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बिहारी रीतिकाल के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि | बिहारी सतसई की उत्कृष्टता
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘बिहारी सतसई’ की ख्याति और उत्कृष्टता पर विचार करते हुए लिखा है-
“शृंगार रस के ग्रंथों में जितनी ख्याति और जितना मान बिहारी सतसई का हुआ उतना और किसी का नहीं, इसका एक-एक दोहा हिन्दी-साहित्य में रत्न माना जाता है। इनके दोहे क्या हैं ? रस की छोटी-छोटी पिचकारियाँ हैं, वे मुंह से छूटते ही श्रोता को सिक्त कर देते हैं।”
कविवर बिहारी रीतिकाल के सर्वलोकप्रिय रचनाकार हैं आपकी लोकप्रियता का आधार आपकी एकमात्र कृति ‘सतसई’ है। कविवर बिहारी द्वारा विरचित ‘सतसई’ में रसोत्कर्ष की जो सीमा चरमराती हुई दिखाई देती है वह अन्य कवि के कवित्त-सवैयों जैसे बड़े छन्दों में नहीं दिखाई देती है। इसलिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है-
“किसी कवि का यश उसकी रचनाओं के परिमाण के हिसाब से नहीं, गुण के हिसाब से होता है। इस भाव को व्यक्त करने वाली कुछ उक्तियाँ अग्रलिखित हैं-
“ब्रजभाषा बरनी सबै कविवर बुद्धि विशाल ।
सबकी भूषय सतसई, रवी बिहारी लाल ।।”
तथा-
“सतसैया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर।
देखन में छोटे लगे घाव करे गंभीर ।।”
महान् साहित्य समीक्षक पद्मसिंह शर्मा ने ‘सतसई’ की प्रशंसा में लिखा है-
“बिहारी के दोहों के अर्थ गंगा की विशाल जलधारा के समान हैं, जो शिवजी की जटाओं में तो समा गई थी, परन्तु उससे बाहर निकलते ही वह इतनी असीम और विस्तृत हो गई कि लम्बी-चौड़ी धरती में भी सीमित न रह सकी। “
“मुक्तक रचना की सफलता के लिए भाषा की जिस समास पद्धति और भावों की समाहार शक्ति की आवश्यकता रहती है, बिहारी में उसकी प्रचुरता पाई जाती है। थोड़े शब्दों में अधिक-से-अधिक भाव प्रदर्शित करने की ऐसी योग्यता हिन्दी के किसी अन्य कवि में देखने को नहीं मिलती। “
आचार्य शुक्ल के उपर्युक्त अभिमत को ध्यान में रखते हुए हम कविवर बिहारी के काव्य सौष्ठव और प्रभाव का उल्लेख इस प्रकार कर रहे हैं-
भाव पक्ष
कविवर बिहारी को यदि भावों का बहुत कवि कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। आपके भाव रसों से आप्लावित जीवन के मधुर और सरस पक्षों से प्रस्तुत हुए। इनकी विविधता और अनेक रूप देखते ही बनती हैं। कुछ विशेष प्रभावोत्कृष्ट सभाव पक्ष अंकित किए जा रहे हैं-
लौकिक तत्त्वों का समावेश- कविवर बिहारी जी ने लौकिक तत्त्वों का पूर्णतः समावेश किया है। इनमें भक्ति, नीति, आयुर्वेद, गणित, ज्योतिष, दर्शन, आदि के साथ-साथ वैज्ञानिक तथ्यों को भी स्थान दिए गए हैं। इनके उल्लेख इस प्रकार किए जा रहे हैं-
भक्ति-भावना – कविवर बिहारी जी ने अपनी काव्यकृति ‘सतसई’ के आरंभ में अपने आराध्यदेवा ‘राधानगरी’ की भक्ति भावना को अंकित करते हुए लिखा है-
“मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।
