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भक्तिकालीन काव्य संवेदना और तत्कालीन अभिव्यक्ति विधान
भक्तिकाल की चारों शाखाओं- ज्ञानमार्गी, प्रेममार्गी व कृष्ण-भक्ति और राम भक्ति में कुछ ऐसी समान भावनाएँ थीं, जिनके कारण इतिहास लेखकों ने उन्हें एक ही काल में प्रतिष्ठित किया है। ये विशेषताएँ सन्तों और भक्त कवियों में समान रूप से पाई जाती हैं।
(1) नाम की महत्ता – जब कीर्तन, भजन आदि के रूप में भगवान का गुण कीर्तन सन्तों, सूफियों और भक्तों में समान रूप से पाया जाता है। कृष्ण भक्तों और सूफियों में कीर्तन का अधिक महत्व है। तुलसी भी राम के नाम को राम से बड़ा मानते हैं क्योंकि राम में निर्गुण और सगुण दोनों का समन्वय हो जाता है। कबीर का कथन है- “निर्गुण की सेवा करो, सगुण का करो ध्यान। ” जायसी भी उसी का स्मरण करते हैं- “सुमिरौ आदि एक करतारु, जेहि जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू ।” तुलसी निर्गुण और सगुण दोनों से ही नाम को श्रेष्ठ मानते हैं- “मोरे मत बड़ नाम दुहते किये जेजि जग निज बस निज बूते । “
(2) गुरु महिमा – महात्म कबीरदास ने गुरु का स्थान भगवान से भी अधिक ऊंचा माना है। “गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागों पाँव ।” उन्होंने दोनों में से गुरु की ही अधिक सम्मान दिया है क्योंकि- “बलिहारी वा गुरु की जिन गोविन्द दियो दिखाय ।” कबीर ने स्थान-स्थान पर अनेक बार गुरु की महिमा का बखान किया है। जायसी ने भी गुरु को बहुत महत्व दिया है- “गुरु सुआ जेहि पंथ दिखावा । बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा।” इसी पत्रकार तुलसी ने भी गुरु की वन्दना की है-“वन्दौ गुरुपद कंज, कृपासिंधु नर रूप हरि।” मानस में आरम्भ में तुलसी ने गरु की महिमा का खूब बखान किया है। सूर ने अपने गुरु को अत्यन्त श्रद्धा और भक्तिपूर्वक स्मरण किया है-“बल्लभ-नखचन्द्र छटा बिनु सब जग माँहि अंधेरो।” इस प्रकार दोनों धाराओं में गुरु की समान महिमा मानी और गायी गई है।
(3) भक्ति भावना का आधिक्य- भक्ति कवियों के जीवन का परम उद्देश्य अपने भगवान की भक्ति करना एवं मुक्ति पाना था। चारों शाखाओं में भक्ति भावना प्रधान रही है। निर्गुणोपासक कबीर ने भी भक्ति को प्रधानता दी है। उनका मत है। कि बिना भक्ति के ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती और ज्ञान द्वारा ईश्वर की प्राप्ति होती है- “हरि भक्ति जाने बिना बूढ़ि मुआ संसार।” प्रेममार्गी कवियों ने प्रेम को ईश्वर की भक्ति माना है। यद्यपि उसका रूप शुद्ध भक्ति का नहीं है। सूफी मत की चारों अवस्थाओं-रसीकत, तरीकत, हकीकत व मारिफत को भगवद शक्ति का साधन मानता है। सूर और तुलसी की तो प्रत्येक पंक्ति भावना से आकंठ व ओत-प्रोत है।
(4) अभिमान का त्याग- भक्त कृवि सदैव आत्मानन्द में मस्त रहने वाले जीव थे। बाह्य संसार से उन्हें विशेष लगाव घृणा एवं द्वेष न था। ऐसी अवस्था में वे स्वाभिमानी तो थे परन्तु उनके निश्चल जीवन में अभिमान नाम मात्र को भी नहीं था। सदैव निरभिमान रहकर अपने ईश्वर के गुणगान करने रहना ही उनका पावन धर्म और कर्तव्य था । उन्हें सदैव अपने एवं जग के प्राणियों के आत्मोद्धार की चिन्ता रही। ऐसी अवस्था में अभिमान जैसी प्रवृत्ति का होना असम्भ था। कबीर ने कहा है-‘जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु है हम नाहि प्रेम गली अति सॉकरी तामें दो न समाहि।” भक्त चाहे किसी भी सिद्धान्त का मानने वाला क्यों न हो, अहंकार का त्याग उसके लिए पहली शर्त है। सूर और तुलसी अत्यन्त दीन होकर भगवान से अपने उद्धार की प्रार्थना करते हैं-“प्रभु हौं सब तितन को टीको।” तथा “प्रभु अबकी राखिलेउ लाज हमारी।”
