बिहारी रसवादी थे या अलंकारवादी या फिर ध्वनिवादी
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रीति और वाद
“संस्कृत साहित्य में जैसे अलंकारवाद, रीतिवाद, रसवाद, ध्वनिवाद, वक्रोक्तिवाद इत्यादि वाद पाए जाते हैं, वैसे वादों के लिये हिन्दी के रीति क्षेत्र में रास्ता ही नहीं निकला। केशव को ही अलंकार आवश्यक मानने के कारण अलंकारवादी कह सकते हैं। केशव के उपरांत रीतिकाल में होने वाले कवियों ने किसी वाद का निर्देश नहीं किया। वे रस को ही काव्य की आत्मा या प्रधान वस्तु मानकर चले। महाराज जसवंत सिंह ने अपने ‘भाषा-भूषण’ की रचना ‘चन्द्रालोक’ के आधार पर की, पर उसमें अलंकार की अनिवार्यता वाले सिद्धान्त का समावेश नहीं किया। इन रीति-ग्रंथों के कर्ता भावुक, सहृदय और निपुण कवि थे। उनका उद्देश्य कविता करना था, न कि काव्यांगों का शास्त्रीय पद्धति पर निरूपण करना। इनका अलंकारों की अपेक्षा नायिका भेद की ओर कुछ अधिक ध्यान रहा।”
डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी का निम्नलिखित वक्तव्य इस दृष्टि से ध्यान देने योग्य है-
(क) “हिन्दी में काव्य-रचना होने के पूर्व ही संस्कृत के अलंकार- शास्त्री लड़-झगड़ कर कुछ निश्चित सिद्धांतों पर पहुँच चुके थे। मम्मट के काव्य-प्रकाश ने रस-ध्वनि सम्प्रदाय को इस प्रकार समन्वय के रूप में उपस्थित किया कि अलंकार, रीति, वक्रोक्ति आदि के पुराने सम्प्रदाय समाप्त हो गये। इसके बाद आचार्य विश्वनाथ और जगन्नाथ हुए। उन्होंने इस समन्वयवादी स्थापना को पूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया। मम्मट के बाद संस्कृत साहित्य में विवेचन-विश्लेषण के प्रयास उतने नहीं हुए जितने शिक्षण और प्रचार के । “
(ख) “रीतिकाल के साहित्य में रस-सिद्ध कवियों की रचना का ही प्रभाव रहा है और रस-विवेचना के सामने चित्र और प्रहेलिका की विवेचना दब गई है प्रधानता रसवादी कवियों की बनी रही। “
(ग) ‘काव्य-सिद्धान्त और सम्प्रदाय की दृष्टि से रीतिकालीन साहित्य का विवेचन करते हुए डा० नगेन्द्र ने कहा-
1. “हिन्दी के रीति-कवियों के सामने तीन काव्य सम्प्रदाय थे- ध्वनि, रस और अलंकार, इन तीनों का ही अनुसारण उन्होंने किया। कुलपति, श्रीपति, दास, प्रताप सिंह आदि जिनकी प्रवृत्ति अपेक्षाकृत बौद्धिक थी, स्पष्टतः मम्मट की भाँति ध्वनि अथवा रस-ध्वनिवादी थे। हिन्दी रीति काव्य में ध्वनिवाद का सर्वोत्कृष्ट रूप बिहारी और प्रतापसिंह में मिलता है। बिहारी ने यद्यपि लक्षण ग्रंथों की रचना नहीं की परन्तु उनके काव्य की प्रवृत्ति सर्वथा ध्वनिवाद के ही अनुकूल थी। उनके दोहों के काव्य-गुण का विश्लेषण करने पर यह संदेह नहीं रह जाता कि वे रसवाद के शुद्ध मानसिक प्राकृतिवाद आनंद को ही अधिक महत्व देते थे।
2. इन कवियों से स्पष्टतया भिन्न दृष्टिकोण है मतिराम, देव, रसलीन, बेनी प्रवीन जैसे कवि आचार्यों और उनसे भी अधिक घनानंद, ठाकुर, नेवाज, बोधा आदि रीतिमुक्त कवियों का जो असंदिग्ध रूप से रसवादी थे।”