जा तन की झाँई परै, स्याम हरित दुति होइ ।।”
1. बिहारी का ज्योतिष ज्ञान- बिहारी ने जगह-जगह अपनी ज्ञान प्रतिभा का सुन्दर परिचय दिया है। नक्षत्र- मण्डल और ज्योतिषशास्त्र सम्बन्धित ज्ञान को कविवर बिहारी ने जिस रूप में प्रस्तुत किया है वह अत्यन्त सिद्धान्ततः और अनुमानित हैं। इससे उनका अच्छा पाण्डित्य-प्रदर्शन प्रकट होता है, इसका एक उदाहरण इस प्रकार से है-
सनि कज्जल, चख झख लगन, उपज्यो सुदिन सनेहु ।
क्यों न नृयति है भोगवै, लहि सुदेसु सब देहु ॥
विभिन्न ग्रहों के एक नाड़ी पर एकत्रित होने पर संसार में अत्यधिक वर्षा होती है-
मंगल विन्दु सुरंग, सुख, ससि केसरि-आड़ गुरु ।
इक नारि लहि संग, रसमय किय लोचन-जगतु ।
2. गणित ज्ञान- बिहारी एक बहुचर्चित गणितज्ञ भी थे। ‘सतसई’ में सामान्य-से सामान्य और विशिष्ट से विशिष्ट गणित के सिद्धान्तों और नियमों का प्रतिपादन मिलता है। इससे कवि की अध्ययन-मनन गम्भीरता का सुन्दर और स्पष्ट ज्ञान होता है
एक स्थान पर कवि ने लिखा है कि किसी अंक पर शून्य लगा देने से उसमें दसगुनी वृद्धि होती है लेकिन नायिका जब अपने माथे पर बिन्दी लगाती है तो उसका रूप अगणित मात्रा में बढ़ जाता है-
कहत सबै बिन्दी दिए आँकु दस गुना होतु।
तिय लिलार बिन्दी दिए, अगणित होतु उदोतु ।
3. वैद्यक ज्ञान- कविवर बिहारी ने वैद्यक सम्बन्धित अपने ज्ञान को प्रस्तुत किया है, अनेक स्थानों पर कविवर बिहारी ने ज्वर, सुदर्शन बूटी, नाड़ी ज्ञान आदि शब्दों के ज्ञान के साथ ही पुरुष की शक्ति के लिए पारे की भस्म का सेवन करने को कहा है-
बहुधनु ले अहसानु के, पारी देत सराहि।
वैद बधू हँसि भेद सौ, रही नाह मुँह चाहि ॥
4. नीति ज्ञान- कविवर बिहारी को नीति सिद्धान्त का बहुत बड़ा ज्ञान था, उनके दोहों में एक ओर तत्कालीन राजनीति पर आधारित नीति के कुछ उदाहरण हैं; जैसे-
दीघ साँस न लेहु दुःख, सुख पाई हि न भूलि ।
दई दई क्यों करतु है, दई दई सु कबूलि ॥
धन जोड़ने की पद्धति को बिहारी ने खर्च के अतिरिक्त रूप में महत्व दिया है-
मीत न नीत गलीत है जो धरियै धनु जोरि ।
खाएँ खरचें जो जुरै, तो जोरिए करोरि ।।
इसके अतिरिक्त कविवर बिहारी को अनेक लौकिक सामाजिक शिष्टाचार, रीतिरिवाज, राज-व्यवस्था, पर्व-त्यौहारों से सम्बन्धित प्रसंगों और स्वरूपों पर दोहों की रचनाएँ की हैं।
5. प्रकृति चित्रण – महाकवि बिहारी ने प्रकृति चित्रण को कहीं-कहीं आकर्षक रूप में प्रस्तुत किया है। आप द्वारा प्रयुक्त प्रकृति चित्रण अत्यन्त सजीव और रोचक है। प्रकृति को क्रीडामयी रूप में देखने का प्रयास बिहारी का अद्भुत है, एक उदाहरण इस प्रकार है-
रनित भृंग घण्टावली, झरति दान मधु नीर ।
मंद-मंद आवत चरायौ, कुंजर, कुँज समीर ॥
6. उक्ति वैचित्र्य- उक्ति वैचित्र्य के क्षेत्र में कविवर बिहारी का अधिक महत्व है। केशवदास तो केवल उक्ति वैचित्र्य मात्र के लिए जाते हैं जबकि कविवर बिहारी उक्ति वैचित्र्य विनोद के लिए अधिक लोकप्रिय हैं। केवल एक नई बात या चमत्कार ही उत्पन्न करना कविवर बिहारी का एकमात्र उद्देश्य नहीं है अपितु ठोस और नपे-तुले शब्दों के लिए भी अपना एक बहुत उद्देश्य मानते हैं। एक उदाहरण अग्रलिखित है-
