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बिहारी की काव्यगत विशेषताएं |मुक्तक काव्य परम्परा में बिहारी का स्थान
बंध और स्वरूप के आधार पर काव्य के दो भेद माने गये हैं- मुक्तक और प्रबन्ध। यद्यपि ये दोनों भेद केवल स्थूल दृष्टि से किये गये हैं और काव्य के बाह्य विधान से सम्बन्धित हैं तथा इन दोनों में काव्य के सौन्दर्य और रसात्मक तत्त्वों का पूर्णरूप से समावेश रहता है। इसलिए इसमें कोई मौलिक भेद भी नहीं समझना चाहिए, किन्तु इन दोनों बन्धों ने अपने स्वरूप का विकास जिस प्रकार किया है उसे देखते हुए ये भेद भाव न होकर दो सुनिश्चित काव्य पद्धतियाँ बन गये हैं। अतएव आज न तो प्रबन्ध काव्य का भेद मात्र है और न ही मुक्तक मुक्तक काव्य की एक सुनिश्चित, महत्वपूर्ण और सरस काव्य पद्धति है और इसकी एक समृद्ध परम्परा है।
मुक्तक का अर्थ
‘मुक्तक’ किसे कहते हैं ? यदि इसका केवल शाब्दिक अर्थ लिया जाय तो कहना होगा कि ‘मुक्तक’ वह काव्य है जिसमें कथा या प्रसंग का बन्धन नहीं रहता। वास्तव में कोई भी बात या उक्ति ऐसी नहीं कही जा सकती जो किसी प्रंसग को न लिये हो। यदि कोई प्रसंग होगा तो उसकी सीमा या बन्ध भी होगा। अतएव यह कहना सामान्यतया निराधार होगा, कि मुक्तक में प्रसंग का बन्धन नहीं होता। सम्भवतः प्रसंग की इसी अनिवार्यता को ध्यान में रखते हुए ‘मुक्तक’ के सामान्य अर्थ प्रसंग की मुक्ति न मान कर शब्द सागर में अर्थ दिया है-वह कविता जिसकी कोई एक कथा या प्रसंग कुछ दूर तक न चले। इसीलिए इसका अर्थ प्रबन्ध का उल्टा, फुटकर कविता आदि भी किया गया है।
मुक्तक की परिभाषा
मुक्तक की रीतिवादियों, अलंकारवादियों, रसवादियों तथा ध्वनिवादियों ने अपनी-अपनी दृष्टि से परिभाषा दी हैं-
(क) दण्डी का काव्यादर्श- वाक्यांतर निरपेक्ष श्लोक को मुक्तक कहते हैं (मुक्तकं वाक्यांतर निरपेक्षी यः श्लोकः) ।
(ख) तरुण वाचस्पति- इतर की अपेक्षा न करने वाला सुभाषित मुक्तक होता है (मुक्तकमेतरानपेक्षमेकं सुभाषितम्) ।
(ग) अग्नि पुराण- उत्तम जनो द्वारा चमत्कार युक्त श्लोकबद्ध एक उक्ति ही मुक्तक है। (मुक्तक श्लोक एवैकश्चमत्कारः क्षमः सप्ताम्) ।
(घ) अभिनवगुप्त – जिस उक्ति में पूर्वापर निरपेक्ष रस-चर्वण की क्रिया हो, उसे मुक्तक कहते हैं- (पूवोज्ञपर निपेक्षणापि हि येन रस चर्वणाक्रियते तदेव मुक्तकम्) ।
मुक्तक का स्वरूप
ऊपर दी गयी परिभाषाओं के आधार पर मुक्तक का निम्नवत् स्वरूप निर्धारित किया जा सकता है-
(क) मुक्तक पूर्वापर निरपेक्ष या अनालिगित उक्ति है।
(ख) मुक्तक सुभाषित होता है।
(ग) मुक्तक रसक्षम होता है।
(घ) मुक्तक में चमत्कार होता है।
वास्तव में चमत्कार और रस तो काव्य के मूल गुण हैं जो वस्तुतः मुक्तक में भी काव्य का भेद होने के नाते वर्तमान होंगे ही। अग्नि पुराण का दृष्टिकोण चमत्कारवादी है अतएव उस द्वारा दी गई परिभाषा में चमत्कार का उल्लेख है और अभिनवगुप्त ध्वनिवादी हैं अतएव उन्होंने रस चर्वण की चर्चा की है। मुक्तक के अनालिंगित एवं पूर्वापर निरपेक्ष होने की चर्चा नितांत समीचीन हैं।
