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मुक्तक काव्य की आवश्यकता और दोहा आदि छन्दों का प्रयोग
रीतिकाल में मुक्तक काव्य का प्रणयन अत्यधिक मात्रा में हुआ । इस काल में प्रबन्ध काव्य भी बने किन्तु मात्रा और गुण में स्वल्प होने के कारण वे नगणय से हैं। वैसे तो मुक्तक काव्य प्रबन्ध-काव्य की एक छोटी सी अन्वति है, किन्तु इन दोनों में पर्याप्त विभिन्नता भी है। जहाँ व्यापकता और विशालता प्रबन्ध काव्य के अनिवार्य धर्म हैं वहां संक्षिप्तता, सामाजिकता और कलात्मकता मुक्तक काव्य का मूल रहस्य है। मुक्तक काव्य का निर्माण एक विशेष प्रकार की परिस्थितियों की उपज है। सामन्ती सभ्यता और दरबारी कलाप्रियता मुक्तक काव्य-प्रणयन के लिए विशेष अनुकूल सिद्ध होती है।
रीतिकाल की बाह्य परिस्थितियों की चर्चा करते हुए हम लिख चुके हैं कि उस समय छोटे-छोटे नरेशों, सामंतों, अमीरों, वजीरों और सरदारों तथा नवाबों का प्राधान्य था। सामन्ती जीवन अधिक व्यस्त हो गया था। कम से कम समय में विविध कलात्मक सामग्री के उपभोग का जटिल प्रश्न उनके सम्मुख उपस्थित था। कम से कम समय में अधिक से अधिक आनन्दित और चमत्कृत होना सामन्ती जीवन की महती आवश्यकता थी। उस समय उस राजदरबारी कलाकार का आदर और सम्मान संभव था जो अपनी कला में अधिकाधिक निखार लाकर श्रोता को आकर्षित, चमत्कृत तथा आनन्दित करने में समर्थ था। राजदरबारों, राज-सभाओं तथा कवि-दंगलों में उस कलाकार को आदर मिलना संभव था, जो अपने प्रतिद्वन्द्वियों से बाजी मारकर अपनी सर्वोत्कृष्टता की स्थापना में समर्थ हो। राजदरबार के प्रबन्ध-काव्यों के सुविस्तृत पाठ श्रवण के लिए साहस तथा धैर्य कहां था। इसके अतिरिक्त राजदरबारों में सम्मानार्थ कलाओं के विषय ऐसे थे, जिन्हें मुक्तक काव्य के माध्यम से प्रकट करना सुकर था। हम रीतिकालीन कवि के बहुमुखी व्यक्तित्व की चर्चा पहले कर चुके हैं। वह कवि, शिक्षक, आचार्य, चारण, राजगुरु सब कुछ था और इसे इन सब दायित्वों की पूर्ति थोड़े से थोड़े समय में करनी थी। इसके लिए उपयुक्त माध्यम केवल मुक्तक काव्य ही था ।
रीतिकाल में काव्यशास्त्रीय ग्रंथों के प्रणयन की परम्परा बड़े वेग से चली। काव्यशास्त्र के इस बढ़ते हुए प्रभाव ने मुक्तक काव्य को निश्चित रूप से प्रोत्साहित किया। संस्कृत के रीति आचार्यों और हिन्दी के रीतिकाल के काव्यशास्त्र प्रणेताओं में एक मौलिक अन्तर है। संस्कृत के अधिकांश आचार्यों ने केवल लक्षण ही लिखे और उदाहरणों के लिए उन्होंने अपने पूर्ववर्ती या समकालीन कवियों को उद्धृत किया, किन्तु हिन्दी के रीति आचार्यों ने लक्षण और उदाहरण दोनों स्वयं रखे। इससे मुक्तक काव्य को बल मिलना स्वाभाविक था ।
