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रासो काव्यों का संक्षिप्त परिचय

रासो काव्यों का संक्षिप्त परिचय
रासो काव्यों का संक्षिप्त परिचय

रासो काव्यों का संक्षिप्त परिचय देते हुए, उन पर प्रामाणिकता सम्बन्धी आक्षेप की भी चर्चा करिये।

रासो काव्यों का संक्षिप्त परिचय

वीरगाथा काल में वीर-रस प्रधान जो काव्य रचे गये, उन्हें रासो काव्य माना जाता है। ये प्रमुख काव्य इस प्रकार हैं-

(1) खुमाण रासो- आचार्य शुक्ल के आधर पर चित्तौड़ के रावल खुमाड़ वंश के तीन राजा हुए हैं। परन्तु कर्नल टॉड ने इन तीनों राजाओं को एक माना है। शुक्ल जी कालभोज (बप्पा) के बाद खुमाण की चर्चा करते हैं। इसने 24 युद्ध लड़े। इनका वर्णन किसी दलपति विजय नामक कवि ने किया है। शुक्ल जी यह भी मानते हैं कि यह नहीं कहा जा सकता कि इस समय जो खुमाण रासो मिलता है उसमें कितना अंश पुराना है। यह भी नहीं कहा जा सकता है कि दलपति विजय ही असली खुमाण रासो के रचयिता था अथवा उसके केवल पिछले परिशिष्ट का। मेनारिया इसके रचयिता दलपति विजय के चित्तौड़-नरेश रावल खुमाण का समकालीन न मानकर अठारहवीं सदी के शक जैन साधु को मानते हैं। साथ ही वे यह भी मानते हैं कि इस ग्रन्थ में जिस राव खुमाण का वर्णन है, वह कोई खुमाण नाम राजा नहीं था। यह ‘खुमाण’ या ‘खुम्माण’ तो चित्तौड़ की एक पदवी थी। इसी कारण इसमें चित्तौड़ वंश के बाप्पा राव से लेकर महाराज संग्रामसिंह द्वितीय तक का इतिहास वर्णित है।

डॉ. राजनाथ शर्मा के अनुसार यह पाँच हजार छन्दों का एक विशाल ग्रन्थ है। इसमें युद्ध, विवाह, नायिका-भेद, षट्-ऋतु आदि के विस्तृत वर्णन हैं। इसमें दोहा, सवैया, कवित्त आदि विविध छन्दों का प्रयोग है ।

इसमें बिहारी को भी उद्धृत किया गया है। अतः पहली बात यह है कि यह रचना किसकी है ? खुमाण की होने का प्रमाण-पुष्ट आधार नहीं और चित्तौड़ के कई राजाओं का उल्लेख होना, यह सिद्ध करता है कि यह अंशों में रचा गया अतः इसकी प्रामाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाना स्वाभाविक है।

इसकी भाषा राजस्थानी और काव्य-सौन्दर्य, भाषा-शैली आदि की दृष्टि से इसको एक सरस और सफल काव्य माना जाता है। इसकी भाषा के आधार पर भी इसे प्राचीन कृति नहीं माना जा सकता। एक उदाहरण इस प्रकार है-

पिउ चित्तौड़ न आविउ, सावण पहली तीज ।

जोवै बाट विरहिणी, खिण- खिण अणवै खीज ।।

(2) बीसलदेव रासो – नरपति नाल्ह कवि विग्रहराज चतुर्थ उपनाम बीसलदेव का समकालीन था । इसने इस ग्रन्थ की रचना की। इसमें मलवा के भोज परमार की पुत्री राजमती के साथ बीसलदेव का विवाह होना । बीसलदेव का राजमती से रूठकर उड़ीसा की ओर प्रस्थान करना, वहाँ एक वर्ष रहना, राजमती का विरह वर्णन, बीसलदेव की वापसी। भोज का अपनी पुत्री को घर लिवा ले जाना तथा बीसलदेव का वहाँ जाकर उसे फिर ले आना वर्णित है।

