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भक्ति आन्दोलन से आप क्या समझते हैं ? इसके कारण

भक्ति आन्दोलन से आप क्या समझते हैं ? इसके कारण
भक्ति आन्दोलन से आप क्या समझते हैं ? इसके कारण

भक्ति आन्दोलन से आप क्या समझते हैं ? इसके कारण

16वीं शताब्दी में हिन्दू जनता में धर्म के प्रति नवीन भावनाओं का उदय हुआ। मुस्लिम शासकों के नियन्त्रण पूर्ण शासन से हिन्दू जनता तंग आ चुकी थी तथा इस काल में अनेक समाज सुधारकों का उदय भी हो गया था, जिन्होंने असन्तुष्ट हिन्दू जनता को धार्मिक आन्दोलनों के लिये उत्साहित करना प्रारम्भ कर दिया। चूँकि इस युग में भक्ति को सर्वाधिक महत्व प्रदान किया गया था, इसलिए यह आन्दोलन ‘भक्ति आन्दोलन’ के नाम से प्रसिद्ध है।

भक्ति आन्दोलन के बारे में श्री मैकमीकौल ने लिखा है, “भक्ति आन्दोलन हिन्दू धर्म की आत्मा के द्वारा किया हुआ वह प्रयत्न कहा जा सकता है जिसके द्वारा उसने अन्ध विश्वासों से जकड़ी हुई जाति को जगाने का प्रयत्न किया और वह जाति ‘अपनी गहरी नींद से अंगड़ाई लेकर उठ खड़ी हुई तथा उसने भक्ति के प्रकाश द्वारा अपने को मुक्त अनुभव किया।”

भक्ति आन्दोलन महान धर्म सुधारक शंकराचार्य ने सफलतापूर्वक प्रारम्भ किया। उन्होंने हिन्दू धर्म को एक ठोस दार्शनिक पृष्ठभूमि प्रदान की थी। शंकराचार्य द्वारा प्रारम्भ किए गए इस आन्दोलन को रामनुजाचार्य, विष्णु स्वामी रामानन्द, वल्लभाचार्य, नामदेव, एकनाथ, मीराबाई, कबीर, गुरु नानक आदि सन्तों व समाज सुधारकों ने गति प्रदान की तथा हिन्दू धर्म को प्रतिस्थापित कर उसमें से बुराइयों को दूर कर अच्छाइयों का समावेश किया, हिन्दू धर्म में सुधार करके पतनोन्मुख हिन्दू संस्कृति तथा हिन्दू जाति की रक्षा की। जह भक्ति आन्दोलन के माध्यम से हिन्दू धर्म तथा इस्लाम धर्म में समन्वय, सहयोग तथा सहिष्णुता की भावना का विकास हुआ, वहीं हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति में भी समन्वय तथा सहयोग में वृद्धि हुई। हिन्दू संस्कृति का प्रभाव मुस्लिम संस्कृति पर पड़ा और मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव हिन्दू संस्कृति पर पड़ा। भक्ति आन्दोलन वास्तव में एक धार्मिक व सुधारवादी आन्दोलन था।

भक्ति आन्दोलन के कारण

भक्ति आन्दोलन के कुछ महत्वपूर्ण कारण निम्न प्रकार बताये जो हैं-

1. जटिल जाति प्रथा- इस काल में जाति प्रथा का भेदभाव बहुत बढ़ गया था। प्रत्येक जाति के लोग स्वयं को अन्यों के समक्ष उच्च मानते थे। निम्न जातियों पर अत्याचार करने तथा उन पर अनेक सामाजिक प्रतिबन्ध लगाते रहते थे, जिससे उनमें विद्रोह की भावना जागृत होने लगी। दूसरी ओर हिन्दू-मुस्लिम भेद-भाव भी अपनी चरम सीमा को लाँघ चुका था। इस काल के समाज सुधारकों ने इस भेद-भाव को समाप्त कर निष्पक्ष भाव को जन्म दिया, क्योंकि भक्ति आन्दोलन के सन्त ऊंच-नीच की भावना का विरोध करते थे। इस प्रकार इन सन्तों ने भक्ति आन्दोलन के द्वारा निम्न जातियों के लोगों के लिये समभाव का मार्ग खोला।

