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रामकाव्य तथा कृष्ण काव्य का तुलनात्मक अध्ययन

रामकाव्य तथा कृष्ण काव्य का तुलनात्मक अध्ययन
रामकाव्य तथा कृष्ण काव्य का तुलनात्मक अध्ययन

रामकाव्य तथा कृष्ण काव्य का तुलनात्मक अध्ययन विवेचन कीजिए।

भक्ति काव्य की सामान्य प्रवृत्तियों का विवेचन करते समय हम बता चुके हैं कि ईश्वर भक्ति, आत्म-समर्पण, ईश्वर के अनुग्रह पर विश्वास, नामरूप कीर्तन और गुरु-भक्ति की प्रवृत्तियां भक्तिकाल के साहित्य की सभी धाराओं में समान रूप में मिलती हैं पर निर्गुण भक्तिधारा और सगुण भक्ति धारा में अन्तर है। जैसे, निर्गुण धारा के अंतर्गत सन्त काव्य तथा सूफी प्रेम काव्य में भेद है, इसी प्रकार सगुण काव्य में जहां साम्य है वहां दोनों काव्य-राम काव्य तथा कृष्ण-काव्यों में अंतर भी है। सगुण राम-काव्य के राम और कृष्ण काव्य के कृष्ण दोनों विष्णु के अवतार हैं। दोनों के प्रति सगुण भक्ति का विधान है और दोनों के प्रति आत्मसमर्पण तथा अनन्य निष्ठा प्रदर्शित की गई है परन्तु फिर भी दोनों काव्यों में सिद्धान्तगत तथा शैलीगत पर्याप्त अन्तर है और दोनों में दृष्टिकोण सम्बन्धी काफी भेद हैं।

सिद्धान्तगत भेद- राम-काव्य में दास्य भाव की भक्ति है जो वैधी भक्ति के अन्तर्गत आती है। इसमें मर्यादा पर अत्यधिक बल दिया गया है। राम-काव्य में वर्णाश्रम धर्म, कर्मकांड और वेद-मर्यादा आदि पर पूर्ण आस्था प्रकट की गयी है। रामानुज विशिष्ट द्वैतवाद के समर्थक एवं प्रवर्तक हैं जिसके अनुसार जीव ब्रह्म का अंश है अतः ब्रह्म के साथ-साथ जीव भी सत्य है। यही कारण है कि तुलसी सियाराममय जगत को कर जोरि प्रणाम करते हैं। राम-काव्य में ब्रह्म को जीव मर्यादा का पालन करते हुए दिखाया गया है। राम नारायण होते हुए भी नर हैं और नर होते हुए नारायण हैं। राम-काव्य के अन्य पात्र विभीषण, अंगद, हनुमान, लक्ष्मण, भरत और जानकी किसी न किसी रूप में राम के दास्य भाव के भक्त चित्रित किए गए हैं। सेव्य-सेवक भाव की भक्ति में, जो कि लोक संग्रह की दृष्टि से अत्यंत हितकर है मर्यादा का तिल भर भी अतिक्रमण वर्जित है। यही कारण है कि राम-काव्य प्रत्येक क्षेत्र में अपेक्षाकृत अधिक संयत और सन्तुलित है। हां, आगे चलकर इस काव्य में भी कृष्ण काव्य की भांति अतिरिक्त रसिकता का समावेश हो गया। रसिक संप्रदाय के काव्य में कदाचित् मर्यादा का अतिक्रमण भी देखा जा सकता हैं। इसके विपरीत कृष्ण-काव्य में सख्य और माधुर्य भाव की भक्ति प्रधान रूप से है जो कि रागानुरागा भक्ति के अंतर्गत है । प्रेम-लक्षणा भक्ति में मर्यादा के लिए कोई स्थान नहीं है। पुष्टि मार्ग के शुद्धाद्वैत के अनुसार ब्रह्म और जीव में कोई मर्यादा नहीं, दोनों में अभेद है। कृष्ण-भक्त कवि कृष्ण के सखा हैं। सख्य में कोई बड़ा और छोटा नहीं होता। “खेलन में को काकी गुसैयां”। इसी प्रकार माधुर्य भाव की भक्ति में भी ब्रह्म जीव की दूरी का नितांत तिरोधान हो जाता है। ऐसी दशा में वेद मर्यादा तथा कर्मकांड आदि सब उपकरण निष्फल हो जाते हैं। पुष्टि मार्ग के अनुसार जीवन का साफल्य कृष्ण लीला में एकमात्र तादात्म्य है। शुद्ध भक्ति की दृष्टि से वैधी भक्ति को ईश्वर-सान्निध्य का यदि प्रथम सोपान स्वीकार किया जा सकता है तो रागानुगा भक्ति को उसका अन्तिम सोपान । राम-काव्य में जहां लोक-संग्रह एवं लोक-रक्षक की भावना की प्रधानता है वहां कृष्ण-काव्य में लोक रंजन की । शुद्ध कला की दृष्टि से कृष्ण-काव्य काफी कुछ खरा उतरा है। राम-काव्य में किसी प्रकार की कोई आध्यात्मिक प्रतीकात्मका नहीं जबकि कृष्ण काव्य के सभी पात्र प्रतीकात्मकता हैं।

