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रामचरितमानस के बालकांड की प्रमुख विशेषताएं पर प्रकाश डालते हुए इसके महत्व पर प्रकाश डालिए ।
गोस्वामी तुलसीदास रचित ‘रामचरितमानस’ ग्रन्थ न केवल तुलसी का अपितु सम्पूर्ण भक्तिकाल का गौरव रहा है। यह वह ग्रन्थ है जो सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति, धर्म, राजनीति और मानवता का प्रेरक है और इसमें तुलसी की सूक्ष्म और व्यापक दृष्टि का परिचय मिलता है। यह एक ऐसा काव्य-सरोवर है जिसमें भारतीय संस्कृति और सभ्यता की युगों-युगों की कथा समाविष्ट है। मानस सात कांडों में निबद्ध है। तुलसीदासजी ने यह कहकर कि ‘सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना’ इसी तथ्य को प्रमाणित किया हैं। मानस के सात कांडों में बाल-कांड, अयोध्या कांड, अरण्य कांड, किष्किन्धा कांड, सुन्दर कांड, लंका कांड और उत्तर कांड आते हैं। यों तो ये सभी अपनी-अपनी विशेषताओं से युक्त हैं, किन्तु इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण कांड बाल-कांड, अयोध्या कांड और उत्तर कांड ही हैं। बाल-कांड मानस काक पप्रथम सोपान है। यह अनेक विशेषताओं से युक्त है कथावस्तु, चरित्र सृष्टि, प्रकृति सौन्दर्य, वर्णनात्मकता, सौन्दर्यानुभूति, सांस्कृतिक भावना और कलात्मकता के कारण बाल-कांड अत्यन्त महत्व रखता है। भाव, कल्पना, संस्कृति और कलात्मकता का जैसा सामंजस्य इस कांड में हुआ है, वैसा अन्य कांडों में दिखाई नहीं देता है। इन्हीं सब गुणों के कारण बाल-कांड का महत्व है और इसकी उपादेयता भी इन्हीं सब कारणों से प्रमाणित होती है।
बालकांड की विशेषताएँ
बाल कांड की विशेषताओं को कथावस्तु, चरित्र, सृष्टि, प्रकृति सौन्दर्य, वर्णनात्मकता, सांस्कृतिक निरूपण और कलात्मकता आदि शीर्षकों के माध्यम से समझा जा सकता है। इन्हीं विशेषताओं में बाल कांड का महत्व छिपा हुआ है।
कथावस्तु- तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के अन्तर्गत बाल-कांड की रचना परम्परागत रूप में ही की है। इस कांड में अनेक अन्तर्कथाएँ आई हैं। कथा विकास संवादों के सहारे हुआ है। इसमें जो संवाद हैं वे शिवजी और पार्वती, काकभुशडी और गरुड़जी तथा याज्ञवल्क्य और भारद्वाजजी के मध्य हुये हैं। जहाँ तक बालकांड की कथा वस्तु के प्रमुख बिन्दुओं का प्रश्न वे इस प्रकार हैं- इस कांड में सर्वप्रथम मंगलाचरण का विधन हुआ है। इसके बाद गुरु वंदना, सन्त वंदना, खल वंदना, सन्त- असंत वंदना, जीव मात्र की वन्दना, कवि की दीनता और राम भक्ति से युक्त काव्य की महिमा का वर्णन हुआ है। आगे चलकर इसकी कथा का नाम महिमा, राम गुण तथा रामचरित की महिमा, रामचरितमानस की रचना तिथि, मानस का रूप तथा उसकी महिमा, मुनि याज्ञवल्क्यजी तथा भारद्वाज संवाद, प्रयागराज का महात्म्य, सती का भ्रम, रामचन्द्र जी का ऐश्वर्य, सती का पश्चाताप, शिव द्वारा सती का त्याग, शिव की समाधि, सती का दक्ष यज्ञ में जाना, अपमान से दुखी सती का योग की अग्नि में जल मरना, दक्ष के यज्ञ का विध्वंस पार्वती का जन्म और तपस्या, शिव-विवाह, सप्तऋषियों द्वारा पार्वती की परीक्षा, कामदेव का शिव-समाधि भंग करने का प्रयत्न, कामदेव का भस्म होना, सप्त ऋषियों का पार्वती के पास जाना, शिव-पार्वती-संवाद, अवतार के कारण नारद का अभियान, माया का प्रभाव, विश्व मोहनी का स्वयंवर, नारद मोह भंग, मनु व शतरूपा का वरदान एवं राजा भानुप्रताप की कथा, रावण का जन्म, तपस्या एवं ऐश्वर्य, पृथ्वी और देवताओं की करुण पुकार और भगवान का वरदान आदि अनेक कथा प्रसंगों के योग से बाल-कांड की कथा का निर्माण हुआ है।