किन्तु इस सम्बन्ध में यह विचारणीय है कि क्या मुक्तक पूर्वापरसापेक्ष नहीं हो सकता। इस दृष्टि से कबीर की साखियाँ, तुलसी की विनयपत्रिका, सूर का सूरसागर, बिहारी की सतसई क्या प्रसंगों की पूर्वापर-सापेक्षता नहीं रखतीं। वास्तव में मुक्तक के विभिन्न पद या सापेक्षता उनका अनिवार्य गुण नहीं है। मुक्तक का अनिवार्य गुण है पूर्वापर निरपेक्षता सापेक्ष होकर भी निरपेक्ष रहना, आलिंगित होकर भी अनालिंगित होना। यह गुण तभी आ सकता है जब निरपेक्षता अथवा सापेक्षता- किसी भी स्थिति में उसमें स्वतः पूर्णता हो। इस प्रकार मुक्तक स्वतः पूर्ण काव्य रचना है जो चमत्कार युक्त भी हो सकती है और रसपरक भी।
मुक्तक और प्रबन्ध काव्य
मुक्तक काव्य में बंध का वस्तु विस्तार का, कथा प्रसंगों की सापेक्षता निरपेक्षता का अन्तर तो होता ही है, साथ-साथ ज्यों-ज्यों इन काव्य पद्धतियों का स्वरूप विकसित हुआ है त्यों-त्यों इनमें इसके प्रभाव के दृश्य विधान के भाषा प्रयोग के अन्तर भी सामने आये हैं।
आचार्य शुक्ल ने बिहारी काव्य की समीक्षा करते हुए लिखा है कि-
‘मुक्तक में प्रबन्ध के समान रस की धारा नहीं रहती जिसमें कथा-प्रसंग की परिस्थिति में अपने को भूला हुआ पाठक मग्न हो जाता है और हृदय में एक स्थायी प्रभाव ग्रहण करता है। इसमें तो रस के ऐसे छींटे पड़ते हैं कि जिनसे हृदय-कलिका थोड़ी देर के लिये खिल उठती है। यदि प्रबन्धकाव्य एक विस्तृत बनस्थली है तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता । इसी से वह सभा-समाज के लिये अधिक उपयुक्त होता है। उसमें उत्तरोत्तर अनेक दृश्यों द्वारा संघटित पूर्ण जीवन या उसके किसी एक पूर्ण अंग का प्रदर्शन नहीं होता, बल्कि कोई एक रमणीय खण्ड-दृश्य इस प्रकार सहारा सामने ला दिया जाता है कि पाठक या श्रोता कुछ क्षणों के लिए मंत्रमुग्ध सा हो जाता है। इसके लिए कवि को मनोरम वस्तुओं और व्यापारों का एक छोटा-सा स्तवक कल्पित करके उन्हें अत्यन्त संक्षिप्त और सशक्त भाषा में प्रदर्शित करना पड़ता है। अतः जिस कवि में कल्पना की समाहार शक्ति के साथ भाषा की समास-शक्ति जितनी ही अधिक होगी उतना ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा। “
मुक्तक काव्य का आदर्श रूप या गुण
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मुक्तक में निम्न लिखित गुणों की चर्चा की है-
(i) रस के छोटे जिसमें हृदय की कली थोड़ी देर के लिए खिल सके।
(ii) भावों का स्तवक की भाँति चुना हुआ गुलदस्ता हो ।
(iii) सभा-समाजों में पठन-पाठन के अधिक उपयुक्त हो ।
(iv) पाठकों या श्रोताओं को सहसा मंत्रमुग्ध कर देने वाला एक रमणीय खण्ड दृश्य हो ।
(v) भाव-चित्र अत्यन्त संक्षिप्त हों।
(vi) कल्पना की समाहार शक्ति हों ।।
(vii) भाषा की समास शक्ति हो। थोड़े अक्षरों में दीर्घ अर्थों को लाने की, गागर में सागर भरने की शक्ति हो ।
बिहारी सतसई का मुक्तक काव्य की दृष्टि से मूल्यांकन
(1) कल्पना व भाषा की शक्ति
आचार्य राम चन्द्र शुक्ल ने लिखा है-
