बिहारी में रीतिकालीन प्रवृत्तियाँ किस प्रकार प्रकट हुई ?
रीतिकाव्य की जो भी सामान्य प्रवृत्तियाँ होती हैं वे सभी बिहारी सतसई में पूर्णतया लक्षित होती हैं केवल एक लक्षण ग्रन्थ को छोड़कर। रीतिकाल के नामकर्ता आचार्य शुक्ल का मत है कि रीतिबद्ध काव्य वही नहीं है जो शास्त्रीय-प्रणली पर काव्यांगों का निरूपण करे, अपितु वह भी हैं जिसने काव्य-रचना में काव्य के लक्षण का समुचित ध्यान रखा हो। बिहारी सतसई का नखशिख, नायिका भेद आदि के क्रम से कितने ही विद्वानों द्वारा सम्पादन हुआ है। यदि नायिका-भेद को ही लें तो हम देखेंगे कि उनके काव्य में किस विषय के लक्षण ग्रन्थ की भांति नायिकाओं के असंख्य भेद मिलते हैं। कहीं ‘ज्यों-ज्यों आवति निकट निसी’ वाली ‘रहचटै बाल’ की स्वकीया है तो कहीं ‘चूमें चारू कपोल’ की परकीया है, कहीं ‘दामिनी धन अंधियार की कृष्ण-अभिसारिका है तो कहीं ‘जुवति जोन्ह मैं मिल गई’ की शुक्ल-अभिसरिका है, कहीं ‘पीटि दियै निधरक लखै’ की मध्या है तो कहीं पलनु पीक, अंजनु अधर और महावर को लाल पर लक्षित करने वाली खण्डिता है। इस प्रकार सतसई के दोहों में नायिका भेद का सरस निरूपण हुआ है। यही स्थिति हाव भाव और हेला की है, नखशिख और अलंकारों की है। इस प्रकार रीतिग्रन्थ के अनुरूप ही बिहारी सतसई में भी इस रीतिकालीन प्रवृत्ति का प्रयोग मिलता है। हाँ, बिहारी ने अपने काव्य में लक्षणों को जैसी उद्धरणी नहीं की कि जिसकी असंख्य भ्रांति पूर्ण उक्तियों के कारण देव आदि आचार्यों की असफलता हाथ लगी। इन लक्षणों के न होने से बिहारी का काव्य भ्रामक अनुवादों, अपूर्ण काव्यलक्षणों और असफल आचार्यत्व के दोषारोपण से मुक्त हो गया है और उनके काव्य का प्रभाव बढ़ा है।
रीतिकाल की दूसरी प्रमुख प्रवृत्ति रीतिबद्ध शृंगार की है। इस शृंगारिकता का बिहारी के दोहों में सर्वाधिक कलात्मक रूप मिलता है। बिहारी के दोहों में इस श्रृंगारिकता का सर्वाधिक कलात्मक रूप मिलता है। बिहारी के काव्य की मूल प्रवृत्ति ही शृंगार है तथा शृंगारी मुक्तकों की परम्परा में इसका विशेष स्थान है। अंग-प्रत्यंग के सौंदर्य वर्णन में कवि ने नयन, भौंह, चितवन, चिबुक, नासिका, चरण, केश आदि के असंख्य दोहे लिखे हैं। इस प्रकार कवि की दृष्टि मन के सौन्दर्य पर बहुत कम, शरीर के सौन्दर्य पर अधिक ठहरी है। बिहारी की नायिकाएँ भी रसिकता को बढ़ाने वाली, विलासिता का मद पिये लाल के साथ नोक-झोंक में मस्त रहती हैं। कहीं वह सोते प्रियतम को जा पकड़ती हैं और इस प्रकार पकड़ी जाती हैं
मैं मिसहा सोची समुझि, मुहु जुम्यो ढिग जाइ।
हल्यो खिसानी, गलु गहयो, रही गरे लपटाई ॥
नायक भी कम रसिक नहीं। नायिका हिंडोले से गिरती है तो नायक ‘घरी-घाइ पिय बीच हीं, करी खरी रस लुटि।’ नायिका दहेंड़ों को छींके पर रखने लगी है। अभी हाथ वही है कि रसिया कह उठता है-
“अहे दहेड़ी जिनि धेरै, जिनि तूं लेहि उतारि।
नीकें है छीके छवै, ऐसे ई रहि नारि ।।”