“काव्य सौन्दर्य- कुछ विद्वानों की यह धारणा है कि यह ग्रन्थ अपने मूल रूप में एक गेय-काव्य था। डॉ. राजनाथ शर्मा के अनुसार- काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से ‘बीसलदेव रासो’ एक अत्यन्त सुन्दर, रससिक्त रचना है, क्योंकि इसमें कोमल प्रेम का चित्रण है और वियोग श्रृंगार की प्रधानता है। चार खण्डों में विभाजित सवा सौ छन्दों का यह छोटा-सा काव्य णय-संवेदना का द्रवणशील, हृदयग्राही रूप प्रस्तुत करता है। साथ ही इसमें ‘रासक’ काव्य की सभी विशेषताएँ हैं। विरह के मार्मिक चित्रों ने इस काव्य को एक अपूर्व गरिमा प्रदान कर दी है। विरह की तरल, सूक्ष्म अनुभूतियाँ ही इसका आकर्षण हैं, सीधी, सरल भाषा में कवि नारी हृदय की वेदना, उसकी विवशता और असहायता का चित्रण करता चला गया है।

भाषा- इसकी भाषा पर भी विवाद है। डॉ. राजनाथ शर्मा की मान्यता है कि जब इसकी भाषा पर दृष्टि डालते हैं तो यह निश्चित हो जाता है कि यह कृति हिन्दी के आरम्भिक युग की ही रचना है, न कि सोलहवीं सदी की। डॉ. रामकुमार वर्मा इसकी भाषा पर अपभ्रंश का गहरा प्रभाव मानते हैं। आचार्य शुक्ल इसकी भाषा राजस्थनी मानते हैं।  इसकी भाषा को परवर्ती अवहट्टत काल की भाषा मानते हैं।

प्रामाणिकता –

(क) भाष के विवाद पर आचार्य शुक्ल का मत है- ” भाषा की बात पर विचार करने से पहले यह ध्यान में रखना चाहिए कि गाने की चीज होने के कारण इसकी भाषा में समयानुसार बहुत कुछ फेर-फार होता आया है। किन्तु लिखित रूप में रक्षित होने के कारण इसका पुराना ढांचा बहुत-कुछ बचा हुआ है। इसमें आए हुए कुछ फारसी, अरबी, तुर्की, शब्द-महल, इनाम, नेजा आदि के विषय में शुक्ल जी की मान्यता है कि ये शब्द पीछे मिले हुए भी हो सकते हैं और कवि द्वारा व्यवहत भी। कवि के समय से पहले ही पंजाब में मुसलमानों का प्रवेश हो गया था। बीसलदेव के सरदारों में ताजुद्दीन मियाँ भी थे।

आचार्य शुक्ल ने भी इसकी प्रामाणिकता पर विचार किया है-

(ख) ग्रन्थ में दिये गये संवत् (बारह सौ बहोत्तराँ मझरि) के विचार से कवि नायक का समकालीन जान पड़ता है क्योंकि बीसलदेव के शिलालेखों (संवत् 1810 और 1820 के प्राप्त हैं) में वर्णित घटनाओं पर विचार करने पर यह रचना कल्पित जान पड़ती है-

(i) बीसलदेव के 100 वर्ष पूर्व ही धारा के प्रसिद्ध परमार राजा भोज का देहान्त हो चुका था, अतः उनकी कन्या के साथ विवाह की संगति नहीं बैठती।

(ii) बीसलदेव बड़ा वीर प्रतापी था। उसने मुसलमानों से कई प्रदेशों को खाली कराया था। उसके वीर चरित्र का वर्णन उनके राजकवि सोमदेव रचित ‘ललित विग्रहराज नाटक’ (संस्कृत) में है, जिसका कुछ अंश शिलाओं पर खुदा मिला है जो राजपूताना म्यूजियम में सुरक्षित हैं। नाल्ह ने बीसलदेव के युद्धों की चर्चा नहीं की है।

(ii) यह पुस्तक न तो वस्तु के विचार से और न भाषा के विचार से अपने असली और मूल रूप में कही जा सकती है ।

(ग) पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा इसे हम्मीर के समय की रचना मानते हैं।

(घ) मोतीलाल मेनारिया और अगरचन्द नाहटा, भाषा के स्वरूप के आधार पर इसे सोलहवीं सदी की रचना मानते हैं। मेनारिया नरपति नाल्ह की सोलहवीं सदी की नरपति नामक एक गुजराती कवि मानते हैं।

