारिणी सभा वाला संस्करण है। दूसरी प्रति बीकानेर के जैन भण्डार में है। तीसरा लघु रूपान्तर है, जिनकी तीन प्रतियाँ बीकानेर राज के अनूप संस्कृत पुस्तकालय में तथा एक श्री अगरचन्द नाहटा के पास है। चौथा रासो का लघुतम संस्करण है, इसमें लगभभा 2000 छन्द हैं। इसे ही नाहटा जी ने खोज निकाला है। कुछ विद्वान इस लघुतम रूपान्तर को ‘मूल राम्रो’ मानते हैं। यहाँ डॉ. दशरथ शर्मा की खोजों का उल्लेख करना भी अप्रासंगिक न होगा। उन्होंने रासो को अप्रामाणिक बताने वाले विद्वानों के मत का खण्डन किया है और उनके द्वारा निरूपित त्रुटियों का सतर्क समाधान प्रस्तुत किया है। उनके तर्क इस प्रकार हैं-
1. ‘मूल रासो’ न तो जाली ग्रन्थ है और न उसकी रचना सं. 1600 के आसपास हुई थी। इधर मिली हुई ‘राम्रो’ की लघुतम प्रतियों के आधार पर ऐतिहासिक एवं भाषा सम्बन्धी त्रुटियों का परिहार हो जाता है। इस प्रति में इतिहास विषयक त्रुटिपूर्ण घटनाओं का उल्लेख प्रायः नहीं मिलता है।
2. राजपूत कुलों की आबू के अग्निकुण्ड से उत्पत्ति का बीकानेर की प्रति में वर्णन नहीं है। उसमें केवल इतना लिखा है कि-बह्मा के यज्ञ से वीर चौहान मानिकराम उत्पन्न हुए। सुर्जन चरित्र, हम्मीर काव्य और पुष्कर तीर्थ में भी यह कथा इसी प्रकार है।
3. बीकानेर की लघुतम प्रति में जो वंशावली दी हुई है, वह प्रायः ‘पृथ्वीराज विजय’ से मिलती-जुलती है। ओझा जी द्वारा अशुद्ध बताई ‘वृहद रासो’ में वर्णित पृथ्वीराज की वंशाली का इसमें अभाव है।
4. अनंगपाल और पृथ्वीराज के सम्बन्ध की अशुद्धि इस प्रति में भी ज्यों की त्यों है। शर्मा जी इसका कोई उचित समाधान नहीं कर सके ।
5. संयोगिता स्वयंवर सभी प्रतियों में है। लघुतम प्रति में केवल इच्छिनी के विवाह का ही वर्णन है।
6. पृथा के विवाह तथा शहाबुद्दीन, समरसिंह और भीम तथा सोमेश्वर आदि के युद्धों का भी लघुतम कृति में उल्लेख नहीं है।
7. लघुतम कृति में कैमास वध का वर्णन है। ‘पृथ्वीराज-विजय’ के अनुसार वह पृथ्वीराज का प्रधान था। यह ‘मूल रासो’ की कथा है।
डॉ. शर्मा की खोज भी ‘रासो’ को प्रामाणिक सिद्ध न कर सकी। उनके पास पृथ्वीराज का अनंगपाल का नाती होते तथा इच्छिनी के विवाह का प्रमाण नहीं है। इसके अतिरिक्त संयोगिता स्वयंवर तथा चौहानों की उत्पत्ति भी सन्देहास्पद है।
‘रासो’ एक अर्द्ध-प्रामाणिक रचना है !
