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रामचरित मानस के आधार पर कौशल्या का चरित्र-चित्रण कीजिए ।
कौशल्या
‘रामचरित मानस’ में महारानी कौशल्या का चरित्र अत्यन्त उदार और आदर्शवादी है। ये महाराज दशरथ की सबसे बड़ी पत्नी और श्रीराम जी की जननी थीं। प्राचीन काल में मनु-शतरूपा ने तप करके भगवान को पुत्र रूप में प्राप्त करने का वरदान पाया था। वे ही मनु-शतरूपा इस जन्म में दशरथ और कौशल्या के रूप में अवतरित हुए। कौशल्या जी के चरित्र का प्रारम्भ अयोध्याकाण्ड से होता है। इस काण्ड में वह अपने स्त्री वैभव की सम्पूर्णता के साथ आती है। भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक होने वाला है। नगर भर में उत्सव की तैयारियाँ हो रही हैं। आज माता कौशल्या के आनन्द की सीमा नहीं है। वह राम को मंगल के लिए अनेक प्रकार के यज्ञ, दान, देवपूजन और व्रत-उपवास करती हैं। राम-सीता को राज्य सिंहासन पर देखने के लिए उसका रोम-रोम खिल रहा है। परन्तु श्रीराम दूसरी ही लीला करना चाहते हैं। सत्यनिष्ठ महाराज दशरथ कैकेयी के साथ बचनवद्ध होकर श्रीराम को चौदह वर्ष का वनवास देने के लिए विवश हो जाते हैं।
धर्म के लिए पुत्र त्याग – प्रातःकाल श्रीराम माता कैकेयी और पिता दशरथ महाराज से मिलकर वन गमन का निश्चय कर लेते हैं और माता कौशल्या से आज्ञा लेने के लिए उनके महल में जाते हैं। उस समय वह ब्राह्मणों द्वारा हवन करवा रही हैं। इतने में राम माता के समीप पहुँचते हैं। पुत्र को देखते ही कौशल्या दौड़कर उसे छाती से चिपका लेती हैं। माता कौशल्या के हृदय में वात्सल्य रस की बाढ़ आ जाती है, नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की धारा बहने लगती है। कुछ देर तक यही अवस्था रहो, फिर राम पर न्योछावर करके बहुमूल्य वस्त्राभूषणं बाँटने लगी। श्रीराम चुपचाप खड़े हैं। वात्सल्य से पगी माँ से रहा नहीं गया। उसने हाथ पकड़कर पुत्र को नन्हें से शिशु की भांति गोद में बिठा लिया और प्यार करने लगी।
बार-बार मुख चुंबति माता। नयन नेह जलु पुलकित माता ।।
कौशल्या की दशा ऐसी है मानों कोई रंक कुबेर का धन पा गय हो। इतने में उसे स्मरण आया कि दिन बहुत चढ़ गया है और मेरे राम ने अभी कुछ खाया नहीं होगा। अतः वह कहने लगी-
ताजा बलि बेगि नहाहू। जो मन भाव मधुर कछु खाहू ।।
कौशल्या को क्या पता था कि राम यहाँ दूसरे काम से आये हैं। राम ने बड़ी विनम्रता से कहा- माता-पिता ने मुझे वन का राज्य दिया है, वहाँ सभी प्रकार से मेरा कल्याण होगा। आप प्रसन्नचित से मुझे वन जाने के लिये आज्ञा दीजिये। चौदह वर्ष वन में निवास करके पिता जी के वचनों को सत्य कर पुनः इन चरणों का दर्शन करूंगा। आप किसी प्रकार का दुख न कीजिए-