हिन्दी के रीतिकालीन साहित्य में शृंगारिकता की प्रधानता है। उनकी इस शृंगारिकता का प्रेरणा-स्रोत विदेशी न होकर स्वदेशी है। हाल की गाथा सतसई, गोवर्धन की आर्या-सप्तशती, अमरूक कवि, भर्तृहरि, कालिदास तथा जयदेव रीतिकालीन कवि के अनुकरणीय रहे हैं। इस दिशा में प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य के फुटकर शृंगारी पदों नें भी रीतिकवि को प्रभावित किया है। एक तो संस्कृत साहित्य में ऐहिकतापरक पद अधिकतर मुक्तक काव्य के रूप में उपलब्ध होते हैं और दूसरे रीति कवि को अपने विलासी आश्रयदाता को शृंगार के मधुमय चषकों का आप्लावित करना था, उसके लिए मुक्तक काव्य के माध्यम से शिक्षक के रूप में अपना कार्य करना था। इस प्रकार नीति और उपदेशों के लिए भी मुक्तक काव्य अधिक अनुकूल पड़ता है।
रीतिकालीन साहित्य अपने प्रतिपाद्य विषय और छंद-विधान की दृष्टि से अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व रखता है। रीतिकाव्य में अधिकांश में शास्त्रीयता और कलात्मकता का समन्वय है अतः उसकी संगति दोहा-चौपाई वाली प्रबन्धात्मक शैली से बैठनी संभव नहीं थी। मुक्तक प्रकृति होने के कारण रीति काव्य के लिए ऐसे छंदों की आवश्यकता हुई जो संस्कृत के वर्ण वृत्तों के समान हों और उसमें गणों के निर्वाह और लघु-गुरु अक्षर-विन्यास की परम्परा पर अत्यधिक आग्रह न हो। परिणामतः रीतिकाल में कवित्त, सवैया, छप्पय, दोहा, सोरठा, बरवै और रोला जैसे छंद प्रयुक्त हुए जो कि रीतिकालीन काव्यधारा की प्रकृति के नितान्त अनुकूल थे।
रीतिकाल में प्रयुक्त प्रमुख छंद
प्रमुख रूप से रीतिकाल में कवित्त, सवैया और दोहा का प्रयोग हुआ है और गौण रूप में बरवै, सोरठा, छप्य और रोला छंद प्रयुक्त हुए हैं। उक्त सभी छंद हिन्दी के पूर्ववर्ती साहित्य में भी प्रयुक्त थे। बरवै छन्द का प्रयोग तुलसी और रहीम अतीव कुशलता से कर चुके थे। नन्ददास आदि भक्त कवि रोला का सफल प्रयोग कर चुके थे। हालांकि यह छंद प्रबन्ध काव्यों की प्रकृति के अधिक अनुकूल रहा है।
दोहा – संस्कृत के पुराण साहित्य तथा अन्यत्र बहुधा प्रयुक्त अनुष्टुप छंद के समान हिन्दी में दोहा छंद का प्रचलन अत्यधिक रहा है। प्राकृत साहित्य में जो स्थान गाथा छंद का रहा है, हिन्दी में वही दोहा का है। अपभ्रंश साहित्य में कदाचित् यह दूहा नाम से अभिहित होता रहा है। जैनों तथा जैनेतर अपभ्रंश साहित्य में इसका अत्यधिक प्रचलन रहा है। हेमचन्द्र ने अपने शब्दानुशासन में इसके दोहक और उपदोहक आदि भेदों की चर्चा की है। प्राकृत पैंगलम में इसके लगभग 23 भेदों का उल्लेख मिलता है, जिससे इसकी सर्वप्रियता स्पष्ट रूप से आभासित हो जाती है। डॉ० जगदीश गुप्त के शब्दों में- “मुक्तक काव्य के लिए दोहा का संक्षिप्त स्वरूप उक्ति वैचित्र्य, चित्रात्मकता, शब्द संगठन तथा व्यंजकता की दृष्टि से विशेष उपयुक्त सिद्ध हुआ है।” रीतिकाल में अनेक सतसइयों का निर्माण गाथा सतसई तथा आर्या सप्तशती के आदर्श पर हुआ। इसके लिए दोहा छंद अत्यधिक उपयुक्त था। रीतिकाल के साहित्य का एक महत्वपूर्ण भाग इसी दंद में निर्मित हुआ है।
