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बिहारी की भक्ति भावना और नीति रचना पर प्रकाश डालिए ।

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बिहारी की भक्ति भावना और नीति रचना

बिहारी की सतसई का वर्णन विषय अत्यन्त विस्तृत है। कवि ने इसमें अपनी मौलिक प्रतिभा और विवेकशीलता का सुन्दर परिचय दिया है। सतसई के भाव पक्ष के अन्तर्गत निम्नलिखित वस्तुएँ आती हैं-

नायिका भेद- बिहारी के पूर्ववर्ती हिन्दी काव्य ग्रन्थों में सूरदास कृत साहित्य लहरी, नन्ददास कृत रस मंजरी तथा केशवदास कृत रसिक प्रिया में नायिका भेद का निरूपण है लेकिन विस्तृत विवेचन केवल सतसई में मिलता है।

संस्कृत के लक्षण प्रन्थकारों ने नायिका के तीन भेद स्वकीया, परकीया तथा सामान्य बताते हैं इन भेदों के भी उपभेद हैं। सबका वर्णन बिहारी ने अपनी सतसई में किया है

(1) स्वकीया नायिका- स्वकीया प्रेम को धार्मिक तथा मनोवैज्ञानिक दोनों दृष्टियों से सर्वोत्तम माना है। प्रेम की गम्भीरता, रूप एवं यौवन का आकर्षण, गुण और शील का प्रकर्ष और कुल तथा वैभव का जो महत्व स्वकीया में उपलब्ध है वह अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। बिहारी तो स्वकीया प्रेम की प्राप्ति के कोटि अप्सराओं को भी न्यौछावर कर सकते हैं-

कोटि अपछरा वारियै यो सुकिया-सुकिया सुखुदैई

ढीली आँखिही चित्तै गढ़े गहि मनु लोइ ॥

स्वकीया नायिका के अन्तर्गत मुग्धा, मध्या और प्रौढ़ा तीन प्रकार की नायिकायें मानी गयी हैं।

(क) स्वकीया मुग्धा- मुग्धा नायिका वह है जिसके अंग-प्रत्यंग में यौवन का प्रवेश हो चुका हो तथा कामवासना का आविर्भाव हो लेकिन रति क्रीड़ा तथा प्रेम व्यक्त करने में लज्जा की प्रतीत होती है । मुग्धा के भी 5 लक्षण माने गये हैं-

(i) प्रथमावतीर्ण यौवना- जिसमें यौवन का पहले पहल ही प्रवेश हुआ हो-

छुटीन सिसुता की झलक झल क्यों जोबनु अंग ।

दीपति देह दुहुनु मिलि दिपति ताफता रंग ।।

(ii) प्रभयावतीर्ण मदन विकारा- जिसमें काम का संचार प्रथमवार हुआ हो और काम कला की बातों में रुचि उत्पन्न हो जाती है। जैसे-

सखियन में बैठी रहै पूछे प्रीति प्रकार ।

हँसि हँसि आपस में कहै प्रकट भयो है मार ।।

(iii) रतिवासा- जो रतिकाल में वामा चरण करे-

मैं बरजी के वार तू इतकित लेटि करौट।

पैंसुरी लगे गुलाब की परि है गात खरौट |

(iv) मृदुमानवती- जो मान में मृदु हो-

मोहि लजावत निलज ए हुलसि मिलत सवयम ।

भानु उदै की ओस लौ मानु न जानति जात ।।

(v) समाधिक लजावती- जिसमें लज्जा की अधिकता हो ।

छिपि छिपि देखति कुचनि तन कर सौ अंगिया टारि ।

नैननि में लिखति रहै, भई अनोखी नारि ।।

(ख) स्वकीया मध्या- मध्या नायिका का यौवन पूर्ण विकसित होता है। इस श्रेणी की नायिका में वासनात्मक पिपासा की अधिकता होती है।

मध्या नायिका के चार उपभेद माने गये हैं- (i) विचित्र सुरता, (i) प्ररूढस्मर यौवना (iii) ईपत प्रगल्भवंचना (iv) मध्यम ब्रीड़िता।

