हिन्दी साहित्य

भक्तिकाल (पूर्व मध्यकाल) (संवत् 1375 से 1700)

भक्तिकाल (पूर्व मध्यकाल) (संवत् 1375 से 1700)
भक्तिकाल (पूर्व मध्यकाल) (संवत् 1375 से 1700)

हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल का काल विभाजन एवं नामकरण किस प्रकार किया गया है भक्तिकाल के ऐतिहासिक परिवेश पर प्रकाश डालिए।

भक्तिकाल (पूर्व मध्यकाल) (संवत् 1375 से 1700)

‘भक्तिकाल’ अथवा ‘पूर्व मध्यकाल’ हिन्दी साहित्य का द्वितीय चरण है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसका समय 1375 से 1700 तक माना है। इस युग की रचनाओं में भक्ति का विविधा रूपी विकास एवं भारतीय संस्कृति का उत्कृष्ट रूप दिखलाई पड़ता है। साथ ही इस युग में कबीर, जायसी, तुलसी, सूर जैसे रससिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्यवाणी उनके अन्तःकरणों से निकलकर देश के कोने-कोने में फैली, इसलिए यह युग हिन्दी साहित्य का स्वर्णकाल के नाम से भी पुकारा जाता है।

नामकरण- भक्तिकाल से तात्पर्य उस काल से है जिसमें मुख्यतः भगवात धर्म के प्रचार तथा प्रसार के परिणामस्वरूप भक्ति आन्दोलन का सूत्रपात हुआ और उसकी लोकोन्मुखी प्रवृत्ति के कारण धीरे-धीरे लोक प्रचलित भाषाएँ भक्ति भावना की अभिव्यक्ति का माध्यम बनती गई और कालान्तर में भक्ति विषयक विपुल साहित्य की बाढ़ सी आ गई। यह भक्ति भावना चाहे सगुण रूप में हो अथवा निर्गुण रूप में, ज्ञानाश्रयी हो अथवा प्रेमाश्रयी, सभी में भक्ति का प्राधान्य होने के कारण इस युग का नाम भक्तिकाल है। इस मत के पोषक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार भक्तिकाल नामकरण युग की एक ही प्रवृत्ति को ध्वनित करता है। उनके अनुसार ‘पूर्व मध्यकाल’ नाम उपयुक्त है। कारण भक्ति की धारा के अतिरिक्त मैथिली गीति परम्परा, ऐतिहासिक रासो काव्य परम्परा, ऐतिहासिक चरित काव्य परम्परा, ऐतिहासिक मुक्त परम्परा और स्वच्छन्द प्रेम काव्य परम्परा की बेगवती काव्य धाराएँ मध्यकालीन साहित्य को उर्वर बनाती रही, जिनके कारण ‘भक्तिकाल’ को ‘पूर्व मध्यकाल’ के नाम से अभिहित करना अधिक निरापद है। ‘डॉ. शिवकुमार शर्मा’ ने ‘हिन्दी साहित्य युग और प्रवृत्तियाँ’ में इसी मत का अनुमोदन किया है।

भक्तिकाल का ऐतिहासिक परिवेश

भक्तिकाल का अनुशीलन राजनयिक, सामाजिक, धार्मिक एवं साहित्यिक परिवेशों के आधार पर किया जा सकता है-

1. राजनयिक परिवेश- देश में यवन साम्राज्य की स्थापना हो चुकी थी। हिन्दुओं पर अत्याचार एवं नृशंस व्यवहार का तांता लगा हुआ था। भक्तिकाल के परवर्ती काल में प्रान्तीय शासनों की स्थापना हो रही थी तथा स्वतन्त्रता के लिए कभी राणाप्रताप तथा कभी शिवाजी इत्यादि वीरवर अपने जीवन की आहुति देने में तत्पर थे।

परन्तु आचार्य का विषय है कि इस युग के साहित्य पर राजनीतिक परिस्थितियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

2. सामाजिक परिवेश- भक्ति युग वस्तुतः दो संस्कृतियों का संक्रान्ति काल था। हिन्दुओं में जाति प्रथा जोर पकड़ती जा रही थी। साथ ही साथ इसके विरुद्ध विरोध के स्वर भी सुनाई दे रहे थे। अनेक हिन्दू कुछ स्वेच्छा से तथा कुछ तलवार के बल पर मुसलमान बन रहे थे। कहीं-कहीं हिन्दुओं के विवाह मुसलमान कन्याओं के साथ हो जाया करते थे। हिन्दू और मुसलमानों में शासित तथा शासक का भेद होने पर भी एक दूसरे के प्रति सहानुभूति की भावनाएँ रखने लगे थे।

यही कारण है कि मुगलकालीन इमारतों तथा राजपूती महलों की निर्माणकला को देखकर हिन्दू मुस्लिम कला के मिल जाने से एक नई कला के विकास का अभ्युदय होता हुआ दिखाई देता है।

3. धार्मिक परिवेश- भक्तिकाल की पृष्ठभूमि में मूलतः दो प्रकार की परिस्थितियाँ थीं। एक तो बौद्ध धर्म का रूप विकृत होता चला जा रहा था। दूसरा वैष्णव धर्म भी अपनी विशिष्ट अवस्था में चला आ रहा था। यवनों के सम्पर्क के कारण एक तृतीय सूफी धर्म भी प्रचलित होता जा रहा था।

बौद्ध धर्म की हीनयान शाखा यत्र-तत्र, अभिचार आदि पर तो विश्वास करती ही थी, साथ ही इस युग में वाम पन्थ भी चल पड़ा था, जिसका सिद्धान्त ही विलासों में मस्त रहना था। नारी के प्रति विकृत दृष्टिकोण था। उसे नरक की खान तथा पाप की पुतली समझ जाता था ।

अत:-

‘नारी की झाँई परे अन्धा होता भुजंग।

रहिमन तिन की कौन गति नित नारी के संग ।’

जैसी अनेक उक्तियाँ प्रचलित थीं। इधर रामानन्द की जन-भाषा के विचारों को प्रतिपादित करने वाली प्रकृति ने तुलसीदास जी के विशेषतः प्रभावित किया। विष्णु के अवतार के रूप में राम और कृष्ण की प्रतिष्ठा हो रही थी। कृष्ण का भागवत के दसयस्कन्द वाला रूप ही जिसमें कृष्ण-गोपी एवं उद्धव आदि के व्यापार वर्णित हैं। इस युग का प्रतिपाद्य विषय बना। कृष्ण  और राधिका के विषय में श्रृंगार की मूल भावना के ऊपर भक्ति की चादर उड़ाई जा रही थी।

4. साहित्यिक परिवेश – धार्मिक ऊहापोह के इस युग में विचारकों ने भावाभिव्यक्ति का माध्यम छन्दोबद्ध रचनाओं को बनाया तथा समग्र साहित्य में भक्ति के प्रचार की भावना परिव्याप्त थी। संस्कृत भाषा में भी साहित्य का सृजन होता था तथा यवनों ने फारसी को राज्य भाषा बना लिया था। संस्कृत और फारसी के समकक्ष हिन्दी अपना स्थान नहीं बना पा रही थी अधिकतम साहित्य पद्य में ही लिखा जा रहा था।

वस्तुतः इस युग का आविर्भाव भारतीय संस्कृति का उद्घोष करता है।

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Anjali Yadav

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