सवैया- ऐतिहासिक विकासक्रम की दृष्टि से सवैया का आविर्भव दोहा छंद के बहुत बाद में हुआ। विद्वानों का विश्वास है कि यह अपने प्रकृत रूप से संभवतः 17वीं शती में प्रयुक्त होने लगा था। यह छंद रीतिकालीन शृंगारी कविता की प्रकृति के नितान्त अनुकूल था । श्रृंगार रस के कोमल भावों के वहन करने की इसमें एक अद्भुत क्षमता है। इसमें वर्णनात्मकता और गीति-तत्वों का समावेश सहज रूप में हो सकता है। डॉ० जगदीश गुप्त के शब्दों में, “सवैया रीति-काव्य का मधुरतम छंद है। वृत्तात्मक गरिमा के अतिरिक्त इसके संगीत में कुछ ऐसी सुकुमारता भी निहित मिलती है जो संस्कृत के अन्य वृत्तों में लक्षित नहीं होती और जिसका मेल भाषा की स्वर साधना से अधिक लगता है।” देव, मतिराम, घनानन्द, पद्माकर, ठाकुर और बोधा आदि रीति-कवियों ने सवैया छंद का सफल प्रयोग किया है। हिन्दी के रीति-कवि को उर्दू के कवि से प्रतियोगिता करनी थी। उर्दू साहित्य के बहरों में भावाभिव्यक्ति की जो भंगिमा, चमत्कार और चारुत्व थे वे सब गुण सवैया छंद में उपलब्ध होते हैं, अतः रीतिकाल में इसका अत्यधिक प्रचलन स्वाभाविक था ।
कवित्त— यह छंद हिन्दी का एक निजी आविष्कृत छंद है। इसका संबंध संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश के किसी छंद से जोड़ना निर्भ्रान्त नहीं है। इसके विकासक्रम के विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। किन्तु इतना तो निश्चित है कि यह एक हिन्दी का अपना छंद है और इसका विकास हिन्दी क्षेत्र में हुआ । यह छंद गणात्मक न होकर वर्णात्मक और लयात्मक है। भावों की प्रवाहमयता के लिए यह एक अत्यंत अनुकूल छंद है। हिन्दी भाषा के समानान्तर काल में उद्भूत होने वाली बंगला, गुजराती तथा मराठी आदि भारतीय भाषाओं में इस छंद की प्रकृति से मिलते-जुलते छंदों का प्रयोग हुआ है। हिन्दी में घनाक्षरी तथा मनहर आदि भेदों के रूप में इसका अत्यधिक प्रयोग हुआ है। रीतिकाल में व्यापक प्रयोग के कारण यह छंद खूब परिष्कृत हुआ और मंज गया। डॉ० जगदीश गुप्त के शब्दों में, “कलात्मकता की दृष्टि से सवैया की तरह कवित्त भी अंतिम पद-प्रधान छंद है और इसका शिल्प भी तद्नुरूप विकसित हुआ । उक्ति प्रधान रीतिकाव्य के लिए उसकी उपादेयता विशेष रूप से सिद्ध हुई। फलतः दोनों का ग्रंथि-बन्धन दृढतर होता गया। कवित्त-सवैया से रीतिकाव्य के अभिन्न संबंध का यह एक मार्मिक रहस्य हैं।”
रीतिकाव्य की श्लीलता व अश्लीलता
रीतिकाव्य के महत्व के अंकन के विषय में प्रायः पक्षपात से काम लिया गया है। कुछ आलोचक इसे सर्वथा त्याज्य और अधोगामी कहकर इसे गंदी नालिया में बहाने की वकालत करते हैं, जबकि इन्य आलोचक रीतिकाव्य को तन और मन को रिझाने वाला साहित्य कहकर इसे नितान्त अभिलक्षणीय बाताते हैं । हमारे विचारानुसार ये दोनों दृष्टिकोण अतिवाद से मस्त हैं। रसिक प्रभुओं के लिए लिखे गये रीतिकाव्य में कामशास्त्र के सचेष्ट समावेश और उसमें यत्र-तत्र संभोग कलाओं की चर्चा को देखकर आज का आलोचक रीतिकाव्य