“मुक्तक कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में अपने चरम उत्कर्ष को पहुंचा है, इसमें सन्देह नहीं कल्पना की समाहार शक्ति और भाषा की समास शक्ति की क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से वर्तमान थी। इसी से वह दोहे ऐसे छोटे छंद में इतना रस भर सके हैं। इनमें दोहे क्या हैं रस के छोटे-छोटे छींटे हैं। इसी से किसी ने कहा है-
“सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर,
देखत में छोटे लगे वेधै सकल शरीर।”
(2) रस स्निग्धता – बिहारी के मुक्तकों की सर्वप्रथम विशेषता उनकी रस-स्निग्धता है। यद्यपि बिहारी ने सूक्तियाँ भी लिखी हैं और चमत्कारपूर्ण दोहे भी लिखे हैं, जिनकी रचना की बारीकी पर कला पारखी वाह-वाह कर सकते हैं, किन्तु उनकी सतसई की कीर्ति का प्रमुख आधार उनकी रसोक्तियाँ ही हैं जो सहृदय के मन को घायल करती हैं।
” बतरस लालच लाल की मुरली घरी लुकाई,
सौंह करें, भौंहनि हंसै देन कहै, नटि जाई ।।’
इस रसोक्ति में रसानुभूति का मुख्य आधार अनुभावों की व्यंजना में है जो यत्नज हैं- भौंहन हंसना, सौंह करना; मुकर जाना आदि। इसी प्रकार सात्विक अनुभावों की व्यंजना भी कितनी मर्मस्पर्शी है-
” ललन चलन सुनि पलन में अंसुवा झलकै आई।
भई लखाइ न सखिन्ह हूँ झूठे ही जमुहाई ।।”
यहाँ सात्विक अनुभाव (आँसू) और यनज अनुभाव (जमुहाई) का कितना सहज और सरस वर्णन है। बिहारी का अनुभाव-विधान ही उल्लेखनीय नहीं संचारियों की योजना भी बड़ी महत्वपूर्ण है-
“सघन कुंज छाया सुखद, सीतल मंद समीर ।
मन है जात अजो वहै, वा जमुना के तीर ॥”
(3) भाव व्यंजना- भाव व्यंजना या रस व्यंजना बिहारी की विदग्धता का फल है। एक सजग कलाकार की भाँति कवि ने भावों का स्तवक चुना है, उन्हें अपनी वाग्विभूति से सजाया है, पालिश की है, कांट-छांट कर तरतीब से रखा है। इसलिये बिहारी के दोहे हीरे की कनी से दमकते और एक-एक मुक्तक में सौ-सौ प्रबन्धों को लज्जित करने वाले हैं-नावक के तीर की भांति घाव की गंभीरता और सकल शरीर को बंधने की क्षमता रखते हैं। बिहारी की रचना की इतनी मार्मिकता और प्रभाव शक्ति का बहुत-कुछ श्रेय उनकी इस चयन पद्धति और कांट-छांट को है, भावों को गुलदस्ते-सा सजा कर सभा-समाजों में उपस्थित करने की निपुणता को है। देव यहीं बिहारी से पिछड़ गये हैं। देव में चयन की निपुणता नहीं। वह भाव की भरती करते हैं, उसे कांट-छांट पूर्वक, कला के निपुण हाथों से सजाते नहीं। इसीलिये उनकी कविता का भाव अस्त-व्यस्त झाड़ सा बिखर जाता है। पर बिहारी हर भाव, हर स्थिति को अपने काव्य का विषय नहीं बनाते। उनमें हर वस्तु का चुनाव पूर्ण अपनाव है। राशि राशि भावों को बटोर कर सहेजने की प्रवृत्ति नहीं, अपितु गिनी-चुनी मार्मिक स्थितियों को ही कला से सजा-संवार का प्रस्तुत करने की पारखी दृष्टि है। इसीलिये बिहारी केवल सतसई ही लिख सके हैं- सतसई कि जिसने यह सिद्ध कर दिया है कि किसी कवि का यश उसकी रचनाओं के परिमाण से नहीं गुणों के हिसाब से होता है।
