मध्ययुगीन कृष्ण भक्ति काव्य धारा के विभिन्न सम्प्रदाय
श्रुति और स्मृति पर आधृत वैष्णव भक्ति के नाना संप्रदायों से मध्ययुगीन वैष्णव भक्ति-साहित्य अत्यधिक प्रभावित हुआ है। अतः उपर्युक्त साहित्य के पोषक तत्वों की सम्यक् जानकारी के लिए उक्त संप्रदायों का अवबोध आवश्यक है। इन संप्रदायों में रामानुजाचार्य का श्री संप्रदाय, विष्णु गोस्वामी का रुद्र संप्रदाय, निम्बार्काचार्य का निम्बार्क संप्रदाय, मध्वाचार्य का द्वैतवादी माध्य संप्रदाय, रामानन्द जी का विशिष्टाद्वैतवादी रामानन्द संप्रदाय, वल्लभाचार्य का पुष्टि संप्रदाय, चैतन्य महाप्रभु का गौड़ीय अथवा चैतन्य संप्रदाय, हितहरिवंश का राधावल्लभी संप्रदाय तथा हरिदासी संप्रदाय महत्वपूर्ण है। इन सबका मूल उद्देश्य शंकर के मायावाद की खंडन कर भक्ति की स्थापना करना है।
विष्णु संप्रदाय – विष्णु संप्रदाय के प्रवर्तक विष्णु स्वामी की स्थिति कब और कहां थी अभी तक यह बात विवादास्पद है। इस विषय में बहुत सी किंवदन्तियां प्रचलित हैं। कई विद्वानों का विचार है कि वल्लभाचार्य विष्णु गोस्वामी की उच्छिन्न गद्दी पर बैठे थे और उन्होंने अपने पुष्टिमार्गी संप्रदाय की दार्शनिक भित्ति विष्णु स्वामी के दर्शन के आधार पर खड़ी की। इस विषय में कतिपय विद्वानों का यह कहना है कि महाराष्ट्र के भागवत प्रचलित धर्म पर आधृत बारकरी संप्रदाय विष्णु स्वामी की दार्शनिक मान्यताओं का रूपान्तर मात्र है। प्रसिद्ध भक्त नामदेव और ज्ञानदेव का सम्बन्ध बारकरी संप्रदाय से जोड़ा जाता है। इस संप्रदाय को रुद्र संप्रदाय का संज्ञा से भी अभिहित किया जाता है। संप्रदाय शुद्धाद्वैतवादी है।
निम्बार्क संप्रदाय – इस संप्रदाय के प्रवर्तक निम्बार्काचार्य निम्बादित्य, निम्ब भास्कर तथा नियमानन्दाचार्य आदि कई नामों से प्रसिद्ध हैं। निम्बार्क आदि नामों के पीछे एक अतीव मनोरंजक किंवदन्ती है। अस्तु । यह संप्रदाय अद्वैताद्वैतवादी है। निम्बार्क द्वारा लिखे हुए दो ग्रंथ उपलब्ध हुए हैं-‘वेदान्त पारिजात सौरभ’ तथा ‘दश श्लोकी’। ये दोनों इस संप्रदाय के मूलभूत ग्रंथ हैं। और इन दोनों का आधार ब्रह्मसूत्र है।
माध्व संप्रदाय- निम्बार्क के समान इन्हें भी कई दूसरे नामों से अभिहित किया जाता है। मध्वाचार्य के अतिरिक्त इनके ‘रामननन्द तीर्थ’ तथा ‘पूर्व प्रतिज्ञ’ नाम भी मिलते हैं। इन्होंने शंकर के मायावाद और अद्वैतवाद का खंडन कर द्वैतवाद को स्थापना की। मध्वाचार्य रामानन्द के बाद में हुए हैं। इनके दार्शनिक सिद्धांतों का प्रेरणा-स्रोत ग्रंथ भागवत पुराण है। इनके अनुसार परम ब्रह्म कृष्ण भक्ति से प्राप्य है। इस संप्रदाय में राधा को कोई मान्यता नहीं दी गई है।