(ग) स्वकीया प्रौढ़ा- प्रौढ़ा नायिका की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें काम-वासना का आधिक्य होता है, लज्जा का भाव नहीं होता है। जब तक वासना तृप्त नहीं होती तब तक उद्विग्न रहती है। नायिका रति क्रीड़ा के लिए अन्धी रहती है-

लाज लगाम न मान ही नैना मो बस नाहिं।

ये मुँह जोर तुरंग लौं ऐंचत हूं चलि जाहि ।।

(2) परकीया नायिका- इसके दो भेद माने गये हैं- (i) कन्या, (ii) परोढ़ा।

(i) कन्या परकीया- यह अपने माता-पिता अथवा अभिभावक के अधीन रहती है। यौवनावस्था में कन्या की रूप माधुरी पर जो व्यक्ति आसक्त होकर प्रेम करने लगता है वही प्रेम को दाम्पत्य-जीवन में बदल लेता है। राधा कृष्ण की इसी प्रकार की बाल क्रीड़ा का कवि ने बड़ा सुन्दर चित्रण किया है-

दोऊ चोर मिट्टी चनी खेलन खेल अघात ।

तुरत हियै लपटाई कै छुवत हियौ लपटात ।।

(ii) परोढ़ा परकीया – परोढ़ा प्रेम शास्त्र विहित तथा लोक सम्मत नहीं होता है। नायिका पर पुरुष से प्रेम करने में किसी भी प्रकार की लज्जा महसूस नहीं करती-

देवर फूल हने जु सु उठे हरषि अंग फूलि ।

हँसी करति औषधि सरिवनु देह ददोरनु भूलि ॥

परकीया नायिका के छः उपभेद और माने गये हैं।

(i) गुप्त परकीया – नायिका अपने कार्यों को छिपाने के लिए कोई न कोई बहाना उपस्थित करती है-

लटकि लटकि लटकतु चलतु डटतु मुकुट की छाँह ।

चटक भयो नटु मिलि गयौ अटक भटक दर माँह ।।

(ii) विदग्धा परकीया- विदग्धा नायिका के दो प्रकार हैं। (क) वाग्विदग्धा (ख) क्रिया विदग्धा

(iii) लक्षिता- लक्षिता नायिका मे भावावेश का अतिरेक होता है। यह प्रयत्न करने पर भी अपने अनुराग और प्रेमात्मक चेष्टाओं को छिपाने में असमर्थ होती है। जैसे-

प्रेम दुरायो ना दुरै नैना देहि बताय ।

छेरी के मुँहरी सखी क्यों हु कुम्हड़ों माथ ।।

(iv) कुलटा परकीया- नायिका का अनुराग किसी एक नायक से न होकर अन्य पुरुषों से भी प्रेम करने का स्वभाव रखती है।

(v) अनुशयना परकीया – जब नायिका अपने प्रियतम से न मिल सकने के कारण पाश्चाताप करती है। वह नायिका अनुशयना कहलाती है।

(vi) मुदिता परकीया – जब नायिका सम्भोग सुख प्राप्ति की सम्भावना में आनन्दित होती है।

(3) “सामान्य नायिका ” – सामान्य नायिका को ही वेश्या कहा जाता है। इसका वर्णन कवियों ने इसलिए नहीं किया कि यह न तो धर्म सम्मत है और न शास्त्र सम्मत। इस सम्बन्ध में बिहारी ने लिखा है-

ज्यों-ज्यों पटु झटकति हठतु, हँसति न चावाति नैन।

त्यों-त्यों निपट उदारहू फनुवा देत वैन न ॥

(4) “ज्येष्ठा कनिष्ठा नायिका”- जो नायिका नायक को अधिक प्रिय होती है ज्येष्ठा तथा जो कम प्रिय होती है कनिष्ठा नायिका कहा जाता है। यथा-

मिस ही मिस आप दुसह दई सबै बहराई।

चले ललन मन भावतिहि तन की छाँह छिपाई ।।

अवस्था भेद से नायिका भेद- साहित्य मर्मज्ञों ने अवस्था के अनुसार नायिकाओं के आठ भेद किये हैं। जो निम्नलिखित हैं (i) स्वाधीन पतिका, (ii) खण्डिता, (ii) अभिसारिका, (iv) कलहान्तरिता, (v) वासक सज्जा, (vi) विप्रलब्धा, (vii) प्रेषित पतिका, (vii) विरहोत्कंठित ।