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी- ‘पृथ्वीराज रासो’ की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में आधुनिकतम और सबसे अधिक ठोस मत आचार्य डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी का है। उन्होंने लिखा है- “इस काल (आदिकाल) की कुछ रचनाएँ ऐसी भी हैं, जिन्हें हम अर्द्ध-प्रामाणिक कह सकते हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘पृथ्वीराज रासो’ है।” डॉ. द्विवेदी जी के अनुसार ‘रासो’ को घटनाओं को ऐतिहासिक सिद्ध करना व्यर्थ है। इसका अपना महत्व है। मुनि जिन-विजय जी ने ‘पुरातन प्रबन्ध संग्रह में चन्द के नाम से जो चार छप्पय प्रकाशित किये हैं, वे ‘वतामान रासो में भी विकृत रूप में विद्यमान है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि ‘वर्तमान रासो’ में चन्द के कुल मूल छन्द मिले हुए हैं। ‘रासो’ में डा. द्विवेदी जी ने आदिकालीन काव्य-रूपों को ढूँढने का स्तुल्य प्रयत्न किया है। उनका कहना है कि ‘रासो का अध्ययन करने के बाद 9वीं और 10वीं शताब्दी में प्रचलित कथाओं के लक्षण और काव्य रूपों को ध्यान में रखकर देखने में ऐसा लगता है कि यद्यपि चन्द के मूल वचनों की खोज लेना अब भी कठिन हैं, किन्तु उसमें क्या-क्या वस्तुएँ और कौन-कौन-सी कथायें थीं, इस बात का पता लगा लेना उतना कठिन नहीं है। आगे उन्होंने ‘राम्रो’ के संवाद की प्रवृत्ति की चर्चा करते हुएउसकी तत्कालीन विद्यापति डॉ द्विवेदी जी ने ‘सन्देशरासक’ से की है। उनका मत है कि वीर रस की प्रधानता होने के कारण चन्द ने छप्पय छन्दों का अधिक प्रयोग किया था।
इस दृष्टि से विचार करने पर ‘रासो’ के निम्नलिखित प्रसंग प्रामाणिक जान पड़ते हैं-
1. आरम्भिक अंश, 2. इच्छिनी विवाह, 3. शशिव्रत का गन्धर्व विवाह, 4. तोमर पाहार का शहाबुद्दीन को पकड़ना, 5. संयोगिता का जन्म, विवाह तथा इच्छिनी और संयोगिता की प्रतिद्वन्द्विता और समझौता ।
भाषा और छन्द- डॉ. द्विवेदी जी ने इन प्राणिक अंशों की भाषा के सहज-प्रभाव की चर्चा करते हुए कहा है, उनमें चन्दवरदाई ऐसे सहज प्रफुल्ल कवि के रूप में दृष्टिगत होते हैं जो विषम परिस्थितियों से भी जीवन रस खींचते रहते हैं। वे केवल कल्पना विलासी कवि ही नहीं, निपुण मन्त्र दाता के रूप में भी सामने आते हैं।” ‘पृथ्वीराज रासो’ में सभी प्राचीन कथानक रूढ़ियों का सुन्दर व्यवहार हुआ है। ‘रासो’ में कवि छप्पय छन्द में अधिक सफल हुआ है। वैसे उसने संस्कृत और प्राकृत के श्लोक लिखने का भी प्रयास किया है। (रासो में संस्कृत के नाटक या श्लोक छन्द और प्राकृत के गाहा (गाथा) छन्द के उदाहरण मिलते हैं)। भाषा की दृष्टि से ‘रासो’ नए घुमाव की सूचना देता है। इसमें तद्भव शब्दों में अनुसार लगाकर संस्कृत का पुट देने की तत्कालीन प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं। रासो की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में डॉ. द्विवेदी जी का निष्कर्ष इस प्रकार