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‘प्रगतिवादी’ का अर्थ और स्वरूप | प्रगतिवाद का परिवेश एवं पृष्ठभूमि

'प्रगतिवादी' का अर्थ और स्वरूप | प्रगतिवाद का परिवेश एवं पृष्ठभूमि
‘प्रगतिवादी’ का अर्थ और स्वरूप | प्रगतिवाद का परिवेश एवं पृष्ठभूमि

‘प्रगतिवादी’ का अर्थ और स्वरूप स्पष्ट करते हुए प्रगतिवाद और राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं साहित्यिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।

प्रगतिवादी युग (1935-1950)

प्रगतिवादी कविता छायावादोत्तर काल में विकसित एक ऐसी काव्यधारा है जिसका सम्बन्ध युग जीवन से है। ऐतिहासिक दृष्टि से प्रगतिवाद का जन्म सन् 1935-36 के आसपास के वर्षों में हुआ था। यह काव्यधारा आकस्मिक रूप से नहीं जन्मी है। इसके मूल में कतिपय परिस्थितियाँ रही हैं और इसके उन्मेष के पीछे कुछ ऐसे कारण रहे हैं जिससे स्थिति स्पष्ट हो जाती है। डॉ० शिवकुमार मिश्र ने लिखा है कि, “प्रगतिवादी आधुनिक हिन्दी कविता की उस गौरवशाली सामाजिक परम्परा का एक क्रमिक वकास है जो भारतेन्दु से आरम्भ होकर निरन्तर अपने नये-नये रूपों में अभिव्यक्त करती रही है। प्रगतिवाद का आविर्भाव न तो किसी अनहोनी का सूचक है और न किसी ऐसी आकस्मिकता जो ऐतिहासिक सन्दर्भों से कटी हुई युग की संवेदनाओं से शून्य क्लान्त हिन्दी साहित्य के गले बँध गई हो अथवा बाँध दी गई हो। युगीन गतिविधियों को देखते हुए जितनी स्वाभाविक कोई बात हो सकती थी, प्रगतिवादी का आविर्भाव उतना ही स्वाभाविक था। यह काल पुरुष का वह निर्णय था जिससे सारे सन्दर्भ तत्कालीन युग जीवन में पूरी तरह नक्श थे।”

प्रगतिवाद : अर्थ और स्वरूप

प्रगतिवाद आधुनिक हिन्दी साहित्य की ऐसी विधा है जिसने आधुनिक हिन्दी काव्य जगत को तो प्रभावित किया ही है साथ ही कथा साहित्य भी इससे अछूता नहीं रहा। वास्तव में तो प्रगतिवादी एक विश्वव्यापी साहित्यिक आन्दोलन है जिसने समस्त भाषाओं और देशों को प्रभावित किया था। डॉ० कृष्णदेव झारी के अनुसार प्रगतिशीलता किसी वाद विशेष से नहीं बंधी थी जबकि प्रगतिवाद मार्क्सवाद से बंध गया। इसी से प्रगतिवाद की परिभाषा या व्याख्या आज यह रूढ़ हो गई है कि राजनीति के क्षेत्र में जो मार्क्सवाद है, वही साहित्य के क्षेत्र में प्रगतिवाद है। साहित्य में प्रगतिवाद या प्रगतिशीलता, अर्थात् सामान्य जीवन के उत्थान की कामना वस्तुतः यंग की ही पुकार थी। डॉ० हरिचरण शर्मा के अनुसार, “प्रगतिवाद में उस समाज की तस्वीर है जो पीड़ित और शोषित है। इसने वर्ग भेद की खाई को पीटने का काम तो किया ही, साथ ही मनुष्य को सामाजिक और राजनीतिक भूमिका भी प्रदान की। राजनीतिक क्षेत्र का साम्यवाद, सामाजिक क्षेत्र का समाजवाद और दर्शन का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद ही जब साहित्य से अवतरित हुआ तो उसे सहज ही प्रगतिवाद की अभिधा प्राप्त हो गई। इस प्रकार प्रगतिवाद का प्रमुख कथ्य सामाजिक जीवन का यथार्थ परिप्रेक्ष्य है। इसका कारण यह है कि छायावादियों ने इस पक्ष को प्रायः छोड़ दिया था या कल्पना की मादक तरंगों को बहने वाले कवि समाज की ओर हसरत भरी दृष्टि नहीं डाल सके थे। इसी सामाजिक यथार्थ के प्रति क्रान्तिदर्शी दृष्टिकोण के कारण कई नये बिन्दु सामने आये तथा रूढ़ियों का विरोध हुआ। शोषित और पीड़ितों का गुणगान तथा शोषकों को घृणा की दृष्टि से देखा गया। यथार्थवादी दृष्टि ने प्रकृति, प्रेम, नारी, ईश्वर और धर्म को नये चश्मे से देखने को भी बाध्य किया।”

डॉ० मूलचन्द सेठिया का विचार है कि, “प्रगतिवाद के नाम से अभिहित की जाने वाली काव्यधारा का स्वरूप पूर्ववर्ती परम्परा से स्पष्टतः भिन्न है। पूर्ववर्ती काव्य में शोषित एवं पीड़ित मानवता के प्रति सहानुभूति की अभिव्यक्ति है। शासक एवं शोषक वर्ग के प्रति असन्तोष और आक्रोश का विस्फोट है और वह काव्य को मानव जीवन संयुक्त रखने का प्रबल आग्रही है, परन्तु इन सबके पीछे केवल मानवता का तकाजा है, जबकि प्रगतिवादी कवि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के दृष्टिकोण से समाज के विकास क्रम का लेखा-जोखा करते हुए भावी परिवर्तन को द्वन्द्वात्मक निर्यात के आधार पर पूर्व निश्चित मानते हैं।” डॉ० शिवकुमार मिश्र के अनुसार, प्रगतिवादी युग का आविर्भाव न तो किसी अनहोनी का सूचक है और न किसी ऐसी आकस्मिकता का, जो ऐतिहासिक सन्दर्भों से कटी, युग की संवेदनाओं से शून्य, बालात हिन्दी साहित्य के गले बंध गई हो अथवा बाँध दी गई हो। युगीन गतिविधियों को देखते हुए जितनी स्वाभाविक कोई बात हो सकती थी, प्रगतिवाद का आविर्भाव भी उतना ही स्वाभाविक था। वह काल पुरुष का वह निर्णय था जिसके सारे सन्दर्भ तत्कालीन युग-जीवन के नत थे।”