(4) रमणीय खण्ड दृश्य- बिहारी के अधिकांश दोहे रमणीय खण्ड-दृश्य हैं-रस के छोटे-छोटे छोटे हैं जो कभी ‘लाल के बतरस लालच’ की चर्चा करते हैं तो कभी ‘दीठि-दीठि सौं जोरि का दृश्यांकन, कभी ‘नैनहु हूँ की सब बात’ कहते हैं तो कभी ‘पंचाली की चीर’ से बढ़ते विरह का उल्लेख करते हैं, कहीं उन्होंने किसी बौरों की लाल की उड़ती गुड़ी की छबीली छांह छूते देख लिया है तो कहीं उन्होंने पाया कि कोई पिय की पाती को लखति है, कर में लेती है, चूमती है, सिर चढ़ाई, उर लगाइ, मुत मेटि बांचति और ‘समेटि’ धरती है, कहीं उन्हें ‘अनियारे दीरघ दृगनु’ दृष्टि पड़ गए हैं तो कहीं उन्होंने नैन-बटोही की रूप-ठग द्वारा ‘ठोड़ा-गाड़’ में पकड़े जाता पाया है। इस प्रकार बिहारी के दोहों की रमणीयता और कवि द्वारा खण्ड-दृश्य को चित्रांकितं करने की विशेषता उच्च कोटि की है। आचार्य शुक्ल ने इसे ही वाग्विदग्धता कहा है और विश्वनाथ मिश्र ने वाग्विभूति ।
इन रमणीय खण्ड दृश्यों में यद्यपि अधिकांश भाव-व्यंजना ही प्रमुख है पर कहीं-कहीं वस्तु-व्यंजना भी मिलती है। यह वस्तु व्यजना जब तक विरह-ताप, सुकुमारता, शोभा तथा क्रांति आदि का सहज निरूपण करती है वहाँ तक तो दृश्य की रमणीयता बनी रहती है, जैसे-
” अंग-अंग प्रतिविम्बि परि, दरपन से सब गात।
दुहरे, तिहरे, चौहरे, भूषन जाने जात ।।”
किन्तु कहीं यह वस्तु-व्यंजना औचित्य की सीमा का उल्लंघन कर ऊहा का हास्यास्पद रूप भी उपस्थित करती है-
“आड़े दै आले बसन आड़े हूँ की राति ।
साहस के के नेहबस सखी सबे ढिंग जाति ।। “
किन्तु ऊहा-पद्धति पर रचे ये दोहे कितने ही हास्यास्पद हों सहृदय पाठकों की जबान पर यह अधिक चढ़े मिलते हैं।
(5) संक्षिप्तता – बिहारी के काव्य में भले ही भाव-चित्र हो या वस्तु-चित्र, नखशिख वर्णन हो या नायिका-भेद निरूपण, अलंकार योजना हो या सूक्ति कथन शृंगार की मधुरता हो या भक्ति की पावनता, रसमय उक्ति हो या सुभाषित, सर्वत्र – बिहारी ने चित्र की सामग्री का अल्पतम प्रयोग किया है। संक्षिप्ति की इस विशेषता के कारण ही उनके दोहे को गागर में सागर भरने वाला कहा गया है। रहीम ने दोहे के आदर्श रूप की चर्चा करते हुए कहा है-
“दीरघ दोहा अरथ के आखर घेरे आहिं ।
ज्यों रहीम नट कुण्डली सिमिटि कूदि चलि जाहिं ।। “
बिहारी के दोहे इस आदर्श पर सर्वथा पूरे उतरे हैं। इनमें शब्दों की जितनी अल्पता है, अर्थों की उतनी ही दीर्घता। और फिर यह शब्द संक्षिप्ति भावों का सागर सहेजती है।
(6) विदग्धता- बिहारी में तथाकथित संक्षिप्ति कुछ दोहे जैसे छोटे छंद के व्यवहार के कारण आ सकी है और कुछ कल्पना की समाहार शक्ति और भाषा की समास शक्ति के कारण। यह कहना कठिन है कि कल्पना की समाहार तथा भाषा की समास प्रवृत्ति का फल भाव-चित्रों की संक्षिप्ति है या भाव – चित्रों की संक्षिप्त के कारण ही बिहारी को अपनी कल्पनाएँ तथा भाषा का ऐसा सांचा ढालना पड़ा है या यह सब कुछ दोहे के जोर से हुआ है। कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि बिहारी के काव्य में इन चारों विशेषताओं ने मिलकर बिहारी की विदग्ध वाणी का कवि बना दिया है और उनकी सतसई को गंभीर घाव करने की अभूतपूर्व क्षमता प्रदान कर दी है। देव जैसे सिद्धहस्त कवि जिस भाव-चित्र को कवित्त की छः पंक्तियों और मतिराम जैसे सरस कवि सवैये चार पंक्तियों में नहीं रख सके उसे बिहारी अपनी कल्पना की समाहार-शक्ति तथा भाषा की समास शक्ति के बल पर दोहे की दो पंक्तियों में ही प्रस्तुत कर सके हैं और इस दोहे जितनी लोकप्रियता न मतिराम के सवैये को मिल सकी है और न ही देव के कवित्त आदि को। ऐसी समस्त और समाहार शक्ति से युक्त बिहारी के असंख्य दोहे मिलते हैं। बानगी रूप में दो दोहे निम्नलिखित हैं-
