रामचरित मानस के अयोध्याकांड के आधार पर राम का चरित्र
रामचरित मानस हिन्दी साहित्य का श्रेष्ठतम महाकाव्य है और श्रीराम उसके नायक हैं। ‘मानस’ की सम्पूर्ण कथा अपने केन्द्र राम के चारों ओर चक्कर काटती है। कवि ने आद्यांत उनके व्यक्तित्व में जिन गुणों को संघटित किया है, उन पर दृष्टिपात करने से लगता है कि आचार्यों द्वारा बताई गई नायक की चार कोटियों धीरोदात, धीर ललित, धौर प्रशांत और धीरोद्धत में से वे धीरोदात्त के अन्तर्गत आते हैं।
अयोध्याकांड से पूर्व राम के चरित में मुख्य रूप से चार उल्लेख्य विशेषतायें दृष्टिगत होती हैं। अपनी वाल-सुलभ क्रीड़ाओं से वे माता-पिता, परिजन पुरजन को आनन्द प्रदान करते हैं, अपनी अलौकिक एवं देवी शक्ति के सहारे ताड़का आदि भयंकर राक्षसियों और राक्षसों का वध कर विश्वामित्र के पूजन कर्म को निर्विघ्न बनाते हैं, जनक की पुम-वाटिका में संखियों समेत जानकी को देख काम की अनुभूति से तनिक उद्विग्न दिखाई देते हैं और अन्त में शंकर के वज्रसदृश पिनाक का मंजन कर बड़े-बड़े राजाओं के साथ परशुराम ऐसे महाबली का मान मर्दन करते हैं।
इसी के कुछ दिन बाद राम के जीवन की परीक्षा का काल आता है और उनकी चारित्रिक विशेषताओं को उत्कर्ष पर पहुँचाने वाली सारी परिस्थितियाँ उपस्थित हो जाती हैं। अपने ‘जरठपन’ से उपदिष्ट होकर राजा दशरथ अपने बड़े पुत्र राम को युवराज बनाने की इच्छा प्रकट करते हैं। वशिष्ठ के माध्यम से श्रीराम को अपने पिता के इस निश्चय की सूचना मिलती है। पिता के इस निश्चय से राम का हृदय विस्मय से भर जाता है। एकान्त में वे सोचने लगते हैं-
जनमे एक संग सब भाई।
भोजन सयन केलि लरिकोई ।।
करन वेष उपवीत विआहा।
संग संग सब भयउ उछाहा ।।
विमल वंस यह अनुचित एकू ।
बन्धु बिहाइ बड़ेहिं अभिषेकू ।।
न्याय और प्रेम से पूर्ण राम का हृदय रघुकुल की रीति पर पश्चाताप कर रहा है। चारों भाई एक साथ पैदा हुए, सबने साथ-साथ बाल सुलभ क्रीड़ायें कीं, एक साथ सभी के संस्कार सम्पन्न हुए और आनन्द उल्लास मनाया गया, किन्तु आज राज्य का सुख अकेले राम को मिलने जा रहा है। यह कहाँ का न्याय है ? यही सोच-सोचकर राम का हृदय दुख से अभिभूत हो रहा है। एकान्त स्थल में राम के हृदय का यह पश्चाताप उनकी स्वाभाविक निर्मलता, न्याय-प्रियता और स्नेह भावना को अभिव्यक्त कर रहा है। उनका भ्रातृ प्रेम और त्याग उस समय और भी पराकाष्ठा को प्राप्त हुआ दिखाई देता है, जिस समय वे कहते हैं-
भरत प्रानप्रिय पवाहिं राजू ।
विधि सब विधि मोहिं सनमुख आजू ।।
जौ न जाँउ उन ऐसेहु काजा।
प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा ॥
छोटे भाइयों के प्रति ही नहीं, पुरवासी बालकों के प्रति भी राम के हृदय में अपार स्नेह है। वे अपने समवयस्क पुरवासी बाल-सखाओं से प्रेमपूर्वक मिलते और समता के धरातल पर स्नेह एवं सद्भावनापूर्ण व्यवहार करते हैं। राज्याभिषेक की तैयारी का समाचार पाकर जब झुण्ड के झुण्ड अयोध्यावासी मित्र उनसे मिलते हैं तब राम का स्नेह और सौहार्द्र पूर्ण व्यवहार देखते हो बनता है-
