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महिलाओं की स्थिति की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एवं उपाय | historical background and measurement of Women Status in Hindi

महिलाओं की स्थिति की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एवं उपाय | historical background and measurement of Women Status in Hindi
महिलाओं की स्थिति की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एवं उपाय | historical background and measurement of Women Status in Hindi

महिलाओं की स्थिति की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एवं उपाय | Historical background and measurement of Women Status

महिलाओं की स्थिति का विहंगमावलोकन करने हेतु विभिन्न कालों में उनकी स्थिति को निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है-

वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति

महिलाओं की स्थिति जिस प्रकार विभिन्न ऐतिहासिक कालक्रमों में पृथक्-पृथक् रही है, ठीक उसी प्रकार उनकी स्थिति की मापक थी। महिलाओं की स्थिति जानने से पूर्व यह जानना अत्यावश्यक है कि किन बिन्दुओं के आधार पर यह ज्ञात किया जायेगा कि महिलाओं की स्थिति उन्नत है या नहीं। महिलाओं की सशक्त स्थिति के परिचायक कुछ बिन्दु, जो सभी काल-खण्डों हेतु उपादेय हैं, निम्न प्रकार हैं-

1. सामाजिक आदर

2. निर्णय लेने की क्षमता और स्वतन्त्रता

3. शिक्षा व्यवस्था

4. परिवार में मुख्य स्थान

5. लैंगिक भेद-भावों का न होना

6. महिलाओं से सम्बन्धित कुप्रथाओं और रूढ़ियों का न होना

7. राजनैतिक भागीदारी

8. आर्थिक संसाधनों पर नियन्त्रण

9. स्वतन्त्रता ।

प्राचीनकाल में लगभग 300 ई.पू. तक स्त्रियों को समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था और उनकी शिक्षा का प्रबन्ध करना माता-पिता का परम कर्त्तव्य माना जाता था। बालिकायें 16 वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करती थीं। उनका भी विधि-विधानपूर्वक उपनयन संस्कार होता था। अथर्ववेद में उल्लिखित है कि नारी विवाह के पश्चात् तभी सफल हो सकती है, जबकि उसे ब्रह्मचर्य की अवस्था में भली-भाँति शिक्षित किया गया हो । यहाँ स्त्रियाँ कृषि कार्यों तथा युद्ध सम्बन्धी अस्त्रों के निर्माण का कार्य भी करती थीं। वे अपने पतियों के साथ युद्ध मँ भाग लेती थीं और धनुष संचालन तथा अश्व संचालन में भी भाग लेती थीं। स्त्रियों को वेदाध्ययन करने, शास्त्रार्थ करने, पुराणों का अध्ययन करने, धार्मिक एवं सामाजिक कृत्यों में भाग लेने, यज्ञादि कार्यों में भाग लेने की स्वतन्त्रता प्राप्त थी। इस समय की विदुषी स्त्रियों में इन्द्राणी, मैत्रेयी, गार्गी, लोपामुद्रा तथा सर्वराज्ञी आदि के नाम लिये जा सकते हैं। ऋग्वेद के अनेक ग्रन्थों की रचना महिलाओं के द्वारा ही की गयी जिनमें सिकता, विश्ववारा, निवावरी, घेत्षा, रोयशा, लोपामुद्रा, अपाला तथा उर्वशी आदि 20 कवयित्रियों की रचनाओं का उल्लेख प्राप्त होता है ।

बालिका विद्यार्थियों को दो भागों में बाँटा गया—प्रथम, ब्रह्मवादिनी, जो वेद-वेदांग तथा उपनिषदों का अध्ययन करती थीं, जिनमें से कुछ आजीवन ब्रह्मचारिणी रहती थी। द्वितीय, सद्यबन्धु 18 या 20 वर्ष की आयु में अध्ययन छोड़कर विवाह कर लेती थीं। स्त्रियों को लौकिक एवं अलौकि दोनों ही प्रकार की शिक्षा प्रदान की जाती थी, जिससे गृहोपयोगी सभी कलाओं, संगीत, नृत्य, कढ़ाई, पाक कला, बुनाई, सिलाई, चित्रकारी, पशुपालन, अनाजों का संग्रहण, बही-खाते, पत्र-लेखन, आन्तरिक सज्जा, शारीरिक सौन्दर्य में वृद्धि की विधियाँ, अचार तथा मसाले बनाना, उनका संरक्षण करना, बच्चों की देखभाल, बच्चों की दवाईयों का ज्ञान, सुगन्ध शास्त्र इत्यादि का ज्ञान कराया जाता था। इस प्रकार पूर्व वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति अत्यन्त उन्नत थी ।