जन-सम्पर्क- इस दृष्टि से राम-काव्य अधिक समृद्ध है। यह प्रायः स्वान्तः सुखाय होते हुए भी सर्व सुखाय है। निःसन्देह इस काव्य का मूल उद्देश्य भक्ति की अभिव्यक्ति है, पर वह ऐकान्तिक रूप में भक्ति नहीं है । उसमें व्यक्तिगत साधना के साथ-साथ लोक-धर्म की उज्ज्वल छटा भी वर्तमान है। राम-काव्य में तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों का सजीव घात-प्रतिघात है। तुलसी साहित्य में इससे सम्बद्ध यत्र तत्र संकेत हैं। तुलसी काव्य के पात्रों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अलौकिक होते हुए भी हम जैसे लगते हैं, जो जीवन की प्रत्येक विकट परिस्थितियों में हमें प्रेरणा तथा स्फूर्ति देते हैं। यही कारण है कि रामचरितमानस का प्रचार रंक की कुटिया से लेकर राजा के महल तक है। लोकप्रियता में तुलसी-काव्य अपने आधार ग्रंथों वाल्मीकि रामायण आदि से भी बढ़कर है। आचार्य शुक्ल तुलसी की वाणी के प्रसार और प्रभाव के सम्बन्ध में लिखते हैं- “उनकी वाणी की प्रेरणा से आम जनता अवसर के अनुकूल सौन्दर्य पर मुग्ध होती है, ममत्व पर श्रद्धा करती है, शील की ओर उन्मुख होती है, सन्मार्ग पर पैर रखती है, विपत्ति पर धैर्य धारण करती है, कठिन काम में प्रवृत्त होती है, दया से आई होती है। बुराई से घृणा करती है, शिष्टता का आलम्बन करती है और मानव-जीवन का महत्व अनुभव करती है।” विराट जन-समूह का इतना विशाल पथ-प्रदर्शन शायद ही हिन्दी का कोई अन्य कवि कर सका है। इसके विपरीत कृष्ण-काव्य पर मानो युग की कोई छाप ही नहीं है। कृष्ण-भक्त मथुरा और आगरा में बैठे हुए भी दिल्ली में होने वाले घात-प्रतिघातों से अछूते रहते है। उनकी मथुरा सचमुच तीन लोक से न्यारी रही है। वे अपनी भक्ति और आध्यात्मिकता में इतने तन्मय थे कि उन्होंने समाज का तनिक भी ध्यान नहीं किया कि वह कहाँ और किधर जा रहा है। वे आध्यात्मिकता के आवेश में लीन होकर “नीवी खोलत धीरे यदुराई” कहते रहे किन्तु समाज और साहित्य पर इसका क्या अनिष्ट प्रभाव पड़ेगा, यह बात उन्होंने नहीं सोची। मानो एक प्रकार से इन्होंने समाज की ओर से अपनी आंखें बन्द कर ली थीं। यह ठीक है कि भक्तिकाल की राम भक्ति का परवर्ती साहित्य रसिकता की भावना से ओतप्रोत हो गया, उसमें मर्यादा पालन का विशेष ध्यान नहीं रखा गया, किन्तु फिर भी राम-काव्य में कृष्ण काव्य की अपेक्षा जन-जीवन का संपर्क अधिक है। वह सर्वांगीण काव्य है और उसमें नाना रसों का सम्यक् सन्निवेश है ।