उपर्युक्त संकेतों के आधार पर अनेक बातें स्पष्ट होती हैं। पहली बात तो यही है कि बाल-कांड में तुलसीदास जी ने अनेक ऐसी कथाएँ ली हैं जो किसी न किसी तरह से रामचरितमानस को सही विकास प्रदान करती हैं। दूसरी बात यह है कि इतनी कथाओं का क्रमिक उल्लेख और उनका सही प्रस्तुतीकरण तुलसी की काव्य-प्रतिभा का निदर्शन कराता है। तीसरी बात यह है कि ये सभी कथाएं एक-दूसरे से अथवा कहें कि राम-कथा से सम्बन्धित हैं। इन कथाओं की भीड़ में मुख्य कथा का स्वरूप मात्र सांकेतिक हो गया है। अतः यह भी कह दिया जाये कि बालकांड में मुख्य कथा नहीं के बराबर है, और प्रसांगीक कथाओं की अन्तर्कथाओं की योजना ही विशेष रूप से मिलती है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। हमारी निश्चित धारणा है कि बालकांड में आई हुई विविध अन्तर्कथाओं की योजना के द्वारा तुलसीदास जी ने मानस की प्रमुख कथा की पृष्ठभूमि तैयार की है। इतने पर भी यह कहा जा सकता है कि बालकांड की कथावस्तु में कार्य-कारण की श्रृंखला है, रोचकता और प्रवाह है, कौतूहल और व्यापकता है। इतना ही नहीं इन सभी कथाओं में अनेक गम्भीर आदर्श छिपे हुये हैं। जहाँ तक कथागत संगठन का प्रश्न है, उसका बाल-कांड में प्रायः अभाव है। इसका कारण यही है कि यहाँ एक कथा नहीं है। जो भी कथा संकेत और कथाएँ हैं, वे अलौकिकता से युक्त हैं। इन सब बातों के होते हुये भी यही कहना उचित प्रतीत होता है कि बालकांड में जहाँ अनेक प्रासंगिक कथाओं का नियोजन हुआ है, वहाँ कवि अपने प्रतिभा के बल पर उन सभी को एक क्रमिक व्यवस्था देता हुआ मानस की कथा के लिए एक सही पृष्ठभूमि तैयार करने में सफल हुआ है।
चरित्र सृष्टि – किसी भी कथा में चरित्रों का होना स्वाभाविक है। चरित्रों के अभाव में कथा मूल्यहीन और आकर्षणहीन होती है। चरित्र ही वे माध्यम हैं जिनके द्वारा सृष्टा जीवन को सहज अभिव्यक्ति प्रदान करता है। मानस के बालकांड में जो चरित्र प्रस्तुत किए गए हैं वे भारतीय संस्कृति और प्राचीनता की छाया में विकसित हुए हैं। इन चरित्रों के माध्यम से कवि तुलसीदास जी ने जीवन के उच्च से उच्च आदर्श प्रस्तुत किये हैं। इसका कारण यही है कि कवि ऐसे आदर्शोंों की और चरित्रों की सृष्टि करना चाहता है जिनके माध्यम से वह अपने उद्देश्य भक्ति-निरूपण में सफलता प्राप्त कर सके। याज्ञवल्क्य, भारद्वाज, ब्रह्म, विष्णु, शिव, सती, रामचन्द्रजी, पार्वती, पर्वतराज हिमालय, नारद, सप्त ऋशिगण, कामदेव, रति, महाराज शीलनिधि, राजकुमारी विश्व मोहनी, शिवजी के गण, मनु शतरूपा, राजा भानुप्रताप, कपटी तपस्वी, काल केतु, रावण, विभीषण, मयदानव कुम्भकरण, मेघनाथ और पृथ्वी जैसे अनेक प्रमुख चरित्र बाल-कांड में आये हैं। इन सभी चरित्रों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। इन पात्रों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-सत् और असत् । तुलसीदास जी ने सत् और असत् पात्रों के