उत्तर-वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति में ह्रास के चिन्ह दृष्टिगत होते हैं। मनु ने कुछ नियमों का वर्णन किया है, जिसके अनुसार स्त्रियों को वेदाध्ययन का अधिकार प्रदान नहीं किया गया और मन्त्रोच्चारण की कसौटी पर उन्हें अयोग्य बना दिया गया। मनु के अनुसार, स्त्रियों को केवल घर के कार्य करने चाहिए तथा पति की सेवा करना उनका धर्म माना गया, जिसे उनके लिए आध्यात्मिक ज्ञान-प्राप्ति के समकक्ष ठहराया गया मनु ने अन्य कई नियम बनाये जिनका पालन करना स्त्रियों के लिए अनिवार्य था। विवाह की आयु भी कम की गयी । उत्तर- वैदिक काल में स्त्रियों को वेदों की शिक्षा की अपेक्षा संगीत, नृत्य, चित्रकला व अन्य ललित कलाओं को सीखने पर अधिक जोर दिया जाने लगा। वास्तव में इस काल में जो विचारधारायें थीं, वे ही काफी बदले हुए स्वरूप में आज भी कायम हैं। मनु ने स्त्रियों की स्वतन्त्र अभिरुचि को प्रतिबन्धित कर स्त्रियों को दमित करने का कुचक्र रचा था। उन्हें बाहरी वातावरण से दूर रखने का प्रयास किया था। कम आयु में विवाह के कारण वे शिक्षा से वंचित हो जाती थीं। उनमें अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता भी उत्पन्न नहीं हो पाती थी। वे धन और सुरक्षा के लिए पुरुषों पर आश्रित थीं। साधारण समाज में स्त्रियों की बड़ी अवनति हुई, किन्तु उच्च परिवारों में इनकी स्थिति काफी अच्छी थी। उच्च या प्रतिष्ठित परिवारों की स्त्रियाँ भी वैदिक शिक्षा से वंचित कर दी गयीं, किन्तु साहित्य की उन्हें पर्याप्त शिक्षा मिलती थी, जिससे वे संस्कृत और प्राकृत भली-भाँति पढ़ और समझ लेती थीं। इस काल में भी अनेक कवयित्री और लेखिकायें हुईं। ‘हाल की गाथा’ में सात कवयित्रियों की रचनायें संगृहीत हैं। शील और भट्टारिका अपनी सरल, प्रसादयुक्त शैली तथा शब्द और अर्थ के सामंजस्य के लिए प्रसिद्ध थीं। देवी लाट प्रदेश की प्रसिद्ध कवयित्री थी। विदर्भ में विजयका की कीर्ति की समता केवल कालिदास ही कर सकते थे। राजशेखर की पत्नी को काव्य रचना और टीका करने में सिद्धहस्तता प्राप्त थी । कतिपय महिलाओं ने आयुर्वेद पर पाण्डित्यपूर्ण और प्रामाणिक रचनायें की हैं, जिनमें ‘रूसा’ का नाम प्रसिद्ध है।

जैन तथा बौद्ध धर्मो ने स्त्रियों की शिक्षा का पूर्णरूपेण समर्थन किया और स्त्री-पुरुष की समानता पर बल दिया। स्त्रियों को भी पुरुषों के समान शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था। वे भिक्षुणी कहलाती थीं तथा मठों तथा विहारों में रहती थीं। महावीर तथा बुद्ध ने संघ में नारियों के प्रवेश की अनुमति दे दी थी। ये धर्म और दर्शन के मनन के लिए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करती थीं। जैन और बौद्ध साहित्य से ज्ञात होता है कि कुछ भिक्षुणिओं ने साहित्य तथा शिक्षा के प्रसार में व्यापक योगदान दिया। उनमें सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा का नाम उल्लेखनीय है जो धर्म के प्रचारार्थ सिंघल जैसे दूर देश भी गयी। बौद्ध आगमों की महान शिक्षिका के रूप में भी इनकी ख्याति थी । जैन साहित्य से जयन्ती का पता चलता है, जिसने धर्म और दर्शन की ज्ञान-पिपासा की तृप्ति हेतु आजन्म अविवाहित रहने का व्रत लिया और भिक्षुणी हो गयी ।

इस प्रकार वैदिक काल के पूर्व भाग में स्त्रियों की सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक स्थिति अत्यन्त सुदृढ़ थी उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आयी, फिर भी उनको अभी भी सम्मान प्राप्त था

मुस्लिम काल में महिलाओं की स्थिति- मध्य काल मुस्लिम आक्रान्ताओं और उनके शासन का काल रहा है। आठवीं शताब्दी के आरम्भ से ही भारत के अतुलनीय वैभव की ओर आकृष्ट होकर आक्रमणकारी आक्रमण पर आक्रमण करते रहे और धन-सम्पदा लूटकर अपने साथ ले गये, परन्तु इनका उद्देश्य मात्र लूटमार तक ही सीमित था। ये भारत में शासन स्थापित नहीं करना चाहते थे। 1192 में मुहम्मद गोरी ने दिल्ली के अन्तिम प्रतापी राजा पृथ्वीराज चौहान को पराजित करके भारत में मुस्लिम साम्राज्य की नींव डाली थी। इसके बाद क्रमशः गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैयद, लोदी एवं मुगल वंश ने शासन किया। लगभग 600 वर्षों तक भारत पर मुसलमानों का आधिपत्य रहा। मुस्लिम शासन काल को दो भागों में बाँटा गया। पहला, सल्तनत काल के नाम से जाना गया और दूसरा, मुगल काल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस प्रकार मध्य काल में मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ। डॉ. एफ. के. केई के अनुसार, “मुस्लिम शिक्षा एक विदेशी प्रणाली थी, जिसका भारत में प्रतिरोपण किया गया और जो ब्राह्मणीय शिक्षा से अति अल्प सम्बन्ध रखकर अपनी नवीन भूमि में विकसित हुई।” प्रथम मंदरसे की स्थापना मुहम्मद गोरी द्वारा अजमेर में की गयी। बाबर, हुमायूँ, अकबर इत्यादि शिक्षा-प्रेमी थे और इन्होंने मदरसों की स्थापना करायी। मुस्लिम काल में पर्दा प्रथा के कारण स्त्री शिक्षा प्रायः उपेक्षित रही और उनकी शिक्षा के लिए कोई विशेष प्रबन्ध नहीं किया गया। कम आयु की बालिकायें मकतयों में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करती थीं । निर्धन तथा निम्न वर्ग की स्त्रियाँ सामान्य या प्राथमिक शिक्षा से वंचित थीं।