उदाहरणार्थ-

कागद पै लिखत न बनत, कहत संदेस लजात।

कहि हैं सब तेरा हियौ, मेरे हिय की बात ।।

-प्रेषित पतिका नायिका।

दशा-भेद के अनुसार नायिका के तीन भेद बताये गये हैं।

(i) अन्य सम्भोगदुःखिता, (ii) गर्विता, (iii) मानवती ।

नायक भेद- स्त्री और पुरुष की सामाजिक, मानसिक तथा वैयक्तिक स्थिति में अन्तर होता है। पुरुष की मनोवृत्ति स्त्री की भाँति जटिल नहीं होती है। इसीलिये नायिका का क्षेत्र व्यापक तथा  नायक का क्षेत्र सीमित है। नायक के 4 भेद बताये गये हैं- (1) दक्षिण, (2) अनुकूल, (3) शठ, (4) धूर्त ।

दक्षिण नायक का उदाहरण निम्नलिखित है-

गोपिनु संग निसि सरद की रमत रसिकु रसरास ।

लहाछेह अति गतिनु की सबनु लखे सब पास ||

नख शिख वर्णन-शोभा, कान्ति और दीप्ति ये बाह्य शारीरिक सौन्दर्य के परिचायक हैं। इसके अन्तर्गत नारी सौन्दर्य तथा अंग प्रत्यंग का चित्रण किया जा सकता है। नायिका भेद के अन्तर्गत नखशिख का वर्णन एक प्रमुख अंश है। सतसई में प्रतिपादित नायिका के अंग प्रत्यंग का वर्णन निम्नवत् है- (1) चरण वर्णन, (2) उरू वर्णन, (3) नितम्ब एवं कटि वर्णन, (4) कुचवर्णन, (5) हस्त वर्णन, (6) ग्रीवा वर्णन, (7) चिबुक वर्णन, (8) अधर वर्णन, (9) दन्त वर्णन, (10) कपोल वर्णन, (11) नासिका वर्णन, (12) नेत्र वर्णन, (13) भृकुटि वर्णन, (14) मस्तक वर्णन, (15) मुख वर्णन, (16) अलक वर्णन ।

कृष्ण चरित्र- बिहारी सतसई की विशेषता है कि उसमें कृष्ण काव्य का उल्लंघन नहीं है। बिहारी ने कृष्ण और राधा को शक्तिमान तथा शक्ति के रूप में देखा है-

मेरी भव बाधा हरो राधा नागरि सोई।

जा तन की झाँई परै, स्याम हरित दुति होई ॥

कृष्ण के दर्शन के प्रति उत्कंठा एवं आकर्षण

बिहारी की नायिका कृष्ण को देखने की उत्कंठा नहीं रोक पाती, लेकिन साथ ही लोक मर्यादा की अवहेलना भी नहीं करती। उसका वर्णन कवि करता है-

कंज नयनि मंजन किये बैठी व्यौरति बार।

कंच अंगुरी बिचु दीठि करि चितवति नन्द कुमार ।।

मुरली के प्रति नायिका के मन में उपजी सौत की भावना का चित्रण भी बिहारी ने किया है।

बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाई ।

सौह करें भौहन हँसे, दैन कहै नटि जाई ॥

बिहारी सतसई के अन्तर्गत कृष्ण चरित्र सम्बन्धी कुछ दोहे शृंगारिक लिखे हैं, जो ‘रासलीला’, चीरहरण तथा भ्रमर गीत के प्रसंग से सम्बन्धित हैं; जैसे-

(1)  गोपिनु संग निसि शरद की रमत रसिकु रसरास।

लहाछेह अति यतिनु की सबनु लखे सब पास ।।

(2)  जौं द जुगुति पिय मिलन की धूरि मुकुति मुँह दीन।

जौ लहिये संग सजन, तौ धरक नरक हूँ कौन ।

कृष्ण के लोकोत्तर कार्य- कृष्ण के अनेक आलौकिक कृत्यों का वर्णन भागवत में तथा कृष्ण भक्त कवियों द्वारा किया गया है। बिहारी ने कृष्ण के कतिपय चरित्रों पर दोहे लिखे हैं, जैसे-