2. हिन्दू धर्म की जटिलताएँ – इस समय भारत में राजनीतिक उतार-चढ़ाव के कारण हिन्दू धर्म में अनेक बुराइयाँ उत्पन्न हो गयी थीं। जनता हिन्दू धर्म के असली मार्ग से भटककर अन्ध-विश्वास, बहुदेववाद, जाति-पांति का भेदभाव, छुआछूत, मूर्ति पूजा और धार्मिक ग्रन्थों को ही हिन्दू धर्म मान बैठी। इस समय धर्म की भाषा जनता की भाषा से भिन्न थी, जिस कारण जनता समझ नहीं पाती थी । इतिहासकार डॉ. डी.सी. नारंग के अनुसार- “व्यर्थ के रीति-रिवाजों, घिसे-पिटे अन्ध-विश्वासों, पुरोहितों और पुजारियों की स्वार्थपरिता तथा जनता की धर्म के प्रति उदासीनता ने धर्म के प्रवाह की सरिता को रोक दिया था। वास्तविकता बाह्य आडम्बरों के बोझ से दब गयी थी और हिन्दू धर्म की अत्यन्त आध्यात्मिक भावना विभिन्न सम्प्रदायों के खोखले मत-मतान्तरों के नीचे दम तोड़ रही थी।” अतः हिन्दू धर्म का स्वरूप अत्यन्त जटिल हो गया था।

3. मुस्लिम आक्रमणकारी- मध्यकाल में मुस्लिम आक्रमणकारियों को अत्यधिक हानि पहुँची। इन्होंने हिन्दुओं के मन्दिरों और मूर्तियों को नष्ट कर डाला तथा मन्दिरों के स्थान पर मस्जिदों का निर्माण कराया। इन कारणों से हिन्दू अब स्वतन्त्रतापूर्वक पूजा-पाठ करने से भय करने लगे थे। इस प्रकार भक्ति आन्दोलन को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ।

4. मुसलमानों के अत्याचार- मध्यकाल में मुस्लिम शासकों ने हिन्दुओं के साथ बहुत भेदभाव रखा। धीरे-धीरे हिन्दुओं का राजनैतिक क्षेत्र से सफाया हो गया। इसके अतिरिक्त मुसलमान हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के लिये अनेक प्रकार से अत्याचार करने लगे थे। ऐसी स्थिति में निराश व पीड़ित हिन्दू भगवान की भक्ति में लीन होना आरम्भ हो गये और भक्ति आन्दोलन को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। डॉ. के. एम. पन्नीकर के अनुसार- “भक्ति आन्दोलन के प्रसार में सहायक होने वाली एक बात यह भी थी कि हिन्दू जनता मुसलमानों के अत्याचारों से बचने का मार्ग खोज रह थी, जिसके लिये केवल ईश्वर ही उनका सहायक हो सकता था।”

5. ईसाई धर्म का प्रसार- कुछ इतिहासकारों का मत है कि भक्ति आन्दोलन की उत्पत्ति का कारण हिन्दू मत पर ईसाई मत का प्रभाव है। वैबर और गियर्सन जैसे विद्वानों का तर्क है कि भक्ति आन्दोलन के जो दो मुख्य सिद्धान्त थे वे ईसाई धर्म के प्रमुख सिद्धान्त हैं। ये सिद्धान्त थे ईश्वर की एकता तथा मुक्ति के लिए भक्ति का मार्ग अपनाना । अतः भक्ति आन्दोलन का सूत्रपात ईसाई धर्म के प्रभाव के कारण हुआ। परन्तु यह तर्क अधिकांश इतिहासकारों को स्वीकार नहीं है। वेबर का तर्क है कि “भक्ति आध्यात्मिक परम मोक्ष के साधन और उसके लिये एक शर्त के रूप में एक विदेशी विचार था, जो भारत में ईसाई धर्म के साथ आया और जिसने पुराणों और महाकाव्ययुगीन हिन्दू धर्म पर गहरा प्रभाव डाला ।” वेबर के उक्त कथन का खण्डन करते हुये डॉ. यूसुफ हुसैन लिखते हैं कि, “दक्षिण कुछ ईसाई अवश्य वास करते थे, किन्तु वे इतने प्रभावशाली नहीं थे कि उनका प्रभाव हिन्दू धर्म पर पड़ता है।”