राजघरानों और कुलीन घरानों की स्त्रियों के लिए व्यक्तिगत शिक्षा की व्यवस्था थी, जिसमें मौलवी घर जाकर व्यक्तिगत रूप से शिक्षा प्रदान करते थे। डॉ. यूसुफ हुसैन के शब्दों में “निजी घरों में बालिकाओं को धार्मिक शिक्षा प्रदान करने के लिए मकतब थे, जहाँ अधिक आयु की महिलाओं को कुरान, गुलिस्ताँ, बोस्ताँ तथा सदाचार की पुस्तकें पढ़ाती थीं ।” इससे स्पष्ट है कि स्त्रियों को व्यक्तिगत रूप से शिक्षा दी जाती थी, जिसमें धर्म की प्रधानता थी । स्त्रियों के विकास या प्रगति में शिक्षा असमर्थ थी । धर्म एवं साहित्य की शिक्षा के साथ नृत्य, संगीत एवं ललित कलाओं की शिक्षा प्रदान की जाती थी ।

स्त्री शिक्षा के लिए पहल करने वाला प्रथम शासक गियासुद्दीन तुगलक था जिसने लगभग 1469 से 1500 ई. के मध्य सारंगपुर में सभी वर्गों की बालिकाओं के हित को ध्यान में रखते हुए एक मदरसे की स्थापना की थी। इस मदरसे में बालिकाओं को अपनी अभिरुचि के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था थी। इस सन्दर्भ में फरिश्ता का कथन उल्लेखनीय है कि “इस मदरसे में बालिकाओं को नृत्य, संगीत, सिलाई, बुनाई, बढ़ईगीरी, सुनारगीरी, लुहारगीरी, जूते बनाना, मखमल बनाना, युद्ध कला, रण-क्षेत्र कला आदि की शिक्षा प्रदान की जाती थी। उनकी शिक्षा का भार उनके अभिभावकों को वहन करना पड़ता था। अतः केवल धन-सम्पन्न व्यक्ति ही अपनी बालिकाओं को इस विद्यालय में अध्ययन के लिए भेज पाते थे।”

अकबर अत्यधिक उदारवादी शासक था जिसने इस्लाम में स्त्री-पुरुष दोनों को समान महत्त्व दिया । सल्तनत काल में इल्तुतमिश ने अपनी पुत्री रजिया की शिक्षा का उत्तम प्रबन्ध किया और उसे अपना उत्तराधिकारी बनाया। वह स्त्री शिक्षा का हिमायती था। मुस्लिम काल में ऐसी कई मुस्लिम शासिकायें भी हुई हैं जिन्होंने अपनी योग्यता और कला युद्ध भूमि में भी दिखाई। इस सन्दर्भ में अहमदनगर की चाँद बीबी के प्रयास उल्लेखनीय हैं जिन्होंने अकबर की सेना से अपने साम्राज्य की रक्षा की। बाबर की पुत्री गुलबदन बानो बेगम विदुषी थीं और ‘हुमायूँनामा’ की लेखिका थीं। हुमायूँ की भतीजी सलीमा सुल्ताना सर्वश्रेष्ठ कवयित्री तथा उच्च शिक्षा प्राप्त महिला थी। अकबर के समय में राजघरानों की स्त्रियों हेतु नियमित शिक्षा का प्रावधान था जहाँगीर की पत्नी नूरजहाँ फारसी तथा अरबी की ज्ञाता थी तथा राज चलाने में भी निपुण थीं। औरंगजेब की बड़ी पुत्री जेबुनिन्सा फारसी तथा अरबी की ज्ञाता थी और अपनी को व्यावसायिक रूप प्रदान कर कवियों व लेखकों को रोजगार प्रदान किया।

इस प्रकार मुस्लिम काल में पर्दा प्रथा चरम पर थी जिससे जनसामान्य में स्त्री शिक्षा का प्रचार-प्रसार नहीं हो पाया और स्त्रियों की सामाजिक स्थिति दयनीय हो गयीं। बाल-विवाह, बहु-विवाह, विधवा पुनर्विवाह निषेध, सती प्रथा इत्यादि कुप्रथायें चरम पर थीं। जनसामान्य की बालिकाओं और स्त्रियों की अस्मिता की रक्षा पर भी प्रश्न चिन्ह उठने लगे और वे अपने अधिकारों से वंचित तथा उपेक्षित रह गयीं ।

