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रामचरित मानस के आधार पर महाराज दशरथ की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए ।
महाराज दशरथ
रामचरित मानस के प्रमुख पात्रों में राजा दशरथ का नाम सबसे पहले आता है। राजा दशरथ असाधारण नृपति के रूप में उपस्थित होते हैं। उनका राज्य धन-धान्य से समृद्ध है, चारों तरफ विभूति ही विभूति दिखाई पड़ती है। नगर के सौन्दर्य एवं समृद्धि का वर्णन कवि कर नहीं पा रहा है। उसे लग रहा है, मानो ब्रह्मा ने इसके अतिरिक्त और कुछ बनाया ही नहीं है, उनकी करतूत इतनी ही है-
कहि न जाइ कछु नगर विभूती। जनु एतनिअ विरंचि करतूती ।
महाराज दशरथ समस्त पुष्पों की मूर्ति हैं। उनके राज्य में सभी नर-नारी परम सन्तुष्ट हैं। देश-विदेश के राजा दशरथ की कृपा के अभिलाषी रहते हैं, लोकपाल उनके स्नेह की कामना करते हैं, मेघ ‘सुखवारि’ की वृष्टि करते हैं। तीनों लोकों और तीनों कालों में उनके जैसा भाग्य किसी का नहीं है। उनका प्रताप चतुर्दिक फैला हुआ है और वे सर्व समर्थ हैं। तभी तो कैकेयी के कोप को देखकर कह उठते हैं-
कहु केहि रंकहिं करऊँ नरेसू। कहु केहि नृपहिं निकारऊँ देसू ।
सकऊँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरो नर-नारी ॥
इतने प्रतापी होते हुए भी राजा दशरथ में अहंकार नहीं है। वे मंत्रियों के परामर्श से ही राज्य का संचालन करते हैं। छोटी-छोटी बातों में भी गुरु से अनुमति लेने जाते हैं। बिना गुरु की आज्ञा से कोई भी कार्य नहीं करते। प्रजा के सुख-दुःख का बड़ा ध्यान रखते हैं। धर्मात्मा होने के कारण निरन्तर यज्ञ, दान करते रहते हैं।
राजा दशरथ को अपनी कुल-मर्यादा का प्रतिक्षण ध्यान रहता है। उन्हें बार-बार यह कथन स्मरण हो जाता है कि ‘रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्राण जाइ वरु बचन न जाई।” और इसी सत्यवत पर स्थिर रहकर वे अन्त में अपने प्राणों का परित्याग कर देते हैं, लेकिन वचन की सत्यता पर आंच नहीं आने देते।
दशरथ का पुत्र-प्रेम अद्वितीय है। वे राम को प्राणों से भी अधिक चाहते हैं। इसलिए उनके वियोग में वे अपने शरीर को भी त्याग देते हैं। यों तो राजा को चारों पुत्र परमप्रिय थे, परन्तु इन सबमें राम पर विशेष प्रेम था। होना भी चाहिए, क्योंकि इन्हीं के लिए तो उन्होंने जन्म धारण कर सहस्रों वर्ष प्रतीक्षा की थी। वे राम का अपनी आँखों से क्षण भर के लिए भी ओझल होना नहीं सह सकते थे। श्रीराम पर अत्यन्त प्रेम होने का परिचय तो इसी से मिलता है कि जब तक श्रीराम सामने रहे, तभी तक उन्होंने प्राणों को रक्खा और राम के वन जाते ही राम प्रेमानल में अपने प्राणों की आहुति दे डाली। श्रीराम प्रेम के कारण ही दशरथ महाराज के केकयराज के साथ शर्त हो चुकने पर भी भरत के बदले श्रीराम को युवराज पद पर अभिसिक्त करना चाहा था । किन्तु उनका यह पुत्र प्रेम कहीं भी अमर्यादित नहीं होने पाया है। कैकेयी को वरदान देने के पूर्व भी वे भरत पर अपना अनुराग प्रकट करते हैं। किन्तु वे यह स्पष्ट कह देते हैं कि राज्याभिषेक तो केवल रघुकुल की नीति के अनुसार ही किया जा रहा है। राम-प्रेम के इस बहाव में वे सत्य से नहीं डिगते और बदले में प्राण त्याग कर प्रेम की रक्षा करते हैं।
इतना होते हुए भी दशरथ में कुछ स्त्रैणता अधिक है। गोस्वामी तुलसीदास ने उनकी इस स्त्रैणता को स्पष्ट करते हुए लिखा है-
सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई ।।
सूल कुलिस असि अंगवनि हारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे ।
तात्पर्य यह कि राजा का कैकेयी से जो प्रेम था, वह उसके सौंदर्य के कारण ही था। वृद्ध राजा यह सह नहीं सकता कि कैकेयी एक क्षण के लिए भी उससे मानकर विमुख हो जाय। मानवती कैकेयी के परितोष के लिए वे इन्द्र तक को मारने के लिये प्रस्तुत हो सकते हैं। कैकेयी राजा की इस कमजोरी को अच्छी तरह जानती है। अवसर का फायदा उठाते हुए उसने अपना हृदय कठोर करके राजा से दो वरदान माँग ही लिए । भरत के राज्याभिषेक तक तो रजा स्वयं झुक जाते हैं। वे जानते हैं कि राम इसका विरोध नहीं करेंगे, किन्तु दूसरे वर के माँगने का वे कोई कारण नहीं देखते। उन्हें बड़ा आघात लगता है। वे कैकेयी से कहते हैं-
‘एकहि बात मोहि दुख लागा। बर दूसर असमंजस मांगा ॥”
एक बार तो वे कैकेयी को इस वर को न माँगने के लिए बाध्य से करते प्रतीत होते हैं, पर कैकेयी की दृढ़ता देखकर झुक जाते हैं और देवी-देवताओं से कुछ प्रार्थनाएँ-सी करने लगते हैं। एक प्रतापी राजा के लिए यह अशोभन-सा प्रतीत होता है। उनके इस पलायन ने अयोध्या में जो अनर्थ कर दिया, उसे हम सभी जानते हैं। स्वयं राजा ने इस रानी कैकेयी, के सामने झुककर, उसके पैर पकड़कर जिस स्त्रैण मनोवृत्ति का परिचय दिया था, उसी का परिष्कार मर्याद पुरुषोत्तम राम ने एक पत्नी-व्रत का पालन करके किया।
इस प्रकार से राजा दशरथ का प्रारम्भिक जीवन एवं यौवनकाल अत्यन्त सुख-समृद्धि में बीता, लेकिन उनकी वृद्धावस्था बहुत कष्टमय रही। राम के वियोग में तड़प-तड़प कर उनके प्राण निकले।
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