राम के ये वचन कौशल्या के हृदय में शूल की भाँति चुभ गये। वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ी और थोड़ी देर बाद होश में आने पर भाँति-भाँति से विलाप करने लगी। कौशल्या के मन में आया कि पिता की अपेक्षा माता का स्थान ऊंचा है। यदि महाराज ने राम को वनवास दिया है तो क्या हुआ, मैं उसे नहीं जाने दूंगी। परन्तु फिर सोचने लगी कि यदि बहिन कैकेयी ने आज्ञा दी होगी, तो उसे रोकने का मेरा क्या अधिकार है ? क्योंकि माता से भी सौतेली माता का दर्जा ऊंचा होता है। इस विचार से कौशल्या श्रीराम को रोकने का भाव छोड़कर मार्मिक शब्दों में कहती है-
जो केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बड़ी माता ।।
जी पितु भातृ कहेउ वन जाना। तौ कानन सत अवध समाना
जब कौशल्या को यह मालूम हुआ कि माता-पिता दोनों ने वन जाने की आज्ञा दी है तो उसने बड़ी बुद्धिमानी से विचार किया कि यदि मैं राम को हठ करके रोकती हूँ तो धर्म तो जायेगा ही साथ ही दोनों भाइयों में परस्पर विरोध भी हो सकता है-
राख सुतहि करउं अनुरोध। धरमु जाइ अरु बंधु बिरोधू ॥
अतः सब प्रकार से सोचकर धर्मपरायण साध्वी कौशल्या ने हृदय को कड़ा करके राम से कह दिया कि जब माता-पिता दोनों की आज्ञा है और तुम भी इसको धर्म सम्मत समझते हो, तो मैं तुम्हें रोककर धर्म में बाधा नहीं डालना चाहती। अतः जाओ और धर्म का पालन करो। मेरा तुमसे केवल एक अनुरोध है-
“मानि मातु कर नात बलि सुरति बिसरि जनि जाइ ॥ “
कर्त्तव्यनिष्ठा- जब दशरथ जी राम के वियोग में व्याकुल हो जाते हैं, उनका खान-पान छूट जाता है, शरीर पर मृत्यु के चिन्ह दिखाई पड़ने लगते हैं। नगर और महलों में कोलाहल मच जाता है, तब कौशल्या धैर्य धारण करके अपनु दुःख को भुलाकर अपने उत्तरदायित्व और कर्तव्य को समझती हुई महाराज से कहती है
नाथ समुझि मन करिअ विचारू। राम वियोग पयोधि अपारू ।।
करनधार तुम्ह अवध जहाजू ।चढ़ेड सकल प्रिय पथिक समाजू ।।
धीरज धरिअ त पाइअ पारू । नाहि त वूड़िहि सब परिवारू।।
जो जिय धरिअ विनय पिय मोरी। रामु लखनु सिय मिलहिं बहोरी ||
ऐसी स्थिति में राम-जननी कौशल्या अपने आदर्श, कर्तव्यनिष्ठा, धैर्य, साहस एवं विश्वास के कारण धन्य हो उठती है।
वधू प्रेम – कौशल्या अपनी पुत्र वधू सीता को बहुत प्यार करती है। यही कारण है कि जब वह राम के साथ वन जाने को उद्यत होती है तो कौशल्या रो-रोकर कहती है-
मैं पुनि पुत्र वध प्रिय पाई। रूप राशि गुन शील सुहाई ॥
नयन पुरि-करि प्रीति बढ़ाई। राखेउं प्रान जानकिहि लाई ||
पलंग पीठ तति गोद हिंडोरा। सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा ।।
जिअन मूरि जिमि जोगवत रहऊं। दीप बाति नहीं टारन कहऊं ॥
जब सुमन्त्र जी सीता, राम और लक्ष्मण को वन में छोड़कर अयोध्या वापस आते हैं तो कौशल्या अनेक प्रकार चिन्ता करती हुई सबसे पहले सीता का ही कुशल समाचार पूछती है, जो सीता के प्रति उसके स्नेह को प्रकट करता है।