भाषा- राम काव्य में अवधी भाषा का प्रयोग हुआ जो राम की जन्मभूमि अवध से सम्बन्धित है। व्याकरण की दृष्टि से अपेक्षाकृत वह परिमार्जित और शुद्ध है। इसके अतिरिक्त तुलसी ने अपने काव्य में ब्रज भाषा का भी सफल प्रयोग किया है। उनका दोनों भाषाओं पर समान अधिकार है। कृष्ण काव्य में केवल ब्रज भाषा का व्यवहार हुआ है। नन्ददास भले जड़िया कवि हैं, पर अन्य कृष्ण काव्यकारों की ब्रज भाषा की लोक-प्रचलित भाषा का साहित्यिक रूप है। भाषा की शुद्धि और संस्कृत की कोमल-कान्त पदावली जो तुलसी में है वह कृष्ण काव्य में कदाचित् ही दृष्टिगोचर हो ।

रचना-शैली- सिद्धान्तगत भिन्नता के कारण इन दोनों काव्यों के रूपों, प्रकारों एवं परिमाण में भी अन्तर रहा है। राम-काव्य में प्रबन्ध काव्यों का प्रणयन हुआ जबकि कृष्ण-काव्य मुक्तक शैली को लेकर चला। दोनों काव्यों में यह अन्तर स्वाभाविक भी है, क्योंकि राम का चरित्र विभिन्न राष्ट्रीय आदशों को आत्मसात किए हुए है। वे आदर्श पुत्र आदर्श राजा और आदर्श स्वामी हैं। उनका चरित्र जीवन की विभिन्न ऊंची-नीची भूमियों पर स्थित है, अतः वह महाकाव्य का विषय है। राम भक्ति साहित्य में महाकाव्य परम्परा भक्तिकाल से लेकर आधुनिक काल तक बराबर चली आ रही है। इसके अतिरिक्त राम साहित्य में मुक्तक शैली का प्रयोग हुआ है। तुलसी ने अपने समय की सभी प्रचलित शैलियों का सुन्दर प्रयोग किया है। इस साहित्य में दृश्य काव्यों का भी प्रणयन हुआ। कृष्ण काव्य में मुक्तक शैली के अपनाये जाने का कारण यह है कि अधिकांशतः कृष्ण का चरित्र बालकृष्ण के रूप में चित्रित किया गया है और वह भी अतिमानव के रूप में इन कवियों ने कृष्ण जीवन के कोमलतम अंशों का चित्रण किया है जो प्रबन्ध काव्यों के अनुरूप नहीं थे, अतः उनकी अभिव्यक्ति मुक्तक गीतों में हुई। राम में शील, शक्ति और सौन्दर्य का समाहार है जबकि कृष्ण सुन्दरम् के प्रतीक हैं। राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। तुलसीदास ने काव्य में मर्यादावाद का पूर्ण पालन किया है, परन्तु इस धर्म का निर्वाह प्रत्येक कवि के बस की बात नहीं। यही कारण है कि मात्रा और परिमाण की दृष्टि से राम काव्य कृष्ण काव्य की अपेक्षा न्यून रह गया, पर काव्य रूपों और शैली की विविधता की दृष्टि से यह काव्य पर्याप्त समृद्ध है।

दृष्टिकोण – राम भक्तों और कृष्ण भक्तों ने अपने-अपने दार्शनिक दृष्टिकोणों के अनुसार अपने उपास्यों के प्रति भक्ति की नाना विधाओं को अपनाया। राम-काव्य में दास्य भाव की भक्ति है जबकि कृष्ण-काव्य में सख्य और माधुर्य भाव की। कृष्ण-साहित्य में मधुरा रति का महत्व सबसे अधिक माना गया है। राम-काव्य समन्वय के व्यापक दृष्टिकोण को लेकर चला है। भाव, भाषा, शैली, छंद तथा अष्टदेव सभी क्षेत्रों में इसमें समन्वय है। निःसन्देह तुलसी ने राम को अत्यधिक महत्व दिया है, किन्तु इन्होंने कृष्ण तथा अन्य देवी-देवताओं की स्तुति भी की है। सूर को छोड़कर कृष्ण भक्ति के पुष्टिमार्गी कवि अपनी साम्प्रदायिकता के लिए प्रसिद्ध हैं। इस प्रकार राम काव्य और कृष्ण काव्य मूलतः सगुणवादी काव्य होते हुए भी बहुत सी बातों में परस्पर भिन्न हैं। हां, दोनों काव्यों को देखकर यह अवश्य कहा जा सकता है कि सगुणवादी कवि केवल चिन्तनशील भक्त ही नहीं बल्कि कवि भी हैं। इनके काव्यों में अलंकारिकता, कला तथा कवित्व का सुन्दर सामंजस्य मिलता है।