ब्रिटिश काल में महिलाओं की स्थिति — भारत की आधुनिक शिक्षा ब्रिटिश शासन की देन है । भारत में व्यापारिक हितों के लिए डच, डेन, पुर्तगाली, फ्रांसीसी तथा अंग्रेज आये, जिसमें सर्वाधिक सफलता अंग्रेजों को प्राप्त हुई। प्रारम्भ में अंग्रेजों ने भारत में अपने व्यापारिक हितों की पूर्ति पर ही ध्यान दिया, परन्तु बाद में जब भारतीय शासन की बागडोर ही उनके हाथों में आ गयी तो प्रशासनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भारत में उन्होंने शिक्षा के प्रचार-प्रसार का कार्य प्रारम्भ किया। 1813 ई. में शिक्षा के लिए सरकारी राजस्व से खर्च करने की नीति की घोषणा की गयी । 1881 ई. में कलकत्ता में मदरसा तथा बनारस में संस्कृत कॉलेज की स्थापना की गयी। इस समय भारत में अंग्रेजों की स्थिति अत्यन्त दयनीय दशा में थी और सती प्रथा, बाल-विवाह, विधवा पुनर्विवाह निषेध आदि कुप्रथायें प्रचलित थीं, जिससे स्त्रियों को समाज में पुरुषों की अपेक्षा हीन दृष्टि से देखा जाने लगा था । स्त्रियाँ अशिक्षा और अज्ञानता के बन्धनों से जकड़ी हुई थीं। उनके लिए न तो पृथक् विद्यालय थे और न ही उनकी शिक्षा की समुचित व्यवस्था ही थी, परन्तु स्त्रियों की इस निम्न स्थिति में सुधार लाने में उन्नीसवीं शताब्दी अत्यधिक निर्णायक सिद्ध हुई। स्त्री शिक्षा तथा स्थिति में सुधार के लिए तीन स्तर पर कार्य किये गये-

1. मिशनरियों के व्यक्तिगत प्रयास ।

2. भारतीय समाज-सुधारकों तथा स्वतन्त्रता आन्दोलनकारियों के प्रयास ।

3. अंग्रेजी सरकार के प्रयास ।

ब्रिटिश मिशनरी भारत अपने धर्म और शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने हेतु लालायित रहते थे प्रोटेस्टेण्ट तथा कैथोलिक मिशनरियों ने स्त्री शिक्षा हेतु प्रयास किये। 1821 में मिस कूक भारत आयीं और आते ही उन्होंने आठ बालिका विद्यालयों की स्थापना की तथा 1823 तक 14 और बालिका विद्यालयों की स्थापना की। मिशनरियों के इन कार्यों से प्रभावित होकर भारतीयों ने भी इस क्षेत्र में कार्य किये, जिसमें पूना में महात्मा बाई फूले ने एक बालिका विद्यालय की स्थापना की, जिसमें वे और उनकी पत्नी पढ़ाते थे। 1849 में कलकत्ता में भी वैश्यून ने एक बालिका विद्यालय की स्थापना की। इसके पश्चात् राजा राममोहन राय और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने कलकत्ता क्षेत्र में कई बालिका विद्यालयों की स्थापना की। 1851 तक इसाई मिशनरियों ने ही 371 बालिका विद्यालयों की स्थापना की, जिनमें 11,293 बालिकायें शिक्षा प्राप्त कर रही थीं।

