भक्तिकाल की पृष्ठभूमि तत्कालीन परिस्थितियों के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।
आदिकाल को परिनिष्ठित अपभ्रंश भाषा के साहित्य का बढ़ावा मानते हुए कुछ विद्वान भक्ति साहित्य से ही वास्तविक हिन्दी साहित्य का आरम्भ मानते हैं। डॉ. जयकिशन प्रसाद के अनुसार 14वीं शताब्दी से जिस भक्ति साहित्य का सृजन प्रारम्भ हुआ उसमें ऐसे महान् साहित्य की रचना हुई जो भारतीय इतिहास में अपने ढंग का निराला साहित्य है। इस महान् साहित्य की पृष्ठभूमि की चर्चा संक्षेप में निम्न प्रकार सम्भव है-
(1) राजनीतिक परिस्थितियाँ- डॉ. राजनाथ शर्मा के अनुसार- “पन्द्रहवीं सदी के आरम्भ तक भारत में मुस्लिम समुदाय की स्थापना हो चुकी थी आर परस्पर कलह में डूबे हिन्दू राजा छुट-पुट विरोध करने में ही समर्थ रह गये थे। यह काल भी युद्ध और अशान्ति का काल ही था। मुस्लिम शासकों के सिपाही और अधिकारी हिन्दू जनता पर अत्याचार करते थे। सिकन्दर लोधी जैसे धर्मान्ध मुल्ला मौलवियों के प्रभाव से अन्याय कर बैठते थे। इस युग की राजनीतिक परिस्थितियाँ विषम थीं। राजपूत, मराठे, सिक्ख तथा हिन्दू शासक मुसलमानों का विरोध करते थे। उनमें स्वतन्त्रता की प्रवृत्ति भी थी। हिन्दू जनता मुसलमानों के अत्याचारों की शिकार थी। उनके मन्दिर तोड़कर मस्जिदें बनायी गयीं। शिया, सुन्नी, अरबी, तुर्की, पठान भी मुगलों से लड़ रहे थे। मुगल शासक भी गद्दी के लिये अपने भाई-पिता का वध करते थे।
(2) सामाजिक परिस्थितियाँ- जाति-पाँति, ऊंच-नीच की भावना विद्यमान थी। अमीर अत्याचारी थे। वर्नियर ने लिखा है- “हिन्दुओं के पास धन संचित करने के कोई साधन नहीं रह गये थे। अभावों और आजीविका के लिए निरन्तर संघर्ष में जीवन बिताना पड़ता था। प्रजा के रहन-सहन का स्तर निम्न कोटि का था। करों का सारा भार उन्हीं पर था। राज्य पद उनको अप्राप्य थे। राज्य शक्ति पक्षपातपूर्ण थी। हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति का आदान-प्रदान हुआ। बाल-विवाह का प्रचलन हुआ। मुसलमान हिन्दू स्त्रियों को हरम में रखते थे।” आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार- दैनिक जीवन, रीति-रिवाज, रहन-सहन पर्व-त्यौहार आदि की दृष्टि से तत्कालीन समाज सुविधा सम्पन्न और असुविधा ग्रस्त-दो वर्गों में विभक्त था। प्रथम वर्ग में राजा-महाराजा, सुल्तान, अमीर, सामन्त और सेठ साहूकार आते थे, द्वितीय वर्ग में किसान, मजदूर, सैनिक, राज्य कर्मचारी और घरेलू उद्योग-धन्धों में लगी जनता आती थी। दुकानदारों को समान छिपाकर रखना पड़ता था, क्योंकि राज्य कर्मचारी उसे उठा ले जाते थे। तुलसी ने इन पंक्तियों में तत्कालीन स्थिति का चित्र खींचा है-
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख बलि,
बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी ॥
जीविका विहीन लोग सीद्यमान सोचवस,
कहं एक एकन्त सौं, कहाँ जायँ का करी ।।
सामन्ती संस्कृति में समाज, शोषक और शोषित- दो वर्गों में बँट गया था।
(3) धार्मिक परिस्थितियाँ- यह युग मतों, सम्प्रदायों और धर्मों के परस्पर विरोध का काल है। सिद्ध नाथों की विचारधारा से प्रेरित समुदाय थे, जिनमें ‘साधना-विहीन चमत्कारी प्रवृत्ति से जनता को प्रभावित करने की प्रबल भावना थी। वैष्णव, शैव, शाक्तों के असहिष्णुता से प्रेरित विरोध भी प्रबल थे। डॉ. राजनाथ शर्मा के अनुसार- “इसके साथ ही हम इस्लाम विद्रोही सूफियों को एक ऐसे धर्म या उपासना मार्ग का प्रवर्तन करते हुए देखते हैं, जा धर्म के सम्पूर्ण बाह्य विधानों को एक ओर हटा, केवल प्रेम द्वारा ईश्वर की उपासना करने में आस्था रखता है। “
बौद्धों में हीनयान और महायान दो सम्प्रदाय पनपे। पहला धर्म की दार्शनिक व्याख्या करने में लग गया अतः जन-जीवन से दूर हो गया। महायान व्यावहारिक रहा, उसमें अशिक्षित, असंस्कृत और निम्न वर्ग को आश्रम मिला। नाना प्रकार के तन्त्र-मन्त्र, चमत्कार प्रचलित हो उठे एवं अभिचार और चमत्कार बढ़ा। वाममार्गी साधना का प्रचलन हुआ। नारी, मद्य, माँस आदि साधना के सहायक बन गये। कालान्तर में नाथ-पंथियों ने शुद्धिकरण की ओर ध्यान दिया और जीवन की पवित्रतता को प्रधान महत्व देते हुए नारी को सर्वधा त्याज्य घोषित किया। गोरखनाथ इस भावना के प्रेरक बने। ये लोग हठ योग द्वारा शरीर और मन का संयमन कर शून्य ब्रह्म की साधना करने में आस्था रखते थे। इसने सन्त कावियों को गहरे रूप में प्रभावित किया।