बाल सखा सुनि हिय हरषाहीं ।
मिलि दस-पाँच राम पहिं जाहीं ।
प्रभु अदरहिं प्रेम पहिचानी ।
पूछहि कुसल क्षेम मृदु बानी ।।
लौटते हुए मित्र रास्ते भर हजार-हजार मुँह से राम की प्रशंसा करते हुए जाते हैं-
फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई।
करत परसपर राम बड़ाई ।
को रघुबीर सरिस संसारा ।
सोलु सनेहु निवाहनि हारा ।।
निस्सन्देह शील और स्नेह के निर्वाह में राम अद्वितीय हैं, अनुपमेय हैं, अप्रतिम हैं। जिस प्रकार उनके हृदय में अपने समवयस्कों तथा अपने से छोटों के प्रति प्रेम और स्नेह की भावना भरी हुई है, उसी प्रकार बड़ों के प्रति श्रद्धा और भक्ति से भी उनका हृदय ओत ओत है। ऋषिराज वशिष्ठ को आते हुए देखकर वे कितनी नम्रता और विनयपूर्वक उनका स्वागत करते है-
गुरु आगमन सुनत रघुनाथा।
द्वारा आइ पद नायड माथा ।।
सादर अरघ देइ घर आने।
सोरह भाँति पूजि सनमाने ॥
गहे चरन सिय सहित बहोरी।
माता-पिता के प्रति श्रद्धा और भक्ति की भावना का तो कहना ही क्या है। राम साक्षात् इसकी प्रति मूर्ति हैं। पिता को संकट में देखकर वे कठिन से कठिन कार्य को तुरन्त कर डालने के लिए दृढ़ संकल्प हो जाते हैं। उनका दृढ़ विश्वास है कि-
धन्य जनम जगतीतल तासू ।
पितहिं प्रमोद चरित सुनि जासू ।।
चारि पदारथ करतल ताकें।
प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें ॥
वे अपनी विमाताओं तक से उसी प्रकार का प्रेम करते हैं जैसे अपनी सगी माँ कौशल्या से। तभी तो उनकी छोटी विमाता सुमित्रा अपने प्राण-प्रिय पुत्र लक्ष्मण की राम की सेवा में समर्पित कर देती हैं। कैकेयी भी राम के इस स्वभाव से भली विधि परिचित हैं। पहली बार मन्थरा के बहकाने पर वह उस पर क्रुद्ध होती हैं और इन शब्दों में राम के शील स्वभाव की प्रशंसा करती हैं-
कौसल्या सम सब महतारी।
रामहिं सहज सुभायँ पिआरी ।।
कैकेयी के कहने से वनवास का कठिन दुःख झेलने के बाद भी उसके प्रति राम की श्रद्धा और भक्ति कम नहीं होती है। चित्रकूट में सबसे पहले वे उसी से मिलते हैं ताकि ग्लानि से गलता हुआ कैकेयी का हृदय थोड़ा शान्त हो जाय-
प्रथम राम भेंटी कैकेयी।
सरल सुभायं भगति मति भेई ।।
पग परि कीह्न प्रबोधु बहोरी ।
काल करम विधि सिर धरिखोरी ।।
अयोध्या का राज सुख त्यागकर वन के लिये प्रस्थान करने के बाद से लेकर चित्रकूट में भरत मिलन के प्रसंग तक की कथा में राम की अपेक्षा भरत के चरित्र को ही उभरने का अधिक अवसर प्राप्त हुआ है। राम के चरित्र में स्थाई रूप से सपाये हुए उपरिसंकेतित उदात्त मानवीय गुणों के दर्शन पुनः चित्रकूट में भरतमिलन के समय होते हैं। वन प्रान्त में मुनि मंडली के मध्य विराजमान राम अचानक भरत को देखकर देह की सुध-बुध भूल जाते हैं। उनका भ्रातृ प्रेम उमड़ उठता है। वे भरत को उठाकर गले से लगा लेते हैं-
उठे राम सुनि प्रेम अधीरा ।
कहुं पट कहुं निषंग धनुतीरा ॥
बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपा निधान ।