में अश्लीलता की दुहाई देता हुआ आवश्यकता से कुछ अधिक चौक जाता है। वस्तुतः श्लीलता और अश्लीलता युग सापेक्ष्य वस्तुएं हैं। श्लील और अश्लील कवि समय (काव्य रूढ़ियों) के समान हैं, जो कि प्रत्येक समाज की परिस्थितियों की अनुरूपता में हुआ करते हैं। ये दोनों तत्कालीन सामाजिक चेतना से सम्बद्ध हैं। एक समय में जो वस्तु नागरता समझी जाती है, दूसरे समय में वही गर्हणीय बन जाती है, ऐसी दशा में रीतिकाव्य की तथाकथित अश्लीलता को आज के प्रबुद्ध नैतिक मानदंडों पर कसना न्यायसंगत नहीं होगा और न ही रीतिकाव्य की अश्लीलता को असाहित्यिक या असामाजिकता की संज्ञा देना उचित होगा। अश्लीलता और असाहित्यिकता हमें उस समय प्रतीत होती है जब हम रीतिकाव्य के चित्रों को उनके पूर्ण परिप्रेक्ष्य में न देखकर उन्हें अधूरी दृष्टि से देखते हैं। नैतिकता भी देश कालाश्रित है तथा वह सदा बदलती रही है। वस्तुतः श्लीलता और अश्लीलता सुरुचि और करुचि से सम्बद्ध है, जो कि प्रत्येक देश और काल की अलग-अलग हुआ करती है। हम पहले संकेत कर चुके हैं कि रीतिकाव्य चाहे शास्त्र की दृष्टि से इतना महत्वपूर्ण न हो किन्तु कवित्व की दृष्टि से यह बहुत मनोरम है। अतः इस काव्य का साहित्यिक और ऐतहासिक महत्व अक्षुण्ण है। रीतिकाव्य के प्रणयन का हेतु विशुद्ध साहित्यिक प्रेरणा अर्थात् ‘कला कला के लिए है। यह काव्य किसी नैतिक, सामाजिक, धार्मिक अथवा राजनीतिक प्रेरणा की उपज नहीं है। अतः रीतिकाव्य की यथार्थ गरिमा और उसके मूल्य को आंकते समय हमें उपर्युक्त तथ्यों को सदा ध्यान में रखना होगा।
रीतिकाल में रचित गद्य साहित्य
रीतिकाल में गद्य लेखक का कार्य भक्तिकाल की अपेक्षा अधिक हुआ । इस काल में बजभाषा और राजस्थानी का गद्य निश्चय ही पर्याप्त, प्रचुर प्रौढ़ व समृद्ध रहा। खड़ी बोली, दक्खिनी और मैथिली में गद्य लेखन भक्तिकाल की अपेक्षा अधिक सक्रिय रहा। खड़ी बोली गद्य के निर्माता इंशा अल्ला खाँ, सदासुखलाल, सदन मिश्र और लल्लूलाल एवं उनके पूर्ववर्ती लेखक रामप्रसाद निरंजनी रीति युग में हुए। इस काल में आधुनिक हिन्दी गद्य के विविध रूपों का प्रस्फुटन हुआ। इस युग में भोजपुरी और अवधी में भी गद्य का निर्माण हुआ।
इस युग में गद्य ‘टीका, कथा-कहानी, अनुवाद, वार्ता, बात, वर्णन, चरित्र, वचर्निका, दवावेत, सलोका, वचनामृत, गोसट जनम साखी, परीचीओं, जीवनी, नाटक, ख्यात, पीढ़ी विगत, वंशावली, पत्रावली, पट्टावली, पत्र, बालवबोध, टिप्पण, भाषा परमारय, भाव, भावना, वार्तिक, पुस्तक परिचय, निबन्धात्मक रचनायें, जीवन-शैली, शिलालेख तथा भित्ति-प्रशस्तियों तथा कागज-पत्रों पर नमूनों आदि के रूप में प्राप्त होता है। इन रूपों के अतिरिक्त उन्नीसवीं शती के आरंभ में पाठ्य-पुस्तकों तथा समाचारपत्रों का लेखन व प्रकाशन आरंभ हो गया। इसके अतिरिक्त इस काल में पद्यात्मक रीति ग्रंथों तथा अन्य कवितात्मक पुस्तकों में बात, वार्ता, चर्चा, तिलक आदि अनेक शीर्षकों के रूप में गद्य टिप्पणी लिखने का कार्य आरंभ हो गया।