‘दृग उपझत, टूटत कुटुम, जुरत चतुर-चित प्रीति ।
परति गांठि दुरजन-हियै, दई, नई यह रीति ॥”
“भौहनु त्रासति, मुंह नटति, आंखिनु सौ लपटाति ।
ऐंचि छुड़वति करू, इंची, आगे आवति जाति ॥”
बिहारी ने कहत, नटत, रीझत, खिझत आदि से अनुभावों का विधान करते हुए ही अपनी समाहार शक्ति का परिचय नहीं दिया अपितु बड़े-बड़े कथा प्रसंगों को भी इस छोटे से दोहे छंद में प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति दी हैं जैसे-
‘डारे ठोड़ी गाड़ गहि नैन-बटोही, मारि।
चिलक-चौंध में रूप-ठग, हांसी-फांसी डारि ।।”
यहाँ चिबुक का वन अभिप्रेत है किन्तु ठग बटोहियों को कैसे लूटते हैं, इस पूर्ण प्रसंग की कल्पना की बड़ी विदग्धता से इस दोहे से छोटे छंद में संजो दिया गया है। इससे भाव की मार्मिकता भी बढ़ी है और प्रभाव भी हमें कवि की कल्पना का भी लोहा मानना पड़ता है और वाणी चातुर्य का भी । देव इसी उड़ान में असफल रहे हैं यद्यपि उनके सामने बिहारी का आदर्श था। उनके पेंचीदे मजमून बांधने की उमंग अनुप्रासों की दलदल में ही फँस कर रह जाती है।
इस प्रकार बिहारी का काव्य मुक्तक काव्य का उत्कर्ष है । भले ही फिर वह रस मुक्तक हो या सुभाषित श्रृंगार की व्यंजना हो या भक्ति या नीति की भाव व्यंजना हो, संवारी का विधान हो या अनुभावों की योजना, वस्तु का निरूपण हो, अलंकारों की छटा हो या भावों का चित्रण। बिहारी की बाग्विभूति अपनी कल्पना के समाहार और टकसाली भाषा की सामासिकता से दोहे की नट-कुंडली में किसी भी भाव को, प्रसंग को, अवस्था को, स्थिति को बांध सकी है तथा सहृदय समाज के हृदय, कलिका को रस के छीटों से विभोर कर सकी, कला-पारखियों की वाह-वाह पा सकी है।
बिहारी की काव्य की विशेषताएँ
विहारी के काव्य की कतिपय प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं-
(1) बिहारी ने अपने काव्य में ज्योतिष, रसायनशास्त्र, आयुर्वेद आदि अनेक विषयों से सम्बन्धित बातें बड़े ही सहज और प्रभावशाली ढंग से कही हैं।
(2) बिहारी ने अनेक सूक्तियाँ एवं अन्योक्तियाँ लिखी हैं, जिनमें जीवन के अनुभूत सत्य की अभिव्यक्ति बहुत ही सजीव शैली में की गई है।
(3) बिहारी की शब्द योजना अत्यन्त भाव-प्रवण है। वह कहीं भी क्लिष्ट अथवा नीरस नहीं है। बिहारी ने शब्दों की तोड़-मरोड़ बहुत कम की है। बिहारी जैसी सुव्यवस्थित एवं सुगठित ब्रजभाषा अन्यथा बहुत कम पाई जाती है।
(4) बिहारी का अनुभव विधान बेजोड़ है। अनुभावों के विधान में बिहारी की रस-व्यंजना का पूर्ण वैभव प्रस्फुटित हुआ है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, अनुभवों और हावों की ऐसी सुन्दर योजना अन्य कोई शृंगारी कवि नहीं कर सका है।
