रामचरित मानस के आधार पर कैकेयी का चरित्रांकन कीजिए ।
कैकेयी के लिए पाठक के मन में दो विपरीत भावनायें उठती हैं-आदर और उपेक्षा, प्रेम और तिरस्कार का। कैकेयी के उपेक्षनीय एवं आदरणीय दोनों पक्ष एक ही काण्ड में हैं।
कैकेयी महाराज दशरथ की दूसरी रानी है जो सौन्दर्य से युक्त है, वीरांगना है, कूटनीतिज्ञ हैं तथा शासन संचालन में अपने पुति की मन्त्राणी भी हैं। भरत तो उसका पुत्र ही है लेकिन राम के प्रति उसके मन में अतुलित स्नेह है। वह मन्थरा से कहती हैं-
जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई ।।
राम तिलक जो साँचा काली। देउ माँग मन भावत आली।
अतः कैकेयी को राम भरत से अधिक प्रिय हैं। कौशल्या के प्रति भी उसके मन में सौत का भाव नहीं है।
सम सब महतारी। रामहि सहज सुभाव पियारी ॥
मोपर करहिं सनेह विशेखी। मैं करि प्रीति परीक्षा देखी ॥
जौ विधि जनम देइ करि छोहू। होउ राम सिय पूत पतोहू ।।
प्रान से अधिक राम प्रिय मोरे। तिन्हके तिलक छोभ कस तोरे ।।
तुलसीदास की कैकेयी बहुत कुछ निर्दोष है। देवताओं की दुर्बुद्धि के कारण स्वयं सरस्वती ने मन्थरा की मति फेर दी । कैकेयी मानवी हैं, देवी नहीं अतः मानवोचित दुर्बलताओं और कमजोरियों से पूर्ण है और कैकेयी स्वयं कहती हैं-
काह कर सखि सूध सुभाऊ। दाहिन आँख न जानडं काऊ ।।
मन्थरा के कहने पर जब उसका मानव स्वभाव बदल जाता है तब वह कौशल्या के प्रति ईर्ष्या की विषाक्त भावना जागतो है। और कहती है-
नैहर रहब जनम भरि जाई। नियत न करब सवति सेवकाई ।।
अरि बस दैव जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही ।।
कैकेयी जब दोनों वरदान बड़ी निर्ममता से माँगती है- भरत को राजतिलक एवं राम को चौदह वर्षों का वनवास । राजा दशरथ के अनुनय-विनय पर भी नहीं पिघलती हैं और कहती हैं-
मत्य सराहिं कहेउ वर देना। जानेहु लेहहिं माँगि चबेना ।।
होत प्रात मुनिवेष धरि जौ न राम वन जाहि ॥
मोर मरन राउर अजसु नृप समुझिय मन माहि ।
चित्रकूट में सीता, राम और लक्ष्मण को देखने पर-
लखि सिय सहित सरल दोउ भाई। कुटिल रानि पछितानि अघाई ।
चित्रकूट में जनक के आगमन पर ग्लानि का अनुभव करती है-
बरइ गलानि कुटिल कैकई। काँहि कहई केहि दूषनु देई ||
यदि वरदान माँगने वाली घटना को कैकेयी के जीवन से अलग कर दिया जाय तो उसका चरित्र दशरथ की अन्य रानियों की अपेक्षा अधिक उज्ज्वल हो सकता है। वरदान प्रसंग ही उसके चरित्र को धूमिल करता है, अन्यथा चरित्र प्रकाशमान है।
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