3. “ अलंकारवाद का भी प्रभाव हिन्दी में उपेक्षा योग्य नहीं कहा जा सकता है। अलंकार ग्रंथों की इतनी वृहत् संख्या ही उसका महत्व प्रतिपादन करने के लिए पर्याप्त है। इन सभी के रचयिताओं को अलंकारवादी नहीं कहा जा सकता क्योंकि उन्होंने न तो रस का तिरस्कार ही किया और न अलंकार को ही काव्य का प्राण माना है। केवल केशव, ही मूलतः शृंगार रसिक होते हुए भी अलंकारवादी थे। बाद के कवियों में उत्तमचन्द भण्डारी और खाल की भी रुचि अलंकारों में ही रमी थीं। “
इस प्रकार इस रीति-युग में ध्वनि, रस और अलंकार इन तीनों ही वादों का अनुसारण हुआ। इन वादों में भी प्रधानता रही रस-सम्प्रदाय की और रस में भी शृंगार रस की। वास्तव में हिन्दी में रुद्रभट्ट और भोज के अनुकरण पर ‘श्रृंगारवाद’ की स्वतन्त्र रूप में ही प्रतिष्ठा हो गई थी।
ऊपर हिन्दी के तीन प्रतष्ठित व प्रमुख आलोचकों के मत दिये गये हैं। जिनकी विचारधारा का सर्वेक्षण करने के बाद कहा जा सकता है कि- हिन्दी के रीतिकालीन कवियों ने न तो काव्य-शास्त्र में किसी नये सिद्धान्त का प्रतिपादन किया और न ही वाद रूप में किसी सिद्धान्त की प्रतिष्ठा। केवल वाद रूप में केशव ही अलंकारवाद का पक्ष लेकर चले। यद्यपि व्यवहार में वे भी मूलतः शृंगार-रसिक ही सिद्ध होते हैं। इस प्रकार व्यवहार में अलंकार का निरूपण करते हुए तथा अलंकार के प्रणेता होकर भी ये कवि या तो रसवादी थे या फिर ध्वनि-रस या ध्वनिवादी ।
बिहारी और काव्य सिद्धान्त
डा० नगेन्द्र ने बिहारी को स्पष्टतया ध्वनिवादी घोषित किया है। पूर्व इसके कि बिहारी के दोहों के आधार पर उन्हीं के ध्वनिवाद को सौन्दर्य स्पष्ट किया जाए, बिहारी के अलंकार और रस की स्थिति संबंधी परिचय प्राप्त कर लेना उचित होगा।
बिहारी और रसवाद- बिहारी को रसवादी कहा जाता है क्योंकि उन्होंने सतसई के अन्तिम दोहे में कहा है-
“हुकुम पाइ जयसाहि कौ, हरि राधिक प्रसाद।
करी बिहारी सतसई भरी अनेक सवाद।”
अनेक स्वाद की इस चर्चा के अतिरिक्त यह भी कहा जाता है कि बिहारी ने ‘गिरि तें ऊँचे रसिक मन’ का ही उल्लेख किया है और कहा है-
“तंत्रीनात गवित रस, सरस रगा, रति रग । “
रस की यह चर्चा उन्हें रसवादी ही घोषित करती है। किन्तु आलोचकों का मत है कि बिहारी की रचना का जो इतना मूल्य आँका जाता है वह रचना की बारीकी, सूक्ष्म-पद-विन्यास की निपुणता के कारण न कि मार्मिक प्रभाव के कारण। देव, मतिराम रसवादी थे और उनमें जो मार्मिक प्रभाव है वह बिहारी में नहीं मिलता। बिहारी में मानसिक सरसता की अपेक्षा बौद्धिक आनन्द ही अधिक है। बिहारी के दोहों में रस की निष्पत्ति की अपेक्षा रस का ध्वनि-सौंदर्य अधिक है, प्रतीयमान अर्थ की व्यंजना प्रमुख है। यद्यपि बिहारी में ऐसे दोहे भी मिल जायेंगे जो सर्वथा रस को ही प्रस्तुत करते हैं पर अधिकांश में बिहारी ने ध्वनि के प्रतीयमान अर्थ के माध्यम से ही रस का संधान किया है। रस की मधुर वर्षा सजग कलाकार की बौद्धिकता का फल बन कर प्रस्तुत हुई है।