6. इस्लाम का सम्पर्क – कुछ इतिहासकारों का मत है कि भारत में मध्यकाल में भक्ति आन्दोलन का उदय इस्लाम धर्म के सम्पर्क में आने के कारण हुआ। इस्लाम धर्म यद्यपि विश्व बन्धुत्व की भावना प्रचार करता है, व्यक्ति-व्यक्ति में प्रेमांकुर का उदय करने का इच्छुक है तो भी इसने भक्ति आन्दोलन को जन्म दिया। डॉ. ताराचन्द्र अहमद निजामी तथा डॉ. कुरैशी जैसे विद्वानों के अनुसार भक्ति आन्दोलन का आरम्भ होने का महत्वपूर्ण कारण मुस्लिम सम्पर्क का प्रभाव था, किन्तु यह तथ्य पूर्णरूप से सत्य नहीं माना जाता था। डॉ. आर. जी. भण्डारकर लिखते हैं कि- “भक्ति आन्दोलन श्रीमद्भागवतगीता की शिक्षाओं पर आधारित था ही, अवश्य कहा जा सकता है कि इस्लाम ने भक्ति आन्दोलन को प्रोत्साहन दिया।” डॉ. सेन भी इसी बात को मानते हुए कहते हैं-“एक ब्रह्म की उपासना जो मुस्लिम धर्म का प्राण थी और इसी ने इस आन्दोलन में जान डाल दो, जो भारतीयों को ज्ञात नहीं थी।”

इन सब कारणों के परिणामस्वरूप भक्ति आन्दोलन का भारत में सोलहवीं शताब्दी में उदय हुआ।

भक्ति आन्दोलन की विशेषताएँ

भक्ति आन्दोलन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं-

1. भक्ति आन्दोलन से सम्बन्धित सभी सन्त उपदेशकों ने धर्म के अन्ध-विश्वासी एवं अन्य ब्राह्मण ढकोसलों को हटाकर – इसे सरल तथा शुद्ध बनाने का प्रयास किया। उन्होंने चरित्र तथा आचरण की पवित्रता पर जोर दिया तथा सच्चे हृदय से भक्ति करना ही मुक्ति का साधन बतलाया।

2. भक्ति आन्दोलन के सभी सन्तों ने मूर्ति-पूजा का विरोध करते हुए रामानन्द के समकालीन ‘विसोनाखेयर’ ने कहा था- पत्थर का देवता तो बोलता तक नहीं फिर वह भला हमारे इस जीवन के दुखों को कैसे दूर कर सकता है। यदि वह हमारी इच्छा पूर्ण की शक्ति रखता है तो स्वयं गिर जाने पर टूट क्यों नहीं जाता है।” कबीरदासजी ने भी कहा है-

“पाहन पूंज हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार।

ताते या चाकी भली पीस खाय संसार।”

3. ये सन्त मनुष्य मात्र को एक मानते थे। लिंग, धर्म, वर्ण, जाति आदि के भेद को नहीं मानते थे। स्वामी रामानन्द का तो मूल मन्त्र ही निम्न था-

‘जात पाँत पूछे नहीं कोई,

हरि की भजै सो हरि का होई।’

4. हिन्दू-मुस्लिम एकता पर भी कुछ सन्तों ने बहुत जोर दिया। उन्होंने हिन्दू एवं मुसलमानों में समन्वय एवं सहयोग की भावना पैदा करने का प्रयत्न किया। इनके साथ ही साथ दोनों धर्मों के बाहरी भेदों, आडम्बरों तथा रूढ़ियों का विरोध करते हुए आन्तरिक एकता पर जोर दिया। उन्होंने सभी मनुष्यों को एक ही ईश्वर की सन्तान बताया।

5. भक्ति आन्दोलन में भाग लेने वाले सभी सन्त ऐकेश्वरवादी थे तथा विश्वबन्धुत्व की भावना के पोषक एवं समर्थक थे ।

6. भक्ति आन्दोलन के कई पथ पोषक संयास के पक्ष में नहीं थे। उनका विचार था कि यदि मनुष्य के आचरण पवित्र हों तो वह गृहस्थ रहकर भी भक्ति कर सकता है। इनमें कबीरदास तथा नानक प्रमुख हैं।

7. भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने अपने विचारों का प्रचार सर्वसाधारण जनता की साधारण बोलचाल की भाषा में किया। जो सन्त जिस प्रदेश का निवासी था, उसने सभी प्रदेशों की भाषा का प्रयोग किया।