(5) आडम्बर का विरोध- सभी सन्त कवियों एवं भक्तों ने सांसारिक वाहा आडम्बरों का विरोध किया तथा त्यागमय एवं सादा जीवन बिताया। ये भक्त कवि विलासी जीवन से बहुत घृणा करते थे। महात्मा कबीरदास ने तो हिन्दू और मुसलमानों के बाह्य आडम्बरों का खुलकर विरोध किया और दोनों की बुराइयों की निन्दा की। हिन्दुओं की मूर्तिपूजा का विरोध करते हुए उन्होंने कहा था-
“पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार।
ताते ये चक्की भली, पीस खाय संसार।”
इसी प्रकार मुमलमानों के रोजा, निमाज की प्रथा का स्पष्ट शब्दों में विरोध किया-
“काकड़ पत्थर जोड़कर मस्जिद लई बनाय ।
ता पर मुल्ला बाग दें क्या बहरो भयो खुदाय ॥
और अन्त में उन्होंने कहा है- “अरे इन दोनों राह न पाई ।”
(6) राज्याश्रय से दूर- वीरगाथा काल के समाप्त होते-होते राज्याश्रय भावना भी भक्तें के हृदय से निकल चुकी थी। वे सन्त तथा भक्त कवि सांसारिक लोभ, मोह से दूर रहना चाहते थे और आत्मानन्द की प्राप्ति करना चाहते थे। इसलिए उनकी सारी रचनाएँ किसी अन्य की झूठी प्रशान्ति या प्रसन्न करने के लिए न होकर स्वांत सुखाय “तुलसी रघुनाथ गाथा” इसी प्रकार अन्य भक्तों ने भी आत्मविभोर होकर भगवान के गुणगान किये थे। उन्हें किसी राजा महाराजा या चक्रवर्ती से कोई सरोकार नहीं था। “सनतन कहा सीकरो सो काग” वाला पद इसका साक्षात प्रमाण है। सन्त कवि उन्मुक्त हाकर स्वतन्त्र रूप में रचना करते थे उनको किसी का दबाव कभी स्वीकार नहीं था। जो कुछ भी लिखा जाता था रस अनुभूतिमय एवं अन्तःकरण की प्रेरणा का प्रतिफल होता था।
(7) आराध्य देव में समर्पण की भावना – भक्त कवियों के काव्य में सर्वत्र अपने परमात्मा के लिए ही आत्मा-समर्पण की चेष्टा की गई पाई जाती है। सखा के रूप में, अबोध सेवक के रूप में, मित्र के रूप में और पुत्र तथा भक्त के रूप में, जिस किसी भी प्रकार के सब अपने आराध्य में लीन होना उसकी छत्रछाया में एकाकार हो जाना चाहते थे। “ज्यों-ज्यों तुलसी कृपालु चरण शरण पावें ।” कहकर तुलसी ने इसी बात का खरा प्रतिपादन किया है। मीराबाई का तन, मन सर्वस्व ही अपने पति गिरवर गोपाल को भेंट था। अन्धे सूर ने न जाने कितने बार अपने को कृष्ण अर्पित करने को कहा था और कबीर तो उस परमात्मा को सदैव अपपने में लिए रहते थे।
(B) सत्संगति का महत्व- रामचरित मानस में तुलसी की स्पष्ट उक्ति है-
“तात वर्ग अपवर्ग सुख, धरिय तुला एक अंग ।
तूलि न ताहि सकुल मिलि जो सुख लव सत्संग ॥ “
और कबीर ने भी सत्संगति को महत्व दिया है-
“कबिरा संगति साधु की हरे और की व्याधि।”
सूर ने भी स्पष्ट शब्दों में कहा-
“छाँड़ि मन हरि विमुखन को संग।”
हर दशा में उन्होंने सत्संगति को जीवन की परम निधि ही माना इसके बिना जीवन की सार्थकता ही नहीं हो सकती । भक्त कवियों का काव्य ही सुसंगति का अमर काव्य है। जिसमें पद-पद में ईश्वर भक्ति के साथ सुसंगति का गुणगान किया गया है।