तुलसी के बाद राम-साहित्य का विकास- प्रायः यह कह दिया जाता है कि “तुलसी के पश्चात् राम-साहित्य का विकास एकदम अवरुद्ध हो गया ।” किन्तु यह धारणा सर्वथा निर्मूल है। हां, यह दूसरी बात है कि तुलसी के बाद उनके द्वारा निर्मित पद्धति पर राम-भक्ति साहित्य का विकास न हो सका। तुलसी के अनन्तर राम- साहित्य का एक नवीन दिशा में निश्चित रूप से विकास हुआ और वह नवीन दिशा है राम भक्ति साहित्य में रसिक भावना का समावेश। यह भावना तुलसी के पूर्व भी विद्यमान थी और कदाचित् वे उससे थोड़े-बहुत प्रभावित भी हुए थे। तुलसी के पश्चात् तो यह धारा अबाध गति से प्रवाहित हुई। वास्तव में इस पद्धति के साधक कवियों की संख्या इतनी अधिक है कि तुलसी अपने समकालीन भक्ति क्षेत्र में प्रसृत श्रृंगारी भक्ति के एक अपवाद से प्रतीत होते हैं। यह दूसरी बाता है कि इस संप्रदाय का इतना विशाल प्रतिभासंपन्न कोई कवि नहीं जो तुलसी की समकक्षता में आ सकता। दूसरी बात यह है कि रामोपासना की इस पद्धति का प्रचार भक्तों के एक संप्रदाय विशेष तक सीमित था, और इसके सिद्धान्तों की गोपनीयता इसके द्रुत विकास में बाधक सिद्ध हुई। गोस्वामी जी मर्यादावादी हैं। अतः उनका यह मर्यादावाद जीवन के समान काव्य-क्षेत्र में भी अक्षुण्ण रहा। तुलसी के राम मर्यादा के लोकरक्षक लोक-विरोधी तत्वों के उन्मूलक और लोक धर्म के प्रवर्त्तक हैं। तुलसी के राम में शील- शक्ति सौन्दर्य का समन्वय है। तुलसी ने अपनी अपूर्व दक्षता से राम के मर्यादावादी चरित्र में रागात्मकता का भी समावेश कर लिया, किन्तु बाद के राम भक्त कवियों के लिए मर्यादा के साथ रागात्मकता को निभा पाना दुष्कर हो गया, अतः उन्होंने तुलसी की पद्धति का अनुसरण न करके अपअली के माधुर्य भाव की उपासना को अपनाया, अतः तुलसी की ऐश्वर्य-प्रधान भक्ति पद्धति उपेक्षित रह गयी।

तुलसी में एक अद्वितीय काव्य-कौशल की अद्भुत प्रतिभा थी। उन्होंने अपनी असमान दक्षता से राम के व्यापक चरित्र के विविध सूत्रों को सन्तुलित रूप में संभाले रखा। अपने समन्वयवादी दृष्टिकोण तथा अपने सर्वभासी व्यक्तित्व के कारण धर्म, दर्शन, समाज, साहित्य, लोकनीति और राजनीति सभी क्षेत्रों में वे उतने ऊंचे उठे कि परवर्ती राम कवि वहां तक पहुंचने में असमर्थ थे।’ निःसन्देह केशव ने रामचरितमानस की होड़ में रामचन्द्रिका का प्रणयन किया, किन्तु वह मानस के समान विविध भावों और विषयों-रूप मणिरत्नों से परिपूर्ण सरोवर न होकर विविध छंदों और अलंकारों की मंजूषा मात्र रह गयी। जयशंकर प्रसाद हिन्दी नाटक क्षेत्र के सम्राट थे, किन्तु उनके समकालीन नाटककार प्रसाद का अनुकरण न करके एक भिन्न दिशा में चले, क्योंकि उनके लिए प्रसाद के व्यक्तित्व की गंभीरता और दार्शनिकता सहज अनुकरणीय नहीं थी। संस्कृत साहित्य में वाल्मीकि और कालिदास मैं जो स्वाभाविकता, गंभीरता और काव्य-सौष्ठव है वे परवर्ती संस्कृत में अनुकरणीय न हो सके। भक्ति काव्य में रामचरित्र की उज्ज्वलता के स्थान पर व्याकरण और छंदों का कौशल आ गया। ठीक यही बात तुलसी के साथ समझनी चाहिए। इसके . अतिरिक्त तुलसी में राम-भक्ति-काव्य का विकास उतने भव्य और सर्वांगीण रूप में हुआ कि उस विषय पर लिखने की तनिक भी गुंजाइश नहीं रही। परिणामतः तुलसी से भिन्न दिशा में राम-भक्ति-साहित्य का विकास हुआ और इस दिशा में विपुल साहित्य की रचना हुई। परिमाण की दृष्टि से संपूर्ण राम भक्ति-साहित्य का दो-तिहाई से अधिक भाग रसिक भक्तों के द्वारा रचा गया, क्योंकि इस दिशा में लिखने के लिए पर्याप्त अवकाश था। राम भक्ति का रसिक साहित्य निश्चित रूप से तुलसी साहित्य के समान जन-मानस को आकृष्ट नहीं कर सका। कारण, तुलसी-साहित्य के सौष्ठव और व्यापकता में जनता की मनोवृत्ति इस रूप में रमी कि उसने इस दिशा में रचे गये साहित्य की परवाह न की। जिस प्रकार सूर के वात्सल्य वर्णन के पश्चात् उस क्षेत्र में • अन्य कवियों के लिए जूठन ही रह गयी और जिस प्रकार महाभारत में सब विषयों के सांगोपांग वर्णन के अनन्तर अन्य कवियों के लिए मात्र उन विषयों की आवृत्ति ही रह गई, इसी प्रकार तुलसी द्वारा मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरित्र के सर्वांगीण वर्णन के पश्चात् परवर्ती राम-कवियों के लिए कुछ भी नहीं रह गया था और यदि रहा था तो वह था कृष्ण के समान राम का छैल-छबीला रूप। आगे चलकर राम के इसी रूप पर प्रभूत साहित्य का निर्माण हुआ ।