रामानुज का श्री संप्रदाय- श्री संप्रदाय के प्रवर्तक श्री रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैतवाद का प्रतिपादन किया है। इन्हें शेष का अवतार माना जाता है। इन्होंने शंकर के मायावाद तथा अद्वैतवाद का खंडन कर जीव की स्थिति में सत्य की स्थापना की। पदार्थत्रय की स्थिति में इनका पूर्ण विश्वास है। इनके अनुसार परमब्रह्म (विष्णु) चित् (जीव) तथा अचित (अचेतन दृश्य जगत) ये तीनों अनश्वर हैं। चित् और अचित् परम स्वतंत्र परमब्रह्म पर निर्भर करते हैं। इनके तीन ग्रंथ वेदार्थ-संग्रह, श्री भाष्य तथा गीता भाष्य इनके श्री संप्रदाय की दार्शनिक मान्यताओं के ज्ञान के लिए महत्वपूर्ण हैं।
रामानन्दी संप्रदाय – चौदहवीं शती के आरंभ में श्री रामानन्द ने रामानुजाचार्य की श्री संप्रदाय को लोकव्यापी और सर्वप्रिय बनाने में भरसक चेष्टा की। इस संप्रदाय में विशिष्टाद्वैतवाद को मान्यता प्रदान की गई है। रामनुजाचार्य के विष्णु अथवा नारायण के स्थान पर राम और उनकी भक्ति की बलवती स्थापना की। रामानुजाचार्य ने उपासना क्षेत्र में कर्मकांड को भी महत्व दिया था किन्तु इन्होंने उसकी उपेक्षा कर एकमात्र भक्ति को भगवदप्राप्ति का अन्यतम साधन माना । भक्तिक्षेत्र में इन्हें जाति-पांति का भेद अस्वीकार्य है। राम-सीता की मर्यादापूर्ण भक्ति की स्थापना में रामानन्द अग्रणी हैं। यह इनकी भक्ति विषयक उदारशयता का परिणाम है कि जहां एक ओर संप्रदाय में स्वनामधन्य गोस्वामी तुलसीदास दीक्षित हुए वहीं कबीर भी दीक्षित हुए।
वल्लभ संप्रदाय- पुष्टिमार्ग के प्रवर्त्तक वल्लभाचार्य महाप्रभु चैतन्य के समकालीन थे। इनका दार्शनिक सिद्धांत शुद्धाद्वैतवाद का है जिसमें शंकर की माया के लिए कोई स्थान नहीं है। वल्लभ संप्रदाय की दार्शनिक मान्यताएं विष्णु स्वामी तथा निम्बार्क के सिद्धांतों पर निर्भर करती हैं। वल्लभ के अनुसार ब्रह्म सत्, चित् और आनन्द के रूप में सर्वव्यापक है। वह ब्रह्म अपने गुणों के आविर्भाव और तिरोभाव से प्रकट होता है। अग्नि से चिंगारियों के समान ब्रह्म से जीव और प्रकृति आविर्भूत होते हैं। यह सब कुछ उसकी रचनात्मक शक्ति का परिणाम है। इसमें माया के लिए कोई स्थान नहीं है। ब्रह्म स्वरूप कृष्ण के अनुग्रह से ही उसकी अनुभूति होती है। वह अनुग्रह ही पोषक है जिसे पुष्टि के नाम से अभिहित किया जाता है। इसी कारण वल्लभ संप्रदाय पुष्टिमार्ग कहलाया। इस संप्रदाय के साहित्य में वात्सल्य और सख्य भाव की भक्ति का प्राधान्य है।
चैतन्य संप्रदाय – इस संप्रदाय के प्रवर्तक चैतन्य महाप्रभु वल्लभ के समकालीन हैं। चैतन्य का जन्म वंग प्रांत में हुआ। उस समय बंग प्रांत में शाक्तों का अत्यधिक प्रभाव था। बंगाल में वैष्णव भक्ति के प्रचार का सारा श्रेय चैतन्य जी को है। चैतन्य जी की भक्ति-पद्धति परकीया भाव की है जिसका प्रेरणा-स्रोत भागवत पुराण है। कृष्ण के साथ राधा की उपासना को महत्व देना इस संप्रदाय की विशेषता है। चैतन्य महाप्रभु गलदश्रु भाव से चंडीदास, जयदेव और विद्यापति के पदों का नृत्यपूर्ण गान करते हुए आत्म-विभोर हो जाया करते थे। यद्यपि चैतन्य संप्रदाय की दार्शनिक भित्ति रूप गोस्वामी और जीव गोस्वामी के समय हुई फिर