है, “रासो एकदम जाली पुस्तक नहीं है। इसमें बहुत अधिक प्रक्षेप होने से उनका रूप विकृत जरूर हो गया है, पर इस विशाल ग्रन्थ में कुछ सार भी अवश्य है। इसका मूल रूप निश्चय ही साहित्य और भाषा के अध्ययन की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण होगा। परन्तु जब तक कोई पुरानी हस्तलिखित प्रति नहीं मिल जाती तब तक उसके विषय में कुछ कहना कठिन ही होगा। फिर भी मेरा अनुमान है कि उस युग की काव्य-प्रवृत्तियों और काव्य-रूपों के अध्ययन से हम ‘राम्रो’ के मूल रूप का सन्धान पा सकते हैं।” द्विवेदी जी ‘रासो’ को बारहवीं शताब्दी की रचना मानते हैं, क्योंकि भाषा शास्त्र की दृष्टि से इसमें ‘माम्य- अपभ्रंश’ (अधिक अग्रसर हुई भाषा) का रूप मिलता है। ‘रासो’ एक चरित काव्य तो है ही, वह ‘रासो’ या ‘रासक’ काव्यभी है। पूर्ववर्ती अपभ्रंश के चरित काव्यों में इसकी परम्परा ढूंढ़ी जा सकती है।
निष्कर्ष – ‘रासो’ की प्रामाणिकता का प्रश्न अत्यन्त विवादास्पद है। हम एक चर्चा के विशेष विस्तार में न जाकर निष्कर्ष रूप में अधोलिखित बातें कहना आवश्यक समझते हैं-
(1) अकबर के शासनकाल- (सं. 1613 से सं. 1662 तक) से पूर्व ऐसा कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिलता, जिसमें कवि चन्दवरदाई का ‘पृथ्वीराज रासो’ के रचयिता के रूप में उल्लेख हो ।
(2) पुरातन-प्रबन्ध संग्रह- (प्रबन्धों का रचना-काल सं. 1290 से सं. 1528) लिपिकाल सं. 1528 के दो छन्दों से केवल इतना ही विदित होता है कि ‘चन्दबलद्दिड नामक किसी कवि ने पृथ्वीराज की जीवन घटनाओं पर कुछ फुटकर छन्द लिखे थे। इनसे यह नहीं मालूम पड़ता कि चन्दवरदाई पृथ्वीराज का समकालीन और दरबारी कवि था और उनसे उसके सम्बन्ध में ‘पृथ्वीराज रासो’ नामक प्रबन्ध-काव्य की रचना की थी।
(3) भिन्न-भिन्न विद्वानों के परिश्रम से अब तक रासो के चार रूप उपलब्ध हुए। (वृहद, मध्यम, लघु और लघुतम)। इनमें सबसे बड़ा तो काशी नागरी प्रचारिणी सभा वाला संस्करण है जो सं. 1750 की उदयपुर वाली प्रति के आधार पर संपादित हुआ था। दूसरी प्रति ऑरिएन्टल कॉलेज, लाहौर की है। इस रूपान्तर की कई प्रतियाँ उपलब्ध हैं किन्तु वे सभी सं. 1600 के बाद की हैं। रासो का तीसरा लघु रूपान्तर है, जिसकी तीन प्रतियाँ अनूप संस्कृत पुस्तकालय में, और चौथी श्री अगरचन्द नाहटा के पास है, जो सं. 1625 की है। एक प्रति 17वीं शती की है। रासो का चौथा लघुत्तम संस्करण (लिपिकाल आषाढ़ सुदी 5 सं. 1667) श्री नाहटा जी ने खोज निकाला है। यह दावा किया जाने लगा है कि ‘लघुतम’ ‘रूपान्तर’ ही मूल रासो है। यह अब तक प्राप्त सभी रूपान्तरों से प्राचीन हैं। ‘रासो’ का ‘लघुतम ‘पाठ’ अभी तक प्रायः अप्रकाशित है। उसका केवल प्रारम्भिक अंश ‘राजस्थान भारती’ नामक पत्रिका (भाग 4 अंक 1 से) में प्रकाशित हुआ है, उसकी प्राप्त प्रतियों का भी उसी सम्पादन में प्रयोग हो रहा है, इसलिए वे प्राप्य नहीं हैं। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी तथा डॉ. उदयनारायण तिवारी का मत है कि-