(5) बिहारी की कविता में कल्पना की समाहार शक्ति के साथ भाषा की समास शक्ति का पूर्ण सामंजस्य पाया जाता है। इस मणि-कांचन संयोग के फलस्वरूप ही बिहारी की रचना बहुत ही सफल हुई है। मिश्रबन्धुओं के शब्दों में “इस एक छोटे से ग्रन्थ में इस कविरत्न ने मानो समुद्र कूजे में बन्द कर दिया है।”
(6) बिहारी की भाव-योजना ध्वनि-योजना है। इस कारण वह बहुत ही सहज भाव से रस की प्रतीति करा देती है। उदाहरण देखिए-
बैटि रही अति सघन बन, पैटि सदन तन माह ।
देखि दुपहरी जेठ की, छांही चाहति छांह ।।
(7) बिहारी ने शृंगार रस के समस्त पक्षों- आयोग (पूर्वराग), संयोग एवं वियोग का निरूपण अत्यन्त व्यापक स्तर पर ध्वनि के माध्यम से किया है जो कि अत्यन्त सरस एवं मार्मिक है।
बिहारी ने प्रेम – विकास की विभिन्न अवस्थाओं का बहुत ही सूक्ष्म एवं मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है।
(8) बिहारी ने नायिकाओं की क्रिया विदग्धता का जो वर्णन किया है, वह सर्वथा दर्शनीय है। उनकी शारीरिक क्रियाएं एवं मनोभाव परस्पर सम्बद्ध बने रहते हैं-
चितई ललचौहैं चखन, डटि घूँघट-पट माँह ।
छलसौं चली छुबाइ कै, छिनकु छवीली, छांह
(9) इसी प्रकार नायिकाओं की वाग्विदग्धता भी बेजोड़ है।
(10) बिहारी का मुद्रा विधान अत्यन्त प्रशंसनीय है। नायिका की विविध मुद्राओं, चेष्टाओं, व्यापारों एवं अनुभवों के चित्रण में बिहारी अद्वितीय हैं।
(11) मिश्रबन्धुओं के शब्दों में “यह आप बीती खूब कहते हैं।” स्त्रियों के स्वभाव में बिहारी की पैठ देखने योग्य होती है। एक उदाहरण देखिए-
परतिय-दोष पुरान सुनि, लखि मुलकी सुखदानि।
कसु करि राखि मिश्र हूं, मुंह आई मुसकानि ।।
(12) बिहारी में कविजनोचित प्रतिभा, अध्ययन और अभ्यास- तीनों गुण पए जाते हैं। दोहों की सरसता उनकी प्रतिभा की परिचायिका है, बहुलता एवं विविध परम्पराओं का निर्वाह उनके व्यापक अध्ययन का द्योतक है तथा उनके दोहों की परिष्कृति एवं उनका भाषाधिकार उनके गहन अभ्यास का परिचायक है।
(13) बिहारी की कविता में सुरुचि, कला-प्रियता और रसिकता की त्रिवेणी पग-पग पर हिलोरें लेती हुई दिखायी देती है।
(14) विरोधी प्रवृत्तियों के मध्य सामंजस्य स्थापना बिहारी की बहुत बड़ी विशेषता है। उनके काव्य में भक्ति और श्रृंगार का, नीति और उच्छृंखलता का, भावात्मकता एवं ऊद्वात्मकता का, प्राचीनता और नवीता का, हृदय और मस्तिष्क का अपूर्व सामंजस्य मिलता है।
(15) चित्रमयता बिहारी की प्रमुख विशेषता है। पूरी सतसई रमणी की विभिन्न मुद्राओं के अनेक चित्रों का एक सुन्दर अलबम कहा जा सकती है।
बिहारी के काव्य के कतिपय दोष
बिहारी के काव्य में कतिपय खटकने वाली बातें भी दिखायी देती हैं। यथा-
(1) इनका विरह-वर्णन प्रायः ऊहात्मक, नाप-जोख करने वाला हो गया है। अतः उसमें मार्मिकता अपेक्षाकृत कम है. परन्तु ऐसे स्थल बहुत नहीं हैं।
(2) बिहारी की कविता में भक्ति और प्रेम उच्च एवं उदात्त भावभूमि का स्पर्श कर पाते हैं।
(3) संयोग शृंगार के वर्णन कई स्थलों पर अश्लील हो गये हैं।
(4) बिहारी के कुछ दोहे दोषपरक दोहों की श्रेणी में आते हैं। इन दोहों के अर्थ एक से अधिक प्रकार किए जाते हैं तथा इनका अर्थ करने के लिए कल्पना का विशेष सहारा लेना पड़ता है। ये दोहे सूक्ष्म, निहित आदि अलंकारों के उदाहरणों के अन्तर्गत आते हैं।