“द्ग उरझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति ।
परत गाँठ दुरजन हिए दई नई यह रीति ।। “
कला-पक्ष
भाव-पक्ष से बढ़कर कविवर बिहारी का कला-पक्षगत विशेषता है। आपकी यह विशेषता रीतिकालीन काव्यधारा की अप्रतिम विशेषता है। यह विशेषता निम्नलिखित प्रकार से है-
1. शृंगार रस- आपकी सर्वप्रिय लब्धप्रतिष्ठित काव्यकृति ‘सतसई’ में शृंगार रस की ही प्रधानता है। इसके दोनों ही पक्षों का कवि ने अत्यन्त कुशलतापूर्वक किया है, संयोग श्रृंगार और विप्रलम्भ शृंगार दोनों ही समान रूप से हैं-
‘बिहारी सतसई’ की मूल प्रवृत्ति शृंगारी है, संयोगकाल की कोई ऐसी स्थिति नहीं, जो बिहारी की दृष्टि से बची हो। उन्होंने लखशिख, नायिका भेद, मान, प्रवास आदि सभी विषयों पर अपनी लेखनी चलाई है। अन्य शृंगारी कवियों की अपेक्षा बिहारी ने सौन्दर्य का व्यापक रूप ग्रहण किया है-
अनियारे दीरघ दृगनु, किती न तरुनि समान ।
वह चितवनि और कछु, जिहि बस होत सुजान।
बिहारी की नायिका क्षण-क्षण नवीनता को धारण करने वाली है। उसका सौन्दर्य आलौकिक है-
लिखन बैठि जाकी सबी, गहि गहि गुरव गरुर।
भये न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर ॥
सतसई में प्रायः सभी भावों का वर्णन किया गया है परन्तु प्रधानता विलास भावों को ही दी गई है-
बतरस लालच लाल की मुरली घरी लुकाइ ।
सौंह करे, भौहान हँसे, दैन कहे नटि जाइ ।।
हम देखते हैं कि प्रेम-व्यवहार में तन्मयता, आत्मीयता और रोचकता के पूरे भाव विद्यमान हैं। वास्तव में प्रेम की सच्चाई भी यही होती है। प्रेम यही बलिदान भी चाहता है। हिन्दी के प्रायः सभी कवियों ने प्रेम के इसी दर्पण को सही रूप में रखने की चेष्टा की है। रीतिकालीन कवियों ने तो इसे विशेष रूप में चमकाने का अधिक प्रयास किया। इनमें कविवर बिहारी और घनानन्द विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। बिहारी का प्रेम-शृंगार तो घनानन्द से भी अधिक कसक उत्पन्न करने वाला है। कविवर बिहारी ने रूप-वर्णन के अंतर्गत नखशिख वर्णन, विभिन्न अलंकारों के प्रयोग सौन्दर्य के अन्य प्रभावों का अधिक प्रभावशाली रूप में चित्रण किया है। इन अवसरों पर अलंकारों के प्रयोग अधिक आकर्षक और रोचक सिद्ध हुए हैं।
कविवर बिहारी ने अपनी विशिष्ट प्रतिभा को प्रदर्शित करने के लिए शारीरिक सौन्दर्य का चित्र खींच दिया है। वस्त्र-सौन्दर्य को आंकत करने में कविवर बिहारी ने अधिक सतर्कता से काम किया है। श्वेत साड़ी में लिपटे सौन्दर्य का एक चित्र देखिए-
“सहज सेत पचतोरिया, पहरे अति छवि होति
जल चादर के दीप लौ, जगमगाति तन जोति ॥”