1850 में सर्वप्रथम स्त्री शिक्षा के प्रसार हेतु सरकार ने सहायता प्रदान की। उस समय अंग्रेजों द्वारा चलाये जा रहे विद्यालयों को भारतीय समाज-सुधारकों, राजा राममोहन राय आदि ने खुला सहयोग दिया। लार्ड डलहौजी ने भी स्त्री शिक्षा का समर्थन किया तथा यह माना कि यह एक प्रमुख मुद्दा है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। स्त्रियों की सामाजिक स्थिति जब तक सुदृढ़ नहीं होगी तब तक किसी भी प्रकार का परिवर्तन और विकास कल्पना मात्र ही रहेगा और इस हेतु अंग्रेजों ने 19वीं शताब्दी में स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में जागृति लाने, उनकी दशा में सुधार करने के लिए प्रयास किये, जिसमें भारतीयों ने भी योगदान दिया। 1854 के शिक्षा सुधार के पश्चात् स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में काफी जागृति उत्पन्न हुई तथा स्त्रियों की शिक्षा विशेषतया प्राथमिक शिक्षा पर बल दिया गया। कई संस्थाओं ने बालिका शिक्षा हेतु मुक्त हस्त से अनुदान दिया। अंग्रेज महिला समाज-सुधारक मैरी कारपेटर ने यह अनुभव किया कि विद्यालयी शिक्षा के साथ-साथ महाविद्यालय की शिक्षा भी आवश्यक है। उनके प्रयासों से महिलाओं के लिए पहला प्रशिक्षण महाविद्यालय स्थापित किया गया। इन प्रयासों के फलस्वरूप तथा सन् 1854 के शिक्षा परिपत्र के परिणामस्वरूप मद्रास में विद्यालयों की संख्या 256, मुम्बई में 65, बंगाल में 288 और उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों में 17 थी। उस परिपत्र के द्वारा सरकार ने स्त्री शिक्षा के लिए आर्थिक सहायता का वचन दिया और सीधी कार्यवाही करने का भी वचन दिया। सन् 1882 तक लड़कियों के लिए 2600 प्राइमरी स्कूल, 81 सेकेण्डरी स्कूल, 15 शिक्षण संस्थायें और एक कॉलेज स्थापित हो चुके थे। 1882-83 में इण्डियन एजुकेशन कमीशन स्थापित हुआ। लार्ड रिपन ने इसे डब्ल्यू. डब्ल्यू. हण्टर की अध्यक्षता में नियुक्त किया। इस आयोग का गठन प्राथमिक शिक्षा के विकास तथा विस्तार की जानकारी के साथ-साथ उसमें सुझाव हेतु किया गया। हण्टर आयोग ने यह सुझाव दिया कि पब्लिक फण्ड का अधिकांश भाग नारी शिक्षा में लगाना चाहिए और उसके लिए उदारतापूर्वक सहायता अनुदान (Grant and Aids) देना चाहिए। साथ ही आयोग ने देशी शिक्षा, प्राथमिक शिक्षा, सहायता अनुदान व्यवस्था, मुस्लिम शिक्षा, अनुसूचित जाति, जनजाति, पहाड़ी जनजातियों और स्त्री शिक्षा पर अपने सुझाव प्रस्तुत किये। हण्टर आयोग द्वारा स्त्रियों की शिक्षा की धीमी गति पर खेद व्यक्त किया गया तथा सुझाव दिया गया कि सभी प्रकार के पब्लिक फण्डों, स्थानीय म्युनिसिपल तथा प्रान्तों से समान अनुपात में लड़कियों व लड़कों के विद्यालयों को सहायता प्रदान की जानी चाहिए। लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए आयोग ने सुझाव दिया कि सरकार ने प्राइवेट कन्या स्कूलों को स्वतन्त्र अनुदान, महिला शिक्षिकाओं को अनुदान, कन्या प्राथमिक विद्यालयों में सरल पाठ्यक्रम लागू किया जाये। महिलाओं हेतु विद्यालय की स्थापना की जाये तथा बालिकाओं की शिक्षा हेतु पृथक् निरीक्षणालयों की स्थापना की जानी चाहिए। अंग्रेजी सरकार के साथ-साथ ब्रह्म समाजियों, पारसियों तथा भारतीय ईसाइयों ने भी लड़कियों के लिए विद्यालय खोलने की होड़ सी ला दी। परिणामतः 1902 के अन्त तक 12 महिला कॉलेज, 468 सेकेण्डरी विद्यालय, 5650 प्राथमिक विद्यालय तथा 45 प्रशिक्षण संस्थायें स्त्रियों के लिए स्थापित की जा चुकी थीं। सन् 1901-02 में 76 नारियाँ मेडिकल कॉलेजों में थीं, 166 मैकेनिकल स्कूलों में थीं।

1902 से 1921 तक के काल में शिक्षा के प्रति काफी जागरूकता उत्पन्न हो चुकी थी । 1904 में श्रीमती एनी बेसेण्ट ने बनारस में ‘सेन्ट्रल हिन्दू बालिका विद्यालय’ की स्थापना की। 1916 में दिल्ली में ‘लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज’ की स्थापना की गयी जो भारत का प्रथम महिला मेडिकल कॉलेज है। इसी वर्ष मुम्बई में महिला महाविद्यालय की भी स्थापना की गयी। 1917 में श्रीमती एनी बेसेण्ट की अध्यक्षता में भारतीय महिला संगठन (Indian Women Association) की स्थापना की गयी, जिसका मुख्य उद्देश्य नारी शिक्षा को प्रसारित करना था। इस काल में 19 महाविद्यालय, 675 उच्चतर माध्यमिक विद्यालय तथा 21,956 प्राथमिक विद्यालय थे । बालिकाओं की शिक्षा में प्रगति उनकी विवाह की आयु बढ़ने से भी हुई, क्योंकि बाल-विवाह के कारण उनको शिक्षा से वंचित कर दिया जाता था । इस काल में प्राथमिक, माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सक्रियता बढ़ी कॉलेज शिक्षा में विशेष प्रगति नहीं हुई। महात्मा गाँधी ने स्त्री शिक्षा और स्वतन्त्रता आन्दोलन में भी स्त्रियों की भूमिका पर बल दिया तथा स्त्रियों को पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए आवाज उठायी, जिसका प्रभाव स्त्रियों की दशा पर पड़ा। 1936 में इन्होंने ‘अखिल भारतीय स्त्री संघ’ की स्थापना की तथा इसके माध्यम से अपनी माँगों को बुलन्द करना प्रारम्भ कर दिया। राजनैतिक जागरण के कारण भी स्त्रियों की सामाजिक दशा में सुधार आया 1937 में प्रान्तों में भारतीय मन्त्रि मण्डल बने और उसी समय महात्मा गाँधी ने देश के सम्मुख बेसिक शिक्षा योजना प्रस्तुत की। परिणामतः प्राथमिक स्तर पर लड़कियों की शिक्षा में प्रसार हुआ। 1946-47 में 28,196 बालिका शिक्षा संस्थाओं की स्थापना हुई जिसमें 21,679 प्राथमिक विद्यालय, 2,370 माध्यमिक विद्यालय, 4,288 व्यावसायिक एवं तकनीकी संस्थायें, 59 आर्ट्स तथा विज्ञान कॉलेज थे, जिनमें पढ़ने वाली छात्रों की संख्या लगभग 42 लाख थी । सन् 1947 में 50 प्रतिशत बालिकायें मिश्रित विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण कर रही थीं, जिससे ज्ञात होता है कि सह-शिक्षा की प्रवृत्ति का विकास एवं लैंगिक भेद-भावों में भी कमी आयी ।