(क) पूतना वध तथा विश्व रूप दर्शन, (ख) गोवर्धन धारण, (ग) अधासुर वध, (घ) दावानल पान ।

प्रेम तत्व-किसी व्यक्ति के गुण और सम्पर्क से उत्पन्न आकर्षण ही प्रेम है। रीति काल में आते-आते राधा कृष्ण का प्रणय अब आध्यात्मिक न रहकर लौकिक अधिक हो गया। राधा-गोपी कृष्ण के प्रेम में अब पवित्रता एवं शुद्धता न होकर वासनात्मक का पुट मिल गया है।

बिहारी की नायिका (प्रेमिका) को लोक और कुल की परवाह नहीं रहती-

नई लगनकुल की सकुच विकल भई अकुलाई।

दुहूँ चोर ऐची फिरति फिरकी लौं दिन जाइ ॥

प्रेम का नशा उस पर दिन रात सवार रहता है और वह असंयत होकर निर्भीक भाव से जो मन में आता है बकती रहती है। बुलाने पर भी मुश्किल से बोलती है-

पिय के ध्यान गही गही रही वही है नारि ।

आयु आयु ही आरसी, लखि रीझत रिझवारि ।।

राधा के लड़ते नेत्रों की चोट से तो कृष्ण बेहाल हो जाते हैं। उसी का वर्णन कवि ने सुन्दर ढंग से किया है-

कहा लड़ते दृग करे, परे लाल बेहाल।

कहु मुरली कहुँ पीत पट, कहूँ मुकुट बनमाल ॥

प्रेम की स्वाभाविक व्यंजना करते हुए बिहारी ने प्रचलित परम्पराओं की अवहेलना न कर प्रेम के क्षेत्र में मानसिक तथा शारीरिक क्रिया कलाप का सरस पंक्तियों में वर्णन किया है। जैसे प्रेम-क्रीड़ा, आँख मिचौनी, मदपान, वन विहार, जल विहार, हिंडोरा चोर मिट्टीचनी इत्यादि ।

सतसई में भक्ति, धर्म, दर्शन तथा नीति

भारतीय कवियों में भक्ति भावना तथा संस्कार इतना दृढ़ है कि वे किसी भी देश, काल अथवा पात्र के सम्पर्क में आने पर भी उससे अलग नहीं हो सके।

संस्कृत साहित्य की इस भक्ति भावना का प्रभाव हिन्दी के भक्ति कालीन कवियों पर विशेष रूप से पड़ा। सूरदास, नन्ददास, तुलसीदास, मीराबाई आदि भक्त कवियों ने उपासना को ही ईश्वर प्राप्ति का एक मात्र साधना माना है। रीतिकाल में आते-आते राधाकृष्ण का पवित्र प्रेम अलौकिक प्रेम में परिणत हो गया। शक्ति मत के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देवता जगद्धात्री शक्तिरूपा प्रकृति के ही प्रेरणा से सृजन, पालन और संहार करने में समर्थ होते हैं, यह झलक निम्नलिखित दोहे में मिल जाती है-

मेरी भव बाधा हरौ राधा नागरि सोय।

जा तन की झाँई परत, स्याम हरित दुति होय ॥

बिहारी की सतसई में विभिन्न धार्मिक रूपों का जो प्रतिपादन हुआ है वे निम्नलिखित हैं-

1. असाम्प्रदायिक भावना- कविवर सूरदास की असाम्प्रदायिक दृष्टि ने इस दिशा में स्तुत्य कार्य किया और उसका इतना गम्भीर प्रभाव पड़ा कि साम्प्रदायिक विद्वेष की खाई पट गयी। बिहारी के विचार निम्न हैं-

अपने-अपने मत लगै, वादि मचावत सारे।

ज्यौ ज्यौ सबकौ सेरबौ, एकै नन्द किसोर ।।

2. बाह्य आडम्बर का खण्डन- भक्त कवियों और सन्तों ने बाह्याडम्बर की भर्त्सना की है-