बिहारी और अलंकारवाद – यद्यपि बिहारी सतसई के हर दोहे में अलंकार की छटा मिलती है और उनके अलंकार प्रायः रसोद्रेक में सहायक ही हुए हैं बाधक नहीं किन्तु फिर भी सैद्धान्तिक दृष्टि से बिहारी अलंकार को काव्य में न तो प्राणवत मानते हैं और न ही यह मानते हैं कि “भूषन बिन न बिराजइ कबिता-बिनता मित्त।” इन्होंने अलंकारों को ‘दर्पन के से मोरचे’, ‘करत ‘मलिन आछी छविहि’ और ‘भूषन कर करकस लागत के रूप में स्वीकार किया है। उनकी नायिका भूषन भार के कारण ‘सूधे पाइ’ नहीं कर पाती क्योंकि अलंकार उस काव्य- कामिनी के लिए ‘शोभा का भार’ है। एक दोहे में भूषण ने अलंकारों को थन- अच्छ छवि की स्वच्छता के लिये ‘द्रग-पग-पोंछन’ वाले पायंदाज कहा है। इस प्रकार इन उद्धरणों से स्पष्ट हो जाता है कि बिहारी अलंकारवादी न थे। उन्होंने काव्य में अलंकारों को प्रमुखता नहीं दी। अलंकारों का उपयोग उन्होंने रसोद्रेक के लिए किया है और अलंकारों को काव्य का भाव का अलंकरण रूप तो अवश्य माना, किन्तु अलंकार्य नहीं। अलंकारों संबंधी दृष्टि को स्पष्ट करने वाले ये दोहे इस प्रकार हैं-
“करत मलिन आछी छविहि हरत जुसहज विकास।
अंगराग अंगनु लगै, ज्यौ आरसी उसाल।”
“पहिरि न भूषन कन के, कहि आवत इहिं हेस ।
दरपन के से मोरचे, देह दिखाई देत ।। “
“जोवत परत समान दुति, कनक कनक से गात।
भूषन कर करकस लगत, परसि पिछाने जात ॥ “
“भूषन भार, शंभारिहै क्यों इहि तन सुकुमार ।
सूधे पाइ न घर पर, शोभा ही के भार ।।”
“मानहु विधितन अच्छ छवि स्वच्छ राखिव काज ।
द्ग-पग-पोछन कौं करे भूषन पायंदाज ॥”
बिहारी और ध्वनिवाद- बिहारी के काव्य में भाव योजना हो या वस्तु योजना या चमत्कार सर्वत्र कवि की दृष्टि उनके संकेतित अर्थ को प्रदान करने पर रहती है। इसीलिये बिहारी के काव्य में ध्वनि के तीनों रूप मिलते हैं-रस ध्वनि, अलंकार-ध्वनि और वस्तु ध्वनि । बिहारी रस की योजना करें या अलंकार की, या वस्तु की सर्वत्र उनकी दृष्टि ध्वनि पर रहती है। तंत्रीनाद, कवित्त रस के दोहे में कवि ने कहा है-“अनबूड़े बड़े तरे, जे बूड़े सब अंग’, यहाँ डूबना और तरना किसी नदी या जलाशय में हो सकता था, न कि तंत्रीनात आदि में। अतएव यहाँ न दृष्टि अलंकार तक ही सीमित है और न ही रस तक । अपितु यह सब कुछ ध्वनि के द्वारा हुआ है। इसी प्रकार बिहारी ने सर्वत्र वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ से आगे बढ़कर ध्वनि की व्यंजना पर ही प्रमुख दृष्टि रखी है।
वैसे अगर देखा जाय तो बिहारी के काव्य में ध्वनि के सब भेदों का निरूपण हुआ है- विवक्षित वाच्य, अविवक्षित वाच्य संलक्ष्य क्रम, असंलक्ष्य क्रम। इस प्रकार उनके काव्य का समस्त रस बोध, भाव-बोध, चमत्कार बोध और तो और वस्तु- बोध भी ध्वनि-व्यंजना के द्वारा ही हुआ है-“पता ही तिथि पाइए वा घर के चहुँ पास, नित प्रति पून्योई रहे आनन-औप-उजास ॥”
डा० विजयेंद्र स्नातक ने बिहारी की शास्त्रीय दृष्टि से चर्चा करते हुए कहा है-“ध्वनि के जितने प्रौढ़, परिष्कृत और प्रांजल उदाहरण बिहारी के काव्य में हैं हिन्दी के किसी अन्य कवि में नहीं है। यथार्थ में बिहारी का काव्य मूलतः ध्वनि काव्य ही है।”
इस प्रकार बिहारी का काव्य सैद्धान्तिक दृष्टि से ध्वनिवादी कहा जायेगा न कि अलंकारवादी । यद्यपि अलंकार के चमत्कार का पूरा विधान उसमें है तथा रसवाद का भी। जिसके कारण उनका काव्य उत्कृष्टता को प्राप्त हुआ है। किन्तु मूलरूप से वे ध्वनिवादी ही थे।
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