(5) कहीं-कहीं व्याकरण सम्बन्धी त्रुटियाँ भी पायी जाती हैं।
मुक्तक काव्यों की परम्परा और बिहारी का स्थान
(i) मुक्तक काव्य गीतों के रूप में भी मिलता है और छन्दों के रूपों में भी गतिमुक्तकों की परम्परा गीति गोविन्द के कवि जयदेव से आरम्भ होकर विद्यापति, सूरदास, मीरा इत्यादि में प्रवाहित होती मिलती है। बिहारी का संबंध इस परम्परा से न होकर छंद-पद्धति के मुक्तकों की परम्परा से है।
(ii) छंद-पद्धति के मुक्तक भक्ति संबंधी भी हैं और नीति संबंधी भी वीरता संबंधी भी हैं और शृंगार संबंधी भी, रीति-बद्ध भी हैं और रीति-मुक्त भी। बिहारी ने यद्यपि सतसई में भक्ति और नीति संबंधी दोहे भी लिखे हैं किन्तु इस सम्बन्ध में उनकी सतसई का स्थान न तो कबीर, तुलसी की भांति भक्ति भाव के मुक्तकों की परम्परा में है और न ही रहीम की भांति नीति या सूक्ति मुक्तकों की परम्परा में। बिहारी मुख्य रूप से शृंगारी कवि हैं और उनका स्थान शृंगारी मुक्तकों की परम्परा से है जिसका सूत्रपात हाल ही की गाथा सप्तशती द्वारा हुआ और जिस परम्परा को गोवर्धन की आर्यासप्तशती और अमरूक के अमरुकशतक से बढ़ावा मिला।
(iii) मुक्तक काव्य फुटकर रूप से भी लिखे गये हैं और संख्या-परक पद्धति पर भी बिहारी की सतसई संख्या परक मुक्तकों से सम्बन्ध रखती है।
(iv) छंदोबद्ध मुक्तकों के लिए संस्कृत में श्लोक, प्राकृत में गाथा और अपभ्रंश में दोहा, छंद का आधार मिला है। हिन्दी में छन्दोबद्ध मुक्तकों के मुख्य छन्द दोहा, सवैया, कवित्त इत्यादि रहे। जहाँ भक्ति काल और रीतिकाल के कवियों ने दोहा, सवैया, कवित्त तीनों या एकाधिक छन्दों का प्रयोग किया है वहाँ बिहारी का केवल दोहा-मुक्तकों से ही सम्बन्ध है। जितनी ख्याति कबीर, तुलसी और रहीम के दोहों की है उनसे कम प्रसिद्धि बिहारी के दोहों की नहीं। सत्य तो यह है कि सरसता में बिहारी के दोहे अतुलनीय हैं। वैसे भी रहीम ने दोहे के उत्कृष्ट रूप की जैसी रूपरेखा दी है, बिहारी के दोहों में वह पूर्ण रूप से वर्तमान है।
(v) मुक्त काव्य रीति-बद्ध भी मिलता है और रीति-मुक्त भी। बिहारी की सतसई में अन्य रीति ग्रन्थों की भांति यद्यपि रीतियों के लक्षण नहीं दिये गये किन्तु इनके श्रृंगारी दोहे रीतिबद्ध परम्परा के हैं न कि रसखान, घनानंद आदि की भांति रीतिमुक्त परम्परा के। जैसे अमरूक का शतक नायिका भेद की चर्चा के लिए प्रसिद्ध है यद्यपि वह नायिका भेद का रीति ग्रन्थ नहीं, जैसे गाथा सप्तशती और आर्यासप्तशती में किसी-न-किसी नायिका का भेद निरूपण किया जा सकता है किन्तु ये ग्रन्थ रीति ग्रन्थ नहीं हैं, इसी प्रकार बिहारी सतसई भी रीति-ग्रंथ न होकर रीतिबद्ध मुक्तकों की परम्परा के अन्तर्गत आती हैं। बिहारी सतसई का रीति-पद्धति के आधार पर कितनी बार सम्पादन भी हुआ है।
(vi) जहाँ तक श्रृंगारी मुक्तकों की परम्परा का सम्बन्ध है बिहारी सतसई यद्यपि इस समृद्ध और सरस परम्परा के अंतिम छोर पर पड़ती है और इस कारण इसमें वैसी दीप्ति, ताजगी आदि संभव नहीं जो हाल और गोवर्धन की सप्तशतियों में मिलती है, फिर भी बिहारी का ऐसी मुक्तक परम्परा में निम्नलिखित कारणों से विशिष्ट स्थान है-