8. यह आन्दोलन मुख्य रूप से जनता का आन्दोलन था। इसके नेताओं ने भारत के कोने-कोने में भक्ति मार्ग का प्रचार किया। इसके सभी प्रचारक साधारण वर्ग के थे।

9. भक्ति आन्दोलन यद्यपि मुख्य रूप से धार्मिक था, परन्तु 14वीं शताब्दी से लेकर 17वीं शताब्दी तक अनेक नेताओं ने सती प्रथा, शिशु हत्या, दास प्रथा आदि कुरीतियें को भी दूर करने का प्रयत्न किया। उन्होंने स्त्रियों के सामाजिक स्तर को भी ऊंचा उठाने का प्रयत्न किया।

भक्ति आन्दोलन के प्रमुख सन्त- भक्ति आन्दोलन में भाग लेने वाले प्रमुख सन्तों के नाम निम्नलिखित हैं-

(1) रामानुज, (2) स्वामी रामानन्द, (3) कबीर, (4) रैदास, (5) चैतन्य, (6) वल्लभाचार्य, (7) दादू, (8) गुरु नानक, (9) नामदेव, (10) सेन, (11) हरिदास इत्यादि ।

इन सभी सन्तों के समान उद्देश्य थे तथा इन उद्देश्यों को पूरा करने का मार्ग भी एक ही था। इन सब ने मिलकर धर्म जगत में आयी कलुषिता को धोने के लिये समान प्रयास किये। मुख्य रूप से इनके सिद्धान्त इस प्रकार थे-

1. ईश्वर एक है। वह निर्गुण है, निराकार है, उसका न कोई रूप है न रंग और न ही उसे किसी विशेष नाम से पुकारा जा सकता है। केवल मन की पवित्रतता के आधार पर उसे प्राप्त किया जा सकता है।

2. व्यक्ति कर्म प्रधान है। उसकी जाति उसके मूल्य को नहीं आंक सकती। जाति के भेद धार्मिक जगत में केवल संघर्ष फैलाने का एक साधन मात्र है।

3. मूर्ति-पूजा से ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता है।

4. ‘मन की पवित्रता’ सभी उपायों में श्रेष्ठ है।

5. सामाजिक ढ़ियों व कुरीतियों का सभी ने दृढ़ता से विरोध किया।

6. धर्म के क्षेत्र में बाह्य आडम्बरों जैसे- चन्दन लगाना, माला जपना, राम नाम का पीताम्बर धारण करना, धर्म के नाम पर हर समय हर व्यक्ति से छूतछात का व्यवहार करना आदि इन सभी का डटकर विरोध किया।

7. उनका सिद्धान्त था कि एकाम चित्त से ईश्वर की भक्ति करने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। उन्होंने वेदों व पुराणों का विरोध न करते हुये ईश्वर की भक्ति को मोक्ष का साधन बताया।

8. सन्यास लेकर ईश्वर की आराधना का विरोध किया। इनके अनुसार व्यक्ति गृहस्थ आश्रम का पालन करते हुये भी ईश्वर की प्राप्ति कर सकता है।

भक्ति आन्दोलन का सामाजिक प्रभाव

16वीं शताब्दी के भक्ति आन्दोलन ने उस समय के समाज पर अपनी अमिट छाप छोड़ी व समाज में बहुत परिवर्तन किया। उस समय के व्यक्तियों में आयी दुर्भावनाओं को दूर करने के लिये प्रयास किये तथा समाज को समानता के आधार पर संगठित करने का कार्य किया। इनका सामाजिक प्रभाव कुछ इस प्रकार से पड़ा-

1. जाति-भेद का अन्त- भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने जाति-पांति के भेद-भाव को मिटाकर सबको समानता का दिग्दर्शन कराया। समाज में जाति के नाम पर व्यक्तियों पर अनेक अत्याचार किये जाते थे। भक्ति आन्दोलन ने जाति-भेद को समाप्त करके इन अत्याचारों पर रोक लगायी तथा सामाजिक शान्ति को बढ़ावा दिया।

2. मूर्ति-पूजा में कमी – भक्ति आन्दोलन ने समाज में मूर्ति पूजा में अवरोध उत्पन्न कर दिया, किन्तु मूर्ति पूजा पूर्णतः समाप्त नहीं हुई।