अतः स्पष्ट है कि प्रगतिवादी प्रगत्युनमुखी चेतना का पक्षधर एवं प्रसारक काव्य प्रयत्न है। इसकी प्रगतिशीलता बहुआयामी है। सामाजिक स्वातन्त्र्य, रूढ़ियों से मुक्ति का आग्रह और जीवन के यथार्थ का समप्रवाही चित्रांकन जिसमें यथार्थ की जीवन सरिता का कोमल पुरुष रूप भी सुरक्षित है तथा जो मानव जीवन की गतिविधियों और प्रगतियों को जनसाधारण को वर्णमाला के द्वारा प्रस्तुत करता है वही प्रगतिवाद है और उसका सर्जक प्रगतिवाद कवि ।

हिन्द के प्रमुख प्रगतिवादी कवि- प्रगतिवाद का बीजारोपण छायावादी कवियों ने ही कर दिया था। वे सभी कल्पना लोक में विचरण करते-करते थक गये थे। पन्त और निराला दोनों ही ऐसे कवि हैं जिनके काव्य में प्रगतिशीलता मिलती है इसी प्रकार रामविलास शर्मा, शिवमंगलसिंह ‘सुमन’, ‘अंचल’, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल आदि ऐसे प्रगतिवादी कवि हैं जो आपने एक सीमित दायरे में ही विचरण करते रहे हैं। शील, रांगेय राघव, त्रिलोचन, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, रामविलास शर्मा आदि ऐसे प्रगतिवादी कवि हैं जिन्होंने यथार्थ भोगा और जिया है।

प्रगतिवाद का परिवेश या पृष्ठभूमि

प्रगतिवादी काव्यधारा का उद्भव उस समय की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं साहित्यिक परिस्थितियों में देखा जा सकता है जो निम्नांकित बिन्दुओं में प्रस्तुत हैं-

1. राजनीतिक पृष्ठभूमि- अंग्रेजी शासन की स्थापना के साथ भारत में उद्योग का केन्द्रीयकरण प्रारम्भ होने से श्रमिक और पूँजीपति, शोषित और शोषक वर्ग की उत्पत्ति हुई। परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आन्दोलन का एकमात्र लक्ष्य भारत को अंग्रेजों की राजनीतिक दासता से मुक्त कराना था। साथ ही शोषण, भेदभाव और अन्याय का अन्त करके शोषण विहीन प्रजातन्त्र की प्रतिष्ठा करना था जिससे देश का सजग कलाकार प्रभावित हुआ, देश की दयनीय दशा का चित्रण तथा क्रान्ति की भावना प्रगतिवादी कवियों की रचनाओं में आबाध गति से प्रवाहित हुई।

2. धार्मिक पृष्ठभूमि- मार्क्सवाद का प्रभाव भारतीय समाज और साहित्य पर पड़ रहा था जिसके मूल में साम्यवादी भावना थी जिसका एकमात्र धर्म मानव में महत्व की स्थापना की। यही कारण है कि प्रगतिवादी युग के समाज में धार्मिक रूढ़ियों और बाह्य आडम्बरों के प्रति अनास्था की भावना का उदय हुआ। यहाँ तक कि समाज का साम्यवादी वर्ग ईश्वर के प्रति भी आस्था नहीं रखता था। इस प्रकार धार्मिक दृष्टि से इस युग की पृष्ठभूमि में इस नयी विचारधारा का उदय हुआ ।

3. सामाजिक पृष्ठभूमि – प्रगतिवाद का अभ्युदय जिन परिस्थितियों में हुआ उस समय भारतीय सामाजिक व्यवस्था दो वर्गों में विभक्त थी । एक ओर भारतीय समाज में उभरता हुआ जन संकट था तो दूसरी ओर रूस में मार्क्सवादी दर्शन के आधार पर स्थापित साम्यवाद । भारतीय बुद्धिजीवी ऐसे समाज की स्थापना करना चाहता था जिसमें जनजीवन का प्राधान्य हो एवं नये सुख-सुविधा की प्रतिष्ठा हो। देश की विषम सामाजिक परिस्थिति में युवकों का हाथ असन्तोष और विद्रोह से कसमसा उठा और देश की सामाजिक अवस्था प्रगतिवादी विश्वासों और स्वरों के लिए उपयुक्त भूमि बन रही थी।

4. साहित्यिक पृष्ठभूमि- साहित्य के क्षेत्र में छायावाद में द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता के प्रति विद्रोह किया तो प्रगतिवाद ने छायावाद की सूक्ष्मता और समाज विमुखता के प्रति विद्रोह किया। अपने विशिष्ट अर्थ में प्रगतिवाद ने मार्क्सवाद का साहित्यिक रूपान्तर है।

युग की कविता स्वप्नों में नहीं पल सकती उसकी जड़ों को अपनी पोषण सामग्री धारण करने के लिए कठोर धरती का आश्रय लेना पड़ता है । परिणामस्वरूप प्रगतिवादी कवि जीवन आदर्श से प्रेरित हुए।

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Anjali Yadav

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