स्वतन्त्रता के पश्चात् महिलाओं की स्थिति – 15 अगस्त, 1947 को भारत ने लम्बे संघर्ष के पश्चात् स्वतन्त्रता प्राप्त की तथा लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली को अंगीकृत किया जो स्वतन्त्रता, समता के आधार स्तम्भों पर खड़ा था । स्वतन्त्रता के पश्चात् भारतीय लोकतन्त्र के समक्ष अन्य चुनौतियों, जैसे- गरीबी, बेरोजगारी, जनसंख्या वृद्धि, साम्प्रदायिकता, सामाजिक कुरीतियाँ एवं भेद-भाव, खाद्यान्न समस्या, औद्योगीकरण आदि थीं, जिनमें सामाजिक कुरीतियों और सामाजिक भेद-भाव के अन्तर्गत स्त्री तथा पुरुष के मध्य व्याप्त असमानता और विभेद भी था ।

भारतीय शिक्षा में सुधार हेतु सर्वप्रथम स्वतन्त्र भारत में 1948-49 में राधाकृष्णन् आयोग, जो उच्च शिक्षा पर सुझावों के लिए केन्द्रित था, इसलिए इसे विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के नाम से भी जाना जाता है, का गठन किया गया। आयोग ने स्त्री शिक्षा को गम्भीरता से लेते हुए इस विषय में निम्न प्रकार के सुझाव दिये-

1. स्त्रियों की शिक्षा में वृद्धि करने हेतु उनको शिक्षा के अधिक-से-अधिक अवसर प्रदान किये जाने चाहिए।

2. स्त्रियों और पुरुषों की शिक्षा एक समान न हो, अपितु स्त्रियों की अभिरुचि के अनुरूप पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाना चाहिए।

3. बालिकाओं हेतु शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।

4. महिला तथा पुरुष अध्यापकों को समान वेतन ।

5. कॉलेज स्तर पर सह-शिक्षा को प्रोत्साहन ।

इस समय तक देश में 100 से अधिक महिला महाविद्यालय थे। पंचवर्षीय योजनाओं के संचालन द्वारा स्त्री शिक्षा में प्रगति तथा उनकी सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक इत्यादि उन्नति का कार्य योजनाबद्ध रूप से सम्पन्न किया जाने लगा। प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-56) में स्त्री शिक्षा के लिए विशेष प्रावधान किये गये तथा इसी समय 1992 में माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन के लिए ए. लक्ष्मण स्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में मुदालियर आयोग का गठन किया गया। आयोग का मानना था कि माध्यमिक स्तर पर स्त्रियों तथा पुरुष दोनों की शिक्षा समान होनी चाहिए। स्त्री शिक्षा विषयी आयोग के मुख्य सुझाव निम्न प्रकार थे-

1. स्त्री तथा पुरुषों की समान शिक्षा की व्यवस्था ।

2. बालिकाओं के पाठ्यक्रम में गृह-विज्ञान, शिल्प, गृह उद्योगों, संगीत एवं चित्रकारी को स्थान ।

3. सह-शिक्षण संस्थाओं में महिला शिक्षिकाओं की नियुक्ति का सुझाव

4. बालिकाओं को विद्यालयों में पर्याप्त सुविधायें प्रदान की जायें ।

इस प्रकार आयोग ने शिक्षा के द्वारा महिलाओं के सामाजिक तथा आर्थिक स्वावलम्बन में अग्रणी भूमिका निभायी।

द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-61) में स्त्री शिक्षा के प्रसार के साथ शिक्षिकाओं के प्रशिक्षण का प्रावधान किया गया, जिससे महिलाओं की आर्थिक सुदृढ़ता में वृद्धि हो सके। इस योजना के ही समय सन् 1958 में श्रीमती दुर्गाबाई देशमुख की अध्यक्षता में ‘राष्ट्रीय महिला शिक्षा समिति’ (National Women Education Committee) का गठन किया गया। समिति ने अपनी रिपोर्ट सन् 1959 में प्रस्तुत की जिसमें स्त्री शिक्षा के विषय में सुझाव निम्न प्रकार दिये गये-

1. स्त्री तथा पुरुषों की शिक्षा में वर्तमान विषमताओं को दूर कर दोनों के लिए समान शिक्षा की व्यवस्था करना।

2. स्त्री शिक्षा को राष्ट्र की प्रमुख समस्या माना जाये तथा कुछ समय के लिए इसके प्रचार एवं प्रसार का उत्तरदायित्व केन्द्र सरकार स्वयं ले ।