कविवर बिहारी ने संयोग शृंगार की विविध दशाओं के चित्रण में कुछ ऐसे भी चित्रण प्रस्तुत किए जो अधिक अद्भुत और आकर्षक हैं। इस तथ्य की पुष्टि नीचे दिए गए उदाहरणों से हो जाती है। पहले दोहे में नायक और नायक के परस्पर मिलन- प्रेम को रीझ खीझ का उल्लेख है तो दूसरे दोहे में नायक की बंकिम छटा से घायल नायिका के हृदय की टीस व्यथा का चित्रण है। इसी प्रकार से तीसरे दोहे में नायक के द्वारा आकर्षित नायिका की उस दशा का उल्लेख किया गया है। जिसमें आकर्षण के बाण को चलाते हुए देखकर नायिका उसके चलने पर उसके साथ जाने की विवशता को जमुहाई के बहाने में बदलने का सुन्दर और रोचक चित्रण हुआ है-
1. “कहत नटत, रीझत खीझत, मिलत-ज-जुलत लजियात।
भरे भौन मैं करत हौं, नैनन ही सों बात ।।”
2. “नासा मोरि, न चाइ दृग, करी काका की भौंह ।
काँटे-सी कसकै हिए, गड़ी कँटीली भौंह ॥ “
3. “ललन-चलन सुनि पलन में, अँसुवा झलके आइ ।
भई लखाइन सखिन्ह हूँ झूठे ही जमुहाई ।”
इस तरह के और उदाहरणों से यह स्पष्ट किया जा सकता है कि कविवर बिहारी ने संयोग श्रृंगार के वर्णन में अपनी जिस प्रतिभा की पहचान प्रस्तुत की है वह एक विशिष्ट स्थान की अधिकारी है।
2. विप्रलम्भ शृंगार- विप्रलम्भ शृंगार के चार भेद किए गए हैं- पूर्वराग, मान, प्रवास गमन, और शाप या करुण स्थिति । सतसई के विरह-वर्णन में विप्रलम्भ के इन चारों रूपों को स्थान मिला है। दर्शन जन्य पूर्वानुराग का एक चित्र देखिए-
हरि-छवि-जल जब तें परे तब ते छिनु बिछुरै न ।
भरत ढरत, बूढ़त तरत, रहत घरी लौ नैन ॥
परन्तु संयोग से अधिक महत्व कवि ने विप्रलम्भ को ही दिया है, अभिलाषा, चिन्ता, स्मृति, गुणकथन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता, मरण आदि काव्यशास्त्रीय विरह की दशाओं का यथोचित वर्णन किया है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि इन्होंने विरह-वर्णन शास्त्रीय पद्धति के अनुसार ही प्रस्तुत किया है, एक तथ्य यह अवश्य ध्यातव्य है कि कविवर बिहारी का विरह-वर्णन अतिशयोक्ति प्रधान है। जैसे-वियोग की दशा में पहुँचते ही नायिका वियोग की दशा में पहुँचते ही कभी प्राण बचाने के लिए चन्द्रमा और समीर के सामने दौड़ती फिरती है और साँस लेती है तो कभी छह-सात हाथ इधर तो कभी उधर खिसक जाती है। उसका शरीर विशेष रूप से उसकी छाती इतनी जलती रहती है कि उसके कभी रोने से दो आँसू वक्षस्थल पर गिरते ही वाष्प बनकर उड़ जाते हैं। कोई उस पर गुलाब जल छिड़कता है तो वह बीच में ही सूख जाता है। वह इतनी कमजोर हो गई है कि मृत्यु चश्मा लगाकर भी उसे देख नहीं पाती है, नायिका की इस वियोगमयी दशा को दर्शाने वाले कुछ दोहे नीचे दिए जा रहे हैं जिनसे उसकी वियोग दशा की विविधता का ही नहीं अपितु उसकी विचित्रता का भी उल्लेख मिलता है। इस प्रकार के वर्णनों से नायिका की विरह-दशा में अतिशयोक्तिपूर्ण भावों का समावेश हो गया है। नीचे दिए गए पहले दोहे में नायिका के सुकुमार पूर्ण विरहमय बदन को गुलाब के समान, दूसरे दोहे में विरहिणी के अतिशय कमजोर होकर हिंडोरे-सी पड़ी रहने का, तीसरे दोहे में विरहिणी को प्रीष्मकालीन दिन-सा और चौथे दोहे में विरहिणी को जाड़े की भी रात में अधिक संतप्त बनी रहने का मार्मिक चित्रांकन किया गया है-