इस काल में गद्य के मुख्य विषय ये रहे हैं-धर्म, दर्शन, अध्यात्म, इतिहास, भूगोल, चिकित्सा, ज्योतिष, काव्यशास्त्र, शकुन शास्त्र, प्रश्न- शास्त्र, सामुद्रिक, गणित, व्याकरण विज्ञान विषय पाठ्य-पुस्तकें, संस्कृत, प्राकृत तथा फारसी की कथात्मक रचनाओं तथा योग, वेदान्त, वैद्यक, ज्योतिष आदि की रचनाओं के अनुवाद।
अब इस युग में ब्रजभाषा, खड़ी बोली, दक्खिनी हिन्दी, राजस्थानी, भोजपुरी तथा अवधी के गद्य साहित्य का विकास संक्षिप्त रूप में निरूपित कर उक्त काल के गद्य का मूल्यांकन करना अभीष्ट है।
ब्रजभाषा गद्य- इस काल का ब्रजभाषा गद्य साहित्य तत्कालीन खड़ी बोली के गद्य साहित्य की अपेक्षा कहीं अधिक सुविकसित और समृद्ध है। ऊपर हम रीतिकालीन गद्य साहित्य के जिन विषयों तथा व्यवहृत गद्य रूपों की चर्चा कर चुके हैं, वे सब उस समय के ब्रजभाषा-गद्य साहित्य में उपलब्ध होते हैं।
रीति युग में वल्लभ सम्प्रदाय पर आधृत विशाल वार्ता साहित्य का सृजन हुआ। यह साहित्य धर्म और इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसमें पुष्टिमार्ग में दीक्षित हुए भक्तगणों के जीवन प्रसंगों तथा आचार्य जी की महिमा का अतिरंजित वर्णन मिलता है। अब तक इस विषय के शताधिक ग्रंथ मिल चुके हैं। इस काल के वार्ता साहित्य में ‘चौरासी वैष्णवन को वार्ता तथा ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ विशेष उल्लेखनीय हैं। यह वार्ता साहित्य गो० विट्ठलनाथ तथा गो० गोकुलनाथ के प्रवचनों पर आधृत है। इन प्रवचनों को लिपिबद्ध करने वालों में हरिराय का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इन वचनामृतों अथवा प्रवचनों के द्योतक शब्द हैं-संवाद, चरित्र, वार्ता, सेवा प्रकार, भावना अथवा भाव। अधिकांश वार्ता साहित्य की शैली सरल है और उसमें साहित्यिकता का भी कोई विशेष पुट नहीं। सत्रहवीं शती के ब्रजभाषा गद्य के उल्लेखनीय ग्रंथ ये हैं- अष्टांग योग, कोक कथा और कोक मंजरी, मार्कण्डेय पुराण का अनुवाद, अध्यात्म रामायण का अनुवाद तथा हरतालिका कथा। अठारहवीं शती में जहां एक ओर धर्म, अध्यात्म और वार्ताओं का समृद्ध साहित्य लिखा गया वहां कई अन्य महत्वपूर्ण विषयों पर भी लेखनो चली। उदाहरणार्थ- मुगल इतिहास, भूगोल, पुराण, वसन्त राज, शकुन, वैद्यक संग्रह, अश्व चिकित्सा, वैद्य जीवन, विदग्ध माधव नाटक, 766 पच्चीसी, हितोपदेश, कथा विलास, गरुड़ पुराण भाषा, पद्म पुराण का अनुवाद, आईने अकबरी की भाषा वचनिका, चाणक्य राजनीति और कुछ पत्र। उन्नीसवीं शती में भागवत के अनेक अनुवादों के साथ-साथ वार्ता साहित्य का निर्माण बराबर चलता रहा। वैद्यक के कई ग्रंथों-माधव निदान, हकीम फरासीसी, वैद्य चन्द्रिका आदि के अनुवाद और प्रणयन हुए। रीतिकाल के प्रायः प्रमुख काव्यशास्त्रीय ग्रंथों तथा अन्य काव्य ग्रंथों पर यत्र-तत्र वचनिका, चर्चा, वार्ता, तिलक