जप माला छापा तिलक, सरै न एकौ काम।

मन काँचै नाचै वृथा, साँचै राचै राम ।।

3. निष्काम भक्ति एवं विषय निषेध- सुख-दुःख में से किसी एक की भी चिन्ता न करके सदैव आराध्य में अनुरक्त रहना चाहिए तथा उसकी आराधना को ही जीवन का उद्देश्य मानना चाहिए-

दोरघ साँस न लेहि दुख, सुख साँईहि न भूल।

दई-दई क्यों करतु है, दई दई सु कबूल ॥

4. सत्संग एवं नाम स्मरण- विषयों से मुक्ति के लिए उन्होंने पूर्ववर्ती सन्तों की भाँति सत्संग और नामस्मरण का सहारा लिया-

पतवारी माला पकरि और न कछू उपाय।

तरि संसारा पयोधि कौ हरि नामें करि नाव ॥

5. दास्य भाव- बिहारी के भक्तिपरक दोहों में दास्य भाव की झलक भी मिल जाती है।

हरि कीजतु तुम सौ यह विनती बार हजार ।

जिहि तिहि भाँति डयों रहौं पर्यो रहौं दरबार ।।

6. शरण भाव- सखा भाव की भक्ति के उपासक और उपास्य दोनों एक ही धरातल पर खड़े होते हैं। इसीलिए भक्त और भगवान के सहज आत्मीय सम्बन्धों का चित्रण किया है। कृष्ण चरित्र के साथ ही साथ राम चरित्र भी गाया है।

कृष्ण चरित्र-

सीस मुकुट कटि काँछनी कर मुरली उर माल ।

यहि बानक मो मन बसौ, सदा बिहारी लाल ॥

राम चरित्र-

बन्धु भये का दीन के को तार्यों रघुराई।

तूठे-तूठे फिरत हौ झूठे विरुद कहाई ॥

7. समन्वयवाद- शाक्त, वैष्णव, शैव अलग-अलग अपनी सत्ता स्थापित किये हुए थे, जिनमें परस्पर संघर्ष होता रहता था । इस विरोध को मिटाने के लिए समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाया। बिहारी ने लिखा है-

अपने-अपने मत लगे वादि मचावत सोर।

ज्यों-त्यों सबकों सेइबौ एकै नन्द किसोर।।

8. फुटकर स्तुति परक रचनायें – ईश्वर की उपासना तथा भक्ति ही मनुष्य को मोक्ष प्राप्त करने में सहायता प्रदान कर सकती है। बिहारी अपने उद्धार की व्याकुलतापवूक प्रतीक्षा करते हैं, धीरे-धीरे उनके धीरज का बाँध टूट जाता है। वे खीझकर कहते हैं।

धौरें ही गुन रीसते बिसराई वह बानि।

तुमहूँ कान्ह मनौ भये आजु काल्हि के दानि ।।

भगवद् भक्ति कवि के सारे दुर्गुणों को परिमार्जित कर सद्गुणों को उभारकर सामने रख देती है-

या अनुरागी चित्त की गति समुझे नहीं कोई।

ज्यों-ज्यों बूढ़े स्याम रंग त्यों-त्यों उज्जवल होई ॥

दार्शनिक तत्व- भक्ति को दार्शनिकता के क्षेत्र से अलग नहीं किया जा सका है। सत्य तो यह है कि आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व में कोई अलगाव नहीं किया जा सकता है। प्रमाणों के अनुसार ब्रह्म अत्यन्त सूक्ष्म है, अलक्ष्य है इसीलिए अजोरजीयान कहा गया है। नायिका की कटि की क्षीणता पर आरोपित करते हुए कितने अलंकार पूर्ण श्रृंगारिक ढंग पर कवि कहता है-

बुधि अनुमान प्रभाव श्रुत किये नीठि ठहराई।

सूछम कटि पर ब्रह्म की अलख लखी नहिं जाई ।।

भगवान सर्वत्र व्यापक है। हमारे इतने निकट है कि हम उनका प्रत्यक्ष नहीं कर पाते हैं।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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