1. “छाले परिवे के डरन, सके न हाथ छुवाइ ।
झिझकति हिए गुलाब की, भवाभवावति पाइ ॥”
2. “इत आवति चलि जात उत, चढ़ी छ: सातक हाथ ।
चढ़ी हिंडोरे-सी रहे, लगी उसासन साथ ।। “
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कविवर बिहारी के विप्रलम्भ शृंगार सम्बन्धित दोहों के विषय में तीखी आलोचना करते हुए कहा है कि- “कहीं-कहीं इनकी वस्तु-व्यंजना औचित्य की सीमा का उल्लंघन करके खेलवाड़ के रूप में हो गई है।”
हम कह सकते हैं कि आचार्य शुक्ल की यह तीखी आलोचना दृष्टि कविवर बिहारी के अतिशयोक्तिपूर्ण विप्रलम्भ शृंगारिक वर्णन के विषय के लिए ही है।
3. श्रेष्ठ मुक्तक-काव्य की विशेषताएँ- बिहारी में कल्पना की समाहार शक्ति तथा समास-पद्धति में अपनी वाणी को व्यक्त करने की पूर्ण सामर्थ्य है। बिहारी ने दोहे जैसे छोटे छंद में रसोत्पादन की पूर्ण सामग्री उपस्थित कर अपनी सफलता का परिचय दिया है। बिहारी की समास-पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने दोहे के छोटे साँचे में सांगरूपकों का निर्वाह बहुत सुन्दर ढंग से किया है और पर्याय व्यापारों को इस प्रकार प्रतिपादित किया है कि वे जो कुछ व्यक्त करना चाहते हैं, वह भली-भाँति व्यक्त हो जाता है। देखिए-
खौरि पनिज, भृकुटी-धनुष बधिकु समरु तजि कानि ।
हनति तरुनु मृग तिलक-सर, सुरक-भाल, भरि-तानि ।।
सिर पर लगी खोर प्रत्यंचा है, भृकुटी धनुष, तिलक बाण और सुरक भाल अनी है। चलाने वाला बधिक कामदेव मर्यादा का उल्लंघन करके, तान कर इनसे तरुण मृगों का वध कर रहा है। इस प्रकार एक ही दोहे में बाण चलाने का व्यापार, लक्ष्य भेद एवं नायक-नायिकाओं की चेष्टाओं का पूर्ण चित्रण हुआ है।
4. दोहे के अनुरूप भाषा की सुगठितता – बिहारी की इस समास-पद्धति की सारी शक्ति उनकी भाषा के गठन और सामर्थ्य में है। उनके प्रत्येक दोहे का एक स्वतन्त्र लक्ष्य है । उसी तक पहुँचने का प्रयत्न उस दोहे में किया गया है। भावों की पुनरुक्ति उसमें कहीं नहीं है। मुक्तक- रचना में भाषा की जितनी भी विशेषताएँ होनी चाहिए, वे सभी बिहारी की भाषा में हैं। यही कारण है कि उनकी कविता के सामने किसी अन्य मुक्तक रचनाकार की रचना जँचती ही नहीं और सभी गुलदस्ते से अपनी भावभूमि को सजाना चाहते हैं। भाषा की समास शक्ति के लिए ‘सतसई’ का निम्नलिखित उदाहरण पर्याप्त होगा, जिसमें नायक-नायिका की सम्पूर्ण चेष्टाएँ केवल आँखों ही आँखों में हुई हैं-
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात ।
भरे भौन मैं करत हैं. नैनन ही सब बात ।।
कविवर बिहारी की भाषा सम्बन्धित विशेषताओं के विषय में यह कहा जा सकता है कि इनकी भाषा में शब्दों के गठन और वाक्य विन्यास के रूप अधिक उच्चस्तरीय हैं। इसी सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि इन्होंने साहित्यिक ब्रजभाषा की शब्दावली प्रयुक्त की है। इस प्रकार की भाषा में समास शक्ति का सुन्दर रूप दिखाई पड़ता है। इनकी भाषागत दूसरी विशेषता यह है कि इनकी शब्दावली किसी प्रकार के भावावेश के आरोप से मुक्त है। ये शब्दावली संतुलित, अपेक्षित और अर्थानुसार है। इनकी शब्दावली में अरबी-फारसी के शब्द भी अपेक्षित रूप में हैं। कविवर बिहारी ने लोकोक्तियों और मुहावरों को यथास्थान दिए हैं। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इनकी भाषा के विषय में इस प्रकार लिखा है-