आदि शीर्षकों के अंतर्गत टिप्पणीपरक गद्य का प्रयोग हुआ है। रीति युग में संस्कृत टीका प्रणाली के अनुकरण पर प्रचुर टीकायें लिखी गई। धार्मिक ग्रंथों में भागवत और गीता पर अनेक व्यक्तियों ने टीकायें लिखीं। तुलसी, केशव तथा बिहारी के काव्यों पर अनेक विद्वत्तापूर्ण टीका ग्रंथ निर्मित हुए। इसके अतिरिक्त अन्य विषयों पर भी टीकायें लिखी गई। इस काल का ब्रजभाषा गद्य साहित्य प्रायः परिष्कृत, पुष्ट और प्रौढ़ है। यद्यपि इसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की बहुलता है फिर भी वह प्रवाहमय तथा सशक्त अभिव्यंजना से युक्त है। धार्मिक रचनाओं में अलंकृत गद्य हैं किन्तु उपयोगी विषयों की रचनाओं में भाषा का व्यावहारिक रूप प्रयुक्त हुआ है।
खड़ी बोली गद्य- रीति युग के खड़ी बोली गद्य पर ब्रजभाषा, पूर्वी हिन्दी, राजस्थानी तथा पंजाबी का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इस काल में ललित गद्य की अपेक्षा असाहित्यिक गद्य अधिक लिखा गया और इसके गृहीत विषय हैं-दर्शन, धर्म, अध्यात्म, ज्योतिष, इतिहास, चिकित्सा, शकुन शास्त्र, भूगोल, गणित आदि। इन विषयों पर बहुत अधिक रचनायें लिखी गईं। कुछ उल्लेखनीय रचनायें हैं- पोथी हरि जी, जनम साख कबीर भगति जी की, अपवार जेवड़ी का (राजा रणजीत सिंह के दरबार की गुप्त सूचनाएँ), लीलावती, दिल्ली की पातसाही । खड़ी बोली के महत्वपूर्ण गद्यकार हैं- टोडरमल जैन, रामप्रसाद निरंजनी, दौलतराम मुंशी, सदा सुखराय निसार। इनका उपनाम सुखसागर था। विष्णु पुराण तथा भागवत का इन्होंने पद्यानुवाद किया था।
इस काल के खड़ी बोली गद्य का टीकाओं और अनुवादों पर अधिक बल रहा। अठारहवीं शती में रचित ऐसे ग्रंथ हैं— भाषा-उपनिषद, भाषा योगवासिष्ठ, भाषा-पद्म-पुराण, आदि पुराण-वचनिका और हितोपदेश वचनिका आदि। भाषा-उपनिषद फारसी भाषा में अनूदित 22 उपनिषदों का हिन्दी रूपान्तर है। रामप्रसाद निरंजनी ने भाषा योगवासिष्ठ जैसी महत्वपूर्ण रचना को लिखा । पद्मपुराण दौलतराम कृत हैं। कमोदानन्द ने ज्योतिष के प्रसिद्ध ग्रंथ सूर्य सिद्धान्त, गोरा-बादल की वीरता, सिंहासन बत्तीसी, विष्णु पुराण भाषा तथा श्रीमद्भागवत का भाषा अनुवाद किया।
उन्नीसवीं शती के प्रारंभ में फोर्ट विलियम कालेज ने हिन्दी खड़ी बोली गद्य के विकास में महत्वपूर्ण योग प्रदान किया है। नासिकेतोपाख्यान, रामचरित्र, प्रेमसागर, लालचन्द्रिका, टीका, भाषा कायदा, सिंहासन बत्तीसी, बैताल पच्चीसी, भक्तमाल टीका । प्रेमसागर भागवत के दशम स्कन्ध पर आधृत है। लाल चन्द्रिका बिहारी सतसई की टीका है। भक्तमाल टीका भक्तमाल की विस्तृत व्याख्या है। रीवां नरेश विश्वनाथसिंह ने आनन्द रघुनन्दन नाटक लिखा जिसमें ब्रजभाषा पद्य के साथ खड़ी बोली प्रयुक्त हुआ है। लल्लूलाल के अनुज दयाशंकर ने दाय भाग पर लिखा ।