संघर्ष के द्वारा सत् पात्रों की विजय प्रस्तुत की है। बाल-कांड में आए हुए नारी चरित्र, त्यागी, ममतावान करूणा की प्रतिमूर्ति और आदर्श चरित्र है। सती का चरित्र भी महत्वपूर्ण है और अन्य नारी चरित्र भी ऐसे ही महत्वपूर्ण हैं। यों बाल-कांड में अनेक चरित्रों में हमें दुर्बलताएँ भी मिलती हैं किन्तु सबलता भी कम नहीं है। कहने का तात्पर्य यही है कि कवि तुलसी ने बाल-कांड में आए अनेक चरित्रों के माध्यम से जीवन के व्यापक और विविध स्वरूप को प्रस्तुत किया है।
प्राकृतिक सुषमा- प्राकृतिक सुषमा के समय रामचरितमानस में बिखरी हुई है। एक प्रतिभाशाली कवि की रचना में ऐसी सौन्दर्य सृष्टि का होना स्वाभाविक ही है। मानस का बालकांड भी प्राकृतिक सौन्दर्य की अनेक छवियों से युक्त है। इसमें एक ओर तो प्रकृति का स्वतन्त्र चित्रण हुआ है और दूसरी ओर परिस्थिति में अनुकूल प्रकृति-चित्रण हो सका है। परिस्थिति में अनुकूल प्रकृति-चित्रणों के अन्तर्गत अपने कथनों की पुष्टि के लिये उद्धरण अथवा दृष्टान्त रूप में प्रकृति के विभिन्न उपकरणों का उल्लेख किया है। इस रूप में कहीं तो प्रकृति नीति और आदर्श की उपदेशिका बनकर आई है और कहीं अपने स्वतन्त्र रूप में पाठकों का मन बाँटने में समर्थ हुई है। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस को मानसरोवर मानकर भी प्रकृति के अनेक रूपकात्मक प्रकृति के चित्र प्रस्तुत किये हैं। सरोवर का यह वर्णन देखिये जिसका सौन्दर्य पाठकों के मन-प्राण को बांधता-सा प्रतीत होता है-
राम सीय जस सलिल सुधासम्, उपमा बीचि विलास मनोरम।
पुरइन सघन चारू चौपाई जुगुति मंजु पनि सीप सुहाई ।।
छंद सोरठा सुन्दर दोहा, सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा।
अरथ अनूप सुभाव सुभाषा सोड़ पराग मकरंद सुवासा ।।
इतना ही नहीं राम कथा राम भक्ति और रामजी का यश मिलकर जिस सौन्दर्य की सृष्टि करते हैं वह भी बाल-कांड में चित्रित हुआ है। परिस्थिति के अनुकूल प्रकृति-चित्रण के और भी अनेक उदाहरण बाल-कांड में मिलेंगे, किन्तु स्पष्टीकरण के लिये इतना ही पर्याप्त है।
बाल-कांड में कतिपय ऐसे स्थल भी आये हैं जहाँ प्रकृति के स्वतन्त्र चित्र प्रस्तुत किए गए हैं। यो ध्यान से देखने पर ये प्रकृति चित्र पूरी तरह स्वतन्त्र भी नहीं दिखलाई देते हैं। इस प्रसंग में दो संदर्भ विशेष रूप से हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं. पहला संदर्भ तो वह है जहाँ हिमालय का वर्णन हुआ है और दूसरा वह है जहाँ शिवजी की समाधि को भंग करने के प्रयत्न में कामदेव के प्रभाव से प्रकृति का सौन्दर्य चित्रित हुआ है। प्रकृति के कुछ सुहावने चित्र इस प्रकार हैं-
सदा सुमन फल सहित सब द्रुत नव नाना जाति ।
प्रगटी सुन्दर सैल पर मनि आकर बहु भांति ।।
सरिता सब पुनीत जलु वहहीं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं।
सहज बयरू सब जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहिं अनुरागा ।।
कामदेव के प्रभाव से प्रकृति का जो सौन्दर्य और मनोहर चित्र बाल-कांड में आया है, वह तो ऐसा है जो प्रकृति की मस्ती को व्यक्त करता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसा सारा वातावरण अनुराग-भावना से भरकर उल्लासित हो रहा हो। प्रकृति की कामुकता देखने योग्य है। लताओं को देखकर वृक्षों की डालियाँ झुकने लग जाती हैं और नदियाँ उमड़ उमड़ कर समुद्र का आलिंगन करने के लिये दौड़ती दिखाई देती हैं-
“जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।
सीतल सुगन्ध सुमंद मारूत मदन अनल सखा सही ॥
विकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा
कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा ॥
कहने का तात्पर्य यही है कि बालकांड प्राकृतिक सौन्दर्य और सुषमा की दृष्टि से अत्यन्त आकर्षक बन पड़ा है।
वर्णनात्मकता– बालकांड में अनेक कथा-संदर्भ आए हैं। ऐसी स्थिति में वर्णनात्मकता का होना स्वाभाविक ही है। बालकांड में आये विविध वर्णन अत्यन्त आकर्षक और अनिवार्य से हो गये हैं। इसके प्रमुख वर्णनों में नगर-वर्णन, शिव विवाह का वर्णन, नख-शिख वर्णन और स्वयंवर वर्णन आदि को प्रमुख स्थान प्राप्त है। नगरों के वर्णनों में तुलसीदास जी ने प्रमुख रूप में हिमालय के नगर का और भगवान विष्णु की माया से रचित महाराज शीलनिधि के नगर का ही वर्णन किया है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि कवि ने नगर वर्णन में प्रमुख प्रमुख बातों का ही उल्लेख किया है। उदाहरण के लिए हिमालय के नगर का यह वर्णन देखिये जिसमें कवि ने नगर का हलचल और विभिन्न पक्षों के नाम आदि गिना दिए गए हैं। यों नगर में निवास करने वाले स्त्री-पुरुषों का सौन्दय वर्णन भी कवि ने किया है। किन्तु यह वर्णन अधिक आकर्षक नहीं बन पाया है। हिमालय नगर का वर्णन प्रस्तुत करने वाली ये पंक्तियाँ देखिए-
लघुलाग विधि की निपुनता अवलोकिक पुर सोभा सही।
वन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही ॥
मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं।
वनिता पुरुष सुन्दर चतुर छवि देखि मुनि मन मोहहीं ॥
शिव विवाह का वर्णन भी बाल-कांड का एक आकर्षक प्रसंग है। कवि तुलसीदास जी ने न केवल शिव जी की बारात की विचित्रता का वर्णन किया है अपितु ज्योनार और विविध व्यंजनों का वर्णन तक कर दिया है। जहाँ तक नख-शिख वर्णन का प्रश्न है, वह भी बाल-कांड में मिलता है। पार्वती अथवा सीता का वर्णन तुलसीदास जी ने जगत माता होने से नहीं किया है। ऐसी स्थिति में केवल पुरुष चरित्रों का सौन्दर्य ही कवि का अभीष्ट रहा है। कवि ने राम के समान ही शिव को भी महत्व दिया है। कैलाश में वटवृक्ष के नीचे बैठे हुये शिव के सौन्दर्य को कवि ने पारस्परिक उपनामों के सहारे ही प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा है कि-
“कुंद इंदु वर गौर सरीरा । भुज प्रलय परिधन मुनिवीरा ।
चरूण अरून अम्बुज समचरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना ।।
भुजग मूर्ति भूपन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबिहारी ।।”
इसी प्रकार मनु व शत्रुरूपी की तपस्या की सिद्धि के रूप में भगवान के सौन्दर्य का वर्णन कवि तुलसी को कल्पना के सौन्दर्य में खो गया है। कवि ने उनके विभिन्न अंगों का वर्णन एक से एक आकर्षक उपमानों के माध्यम से किया है। उदाहरण के लिए ये पंक्तियाँ देखिए-
” सरद मयंक बदन छवि सींवा। चारू कपोल चिबुक दर प्रीवा ।।
अधर अरून रद सुन्दर नासा। बिधु कर निकट विनिंदक हासा ।।
नव अंबुज अम्बक छवि नीकी चितवनि ललित भावती जी की ॥