राम और भरत के प्रति समान भाव- राम कौशल्या के प्रिय पुत्र अवश्य हैं, परन्तु भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न आदि भी उसके स्नेह के भाजन हैं। अयोध्या काण्ड में कौशल्या ने भरत को विशेष रूप से अपनी कृपा का भाजक बनाया है। वह राम और भरत में कोई अन्तर नहीं समझती है। उसका हृदय बहुत विशाल था। जब भरत जी ननिहाल से आते हैं और अपने को सभी अनर्थों का कारण मानते हुए कौशल्या के सामने फूट-फूट कर रोने लगते हैं तो माता कौशल्या उन्हें हृदय से लगा लेती है उसे ऐसा लगता है जैसे राम ही लौट आये हैं। यद्यपि उसके हृदय में शोक और स्नेह समाता नहीं है, फिर भी वह भरत को धैर्य बंधाती है।
अजहुँ बच्छ बलि धीरज धरहूं। कुसमट समुझि सोक परि हरहू ।।
जनि मानहु हियँ हानि गलानी। काल करम गति अर्घाटत जानी ।।
राम प्रानहु ते प्रान तुम्हारे तुम्हें रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे ॥
विधु विष च वै हि आगी होइ वारिचर वारि विरागी ॥
भएँ ग्यानु बरु मिटै न मोहू। तुम्ह रामहिं प्रतिकूल न होहू ॥
मन तुम्हार यहु जो जग कहही सो सपनेहुँ सुख सुगति न लहहीं ॥
जस कहि मातु भरत हियँ लाए। थन पय स्त्रवहिं नयन जल छाए ।
महाराज की दाह क्रिया के उपरान्त जब वशिष्ठ और नगर के लोग भरत को राजगद्दी पर बिठाना चाहते हैं लेकिन भरत किसी प्रकार भी नहीं मानते हैं, तब माता कौशल्य भरत को समझाती हैं और प्रजा के हित के लिए राज्य स्वीकार करने को कहती हैं-
वन रघुपति सुरपति नरनाहू। तुम्ह एहि भाँति तात कदराहू ।
परिजन प्रजा सचिव सब अंबा तुम्हही सुत सब कहँ अवलम्बा ।।
लखि विधि वाम कालु कठिनाई। धीरजु धरहु मातु बलि जाई ।।
सिर घरि गुर आयसु अनुसरहू । प्रजा पालि परिजन दुख हरहू ।।
पुत्र प्रेम- कौशल्या की पुत्र वत्सलता अद्भुत है। वह पुत्र पर प्रेम भी करती है और वन जाने के लिए आज्ञा भी दे देती है। वह पुत्र की रक्षा के लिए मंगलकामना करती है-
पितु वन देव मातु वन देवी । खग मृग चरन सरोरुह सेवी ।।
अंतहु उचित नृपहिं बनवासू । बय बिलोकि हियँ होइ हरासू ।।
कर्त्तव्यपरायणा, त्यागमूर्ति, धर्मशील माता कौशल्या पुत्र को वन में भेजकर भरत के सामने राम की प्रशंसा करती हुई कहती है कि बेटा ! तुम्हारे बड़े भाई को महाराज ने राज्य के बदले वनवास दे दिया, किन्तु उनके मुख पर तनिक भी म्लानता नहीं थी-
पितु आयस भूषन बसन तात तजे रघुवीर ।
बिसम हरषु न हृदय कछु पहिरे बलकल चीर ।।
मुख प्रसन्न मन रंग न रोषू। सब कर सब विधा करि परितोष ।।
इतना होने पर भी माता का हृदय पुत्र का मुख देखने के लिए निरन्तर व्याकुल रहता है। उसके चौदह वर्ष बड़ी मुश्किल से बीतते हैं। चित्रकूट में पुत्र का मुख देखकर वह गदगद हो जाता है। इस प्रकार कौशल्या के चरित्र में कवि ने त्याग, प्रेम, वात्सल्य, धर्मशीलता एवं कर्त्तव्यनिष्ठा को समाहित करके उसके मातृत्व को गौरवान्वित किया है।
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