3. केन्द्रीय सरकार स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में एक निश्चित नीति बनाये तथा इसके प्रसार के लिए एक निश्चित योजना बनाये तथा इस नीति एवं योजनानुसार स्त्री शिक्षा के प्रसार का कार्य प्रान्तीय सरकारों को सौंपे।

4. प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर बालिकाओं को अधिक सुविधायें प्रदान की जायें।

5. ग्रामीण क्षेत्रों में स्त्री शिक्षा के प्रसार हेतु विशेष कार्य किये जायें।

6. केन्द्रीय स्तर पर ‘राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद्’ (National Council for Women Education) तथा प्रान्तीय स्तर पर ‘राज्य महिला शिक्षा परिषद्’ (State Council for Women Education) का गठन किया जाये और ये परिषदें स्त्री शिक्षा के प्रसार हेतु हों ।

7. स्त्री शिक्षा सम्बन्धी योजनाओं के लिए केन्द्रीय सरकार अतिरिक्त धनराशि की व्यवस्था करे तथा द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-61) में इस हेतु 10 करोड़ रुपये की अतिरिक्त धनराशि का आवंटन करे ।

दुर्गाबाई देशमुख समिति के सुझाव पर 1959 में में, “राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद्’ (National Council for Women Education) का गठन किया गया तथा इसे देश में स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में नीति एवं योजना बनाने का कार्य सौंपा गया। इसके निर्देशन में स्त्री शिक्षा के विकास को गति प्राप्त हुई। प्रथम एवं द्वितीय पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान छात्रों की संख्या 1951 में जो 60 लाख थी, बढ़कर 1961 में लगभग 140 लाख हो गयी। 1961 में तृतीय पंचवर्षीय योजना प्रारम्भ हुई और इसके दौरान 1962 में ‘राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद्’ (NCWE) ने श्रीमती हंसा मेहता की अध्यक्षता में स्त्री शिक्षा के पुनर्गठन हेतु सुझाव देने के लिए एक समिति का गठन किया। इसे ‘हंसा मेहता समिति’ के नाम से भी जाना जाता है। इस समिति ने महिलाओं के सशक्तीकरण हेतु उनकी शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव निम्न शब्दों में दिये-

1. प्राथमिक स्तर पर बालकों और बालिकाओं हेतु समान पाठ्यक्रम की व्यवस्था ।

2. माध्यमिक स्तर पर बालिकाओं हेतु गृह विज्ञान के अध्ययन की सुविधा ।

3. बालिकाओं हेतु पृथक् व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था ।

4. किसी भी स्थिति में बालकों और बालिकाओं की शिक्षा में बहुत अन्तर नहीं होना चाहिए।

1963 में ‘राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद्’ ने श्री भक्तवत्सलम् की अध्यक्षता में ग्रामीण क्षेत्रों में महिला शिक्षा पुनर्गठन हेतु सुझाव देने के लिए एक समिति का गठन किया और इस समिति ने ग्रामीण क्षेत्रों में महिला शिक्षा के प्रसार हेतु जन सहयोग प्राप्त करने का सुझाव दिया । उसी समय 1964 में भारतीय शिक्षा पर समग्र रूप से सुझाव देने हेतु ‘कोठारी आयोग’ की नियुक्ति की गयी तथा इस आयोग ने स्त्रियों की स्थिति में सुधार हेतु शैक्षिक सुझाव इन शब्दों में दिये-

1. 6 से 14 आयु वर्ग के सभी लड़के-लड़कियों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जाये।

2. 11 से 14 आयु वर्ग की लड़कियों के लिए अल्पकालीन शिक्षा की व्यवस्था की जाये।

3. बालिकाओं हेतु अलग से माध्यमिक विद्यालयों की स्थापना की जाये।

4. बालिकाओं को छात्रावास की सुविधा प्रदान की जाये।

5. बालिकाओं हेतु अलग से व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था की जाये ।

6. बालिकाओं के लिए अलग से महिला महाविद्यालयों की स्थापना की जाये।

7. बालिकाओं हेतु विशेष छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की जाये ।

8. लड़कियों को शिक्षा ग्रहण करने के लिए विद्यालय भेजने के लिए जनमानस को तैयार करना ।

9. अशिक्षित प्रौढ़ महिलाओं की शिक्षा की व्यवस्था की जाये तथा उनके लिए अलग से प्रौढ़ शिक्षा केन्द्रों की स्थापना की जाये ।

आयोग के इन सुझावों के पश्चात् राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 की घोषणा की गयी जिसमें स्त्री शिक्षा पर विशेष बल दिया गया। चतुर्थ पंचवर्षीय योजना (1969-74) के अन्तर्गत 1970 में राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद् (NCWE) द्वारा अपनी वार्षिक रिपोर्ट में स्थिति में सुधार के लिए निम्न बिन्दुओं पर बल दिया गया—

1. केन्द्रीय सरकार स्त्री शिक्षा हेतु अलग से पर्याप्त धनराशि सुनिश्चित करें ।

2. स्त्री शिक्षा के प्रसार हेतु योजनाबद्ध कार्यक्रम बनाया जाये ।

3. ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करने वाली शिक्षिकाओं को प्रोत्साहित किया जाये और उन्हें अतिरिक्त भत्ता तथा सुविधायें प्रदान की जायें ।

