प्रयोजनमूलक हिन्दी से क्या अभिप्राय है? प्रयोजनमूलक एवं साहित्य हिन्दी में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
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प्रयोजनमूलक हिन्दी से अभिप्राय
‘प्रयोजनमूलक हिन्दी’ से तात्पर्य उस हिन्दी से है जिसका अपना कोई विशेष लक्ष्य या प्रयोजन हो । वास्तव में प्रयोजनमूलक शब्द अंग्रेजी के फंक्शनल (Functional) शब्द का हिन्दी पर्याय है जिसका अर्थ ही होता है प्रयोजन विशेष के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला। इस प्रकार प्रयोजन मूलक हिन्दी से तात्पर्य ऐसी हिन्दी से है, जिसका प्रयोग विशेष प्रयोजन के लिए किया जाता है। इसे कामकाजी या व्यावहारिक हिन्दी भी कहा जाता है।
प्रयोजनमूलक हिन्दी सामान्य हिन्दी और साहित्यिक हिन्दी से भिन्न है। इसका प्रयोग न तो सामान्य व्यवहार में करते हैं और न ही साहित्य में क्योंकि जब हम अपने मित्रों या सगे सम्बन्धियों से बातचीत करते हैं तो हम एक प्रकार की हिन्दी का प्रयोग करते हैं जिसे सामान्य हिन्दी कहा जाता है। लेकिन जब हम कविता, कहानी या उपन्यास आदि की रचना करते हैं तो उसमें दूसरी तरह की हिन्दी का प्रयोग करते हैं जिसे ‘साहित्यिक हिन्दी कहा जाता है लेकिन जब हमें कार्यालयों, बैंकों, जनसंचार माध्यमों या व्यावसायिक क्षेत्रों से सम्बन्ध स्थापित करना होता है तो उन दोनों से अलग एक विशेष प्रकार की हिन्दी का हम प्रयोग करते हैं और उसी हिन्दी को ‘प्रयोजनमूलक हिन्दी’ कहा जाता है।
प्रयोजनमूलक एवं साहित्यिक हिन्दी में अन्तर
अखिल भारतीय सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी के एक स्वरूप के विकास का यत्न प्रशासनिक तथा अन्तः प्रादेशिक स्तरों पर हो रहा है, जिसकी ओर संकेत हमारे संविधान की 351वीं धारा में किया गया है। इस स्तर पर तालमेल का अभी अभाव है। …..इसी कारण केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों में जिस हिन्दी का थोड़ा-बहुत प्रयोग हो रहा है, वह पूरी तरह से वही हिन्दी नहीं है, जिसका उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान आदि हिन्दी प्रदेशों की सरकारें कर रही हैं। वस्तुतः इसके लिए काफी प्रभावी ‘कोआर्डिनेशन’ की आवश्यकता है। कार्यालय भी विभिन्न क्षेत्रों में और स्तरों पर कई प्रकार के (कचहरी, बैंक, ऊपर से नीचे तक के प्रशासनिक स्तर के कमिश्नर, कलक्टरी, तहसील, परगना आदि) हैं, और उन सभी की अपनी अलग-अलग अभिव्यक्ति आवश्यकताएँ और परम्पराएं हैं. अतः इन सभी में हिन्दी के जो रूप है और विकसित हो रहे हैं. किसी न किसी रूप में एक साहित्यिक विधाओं (जैसे-काव्य, नाटक, कथा-साहित्य, आलोचना), संगीत, आभूषणों के बाजारों, कपड़ों के बाजारों, विभिन्न प्रकार के सट्टा बाजारों, समाचार पत्रों, धातुओं आदि के क्रय-विक्रय की दुनिया (जिसकी एक झांकी किसी भी दैनिक पत्र के सम्बद्ध पृष्ठ से ली जा सकती है), फिल्मों, चिकित्सा व्यवसाय, खेतों, खलिहानों, विभिन्न शिल्पों और कलाओं, विभिन्न कसरतों-खेलों के अखाड़ों, कोर्टों, और मैदानोंया उनकी मेजों इत्यादि में प्रयुक्त हिन्दी पूर्णतः एक नहीं है। ध्वनि, शब्द (कभी-कभी) रूप रचना, वाक्य रचना, मुहावरों आदि की दृष्टि से उनमें कभी थोड़ा, कभी अधिक स्पष्टं अन्तर है और ये सारे हिन्दी के ही अलग-अलग प्रयोजनमूलक रूप हैं।
प्रयोजनमूलक हिन्दी व्यावहारिक पक्ष को उजागर करने के लिए भाषायी रूप है। यह भाषायी रूप सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विशेष रूप से प्रयुक्त होता है। और इसका प्रयोजनमूलक विश्लेषण इसके व्यावहारिक तथा कामकाजी पक्ष को अधिक स्पष्ट करता है। साहित्यमूलक हिन्दी काव्य, नाटक तथा साहित्य की अन्य विधाओं में प्रयोग की जाने वाली हिन्दी है। विविध प्रयोजनों में प्रयोग की जाने वाली भाषा में शब्दावली, वाक्य रचना और शैली के स्तर पर भेद देखने को मिलता है। यह भेद छात्रों को पढ़ाने वाले अध्यापक और न्यायाधीश के समक्ष अपने मुवक्किल का पक्ष प्रस्तुत करने वाले वकील के भाषिक संप्रेषण की शब्दावली ‘वाक्य-रचना’ पदबंध, शैली और लहजे में अन्तर स्पष्ट करता है।
यह अन्तर मुख्यतः शब्द प्रयोग, सहप्रयोग तथा वाक्य रचना के स्तर पर मिलते हैं, किन्तु कभी-कभी ध्वनि, रूप-रचना तथा अर्थ स्तर पर भी अन्तर होता है। शब्द प्रयोग. अन्तर से मेरा आशय है, विशिष्ट क्षेत्रों में एक अर्थ में विशिष्ट शब्दों के प्रयोग से। उदाहरण के लिए सामान्य भाषा में जिस चीज के लिए ‘नमक’ शब्द का प्रयोग होता है, रसायनशास्त्र में उसे ‘लवण’ कहते हैं। सहप्रयोग से आशय है दो या अधिक शब्दों का साथ-साथ प्रयोग । मंडियों की भाषा में चाँदी और सोना के साथ ‘लुढ़कना’ और ‘उछलना’ क्रिया का प्रयोग होता है, किन्तु हिन्दी के अन्य रूपों में इन संज्ञा शब्दों के साथ इन क्रियाओं को होनही मिलेगा बन्दिय-रचना विषयका रूपान्तर बहुत अधिक मिलते हैं। संज्ञीकरण, सर्वनामीकरण, कर्मवाच्यीकरण, भाववाच्यीकरण, लोपीकरण अथवा संक्षेपकरण आदि। ध्वनि की दृष्टि से अन्तर जैसा कि ऊपर संकेत है-कम मिलते हैं, किन्तु मिलते हैं, मंत्र-मंत्र यंत्र-जंतर मीन-मेख मीन-मेष के प्रयोग क्षेत्र कई स्तरों तक एक सीमा तक लगाए जा सकते हैं। अर्थ की अभिव्यक्ति में शास्त्रीय अथवा दुफ्तरी भाषा में अभिधा पर बल रहता है तो सार्वजनात्मक साहित्य में लक्षण व्यंजना पर। ऐसे ही सामान्य भाषा में ‘टीका लगाना’ तिलक लगाना है, किन्तु चिकित्सीय भाषा में ‘इन्जेक्शन लगाना’ है। इसी प्रकार अन्य शब्दों में भी दोनों में पर्याप्त अन्तर है।
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