मृकुटि मनोज चाप छवि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी ।।
कहने का तात्पर्य यही है कि रामचरितमानस के बाल-कांड में पर्याप्त वर्णनात्मकता है। इन वर्णनों के योग से बाल-कॉड का कथा सौन्दर्य पर्याप्त बढ़ गया है।
नीति और आदर्श- बाल-कांड में नीति और आदर्श की सूचक अनेक पंक्तियाँ मिलती हैं। तुलसी जैसा भक्त कवि नीति और आदर्श को कैसे भूल सकता था वस्तुतः तुलसीदास ने विकृत समाज को मानवता की ओर ले जाने के उद्देश्य से ही अनेक स्थलों पर नीति और आदर्श की बातें कहीं हैं। कवि की स्थिति इस ग्रन्थ में भक्त होने के कारण सदैव और सर्वत्र दीनता व विनय से पूर्ण रही है। जहाँ ऐसा है वहीं कवि के आदर्श सामने आ गये हैं। इस रूप में कवि ने अहम् भावना को दूर करने का संदेश दिया है। तुलसी के आदर्श का एक रूप हमें वहाँ भी मिलता है जहाँ कवि ब्रह्मा, विष्णु, तीनों देवताओं में एक दूसरे के प्रति आदर भाव प्रकट करता है। शिव के आराध्य राम हैं, और राम के आराध्य शिव हैं। बाल-कांड में राम सती को प्रणाम करके एक आदर्श की सृष्टि करते हैं। जीवन के विभिन्न आदर्श बाल-कांड में नारी पात्रों के द्वारा भी प्रकट किये गये हैं। बाल-कांड में स्त्री के लिये पति ही सब कुछ हैं जैसे आदर्श को सती के माध्यम से प्रकट किया गया है। पार्वती द्वारा की गयी कठोर तपस्या पति -परायणता को प्रस्तुत करती है। पार्वती सप्त ऋषियों द्वारा अनेक कपट भरी बातें किये जाने पर भी अपने निश्चय से नहीं डिगती है। उन्होंने स्पष्ट कह दिया है कि-
“महादेव अवगुन भवन विष्णु सकल गुण धाम ।
जेहि कर मन रम जाहिं सम् तेहि तेहि सन काम ।।”
विभिन्न आदर्शों के साथ ही बाल-कांड में नीति का निरूपण भी हुआ है। नीति निरूपण की भावना के मूल में पति के लोक कल्याण की भावना का प्रमुख हाथ दिखाई देता है। जीवन के विभिन्न उतार-चढ़ावों में जहाँ-तहाँ नीति की बात कहकर तुलसीदास ने ऐसा वातावरण प्रस्तुत किया है। जहाँ विभिन्न संकट और विषमताएँ हमारे लिये अनहोनी और आकस्मिक न होकर स्वाभाविक बन गयी हैं। सती को समझाते हुये शिव ने दो नीति की बातें कही हैं-
“जो बिन बोले जाहु भवानी। रहिए न सीलु सनेह न कानी।
जदपि मित्र प्रभु पितु गुरू गेहा। आइअ बिनु बोलहुँ न संदेहा।।
तदपि विरोध मान जहं कोई। तहाँ गये कल्यानु न होई।”
भक्तों और संतों के लक्षणों का वर्णन करते हुये भी कवि ने अपनी नीति सम्बन्धी अनेक बातें कहीं हैं। कवि ने राजा भानुप्रताप की कथा के सम्बन्ध में इस नीतिपरक तथ्य का उद्घाटन किया है कि होनहार को कभी नहीं टाला जा सकता है। जो होना होता है, उसी के अनुसार मनुष्य की बुद्धि हो जाती है। इसी प्रकार स्पष्ट है कि बाल-कांड में कवि ने अनेक नीतिपरक और आदर्शपरक बातें कहीं हैं।
सांस्कृतिक मनोभावना बाल – कोड में जहाँ अनेक विशेषताएँ हैं, वहीं कवि की सांस्कृतिक दृष्टि भी एक महत्वपूर्ण विशेषता बन कर आई है। भारतीय संस्कृति में भाग्यवाद और शकुन विचार आदि को पर्याप्त महत्व मिला है। धार्मिकता, सदाचार, विजय परोपकार, सत्य और अहिंसा आदि बातें भारतीय संस्कृति की अपनी ही विशेषताएं हैं। बाल-कांड में कवि तुलसीदास ने सभी विशेषताओं और इससे जुड़ी हुई आदर्श भावना व नैतिक आदर्शोंों को पर्याप्त महत्व दिया है। भाग्यवादी आस्था का संकेत उस समय