” इतिहास की जिन गलतियों से बचने के लिए बड़े रासो को अप्रामाणिक और छोटे रासो को प्रामाणिक बताया जाता है उसमें से कुछ न कुछ छोटी प्रतियों में भी रह जाती है। वस्तुतः कई भिन्न-भिन्न उद्धारकों ने चन्द के मूल ग्रन्थ का उद्धार किया था। सभी संस्करण परवर्ती हैं। सब में क्षेपक की सम्भावना बनी हुई है। ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर एक भी प्रति प्रामाणिक नहीं ठहरती ।”
‘लघु पाठ’ के प्रारम्भ में एक दोहे में रासो का आकार सहस सत्त’ (1700) रूपक और ‘लघुत्तम पाठ’ में ‘सहस पंच’ (1500) रूपक बताया है। किन्तु उसमें पाये जाने वाले रूपकों की संख्या कुल मिलाकर लगभग चार सौ है, इसलिए यह लगता है किवह एक संकलन मात्र है और इसीलिए मूल पाठ से यह भी कुछ न कुछ दूर है।
यदि ‘पृथ्वीराज रासो’ की रचयिता चन्द पृथ्वीराज का समकालीन था, तो प्राप्त प्रतियों में से कोई भी उसकी कृति नहीं है। कुछ विद्वानों के अनुसार रासो की रचना चन्द ने पृथ्वीराज से राजत्व काल में की, किन्तु समय-समय पर इसमें प्रक्षेप होता गया। वर्तमान में प्राप्त ‘राम्रो’ एक हाथ और एक समय की रचना नहीं है। मूल रासो को पृथ्वीराज की समसामयिक प्राचीन रचना मानकर ही हिन्दी के आदिकाल में इसकी चर्चा की जाती है। इसको इसी कारण अपभ्रंश रूप में ढालने का प्रयास भी किया जाता है। वास्तव में अनुमान और अनुश्रुति के आधार पर ही रासो को पृथ्वीराज की समकालिक रचना मान लिया गया है, जिसके लिए अन्वीक्षण और ठोस प्रमाणों की आवश्यकता है।
(4) अंधावधि उपलब्ध सामग्री के आधार पर सम्पूर्ण ‘रासो’ के वैज्ञानिक सम्पादन किए बिना उसकी भाषा में एकरूपता खोजना समीचीन नहीं है। भाषा पर विचार करने के लिए ‘रासो’ में प्रयुक्त ‘सद्भाषा’ का संकेत भी ध्यान में रखना चाहिए। कवि चन्द के अनुसार ‘रासो’ के नायक पृथ्वीराज भी पभाषाओं के जानकर थे। ‘रासो’ को पिंगल की तो नहीं, डिंगल-शैली प्रभावित पिंगल प्रधान रचना कहना चाहिए।
इस प्रकार हमारा मत है कि ‘रासो’ के मूल रूप का निर्धारण केवल उसकी प्राप्त प्रतियाँ के वैज्ञानिक उपयोग से हो सकता है। निष्कर्ष रूप में रासो की रचना राजपूताने के किसी व्यक्ति द्वारा संवत् 1600 के आस-पास हुई है। इसको अन्तिम रूप मेवाड़ के महाराणा अपरसिंह (द्वितीय) के समय (सं. 1760) में दिया गया था। उसकी भाषा संवत् 1600 के आस-पास की है, अतः मोटे रूप में यही उसका रचनाकार सम्भव हो सकता है।
IMPORTANT LINK
- कबीरदास की भक्ति भावना
- कबीर की भाषा की मूल समस्याएँ
- कबीर दास का रहस्यवाद ( कवि के रूप में )
- कबीर के धार्मिक और सामाजिक सुधार सम्बन्धी विचार
- संत कबीर की उलटबांसियां क्या हैं? इसकी विवेचना कैसे करें?
- कबीर की समन्वयवादी विचारधारा पर प्रकाश डालिए।
- कबीर एक समाज सुधारक | kabir ek samaj sudharak in hindi
- पन्त की प्रसिद्ध कविता ‘नौका-विहार’ की विशेषताएँ
- ‘परिवर्तन’ कविता का वैशिष्ट (विशेषताएँ) निरूपित कीजिए।