भरतराम की मिलन लखि, बिखरे सबहिं अपान ॥
इसके अनन्तर वे भरत के साथ आए हुए सभी लोगों से प्रेमपूर्वक मिलते और सबका यथोचित स्वागत करते हैं। पिता की मृत्यु का समाचार पाकर वे धैर्यपूर्वक धर्मशास्त्र के अनुकूल पितृ-कर्म करते हैं-
भोर भए रघुनन्दनहिं जो मुनि आयसु दीह्न।
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सब सादर कीह्न ।
दूसरे दिन चित्रकूट की सभा में बड़े-बड़े महारथियों के सामने राम का गांभीर्य, औदार्य, प्रत्युत्पन्न मातित्व और दृढ़ संकल्प देखते ही बनता है। भरत के बहुत आग्रह करने पर भी अयोध्या लौटने के लिए ये तैयार नहीं होते अपितु स्नेह सिक्त मथुर देखनों से भरत को परितुष्ट करते हुए अपने और उनके उत्तरदायित्वों की व्याख्या करते हैं और अन्त में भरत के लिए धर्मपूर्वक, प्रजा पालन की सलाह देकर उन्हें समाज सहित अयोध्या के लिए वापस कर देते हैं।
मानसकार ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरित्र में उपरिकथित उदात्त मानवीय गुणों के अतिरिक्त अनेक ईश्वरीय गुणों की संघटना भी की है। अयोध्याकांड में भी इस तरह के अनेक प्रसंग हैं, जिनके अन्तर्गत राम के चरित्र में देवत्व की प्रतिष्ठा दिखाई पड़ती है। गंगा पार जाने के लिए केवट से नाव लाने का आग्रह करने पर केवट इन शब्दों में राम की पग धूलि की महिमा का आख्यान करता है-
चरन कमल रज कहुं सब कहई।
मानुष करनि मूरि कछु अहई ।।
छुअत सिलाभ नारि सुहाई।
पाहन तें न काठ कठिनाई ॥
भारद्वाज और बाल्मीकि ऐसे ऋषि भी राम को अपने आश्रम में प्राप्त कर कृतकृत्य हो जाते हैं, उनके पादपद्यों में अविरल अनुराग की आकांक्षा करते हैं-
अब करि कृपा देह बर एहू।
निजपद सरसिज सहज सनेहू ।।
करम वचन छाँड़ि छलु, जब लगि जनु न तुम्हार ।
तब लगि सुख सपनेहु नहीं, किएं कोटि उपचार ||
इसी संदर्भ में वाल्मीकि की राम के प्रति की गई यह स्तुति भी दृष्टव्य है –
राम सरूप तुम्हार बचन, अगोचर बुद्धि पर ।
अबिगत अकथ अपार नेति नेति नेति निगमकह ॥
जग पेखनु तुम्ह देखनिहारे ।
विधि हरि सम्भु नचावनिहारे ॥
तेउ न जानहिं मरम तुम्हारा।
और तुम्हहिं को जाननि हारा ॥
वास्तविकता यह है कि ‘मानस’ के प्रणेता गोस्वामी जी महाकवि होने के साथ-साथ सहृदय एवं भावुक भक्त भी हैं। यह काव्य की गरिमा और मर्यादाओं के अनुकूल उन्होंने अपने नायक श्रीराम के चरित्र में धीरोदात्त नायक की सारी विशेषताओं को संघटित करने के साथ-साथ जहाँ-तहाँ उनके ईश्वरीय स्वरूप की भी झलकियाँ दे दी हैं ताकि पाठक उनके आराध्य की अलौकिकता से भी परिचित होता रहे और प्रमाद वश उन्हें प्राकृत पुरुष न मान बैठे।
निष्कर्षतः राम के चरित्र में अशेष औदात्य है। जिस प्रकार रामचरित मानस हिन्दी का श्रेष्ठतम महाकाव्य है, उसी तरह राम उसके श्रेष्ठतम पात्र । आचार्य शुक्ल के शब्दों में- “अनन्त शक्ति के साथ धीरता, गम्भीरता और कोमलता ‘राम’ का प्रधान लक्षण है। यही उनका रामत्व है।”
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