रामचरित मानस के आधार पर ‘लक्ष्मण’ का चरित्र-चित्रण कीजिए।
लक्ष्मण राम के अनन्य एवं समर्पित अनुयायी एवं सेवक के रूप में दिखाई पड़ते हैं। राम के अत्यन्त प्रिय हैं। लेकिन स्वभाव से उम्र एवं चपल हैं। राम को चौदह वर्ष वनवास सुनकर वे व्याकुल हो जाते हैं और साथ चलने के लिए आग्रह करते हैं। राम के मना करने पर उनकी स्थिति-
सिअरे वचन सूखि गये कैसे। परसत तुहिन तामरसु जैसे।
जब राम उनको साथ चलने की आज्ञा दे देते हैं तो लक्ष्मण के प्रसन्नता की सीमा नहीं रही-
मुदित भये रघुकुल बानी। भयउ लाभ बड़ गई बड़ि हानी ।।
हर्षित हृदय मानु पहि आये। मनहुँ अन्य फिर लोचन पाये ।।
लक्ष्मण में कितना त्याग है कि राजसुख एवं वैभव त्याग कर राम के साथ बीहड़ वनों में रहने में अपार खुशी और सुख है।
उनका उम्र एवं चपल स्वभाव उनके त्याग और समर्पित चरित्र में धूमिलता अवश्य ला देता है। पिता के प्रति उनके मुख से कुछ कठोर वचन निकल पड़े।
पुनि कछु लखन कही कटुवानी प्रभु बरजेह बड़ अनुचित जानी ।।
इस प्रसंग में लक्ष्मण का चरित्र अति चपल व्यक्त हुआ है, साथ ही शिष्टता का भी बोध नहीं होता है।
चित्रकूट में भरत को ससैन्य देखकर बिना आगे-पीछे सोचे क्रोधावेश से भर जाते हैं तब कठोर वाणी में कहते हैं-
आज राम सेवक जस लेऊं । भरतहि समर सिखावन दोऊ ।।
राम निरादर कर फल पाई। सो बहु समर सेज दोउ भाई ||
सत्य यह है कि लक्ष्मण का अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, केवल राम के चरणों का सदैव अनुगमन करते हैं।
सीता- रामचरित मानस में हम सीता के अत्यन्त कोमल एवं भीरु स्वभाव से परिचय पाते हैं। कौशल्या के शब्दों में सीता की सुकुमारता का वर्णन-
पलंग पीठि तजि गोद हिंडोरा। सिय न दीन्ह पग अवनि कठोरा ।।
यही कोमलता, मृदुता और भीरुता वनगमन के समय साहस तथा दृढ़ता में बदल जाते हैं। तभी वह राम से कहती है-
मोहि मन चलत न हो हारी। छिन छिन चरन सरोज निहारी ।।
राम के बिना वह स्वयं को अपूर्ण, जीवन विहीन एवं अस्तित्व विहीन मानती हैं।
जिवन भूरि जिमि जोगवल रहेउं । दीप बाति नहि टार न कहेउं ।।
सीता का सम्पूर्ण जीवन त्याग, तपस्या और करुणा का जीवन है। कठोर परीक्षा काल में सीता ने आदर्श पत्नी का परिचय देते हुए चिरसंगिनी एवं सहधर्मिणी शब्दों की सार्थकता सिद्ध करके संसार को दिखा दिया।
जिय बिनु देह नदी बिन वारी। तैसिअ नाथ पुरुष बिन नारी ।
नाथ सकल सुख साथ तुम्हारे। सरद विमल विधु वदन निहारे ||
सीता राम से अलग होने की बात स्वप्न में भी नहीं सोच सकतीं क्योंकि वह कहती हैं-
मैं पुनि समुझि दीख मन माँही। पिय वियोग सम दुख जग नाही।
अयोध्या काण्ड में ही सीता का आदर्श भारतीय नारी का रूप निखर कर सामने आया है। पति के सुख को सुख तथा दुख को दुख मानती हैं।
वन जाने के समय सास के प्रति सीता की सुशीलता सराहना के योग्य है। उनके हृदय में कौशल्या के प्रति कितना सम्मान है ।
सेवा समय दैव दुख दीन्हा। मोर मनोरथ सफल न कीन्हा है॥
भारतीय सुसंस्कृत नारी में जो गुण, आदर्श, शील और आचरण होना चाहिये वे सब सीता में विद्यमान हैं। अयोध्या काण्ड में सीता का उज्ज्वल और देदीप्यमान चारित्रिक पक्ष ही सामने आता है।
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