“बिहारी का भाषा पर वास्तविक अधिकार था इसलिए बिहारी को भाषा का पंडित कहना चाहिए। भाषा की दृष्टि से बिहारी की समता करने वाला, भाषा पर वैसा अधिकार रखने वाला कोई मुक्तककार नहीं दिखाई पड़ता है।”
इस प्रकार से बिहारी की भाषा एक श्रेष्ठ मुक्त-रचना के लिए अधिक उपयुक्त और अनुकूल दिखाई देती है।
छन्द- कविवर बिहारी द्वारा प्रयुक्त छन्दों के दो प्रकार हैं- दोहा और सोरठा- ये दोनों ही 48 मात्राओं के छन्द हैं। बिहारी ने दोहे रूपी स्तबक में सारी भाव- सुषमा को भर दिया है। इनकी भाषा की समास-पद्धति और विचारों की समाहार शक्ति दोनों ही उत्कृष्ट रूप से दोहे छन्द के लिए सहायक सिद्ध हुई है। इस प्रकार से इन्होंने मुक्त काव्यानुकूल छन्द प्रयोग किए हैं।
अलंकार- ‘सतसई’ में अलंकारों की भरमार है। इसके लिए कविवर बिहारी ने अर्थ की रमणीयता का ध्यान बराबर रखा है। वस्तुतः ‘सतसई’ में अलंकार योजना परतन्त्र रूप में अधिक हुई है, जहाँ अलंकार भावों के सहायक रूप में प्रयुक्त हुए हैं। अर्थालंकार भावों को हृदयंगम कराने में विशेष सहायक होते हैं, अतः सतसई में उनका विशेष प्रयोग बिहारी ने किया है। साम्यमूलक, वैषम्यमूलक, श्रृंखलामूलक और न्यायमूलक, चारों श्रेणियों के अर्थालंकारों के उदाहरण ‘बिहारी सतसई’ में खोने जा सकते हैं, किन्तु साम्यमूलक और वैषम्यमूलक अलंकार बिहारी को विशेष प्रिय थे। असंगति का उदाहरण देखिए-
दुग उरझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर-चित प्रीति।
परति गाँठि दुरजन-हिये, दई, नई यह रीति ।।
यद्यपि ‘सतसई’ की रचना अलंकार के उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए नहीं की गई, फिर भी उसमें से अलंकारों के उदाहरण चुनकर एक लक्षण ग्रन्थ की रचना की जा सकती है। इन अलंकारों ने जहाँ काव्य में चमत्कार उत्पन्न किया है वहाँ ये भावों के सहायक होकर भी आए हैं।
‘सतसई’ रीतिकालीन रचना है, इसलिए उसमें बिहारी ने अपनी अलंकारप्रियता स्पष्ट रूप से प्रदर्शित की है। रीतिकालीन प्रभाव के कारण बिहारी की कुछ रचनाएँ शुद्ध चमत्कार उत्पन्न करने वाली हैं, परन्तु अनेक स्थानों पर अलंकार भावों के सहायक रूप में प्रयुक्त हुए हैं। ऐसे स्थलों पर बिहारी ने अधिक प्रभावशाली अलंकारों के प्रयोग किए हैं।
5. वर्ण चित्र – डॉ० नगेन्द्र के अनुसार बिहारी ने रेखाचित्र केवल ऑके ही नहीं, अपितु उनमें रंग भी भरे हैं। “बिहारी और देव दोनों ने अपने चित्रों में वर्ण योजना का अद्भुत चमत्कार दिखाया है। कहीं छाया-प्रकाश के मिश्रण द्वारा चित्र में चमक उत्पन्न की गई है, कहीं उपयुक्त पृष्ठभूमि देते हुए एक ही रंग को काफी चटकीला कर दिया गया है, और कहीं अनेक प्रकार के सूक्ष्म कौशल से मिलाते हुए उसमें सतरंगी आभा उत्पन्न की गई है।” उदाहरणार्थ यह दोहा अवलोकनीय है-