(9) निराकार तथा साकार की उपासना- सन्त एवं भक्त कवियों द्वारा साकार एवं निराकार दोनों ही रूपों में परमात्मा को उपलब्धि सम्भव बताई गई। आवश्यकता उस स्वरूप की भक्ति एवं उपासना करने की थी, जिससे वह प्रसन्न हो सकता और अपने भक्त को अभय वरदान दे सकता। यद्यपि जिसको जो रूप अच्छा लगा उसने उसी रूप को अपनाया, परन्तु उनका कहना यही था कि दोनों के स्वरू में तात्विक भेद कुछ भी नहीं था। बात केवल अपनी-अपनी अभिरुचि की थी।
(10) जन-साधारण की भाषा का प्रयोग- भक्तिकाल के काव्य का अमर सन्देश जन-जन में पहुंचने का मुख्य कारण उसमें जन-सामान्य की साधारण भाषा के प्रयोग का होना है। यह भाषा अत्यन्त सरल परन्तु भावपूर्ण व्यक्त की गई है। उन्हें सीधी और सच्ची बात सीधी तथा सरल भाषा में ही कहना अधिक प्रिय था इसी कारण जन सामान्य में उनका प्रचार बड़ी सुगमता से हो सका।
भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
(1) निर्गुणोपासना की ज्ञानाश्रयी शाखा के कवि निराकार ईश्वर के उपासक थे। गुरु के महत्व पर उनका विश्वास था और अंधविश्वास, रूढ़िवाद, मिथ्याडम्बर तथा जाति-पाँति के बन्धनों के वे विरोधी थे। इनके काल की भाषा में अनक बोलियों का मिश्रण था तथा वह सीधी-सादी होती थी। प्रधान छंद, साखी (दोहा) और पद थे। विश्वबन्धुत्व की भावना जगाना इनका प्रधान उद्देश्य था ।
(2) निर्गुणोपासना की प्रेमाश्रयी शाखा के कवि भारतीय लोकजीवन में प्रचलित कथाओं एवं इतिहास प्रसिद्ध प्रेमगाथाओं पर आधारित काव्य लिखते थे। इनमें सूफी उपासना पद्धति का प्रभाव था। गुरु का महत्व था भाषा अवधी थी तथा दोहा एवं चौपाई प्रमुख छंद थे।
(3) सगुणोपासना में कृष्ण भक्ति के आधार कृष्ण और राम भक्ति काव्य के आधार राम भगवान के अवतार रूप में उपास्य थे। इनका गुणगान और लीलाओं का वर्णन प्रमुख था। सूर की काव्य-भाषा ब्रज थी। उन्होंने केवल मुक्तक पदों की रचना की, जिन्हें बाद में लीलाक्रम अथवा श्रीमद्भावत के कथा-क्रम में संकलित कर लिया गया। तुलसी ने अवधी तथा व्रजभाषा दोनों को काव्य भाषा बनाया। तुलसी ने दोहा-चौपाई, सोरठा, बरव, हरिगीतिका, सवैया आदि विविध छंदों का प्रयोग किया है। विनयपत्रिका में विनय के पद हैं।
(4) इस काल की विशिष्ट प्रवृत्ति कवियों का राज्याश्रय से स्वतंत्र होना है।
(5) कृष्ण-भक्ति के श्रृंगार तथा वात्सल्य रस और सख्य भाव की प्रमुखता है। राम भक्ति में शांत रस तथा दास्यभाव की प्रधानता है।
भक्ति-काल का योगदान
हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्ति-काल को हिन्दी का स्वर्ण युग कहा जाता है। भक्त कवियों ने चित्त की जिस उदात्त भूमिका में रम कर हृदय सागर का मंथन कर मनोरम भावों के नवनीत को प्रदान किया है, वह भारतीय साहित्य की शाश्वत विभूति है। निर्गुणोपासना की ज्ञानाश्रयी शाखा के संत कवियों ने समाज कल्याण के हितकारी उपदेश दिये। उन्होंने ज्ञान और सच्चे गुरु के महत्व को प्रतिष्ठा दी। प्रेमाश्रयी शाखा के सूफी संत कवियों न ईश्वर-प्राप्ति का मुख्य साधन प्रेम बताया। सगुणोपासक कवियों ने कृष्ण की मनोरम लीलाओं एवं राम के मर्यादा पुरुषोत्तम चरित्र की बड़ी ही मनोरम झाँकियाँ प्रस्तुत कीं । सीमित वर्ण्य विषयों का असीम वर्णन इस काव्य की विशेषता है। इन कवियों की रचनाओं की केवल विषय-वस्तु ही नहीं अपितु काव्यशास्त्रीय पक्ष भी परम समृद्ध है।
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