3. रूढ़ियों, अन्ध- विश्वासों व बाह्य आडम्बरों का विरोध-भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने सामाजिक अन्ध-विश्वासों का अन्त किया तथा बाह्य आडम्बरों पर रोक लगायी। समाज में फैली कुरीतियों व रूढ़ियों का अन्त करके एक नवीन समाज को जन्म दिया। अब समाज में सती-प्रथा, बाल-विवाह, पर्दा प्रथा तथा विधवा-विवाह निषेध का अन्त कर दिया गया। इसके स्थान पर स्त्री-शिक्षा पर बल दिया जाने लगा।

4. दलितोद्धार – भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने नीची जाति के व्यक्तियों को ऊंचा उठाने के अथक प्रयास किये। उन्हें भी ऊंची जाति के समान ही अधिकार प्रदान कराये। इनके अनुसार, “ईश्वर ने सबको समान पैदा किया है। वह अपने बच्चों से भक्ति व प्रेम चाहता है, वह उनकी जाति की ओर दृष्टिपात नहीं करता।” कबीर ने सबसे अधिक हरजनोद्धार की ओर ध्यान दिया।

5. वर्ण-भेद का अन्त- भक्ति आन्दोलन के सन्मों ने वर्ण-भेद को दूर हटा कर सामाजिक समानता को महत्व प्रदान किया। इनके अनुसार वर्ण कुछ नहीं है। वह केवल व्यक्ति-व्यक्ति में भेद उत्पन्न करने का एक साधन मात्र है। भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने ब्राह्मणों की निष्ठा को धक्का पहुंचाया। ये एक प्रकार से धर्म के ठेकेदार बने हुये थे किन्तु भक्ति आन्दोलन के प्रादुर्भाव से इनकी इस सामाजिक प्रतिष्ठा का अन्त कर दिया।

6. भारतीय सहिष्णुता का उदय- समाज में सामाजिक समानता व शान्ति लाने के लिये भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने अथक प्रयास किये। सभी धर्मों को समान बताया तथा ईश्वर को एक बताया। इनके अनुसार जाति कुछ नहीं थी । केवल व्यक्तियों के कर्मों के आधार पर ही इसका मूल्य आंका जा सकता था। अतः भक्ति आन्दोलन का समाज पर यह भी एक प्रभाव पड़ा।

7. ‘सिख’ सम्प्रदाय का उदय- भक्ति आन्दोलन के सन्तों में गुरु नानक भी एक महान् सन्त थे, जिन्होंने कालान्तर में ‘सिख’ सम्प्रदाय को जन्म दिया जिसके सभी नियम अत्यन्त कठोर थे ।

8. हिन्दू मुस्लिम का उदय- भक्ति आन्दोलन के होने पर हिन्द-मुस्लिम समाज में एकरूपता लाने का प्रयास किया गया। इन सबको एक ईश्वर की सन्तान बताया गया । स्पष्ट है कि भक्ति आन्दोलन के पश्चात् मुस्लिम शासकों ने भी हिन्दू जनता पर इतने अधिक अत्याचार नहीं किये। उन्हें काफी अधिकार प्रदान किये।

9. साहित्य की समृद्धि- भक्ति आन्दोलन हो जाने पर हिन्दी साहित्य जगत व मुस्लिम साहित्य जगत दोनों में ही साहित्य का विस्तार हुआ। इन सन्तों तथा विद्वानों ने अनेक ग्रन्थ व काव्य लिखे, जिन्हें पढ़कर जनता के विचारों में महान परिवर्तन आया। कबीरदास इस आन्दोलन के मुख्य कवियों में से एक हैं।

10. सन्यासियों व सत्संगों की निन्दा- भक्ति आन्दोलनों के द्वारा सन्यासियों व सत्संगों की निन्दा की जाने लगी। इन्हें एकमात्र बाह्य आडम्बर का रूप बताया गया। इन सन्तों का कथन था कि ईश्वर को बाह्य आडम्बरों के आधार पर नहीं केवल ‘मन की पवित्रता’ से प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिये सन्यास लेने अथवा भजन व कीर्तन करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

11. गुरु भक्ति पर बल- भक्ति आन्दोलनों के सन्तों ने गुरु भक्ति को सबसे अधिक श्रेष्ठ बताया। इनके अनुसार गुरू का पद भगवान से भी बड़ा था।

अतः स्पष्ट है कि भक्ति आन्दोलन का 16वीं शताब्दी के समाज पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। इसने इस प्रकार के व्यक्तियों की विचारधारा को ही बल दिया।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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