राम के उपर्युक्त रूप के लिए तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक परिस्थितियां भी कोई कम उत्तरदायी नहीं हैं। तुलसी सम्राट अकबर के समकालीन थे। अकबर के समय तक देश में शान्ति और व्यवस्था बनी रही। अकबर के पश्चात् जहांगीर तथा शाहजहां के शासन काल में राजनीति एवं समाज विकासोन्मुख हो गये। स्पष्ट है कि ऐसी परिस्थिति में तुलसी-काव्य का लोक-रक्षक और मर्यादावादी रूप जनता की चित्तवृत्ति को सन्तुष्ट नहीं कर सकता था। उस समय की जनता की चित्तवृत्ति भगवान के मधुर रूप के लिए लालायित थी। इस मांग की पूर्ति तुलसी की वैधी भक्ति में न होकर कृष्ण-भक्त कवियों की प्रेम-लक्षणा भक्ति में निहित थी, जहां कृष्ण का रूप एकमात्र प्रेममय है, और जहां किसी मर्यादा -विशेष के पालन की आवश्यकता नहीं थी। कृष्ण काव्य जनता की चित्तवृत्ति के अनुकूल पड़ा, क्योंकि उसमें जन-मन-रंजन की पर्याप्त क्षमता थी। निःसंदेह कृष्ण-भक्ति काव्य में अत्यंत सूक्ष्म आध्यात्मिक एवं प्रतीकात्मकता भी थी किन्तु साधारण जनता का उससे कोई सरोकार नहीं था, उसे रिझाने के लिए तो कृष्ण का सांवला-सलोना रूप ही काफी था। यही कारण है कि राम-काव्य की अपेक्षा कृष्ण-काव्य अधिक लोकप्रिय हुआ। इसके फलस्वरूप तुलसी के परवर्ती राम- साहित्य में रसिकता का खुलकर समावेश हुआ तथा इस साहित्य का राजाओं तथा जनता में अभीष्ट प्रचार एवं प्रसार हुआ। राम भक्ति साहित्य में रसिकता की भावना के समावेश का आंशिक कारण राजदरबारों में लगने वाले फारसी और उर्दू कवियों के दंगल भी हैं।

कुछ विद्वानों का कहना है कि ब्रजभाषा के साहित्यिक क्षेत्र में प्रतिष्ठित होने पर अवधी साहित्यासन से अपदस्थ हो गई और इसीलिए राम काव्य का प्रवाह क्षीण हो गया, क्योंकि राम-काव्य के लिए अवधी अत्यंत उपयुक्त भाषा थी। हमारे विचारानुसार प्रथम तो राम भक्ति साहित्य का विकास क्षीण हुआ ही नहीं और फिर अवधी भाषा ही रामचरित के लिए उपयुक्त है, यह कोई जरूरी नहीं। कंबन ने दक्षिण भारत की तमिल भाषा में रामायण लिखी। संस्कृत कवियों ने संस्कृत को रामचरित की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया और वे अत्यंत सफल रहे। सफलता के लिए कलाकार की निपुणता आवश्यक है, कोई भाषा विशेष नहीं।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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