चैतन्य जी की निजी आस्था निम्बार्क के द्वैताद्वैतवाद पर अधिक थी। निःसंदेह चैतन्य संप्रदाय के दार्शनिक पक्ष का वल्लभ संप्रदाय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, किन्तु विट्ठलनाथ के समय वल्लभ संप्रदाय में माधुर्य भाव की भक्ति चैतन्य की कीर्तन-पद्धति नृत्य और वाद्यों का अनुकरण किया जाने लगा। रूप गोस्वामी विरचित उज्ज्वल नीलमणि के अनुकरण पर नन्ददास ने रस मंजरी जैसे नायक-नायिका प्रख्यापक रसशास्त्रीय ग्रंथ की रचना की। सूरदास आदि पुष्टिमार्गी कवियों ने अपने भाव रस शास्त्र में चर्चित प्रेम की नाना परिस्थितियों के अंतर्गत व्यक्त किये। गौड़ देश में अत्यधिक प्रचलन के कारण चैतन्य संप्रदाय को गौड़ीय संप्रदाय भी कहा जाता है। इसे चित्याचित्य भेद संप्रदाय भी कहा जाता है।
राधावल्लभ संप्रदाय – इस संप्रदाय के प्रवर्तक श्री हितहरिवंश जी हैं। इसका प्रचलन पुष्टिमार्गी कवियों के समकाल में हुआ। स्वामी हितहरिवंश पहले माध्व और निम्बार्क संप्रदाय के अनुयायी थे किन्तु बाद में इन्होंने राधा-कृष्ण की पूजा का प्रचार किया। इन्होंने कर्म और ज्ञान का खंडन कर भक्ति में एकमात्र प्रेम की स्थापना की। यद्यपि इन्होंने युगल उपासना में परमानन्द की प्राप्ति मानी है किन्तु कृष्ण की अपेक्षा राधा की पूजा और भक्ति को महत्वशाली बताया है। यह संप्रदाय एक साधन मात्र था। बाद में इसका दार्शनिक पक्ष तैयार हुआ। राधा कृष्ण की गुप्त केलियों को निहारना इस संप्रदाय में परम काम्य माना गया है
श्री राधा चरण प्रदान हृदै अति सुहृद उपासी ।
कुंज केलि दंपति तहां की करत पवासी ।।
नाभादास ने इस साधना-पद्धति को दुरूह बताया है। श्री राधा-कृष्ण की श्रृंगारिक लीलाओं में विधि-निषेध का ध्यान न रखकर आनन्द लेना और अपनी लौकिक वासनाओं का उन्नयन करना वस्तुतः एक कठिन योग है। यह सब कुछ था तो वासना के उन्नयन का प्रयत्न किन्तु इससे हुआ वृत्तियों का अन्वयन ही इस संप्रदाय वालों का विश्वास है कि जिन लोगों की मनोवृत्ति लौकिक रति में अत्यधिक लिप्त है और जिनका मन दास्य भाव में नहीं रमता है वे वासना कृत्यों को राधा कृष्ण की श्रृंगार लीलाओं में देखें । अस्तु, इस प्रकार भक्ति का प्रभाव जन सामान्य पर अच्छा नहीं पड़ा। इस संप्रदाय में संयोग-शृंगार की विविध लीलाओं का चित्रण है। शृंगार के वियोग-पक्ष का अभाव है। उक्त संप्रदाय वालों ने राधा कृष्ण को कुंज लीलाओं के मनन तथा निहारने को परम रस या माधुरी भाव कहा है।
हम पहले ही कह चुके हैं कि इस संप्रदाय का आविर्भाव पुष्टि मार्ग के समकाल में हुआ है। अतः इस संप्रदाय के शृंगारी पदों का प्रभाव वल्लभ के उत्तर भाग तथा विट्ठलनाथ के समय अष्टछापी कवियों पर निश्चित रूप में पड़ा और सूरदास तक भी उक्त प्रभाव से अछूते नहीं रहे।
हित जी के दो ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध हैं- ‘राधा सुधानिधि’ (संस्कृत), ‘हित चौरासी पद ।
