रामचरित मानस के आधार पर ‘भरत’ का चरित्र-चित्रण कीजिए।
रामचरित मानस में भरत का चरित्र सर्वोत्कृष्ट है वह भरत राम के छोटे भाई, कैकेयी के पुत्र तथा तुलसी के कर्तव्य परापात्र हैं। राम के उपरान्त उनका ही व्यक्तित्व ऐसा है जो एकांगी होने पर भी कर्त्तव्य परायणता से ओत-प्रोत है। राम वनवास हैं के अवसर पर जब वह अपनी माता कैकेयी को भाई राम के प्रतिकूल पाते हैं तो उनके उस कर्तव्य के सम्मुख माँ की ममता भी हीन पड़ जाती है, वह माता के प्रति हृदय में ग्लानि की भावना भर कर कहते हैं।
हंस बंसु दशरथ जनकु, राम लखन से भाई ।
जननी तू जननी भई विधि सन कुछ न बसाय।
माता कैकेयी से वनवास की आज्ञा पाकर जहाँ राम अति प्रसन्न होते हैं, वहीं जब इसकी सूचना भरत को मिलती है तो वे माँ से क्षुब्ध हो उठते हैं और बड़े कातर भाव से कहते हैं कि-
धीरजु घरि भरि लेहि उसासा। पापिन संबहि भाँति कुलनासा ।।
जो पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोही ।।
इसके बाद भरत के जीवन का प्रत्येक क्रम ही परिवर्तित हो उठता है वे मां के द्वारा प्राप्त राज्य को उतनी ही आसानी से ठुकरा देते हैं, जितनी आसानी से राम वन गमन को तैयार हो जाते हैं। भरत अति दुःखी होकर माँ कैकेयी से यह कहते हैं कि-
राम विरोधी हृदय तें प्रगट कीन्ह विधि मोहि ।
मो समान को पातिकी बादि कहऊ कछु तोहि ।।
भरत राज्य कार्य सम्हालने के लिए ननिहाल से बुलाये जाते हैं। वे आते हैं, पर इसे स्वीकार नहीं कर पाते हैं। उलटे पैर राम को मनाने के लिए उनके पास चल देते हैं। परन्तु, कर्तव्य परायण राम पिता के वचनों का पालन करना आवश्यक समझते हैं। वे भरत से कहते हैं कि-
पितु आयसु पालहुँ दुहु भाई । लोक वेद भल भूप भलाई।
भरत भी राम के आदर्श के सम्मुख नत हो जाते हैं। जब वे आने से स्पष्ट इन्कार कर देते हैं तो भरत के लिए कोई और रास्ता नहीं रह जाता है। फलतः वे राम का खड़ाऊं लेकर वापस आते हैं और उसे ही सिंहासनारूढ़ करके राम की अनुपस्थिति में चौदह वर्ष अयोध्या का राज्य कार्य सम्हालते हैं-
सुनि सिख पाइ असीस बडि गनक बोल दिन साधि ।
सिंहासन प्रभु पादुका, बैठारे निरूपाधि ।।
इसके बाद भरत राजा हो जाते हैं, किन्तु उनकी जिन्दगी गुजरती है एक तपस्वी की तरह। चौदह वर्ष पश्चात् जब राम अयोध्या लौटते हैं तो भरत को वे उतना ही त्यागमय पाते हैं जितना त्यागमय स्वरूप उन्होंने वन में उन्हें वापस लौटते समय देखा है। राज्य का लोभ सत्ता की लालच उसे स्पर्श तक नहीं कर पायी थी। राम से मिलते ही तुरन्त वे राम की सत्ता उनके हाथों सौंप देते हैं। तुलसी ने भरत का जिस तरह से राम भक्त रूप चित्रित किया है, उनमें कर्तव्य, त्याग और तपस्या का भी समावेश हो गया है। भरत का चरित्र इस रूप में प्रकट हुआ है कि उनके प्रति किसी को कोई सन्देह नहीं होता है। राम के वनवास उपरान्त जब वे माता कौशल्या से मिलने जाते हैं तो बड़ी निश्छलता से वे अपनी माता से अपनी अज्ञानता प्रकट करते हैं। यथा
ते पातक मोहि होहुं विधाता। जो यहु होइ मोर मत माता ।
माता को उनके प्रति कोई सन्देह नहीं, वे भरत को राम के समान ही प्यारा समझती हैं और राम की तरह उन्हें भी छाती से लगा लेती हैं अपनी
सरल स्वभाव माय हिय माये। अति हित मनहुं राम फिर आये ।।
भरत की स्थिति उस समय कितनी जटिल हो जाती हैं, जब वे नगर से शिष्ट पुरुषों के मुख से यह बात सुनते हैं कि कहीं राम को वनवास दिलाने में भरत का हाथ तो नहीं है ? इसका भी स्पष्ट उत्तर देते हुए वे कहते हैं-
चन्द्र चवै वरु अनल-कन, सुधा होइ विषतूल।
सपनेहु कबहुं न करहिं किछ, भरत राम प्रतिकूल ॥
फिर भी, कौशल्या, वशिष्ठ तथा अयोध्या की अधिकांश जनता ने भरत को कभी दोषी नहीं माना और न उनके चरित्र पर किसी प्रकार का सन्देह किया।
अन्ततः कहा जा सकता है कि भरत का चरित्र राम से कम त्यागमय नहीं है। यह अलग बात है कि मानस में उनके चरित्र का उतना विकास नहीं दिखाया गया है, जितना राम का फिर भी अयोध्याकाण्ड में भरत का व्यक्तित्व छाया हुआ है शेष मानस में उनका चरित्र वहीं तक विकसित हो पाया है जहाँ तक राम के चरित्र में उनका सहयोग मिला है।
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