भारतेन्दु कालीन कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
भारतेन्दु युग का काव्य फलक अत्यन्त विस्तृत है। एक ओर उसमें भक्तिकालीन और रीतिकालीन काव्य-प्रवृत्तियाँ मुखरित हुई हैं तो दूसरी ओर समकालीन परिवेश के प्रति जागरूकता भी स्पष्ट दिखाई पड़ती है। बालकृष्ण राव ने लिखा है कि “इस काल में कविता ने सामंती दरबारों की चहारदीवारी से निकलकर जनजीवन का वरण किया है और साथ ही अपने मूल्यवान प्रांगण एवं आमरणों का तिरस्कार करके खुली हवा में सांस ली है। राष्ट्रीय चेतना से अनुस्तूप इस कविता को प्रमुख प्रवृत्तियों को इस प्रकार निलंबित किया जा सकता है-
1. राष्ट्रीय चेतना- राष्ट्रीय चेतना का स्फुरण और अभिव्यंजन कालीन कविता की प्रमुख और प्राथमिक विशेषता है। भारतेन्दु का काव्य इसी राष्ट्रीय चेतना का काव्य है। उन्होंने यह लिखकर कि “पै धन- विदेश चनि जातु यही अति ख्वारी” राष्ट्रीयता का ही परिचय दिया है। ये वे पंक्तियाँ हैं जिनमें भारतेन्दु की पौड़ा का अनुमान भी लगाय जा सकता है। इस काल के कवियों का स्वाभिमान कभी प्राचीन गौरव के स्मरण के मुखरित होने वाला है और कभी इस महान राष्ट्र के दयनीय पतन पर अश्रु प्रवाहित करता रहता है। भारतेन्दु जी की “विजयिनी विजय वैजंती”, प्रेमधन की आनन्द रुणोदत्त, प्रताप नारायण मिश्र की महापर्व और नया संवत् तथा राधाकृष्णदास की भारत बारहमासा और विनय शीर्षक कविताएँ देशभक्ति और राष्ट्रीयता के भावों से युक्त हैं। इस काल के कवियों की कविताओं में देश भक्ति के साथ-साथ राज भक्ति भी मिलती है।
2. प्राचीन और नवीन समन्वय- भारतेन्दु युगीन कविता की दूसरी प्रवृत्ति प्राचीन और नवीन का समन्वय था। यह समन्वय देश प्रेम, समाज सुधार के साथ-साथ भाषा, भाव और छन्द की दृष्टि से भी सामंजस्य का युग था। इस समन्वय की प्रवृत्ति के कारण इस काल के कवियों ने पुराने भक्त कवियों की तरह भक्ति भाव युक्त पद भी लिखे हैं और लीलादी का गायन करते हुए रीतिकाल कवि की भाँति नायिका के नख-शिख का वर्णन भी किया। भक्ति और शृंगार, भाषा और भाव तथा सुधार और उपदेश की प्रवृत्तियों का समन्वित रूप इस काल की कविता में मिलता है।
3. जनवादी विचारधारा- भारतेन्दुकालीन कविता की तीसरी प्रवृत्ति जनवादी विचारधारा से सम्बन्धित है। यह प्रवृत्ति इस काल की कविता की विषय-वस्तु और शैली दोनों में देखी जा सकती है। इसी प्रवृत्ति को स्पष्ट करते हुए डॉ० रामविलास शर्मा ने लिखा है- “भारतेन्दु की जनवादी विचारधारा इन कवियों की सुधारवादी दृष्टि में निहित है। भारतेन्दु युग का (जनवादी विचारधारा) साहित्य जनवादी इस अर्थ में है कि वह भारतीय समाज में पुराने ढाँचे से सन्तुष्ट न होकर उसमें सुधार भी चाहता है। वह केवल राजनीतिक स्वाधीनता का साहित्य न होकर मनुष्य की एकता, समता और भाई-चारे का भी साहित्य है। भारतेन्दु स्वदेशी आन्दोलन के ही अग्रदूत न थे, वे समाज सुधारकों में भी प्रमुख थे। स्त्री-शिक्षा, विधवा-विवाह और विदेशी यात्रा आदि के समर्थक थे। इससे भी बढ़कर महत्व की बात यह थी कि भारतीय महाजनों के पुराने पेशे सूदखोरी की उन्होंने कड़ी आलोचना की थी- “सर्वदा से अच्छे लोग, ब्याज खाना और चूड़ी पहनना, एक सा समझते हैं पर अब के आलसियों को इसी का आलम्बन है। न हाथ हिलाना पड़े और न उन्हें कुछ कार्य करना अर्थात् हाथ हिलाना पड़े या पैर, बैठे ठाले भुगतान कर लिया।” अपनी जनवादी प्रवृत्ति के कारण उन्होंने समाज के दोषयुक्त अंग की कटु आलोचना करते हुए लिखा है- “बफरते माल बनिया समाज को शिकायत है।” ‘लाला’ का चित्र प्रस्तुत करते हुए वे लिख गये हैं-