(क) बिहारी ने गाथा सप्तशती का खुलकर अनुकरण किया किन्तु यह अनुकरण मात्र नहीं हैं। इसमें भावों को निर्दोष बनाया गया है, प्रसंग का प्रभाव पल्लवित हुआ है, उक्ति का सौंदर्य निखरा है, अर्थ में और चमत्कार तथा भाव में और हो ताजगी तथा सरसता आ गई है। इसका श्रेय बिहारी की सजग कलाकार की स्वस्थ-सुथरी अनुभूति तथा विदग्धतापूर्ण प्रतिभा की है।
(ख) बिहारी ने इस शृंगारी मुक्तकों की परम्परा को पालिश करके, खराब कर संवार कर सजा कर इतना नया रूप दे दिया है, इतना अपना बना लिया है कि हम सारी परम्परा को ही भुला सके हैं।
(ग) बिहारी ने इस परम्परा को अद्भुत देन दी है, इसमें सर्वोत्कृष्ट हस्ताक्षर जोड़े हैं। नख-शिख हो या नायिका-भेद, रस-व्यंजना हो या वस्तु-व्यंजना, शब्दालंकार हो या अर्थालंकार, अनुभाव हों या संचारी बिहारी ने सर्वत्र अपनी प्रतिभा, सरस अनुभूति और वचन चातुरी का परिचय दिया है।
(घ) यह शृंगारी मुक्तकों की परम्परा का समृद्धतम रूप प्रस्तुत कर सकी है। उनका उत्कर्ष दिखा कर उन्हें अपने गुण-गौरव के अन्तिम बिन्दु तक पहुँचा सकी है।
(ङ) परम्परा अनुकरण और पिष्टपेषण पर पलती है, विकसित होती है। बिहारी को भी रीतिमनोवृत्ति की शृंगारिकता विरासत में मिली थी। किन्तु बिहारी ने अन्य रीतिकालीन कवियों से कहीं अधिक विरासत का उपयोग किया है, कहीं अधिक समृद्ध किया है और कहीं अधिक उत्कर्ष दिया है। पंडित पद्मसिंह शर्मा के अनुसार तो उन्होंने पूर्ववर्ती कवियों का मजमून ही छीन लिया है।
(च) बिहारी के दोहे अपनी पूर्ववर्ती शृंगारिक रचनाओं से कहीं अधिक भाव-व्यंजक, मर्मस्पर्शी, प्रभावपूर्ण तथा विदयता लिये हैं।
(छ) बिहारी के उपरांत रीतिकालीन अन्य कवियों-मतिराम, देव, पद्माकर आदि ने इस परम्परा का निर्वाह करने का बिहारी का अनुकरण करने का सतत प्रयत्न किया है किन्तु वह बिहारी को उच्चता को प्राप्त नहीं हो सके मतिराम में शृंगार की सरल, सहज और सरस अभिव्यक्ति तो मिलती है पर इनमें बिहारी के समान न तो वाग्विदग्धता है न ही चित्रों का विविध रूपी उभार और चकाचौंध, न ही विस्तृत आधार फलक । देव का आधार फलक यद्यपि विस्तृत है, चित्र परिपूर्ण है और भावों में सरसता है पर वह अपना मजमून नहीं संभाल सके। उनकी कल्पना पेचीदे मजमून में फंस कर रह गई है, भाषा अनुप्रासों में अर्थ- गौरव खो बैठी हो और परिणामतः उन्हें असफलता ही हाथ लगी है। छन्दों के चुनाव में भी बिहारी सबसे अधिक निपुण सिद्ध हुए हैं। इस दृष्टि से मतिराम दोहे लिख कर भी बिहारी के दोहों का उत्कर्ष नहीं पा सके। पद्माकर में बिहारी, मतिराम और देव तीनों के काव्य-चातुरी का समन्वय है पर छन्द का चुनाव उपयुक्त नहीं। इस प्रकार बिहारी शृंगारी मुक्तकों में लिखी गई रीतिबद्ध परम्परा के उत्कृष्ट कवियों में से हैं और इनको इस परम्परा के रीतिकालीन कवियों में सर्वाधिक ख्याति प्राप्त हुई है। यह मुक्तक काव्य परम्परा के लोकप्रिय कवि हैं।
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