दक्खिनी हिन्दी-गद्य- इस युग में दक्खिनी हिन्दी में सूफी तथा इस्लामी धर्मों की पुस्तकों का अनुवाद हुआ। इसके ” अतिरिक्त कुछ पुस्तकें चिकित्सा और इतिहास पर भी लिखी गई। पत्रों, हुकमनामों तथा अर्जियों के संग्रह के रूप में भी पुस्तकें प्राप्त हुई हैं। कुछ प्रेमाख्यानों का भी गद्यानुवाद हुआ। कुछ पुस्तकें विज्ञान पर भी लिखी गईं। इन ग्रंथों की भाषा प्रायः उर्दू शैली की है। भाषा-गठन की दृष्टि से उक्त काल का दक्खिनी गद्य आज की खड़ी बोली के पर्याप्त निकट है।
राजस्थानी गद्य- इस समय का राजस्थानी गद्य साहित्य बजभाषा गद्य की अपेक्षा अधिक समृद्ध है। मारवाड़ी गद्य में तत्कालीन गद्य के प्रायः समस्त रूप उपलब्ध होते हैं। इतिहास, धर्म, शकुन, अध्यात्म, कोकशास्त्र, सामुद्रिक, वैद्यक, यन्त्र, तन्त्र, नीति तथा गणित आदि विषयों को लिया गया है।
राजस्थानी में लिखित बात-साहित्य अतीव प्रसिद्ध है। विषय की दृष्टि से बातें छः प्रकार की हैं- प्रेममय, वीरतापूर्ण, हास्यमय, धार्मिक, शान्त-रसपरक तथा स्त्री चातुर्य विषयक तथा अद्भुत रसपूर्ण। कुछ प्रसिद्ध बातें हैं- रतना हमीर की बात, राव अमरसिंह की बात, सिद्धराज जयसिंह दे की बात, राव रिणमल की बात, सयणी चारणी की बात, ढोला मारवाणी की बात, गोरा बादल की बात, बात दूधै जोधावत की, राजा भोज खादरा चोर की बात तथा बीरबल की बात। अन्य विध गद्य राजस्थानी भाषा में बिरले ही मिलता है।
भोजपुरी और अवधी का गद्य- रीतिकाल में भोजपुरी-गद्य के कुछ पत्र दस्तावेज, सनद और पंचनामे आदि प्राप्त हुए हैं। इनमें प्रयुक्त गद्य प्रायः शुष्क और अलंकरण-रहित हैं। इसके अतिरिक्त ‘रस विनोद’ (गद्य पद्य मिश्रित), ‘उड्डील’ (जन्त्र-मन्ना) ‘मानस टीका’, ‘सगुनावती’, व्यवहारवाद (दाय-भाग), ‘कबीर बीजक टीका। आदि रचनायें उपलब्ध हुई हैं, जिनमें ब्रजभाषा खड़ी बोली मिश्रित अवधी गद्य हैं। फणीन्द्र मिश्र द्वारा लिखित ‘पंचायत का न्याय-पत्र’ में अवधी मिश्रित भोजपुरी का रूप है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि रीतिकाल में गद्य का यथेष्ट विकास न हो सका। इसके अनेक कारण है- तत्कालीन जीवन अधिक जटिल और समस्यामय नहीं था, प्रेस और कागज का अभाव, पद्यात्मक अभिव्यक्ति के प्रति गहरी निष्ठा, ‘स्वामिनः सुखायः’ लिखने वाले राजाश्रित कवि के लिए राजदरबारी परिवेश में पद्य का अधिकाधिक उपयोगी होना आदि। यद्यपि उक्त काल में गद्य लेखन की अनेक शैलियां विद्यमान थीं, किन्तु गद्य की किसी विशेष शैली या पद्धति का सर्वस्वीकृत विकास न हो सका। उत्तर रीतिकाल में खड़ी बोली के प्रचार व प्रसार के कारण ब्रजभाषा गद्य की उपेक्षा होने लगी और वह खेल कृष्ण भक्तों तक ही सीमित रह गया। खड़ी बोली के उत्तरोत्तर प्राधान्य के कारण ब्रज, राजस्थानी, अवधी तथा भोजपुरी का गद्य उससे बहुत प्रभावित हुआ। इस काल के गद्य की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इसमें आधुनिक हिन्दी गद्य के विविध रूपों का बीज वपन और प्रस्फुटन हुआ।
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