दिया गया है जब राजा भानुप्रताप भाग्य के वशीभूत होकर अपने शत्रु के पास पहुँचता है और उसे पहचान नहीं पाता। है। जहाँ तक शकुन विचारों का प्रश्न है वे भी बाल-कांड में पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। अंगों का फड़कना, नीलकण्ठ का उड़कर सामने आ बैठना, जलयुक्त गागर लेकर भीलनी का निकलना, सर्प के फन और खंजन पक्षी का थिरकना, दाहिनी आँख और भुजा का फड़कना आदि शुभ शकुन माने गये हैं। बालकांड में अन्य स्थलों पर भी ऐसे शकुनों का उल्लेख हुआ है। विवाह से पूर्व पार्वती ने अपनी माता मैना से प्रत्येक शकुन का उल्लेख किया है जिसमें उसे ब्राह्मण ने शिव से विवाह करने की शिक्षा दी। बाल-कांड में इसका भी उल्लेख आया है।
मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने नारी पर अनेक रूपों में विचार किया है बाल-कांड में सती अथवा पार्वती को भगवान की आदि शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया गया है। शिव का सारा महत्व शक्ति के बल पर है। तुलसीदास जी ने जगत जननी मानकर सीता की भी वंदना की है। यह सब तो ठीक है, किन्तु कवि ने नारी के प्रति अपने छिपे हुये आक्रोश को भी व्यक्त किया है। पुत्री पार्वती के वियोग के समय मैना ने जो कुछ कहा है, वह नारी जीवन का सत्य है और उसकी पराधीन और विवश स्थिति का अंकन है। बालकांड में ही तुलसी ने कहीं-कहीं नारी को जड़ और अज्ञ भी मानकर उसकी निन्दा की है। इस प्रकार स्पष्ट है कि बाल-कांड एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कांड है और इसमें निहित ये सभी विशेषतायें उसके महत्व और उपयोग को स्पष्ट करती हैं।
कलात्मकता- बाल–कांड न केवल भाव-सौन्दर्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, अपितु कलात्मकता के कारण भी उसका पर्याप्त महत्व है। बाल कांड में प्रयुक्त अवधी भाषा का सौन्दर्य जब संस्कृत, बज और उर्दू फारसी के शब्दों से मिलता है, तो उसकी प्रेषणीयता और अधिक बढ़ जाती है। कहीं-कहीं कवि ने मुहावरों का प्रयोग भी किया है। इस कांड की भाषा अधिकांश स्थलों पर कोमल, मधुर और प्रभावशाली बन पड़ती है। संवाद शैली के प्रयोग के कारण बाल-कांड की कलात्मकता में एक अतिरिक्त आकर्षण आ गया है। बाल-कांड में माधुर्य, ओज और प्रसाद तीनों गुणों की व्यंजना प्रसंगानुकूल हुई है। शब्द शक्तियों में अविद्या और व्यंजना जैसी शब्द शक्तियों का प्रयोग बड़ी ही कुशलता के साथ किया गया है। अलंकारों का ही प्रयोग अधिकता से हुआ है, किन्तु कहीं-कहीं यमक, श्लेष, प्रपित, संदेह और दृष्टान्त आदि आकर्षक बन पड़ी है।
निष्कर्ष- उपर्युक्त् विवेचन के आधार पर कह सकते हैं कि रामचरितमानस का बाल-कांड अनेक भागवत और कलागत विशेषताओं से युक्त है। सौन्दर्यानुभूति, वर्णनात्मकता, सांस्कृतिक दृष्टिकोण, प्राकृतिक सौन्दर्य, अनुकरणीय चरित्र सृष्टि, अविस्मरणीय आदर्शों और अनेक प्रासंगिक कथाओं के विधान में बाल-कांड एक अद्भुत और आकर्षक कांड बन कर आया है। इसकी कलात्मकता भी बेजोड़ है। इस काण्ड की उपादेयता इन्हीं सब विशेषताओं के कारण है। इस प्रकार कह सकते हैं कि रामचरितमानस का बाल-कांड भाव-सौन्दर्य दोनों के उचित समीकरण के कारण पर्याप्त उपादेय बन गया है।
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