“अधर धरत हरि के परत ओठ दीठि पर जोति
हरित बाँस की बांसरी, इन्द्रधनुष-सी जोति ॥”
वयः सन्धि के वर्णन में रंगों का प्रयोग अति सूक्ष्मता, सरलता और कोमलतापूर्वक किया गया है-
“छुटि न सिसुता की झलक झलक्यों जोवन अंग ।
दीवति देह दूहन मिलि दिपत ताफता रंग ।।”
चमत्कार से अनुप्राणित होने पर कवि ने विरोधी रंगों के मेल से बड़ी उत्कृष्ट भाव-व्यंजना की है-
“या अनुरागी चित्त की गति समुझे नहि कोय।
ज्यों-ज्यों डूबे स्याम रंग त्यों-त्यो उज्ज्वल होय ।।”
भाषा- बिहारी का शब्द-गठन और वाक्य विन्यास बहुत ही सुगठित है। साहित्यिक ब्रजभाषा का रूप इनकी ही भाषा में सर्वप्रथम इतने निखार को प्राप्त हुआ। इनकी भाषा में समास शक्ति पूर्ण रूप से विद्यमान है। वे भावावेश की दशा में काव्य-रचना न करके पर्याप्त संतुलित और सावधान मन से एक-एक भाव को तौलकर, उसके अनुरूप एक-एक उपयुक्त शब्द का निर्माण करके काव्य-रचना करते थे। इन्होंने अरबी, फारसी के शब्दों का भी प्रयोग किया है। इन्होंने भाषा को प्रेषणीय बनाने के लिए मुहावरे लोकोक्तियों का भी प्रयोग किया है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र बिहारी की भाषा के सम्बन्ध में लिखते हैं, ‘बिहारी का भाषा पर वास्तविक अधिकार था इसलिए बिहारी को भाषा का पंडित कहना चाहिए। भाषा की दृष्टि से बिहारी की समानता करने वाला, भाषा पर वैसा अधिकार रखने वाला कोई मुक्तककार नहीं दिखाई पड़ता है।
पांडित्य – बिहारी सतसई में अध्यात्म, पुराण, ज्योतिष, नीति, गणित आदि विषयों का उल्लेख मिलता है। इससे उनके प्रत्येक क्षेत्र में अगाध पंडित होने का पता लगता है। बिहारी के कुछ आलोचकों ने उनके एक-एक दोहे को पकड़ कर उन्हें धुरन्धर विद्वान् एवं ज्योतिषी सिद्ध करने का प्रयास किया है, जो अनुचित है। मध्ययुगीन कवि को नाना विषयों का समावेश अपने पाठकों के मनोरंजन हेतु करना पड़ता था। वही बिहारी कवि ने भी किया था। हाँ, उन्हें विस्तृत अनुभव अवश्य था, जो एक कवि के लिए अपेक्षित भी होता है।
बिहारी की काव्य-कला के संदर्भ में हम भी ‘डॉ० हरवंश लाल शर्मा के निम्नांकित उद्गारों से सहमति रखते हैं
“इनके बहुत से दोहों में रस की समस्त सामग्री इतनी सहज शैली से जुटाई गई है कि वे पूरे रसवादी प्रतीत होते हैं, किन्तु वस्तु अलंकार आदि ध्वनि के भी इतने अधिक उदाहरण मिल जाते हैं कि उन्हें ध्वनिवादी ही मानना पड़ता है। एक ओर तो उनका वाग्वैदग्ध्य ‘वक्रोक्ति काव्य जीवितम्’ का घोष करता हुआ-सा प्रतीत होता है और दूसरी ओर सभी अलंकारों के ऐसे साफ उदाहरण जैसे हिन्दी के रीति ग्रन्थों में भी नहीं मिलते, उन्हें अलंकारवादी कहने के लिए प्रोत्साहित करता है। बिहारी मानो प्रत्येक का विश्वास प्राप्त कर सबका प्रतिनिधित्व कर रहे थे।”
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