हरिदासी अथवा सखी संप्रदाय – इस संप्रदाय के प्रवर्तक स्वामी हरिदास थे जो कि प्रसिद्ध गायक तानसेन के गुरु थे। इनकी भक्ति का उद्देश्य राधा-कृष्ण युगल की उपासना थी। ये राधा कृष्ण की विहार लीलाओं का आनन्द सखी भाव के अवलोकन में से लूटा करते थे और गान-विद्या में गंधर्व के समान थे। रसिकता तन्मयता और मधुरतापूर्वक पाये हुए इनके सखी भाव के पदों का जनसामान्य पर दूरगामी प्रभाव पड़ा। अकबर जैसे राजा तक इनके दर्शन को आया करते थे।
चैतन्य और राधा– वल्लभी संप्रदायों के समान सखी संप्रदाय में भी पहले साधना पक्ष की प्रधानता थी। इसका दर्शन-पक्ष बाद में तैयार हुआ। ‘ललित प्रकाश’ में इस संप्रदाय के सिद्धांत और गुरु परम्परा का क्रमात्मक विकास दिया हुआ है।
इस मुख्य-मुख्य संप्रदायों के अध्ययन के उपरान्त यह विदित होता है इनमें श्री संप्रदाय के प्रवर्तक रामानुजाचार्य ने विष्णु या नारायण की भक्ति पर बल दिया। इसी परम्परा में श्री रामानन्द ने विष्णु या नारायण के दो अवतारों कृष्ण और राम में से राम की मर्यादापूर्वक भक्ति पर अत्यधिक बल दिया। निम्बार्क, मध्व और विष्णु गोस्वामी ने कृष्ण भक्ति पर जोर दिया। इन तीनों संप्रदायों के दर्शन का आधार ब्रह्मसूत्र है। वल्लभ ने अपने पुष्टि मार्ग का दार्शनिक आधार निम्बार्क और माध्य संप्रदायों की मान्यताओं पर खड़ा किया है। इन्होंने कृष्ण-भक्ति में सख्य भाव और वात्सल्य पर अत्यधिक बल दिया है। चैतन्य, हित, हरिवंश तथा स्वामी हरिदास के संप्रदाय पहले साधन पक्ष प्रधान थे। इनके दार्शनिक आधार बाद में तैयार हुए। चैतन्य ने कृष्णभक्ति में परकीया-भाव की मधुर भक्ति पर अत्यधिक बल दिया। हित जी के राधा-वल्लभी संप्रदाय में भक्ति स्वकीया भाव की थी किन्तु इसमें कृष्ण की अपेक्षा राधा की भक्ति को प्रश्रय दिया गया और राधा कृष्ण की प्रेम लीलाओं के अवलोकन में परमानन्द रास की उपलब्धि बताई गई। हरिदासी या सखी संप्रदाय में राधा-कृष्ण की कुंज-केलियों को खवासी (पवासी) के स्थान पर सखी भाव से देखन पर जोर दिया गया है।
चैतन्य राधा वल्लभी तथा हरिदासी संप्रदायों का प्रधान प्रेरणा स्रोत भागवत पुराण है। इन संप्रदायों में भगवान के लोकरक्षक तथा लोक-रंजक रूपों के साथ-साथ जनता की भाषा का धर्म प्रचार तथा साहित्य-रचना के क्षेत्र में प्रशस्य प्रयोग किया है।
चैतन्य की प्रेमलक्षणा परकीया भाव की मधुरा भक्ति, हित, हरिवंश का राधा-कृष्ण की काम-केलियों को खयवासी भाव से देखना तथा स्वामी हरिदास का चिन्तार्पण के लिये राधा-कृष्ण की रस-केलियों को सखी भाव से निहारना आदि सैद्धांतिक दृष्टि से भले ही विधिसम्मत और समीचीन हो किन्तु व्यावहारिक जगत में इन सबका दुष्परिणाम निकला। यह हुआ तो सब कुछ वासनाविमुख चित्तवृत्तियों के परिष्कृतिकरण के लिए था, किन्तु हुआ उनके विकृतिकरण ही इन संप्रदायों से काम का उन्नयन नहीं हुआ, बल्कि उसे प्रोत्साहन मिला ।
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