“लाला की भैंसी शोर-निचोवत में शशी जब,
दूध ओह माँ मिल गया है कि भैया जो है सो है।”
” और भैया जो है” जनवादी प्रवृत्ति का ही सूचक है। जनवादी दृष्टि से प्रेरित होकर ही भारतेन्दु का “का भवा, आवा है ए राम जमाना कैसा, कैसी दृष्टि मेहरारू है, इ हाय ? जमाना कैसा” जैसी पंक्तियाँ लिखी थीं। इस युग की जनवादी प्रवृत्ति के कारण ही इस काल के कवियों के साम्प्रतिक समाज की दशा का, विदेशी सभ्यता के संकट का, पुराने रोजगार सराफी कुण्डी के बहिष्कार का, युगानुरूप जनवादी विचारधारा को प्रस्तुत किया। वेदमार्ग को त्याग कर मुस्लिम संस्कृति में निमग्न लोगों की कड़ी आलोचना करते हुए राधाचरण गोस्वामी जी ने लिखा है कि-
“पढ़े जनम ते फारसी छोड़ वेद मारग दियो ।
हा हा हा विधि वाम ने सर्वनाश भारत कियो।”
व्यापक मानवतावादी भूमिका पर लिखी गई भारतेन्दु कविता में नवयुग की चेतना का जो स्वरूप है वह भी इस काव्य को जनवादी करार देने को प्रेरित करता है। प्रताप नारायण मिश्र स्त्रियों की शिक्षा के पक्षपाती, विधवाओं के दुःख से दुःखी और बाल-विवाह के विरोधी थे। इस दुःख और विरोध में भी जनवादी विचारधारा को देखा जा सकता है। इसी प्रकार यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आलोच्य काल का कवि विषय वस्तु के धरातल पर ही नहीं, शैली की भूमिका पर भी जनवादी ही था। कजरी, ठुमरी, लावनी, मुकरी और पहेली आदि जैसी इसी जनवादी स्वर को प्रमाणित और पुष्ट करती है। यही इन कवियों की सामाजिक चेतना का स्वरूप भी है।
4. आर्थिक चेतना – भारतीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने की कामना से इस युग के कवियों ने स्वदेशी उद्योगों को प्रोत्साहन देने और स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग पर विशेष बल दिया। “जीवत विदेश की वस्तु लै ता बिन कछु नहि कर सकत” के प्रतिपादक भारतेन्दु ने प्रबोधिनी “शीर्षक कविता में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की घोषणा की।” ‘प्रेमबन्ध’ की ‘आर्याभिनंदन’, प्रतापनारायण मिश्र की ‘होली’ और ‘अम्बिकादत्त व्यास’ की ‘भारत धर्म’ कविताएँ भी इन कवियों की आर्थिक चेतना को स्पष्ट करती हैं। इनमें भारत की दुर्दशा के यथार्थ चित्र हैं। इस काल के कवियों ने प्राचीन भारत की समृद्धि का वर्णन करते हुए सामाजिक काल के आर्थिक शोषण, अकाल, महँगाई, महामारी और करों के बोझ से त्रस्त जनता के करुणाजनक चित्र प्रस्तुत किये।
5. भक्ति और देशानुराग का सम्मिलित रूप – आलोच्यकाल की कविता में भक्ति और देशानुराग का मिला-जुला रूप देखने को मिलता है। इस काल का भक्ति काव्य तीनों रूपों में मिलता है-निर्गुण भक्ति, वैष्णव भक्ति और स्वदेशानुराग भक्ति । इनमें पहले दो रूप तो परम्परा विहित ही हैं। किन्तु भक्ति और देश-प्रेम का एक ही भूमिका पर प्रस्तुतीकरण इस काल की मौलिकता है। रामभक्ति की तुलना में कृष्ण भक्ति को निरूपित करने वाली रचनायें इस काल में अधिक लिखी गयी हैं। इसी से प्रेरित शृंगार भावना को इस काल के कवियों ने पर्याप्त महत्व दिया है। “मेरे तो साधन एक ही हैं, अंग नंदलाला वृषभानु दुलारी” के गायक भारतेन्दु राधा-कृष्ण के अनन्य भक्त थे। अपनी भक्ति भावना को इस काल के कवियों ने कहीं-कहीं उर्दू-पद शैली में भी प्रस्तुत किया है-“ढूंढा फिरा मैं इस दुनियाँ में पश्चिम से ले पूरब तक, कहीं न पाई दिलदार प्रेम की तेरे झलक।” देशानुराग व्यंजक भक्ति का स्वर भारतेन्दु, प्रेमधन, राधाकृष्णदास, प्रतापनारायण मिश्र और जगमोहन सिंह की कविताओं को देखा जा सकता है।