इस प्रकार बिहारी के काव्य में इसी रुग्ण मनोवृत्ति के नायक और नायिका मिलते हैं जो ‘भरे भौन में करते हैं, नैनन हूँ सौ बात”, जिनका फूल तोड़ती नायिका के ‘कूच-कोर रुचि’ और कढ़त गौर भुजमूल’ देखकर मन लुट जाता है। नायिका इतनी सुकुमार है कि नाइन के हाथों से पांव न झसवा कर गुलाब के झांवें से पांव झसवाती है और वह भी हिचकिचाते हुए-
“छाले परीबे कै डरनु सकै न हाथ छुवाइ ।
झझकत हियै गुलाब कैं झँवा झँवेयत पाइ ॥”
राधा कृष्ण का सामाजिक कवच बिहारी के दोहों में भी मिलता है-
“कंज नयनि मंजन किए, बैठी ब्योरति बार।
कच-अंगुरी-बिच दीठि दै चितवति नंदकुमार ॥”
इस प्रकार बिहारी का श्रृंगार एक ओर रीतिकाल की रीति-बद्धता पर पूरा उतरता है और दूसरी ओर यह हाल की गाथासप्तशती की शृंगार परम्परा का भी समुचित विकास करता है।’
बिहारी सतसई का जीवन दर्शन- बिहारी की कविता में भी अन्य रीतिकालीन कवियों की भांति सामंतवादी रसिकता है। जिसमें गिरि से ऊँचे रसिक मन डूब जाते हैं। इस रसिकता को स्वच्छन्द प्रेम की हवा नहीं लगी, बल्कि नायिका भेद, नखशिख की रूढ़िबद्ध पद्धति से सींचा गया है। इस प्रकार बिहारी के दोहों को काव्य में जो इतनी लोकप्रियता प्राप्त हुई है उसका मूल कारण यह है कि जीवन की भाग-दौड़ से इसके मधुर रमणीय भाव, इसका उक्ति वैचित्र्य, अनूठा चमत्कार इसकी विदग्ध नायिकाओं के मोहन व्यापार मन को विश्राम देते हैं।
कला और रूप की दृष्टि से बिहारी सतसई- कला और रूप की आधार की दृष्टि से बिहारी ने गागर में सागर भरकर, कल्पना की समाहार शक्ति और भाषा की समास शक्ति द्वारा दोहा पद्धति के सफलतम प्रयोग द्वारा, रचना की बारीको और पद के सूक्ष्म विन्यास द्वारा, मुक्तक काव्य का ऐसा आदर्श रूप प्रस्तुत किया कि समस्त काव्य इस काल का शिरोमणि काव्य घोषित हो सका।
बिहारी की सतसई भाषा की टकसाल है। शब्द का ऐसा सरस चुनाव, वाणी का ऐसा विदग्ध प्रयोग, भावों की ऐसी व्यंजना, अलंकरण की ऐसी चकाचौंध, अर्थों का ऐसा गौरव, कला की ऐसी पच्चीकारी, रीति-पद्धति का ऐसा रस- सिद्ध प्रयोग रीतिकाल में एक साथ अन्यत्र नहीं मिलता है। जैसे बिहारी की नायिका कंटीली भौंह अपने हाव-भाव के साथ हिय में कांटे सी कसकमती है उसी प्रकार सतसैया के दोहरे भी ‘भृंग घंटावली’ से रनित करते हैं, इनसे मधु-नीर सा दान झरित होता है और मानसिक थकान को यह वैसे ही विश्राम देते हैं जैसे- ‘मंद-मंद आवतु चल्यौ, कुंजर कुंज समीर।” इसी कारण रस-सिंगार-मंजनु किये ये दोहे यदि गंभीर घाव करते या सकल शरीर बेंधते हैं तो विचित्र क्या है ?
इस प्रकार बिहारी का काव्य रीतिकाल की समस्त गुणमयी या दोषमयी प्रवृत्तियों का सामान्य रूप से प्रतिनिधित्व करता है। केवल अन्य ग्रन्थ कारों की भांति इसमें काव्य-लक्षण नहीं दिये गये अर्थात् अन्य कवियों के हाथ असफल आचार्यत्व की विशेषता हाथ लगी बिहारी उससे साफ बच गए तथा अपने काव्य को व्यर्थ की इस पंडिताई के बोझ से बचा लिया। इसीलिए बिहारी को रीतिकाल का लोक प्रिय कवि ही नहीं बल्कि प्रतिनिधि कवि भी माना गया है।
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