वैष्णव भक्ती का प्रभाव कम नहीं थ, इसमें अवतार-भावना प्रमुख थी। इसमें वैयक्तिक साधना लोक कल्याण को लक्ष्य बनाकर चली। सगुण-निर्गुण दोनों भेद प्रचलित थे। फलतः निर्गुण-सगुण, ज्ञान- भक्ति का द्वन्द्व भी चला। इस युग में निर्गुण भक्ति पर जैन और बौद्धों का भी प्रभाव पड़ा और उसमें ज्ञान, तप, त्याग आदि का तथा कठोर साधना को महत्व दिया गया।
(4) सांस्कृतिक चेतना- डॉ. राजनाथ शर्मा की मान्यता है कि-“इस युग में दो परस्पर भिन्न संस्कृतियों और विचारधाराओं का स्पष्ट संघर्ष दिखायी देता है। एक ओर हिन्दू संस्कृति अपनी पूर्णता और प्राचीन परम्परा का दम्भ लिये अपनी अस्तित्व रक्षा में प्रयत्नशील थी और दुसरी ओर नवीन धार्मिक उन्माद से ओत-प्रोत मुस्लिम संस्कृति उस पर हावी होना चाह रही थी। अपनी रक्षार्थ हिन्दुओं ने सामाजिक बन्धनों को दृढ़ और संकीर्ण बना दिया। फलतः संकीर्णता के आवरण में धार्मिकता गौण हो गई। इस संकीर्णता का विरोध सन्त कवियों ने किया है। इस विरोध को मिटाने हेतु समन्वय भावना उभरी। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार- “सांस्कृतिक चेतना की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति सार्वभौम सत्य के आधार पर प्रतिष्ठित धार्मिक भावना और दार्शनिक चिन्तन धारा के माध्यम से हुई है। कला, शिल्प, साहित्य और संगीत इन्हीं की आनुवेगिक उपलब्धियाँ हैं। इन सबका क्षेत्र विशाल मानव समाज है। यह समन्वय की विराट चेष्टा तुलसी में हमें दिखायी देती है। “
दार्शनिक पृष्ठभूमि- दर्शन की दृष्टि से रामनन्दी सम्प्रदाय में विशिष्टाद्वैत का प्रतिपादन हुआ। इसके अनुसार मोक्ष का सर्वोत्तम साधन भक्ति है। भक्ति के तीन रूप सामने आये-माधुर्य, शान्त और दास्य; जिनमें दास्य उत्कृष्ट भक्ति मानी गयी। इधर पुष्टिमार्ग के माध्यम से शुद्धाद्वैत का प्रतिपादन हुआ, जिसके अनुसार भगवत्-प्राप्ति का सर्वोत्कृष्ट साधन भक्ति माना गया। इसके दो रूप हैं-मर्यादा भक्ति और पुष्टि भक्ति । मर्यादा भक्ति वाह्य साधन सापेक्ष होने के कारण कठिन होती है। पुष्टि बाह्य साधन निरपेक्ष है। यह भगवान् के अनुग्रह मात्र से उत्पन्न हो सकती है। इसी के आधार पर अष्टरूप के कवियों ने लीला-गान किया है।
उपसंहार – भक्तिकाल की विभिन्न स्थितियों में जहाँ भक्ति साहित्य पर प्रभाव पड़ा है वहीं यह भी विचारणीय है कि भक्ति भावना को जोर दक्षिण से उत्तर की ओर आया। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार- “सन् ईसवी की 7वीं शताब्दी से और किसी के मत से तो और भी पूर्व से दक्षिण में वैष्णव भक्ति ने बड़ा जोर पकड़ा।” वहीं रामधारीसिंह दिनकर की मान्यता है- “उत्तर भारत में जब वैष्णव भक्तों का जमाना आया उसके पहले ही दक्षिण के अलवार सन्तों में भक्ति का बहुत कुछ विकास हो चुका था और वहीं से भक्ति की लहर उत्तर भारत में पहुँची।”
अतः 14वीं शताब्दी के बाद जो हिन्दी साहित्य रचा गया, उसकी मूल प्रेरणा भक्ति ही रही। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी इस मान्यता का खण्डन करते हैं कि इसके मूल में हार की मनोवृत्ति है। उनका मत है- “कुछ विद्वानों ने इस भक्ति आन्दोलन को हारी हुई हिन्दू जाति की असहाय चित्त की प्रतिक्रिया के रूप में बताया है। यह बात ठीक नहीं है। प्रतिक्रिया जातिगत कठोरता और धर्मगत संकीर्णता के रूप में प्रकट हुई थी। इस जातिगत कठारता का एक परिणाम यह हुआ कि इस काल में हिन्दुओं में वैरागी साधुओं की विशाल वाहिनी खड़ी हो गई, क्योंकि जाति के कठोर शिकंजे से निकल भागने का एकमात्र उपाय साधु हो जाना ही रह गया था। भक्ति-मतवाद ने इस अवस्था को सँभाला और हिन्दुओं में नवीन और उदार आशावादी दृष्टि प्रतिष्ठित की।
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