6. शृंगार – जहाँ तक शृंगारिकता का प्रश्न है वह प्रतापनारायण मिश्र को छोड़कर प्रायः सभी कवियों में मिलती है। सामान्यतः इन कवियों ने राधा-कृष्ण के माध्यम से ही अपनी शृंगार व प्रणय की भावनाओं को व्यक्त किया है। रीतिकालीन पद्धति पर नख-शिख वर्णन, षट् ऋतु वर्णन, नायिका भेद वर्णन किया गया है। तो उर्दू-कविता से प्रभावित होकर प्रेमजनित पीड़ा को शब्द बद्ध किया गया है। भारतेन्दु के प्रेम दशा वर्णन विषयक सवैयों में पर्याप्त सरलता विद्यमान है-
“आज लौ न मिले तो कहा हम तो तुमरे सब भांति कहावे।
मेरी उराहनों कुछुनहिं सबै फलु आपने भाग को पावै ।।
जो हरिचन्द भई सु भई अब प्रान चले चहैं तासों सुनावै।
प्यारे जू हैं जग की यह रीति विदा के समै सब कंठ लगावै ॥
7. प्रकृति चित्रण- भारतेन्दु युग में प्राप्त प्रकृति चित्रण का वर्णन परम्परागत ही है। यह आलम्बन और उद्दीपन रूपों में ही अधिक मिला है। ऋतु वर्णन में ऋतु विशेष वर्णन नायक-नायिका की मनोदशा की व्यंजना के लिए किया गया है। प्रेमधन की ‘मयंक महिमा’ और प्रतापनारायण मिश्र की ‘प्रेम पुष्पांजलि’ में प्रकृति की आकर्षक छवियाँ मिलती हैं। ठाकुर जगमोहन सिंह की कविताओं में प्रकृति का वास्तविक सौन्दर्य देखा जा सकता है। इनके प्रकृति निरूपण में सूक्ष्म निरीक्षण तो है ही प्राकृतिक दृश्यों का हृदयकारी वर्णन भी उपलब्ध है।
8. अन्य विशेषतायें – भारतेन्दु युगीन काव्य की उपर्युक्त विशेषताओं के अलावा हाय-व्यंग्य की प्रवृत्ति, समस्या पूर्ति की प्रवृत्ति और काव्यानुवाद की प्रवृत्तियों को भी भुलाया नहीं जा सकता है। इस काल की गौर प्रवृत्तियाँ हैं। व्यंग्य का एक उदाहरण लीजिये-
“जग जाने इंगलिश हमै वाणी वस्त्रहि जोय।
मिटै बदन कर श्याम रंग जन्म सुफल तब होय ॥”
9. कला निरूपण का सौन्दर्य- भारतेन्दु युग की कविता के कलापक्ष की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है-
(i) कविता के क्षेत्र में ब्रज भाषा और गद्य के क्षेत्र में प्रमुखतः खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है। ब्रजभाषा में कमनीयता का भारतेन्दु की भाषा में, सरसता और जगमोहन सिंह के प्रकृति वर्णन में और रागात्मक स्वच्छन्दता को प्रायः सभी कवियों में देखा जा सकता है। लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग भी इस काल की भाषा में मिलता है।
(ii) काव्य रूपों की दृष्टि से इस काल में प्रधानतः मुक्तक काव्य की रचना हुई है। यों कुछ कवियों ने जनवादी चेतना के कारण कजलियाँ, होली, लावनियाँ, गजलें, शेर स्यापा और मसरिया भी लिखे हैं। प्रबन्ध नीतियों और निबन्ध गोतियों का प्रणयन भी हुआ है, किन्तु अपवाद स्वरूप ।
(ii) भारतेन्दुयुगीन कवियों में प्रयुक्त अलंकार महज और अकृत्रिम है। वे भावाभिव्यंजनों में साधक और शैली में सरसता के प्रेरक बनकर आये हैं।
(iv) छन्दों की दृष्टि से देखें तो दोहा, चौपाई, रोला, सोरठा, हरिगीतिका, कुण्डलियाँ आदि मात्रिक छन्दों का प्रयोग किया गया है तो वर्णिक छन्दों में कवित्त, सवैया, मंदाक्रान्ता, शिखरिणी, वशंस्थ बसंत-तिलका आदि को प्रयोग में लिया गया है।
निष्कर्ष – निष्कर्ष रूप से भारतेन्दु युगीन कविता राष्ट्रीयता की प्रेरक, सामाजिक चेतना और प्रसारिका जीवन के प्रति सहानुभूतिशील और भक्ति व शृंगार की समानान्तर धाराओं में विभाजित अकृतिम कला को पोषिका कविता थी। यह वह कविता थी जिसने कविता को राजप्रासादों की कैद से मुक्ति दिलाकर जनजीवन के चौराहे पर ला खड़ा किया।
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