1971 में छात्राओं की संख्या 1961 की लगभग 140 लाख से बढ़कर दो गुनी अर्थात् 280 लाख हो गयी। 1974 में पाँचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-79) का शुभारम्भ किया गया। 1975 के वर्ष को यूनेस्को (UNESCO) में ‘महिला वर्ष’ के रूप में मनाया गया । भारत में भी महिला कल्याण की योजनाओं का शुभारम्भ किया गया । इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण योजना उनके लिए शिक्षा की समुचित व्यवस्था करने की थी। इस योजना के दौरान स्त्री शिक्षा के प्रसार हेतु विशेष प्रयास तथा महिला शिक्षिकाओं की पूर्ति हेतु प्रयास किया गया ।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1979 में प्राथमिक शिक्षा को प्रथम वरीयता दी गयी तथा प्रौढ़ शिक्षा को द्वितीय। इसमें लड़के-लड़कियों और प्रौढ़-स्त्री-पुरुषों सबको साक्षर बनाने और उन्हें सामान्य शिक्षा देने पर बल दिया गया। अभी इस शिक्षा नीति के अनुसार कार्य शुरू ही हुआ था कि केन्द्र में जनता दल के स्थान पर पुनः काँग्रेस की सरकार सत्तारूढ़ हो गयी। उसने पुनः राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 के अनुपालन पर बल दिया और परिणामस्वरूप छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85) में स्त्री शिक्षा का प्रसार कार्य जारी रखा। आँकड़े बताते हैं कि 1971 में जहाँ हमारे देश में लगभग 280 लाख छात्रायें अध्ययनरत थीं वहीं 1981 में इनकी संख्या बढ़कर लगभग 400 लाख हो गयी। इसके बाद श्री राजीव गाँधी प्रधान मन्त्री बने। उन्होंने 1984 में शिक्षा पर राष्ट्रव्यापी बहस शुरू की, तभी 1985 में सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-90) प्रारम्भ की गयी कि 1986 में सरकार ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 की घोषणा की । इस नीति में स्पष्ट शब्दों में घोषणा की गयी कि अब स्त्री-पुरुषों की शिक्षा में कोई अन्तर नहीं होगा और दोनों को ही समान सुविधायें प्रदान करनी चाहिए। इस शिक्षा नीति के साथ इसकी एक कार्य योजना (POA) तैयार की गयी, जिसके अनुसार प्रत्येक क्षेत्र में कार्य प्रारम्भ किये गये, स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में भी। स्त्री शिक्षा के प्रसार हेतु जो कदम उठाये गये उनमें उल्लेखनीय कदम हैं- जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम (District Primary Education Programme : DPEP) । यह कार्यक्रम मुख्य रूप से उन जिलों में प्रारम्भ किया गया जिनमें स्त्री साक्षरता प्रतिशत न्यूनतम था। बालिका निरौपचारिक शिक्षा केन्द्रों को 90% अनुदान देना शुरू किया गया। बालिका माध्यमिक विद्यालय वहाँ खोले गये जहाँ इनका एकदम अभाव था केन्द्रीय विद्यालयों और नवोदय विद्यालयों में बालिकाओं के लिए 30% आरक्षण प्रदान किया गया और उनकी शिक्षा निःशुल्क की गयी। महिलाओं के लिए +2 स्तर पर नये-नये व्यावसायिक पाठ्यक्रम प्रारम्भ किये गये, अलग से पॉलिटेक्निक कॉलेज खोले गये विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों में महिला अध्ययन केन्द्र खोलने हेतु सहायता देना प्रारम्भ कर दिया । 1989 में ‘महिला समाख्या कार्यक्रम’ प्रारम्भ किया गया जिसके अन्तर्गत ग्रामीण एवं पिछड़े वर्ग की महिलाओं की शिक्षा तथा उनको अधिकार सम्पन्न बनाने हेतु कार्यक्रम तैयार किया गया। 1991 में लगभग 6.2 करोड़ बालिकायें अध्ययनरत थीं।

1992 में आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-97) प्रारम्भ की गयी, जिसमें माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक स्तर पर छात्राओं के लिए छात्रावास सुविधायें तथा इन छात्रावासों को 1,500 रुपये प्रति छात्रा के हिसाब से फर्नीचर, बर्तन, मनोरंजन, खेल-कूद सामग्री तथा वाचनालय व्यवस्था हेतु अनुदान दिया गया और 5,000 रुपये प्रति छात्रा भोजन सामग्री एवं भोजन व्यवस्था करने वाले कुक एवं कर्मचारियों के वेतन हेतु अनुदान दिया गया ।

नवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) के अन्तर्गत मानव संसाधन विकास मन्त्री डॉ. मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता में राज्यों के शिक्षा मन्त्रियों और शिक्षा सचिवों का एक सम्मेलन हुआ, जिसमें महिलाओं हेतु स्नातक स्तर की निःशुल्क शिक्षा, बालिकाओं की शिक्षा की प्रतिबद्धता को दोहराया गया।

दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) के अन्तर्गत प्राथमिक स्तर पर सर्वशिक्षा अभियान (SSA), कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय योजना (KGBVP) का संचालन किया गया, जिससे स्त्री शिक्षा में तीव्रता से विस्तार हुआ।

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Anjali Yadav

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