(ङ) डॉ. माताप्रसाद गुप्त इसे संवत् 1400 की रचना स्वीकार करते हैं।

(च) श्री गजराज ने एक प्राचीन प्रति के आधार पर इसे संवत् 1073 की रचना माना है-

संवत् सहस्र तिहत्तर जानि। नाल्ह कबी सरसयि वाणि ।

(छ) इस विवाद में डॉ. राजनाथ शर्मा का मत है- “जब हम सभी बातों का खण्डन करने की प्रतिज्ञा कर जमकर बैठ जायें तो फिर हमारे दुराग्रह का कोई अन्त नहीं रह जाता। इन विद्वानों ने ऐसे दुराग्रह से हिन्दी के कितने ही प्राचीन ग्रन्थों की हत्या करने का यश प्राप्त करने का प्रयत्न किया है। “

जो भी हो यह एक सरस काव्य कृति है, जिसकी श्रृंगारिकता उत्कृष्ट कोटि की है-

आव्यो राजा मास बसंत । गढ़ माहीं गूड़ी अछ ली ।

जड़ धन मिली अंग सँभार। मान भंग हो तो बाल हो ।।

(हे राजा बसंत मास आ गया है। गढ़ में अकाशदीप जलाये गये। यदि वह धन्या (स्त्री) अंग संभालकर मिलती तो उस बाला का मान भंग होता ।)

(3) परमाल रासो – महोबा के परमार्दिदेव (परमाल) के राजकवि जगनिक द्वारा रचित यह काव्य ‘आल्ह खण्ड’ अथवा ‘आल्हा’ के नाम से विख्यात है। इसमें आल्हा ऊदल आदि के युद्धों का वर्णन है। श्रृंगार का पुट लिये यह वीर काव्य है। इसकी कोई प्राचीन प्रति उपलब्ध नहीं हो सकी। यह वीर गीतों के रूप में ही उपलब्ध था। आचार्य शुक्ल की मान्यता है कि, इन गीतों के समुच्चय को सर्वसाधारण ‘आल्हखण्ड’ कहते हैं, जिससे अनुमान होता है कि आल्हा सम्बन्धी वीर-गीत जगनिक के रचे उस बड़े काव्य के एक खण्ड के अन्तर्गत थे जो कि चन्देलों की वीरता के वर्णन में लिखा गया होगा। आल्हा और ऊदल परमाल के सामन्त और बनाफर शाखा के क्षत्रिय थे। इन गीतों का संग्रह ‘आल्हखण्ड’ नाम से छपा है।”

सन् 1865 में चार्ल्स इलियट ने मौखिक परम्परा के आधार पर इसका सम्पादन करके ‘आल्हखण्ड’ नाम से इसे प्रकाशित कराया। बाद में डॉ. श्यामसुन्दर दास ने इसे काशी नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित कराया।

विद्वानों ने इसे स्वतन्त्र पन्थ न मानकर ‘पृथ्वीराज रासो’ का ही ‘महोबा खण्ड’ शीर्षक का अंश माना पर डॉ. श्यामसुन्दर दास इसे स्वतन्त्र ग्रन्थ स्वीकार करते हैं। उन्होंने ही इसका नाम ‘परमाल रासो’ रखा। किन्तु डॉ. माताप्रसाद इसे ‘महोबा खण्ड’ ही मानते हैं। अतः यह रचना जगनिक की है, यह चन्दबरदाई की यह विवाद स्वाभविक रूप से उठ खड़ा होता है और इसकी प्रामाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है। इस पर जहाँ आचार्य शुक्ल का मत है- “साहित्यिक रूप में न रहने पर भी जनता के कण्ठ में जगनिक की संगीत की वीरतापूर्ण प्रतिध्वनि अनेक बल खाती हुई तब तक चली आ रही है। इस दीर्घकालीन यात्रा में बहुत कुछ कलेवर बदल गया है।”

डॉ. राजनाथ शर्मा का मत है- “यह निश्चित है कि आज इसका जो रूप उपलब्ध है, उसमें कम से कम भाषा की दृष्टि से तो प्राचीनता की रंचमात्र भी झलक नहीं मिलती। यह लोक गेय काव्य रहा है। इसलिए समय के प्रवाह के साथ इसकी भाषा रूप ग्रहण करती चली गयी और साथ ही आधुनिकता की छाप आ गयी। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि इसका मूल रूप क्या और कैसा था ?

अतः इसके विकसनशील गेय काव्य मानते हुए इतना तो माना ही जा सकता है कि यह कृति आल्हा उदल जो इतिहास-सम्मत हैं. उनका वर्णन करती है, रही प्रामाणिकता की समस्या वह तो सभी रासो काव्यों के ऊपर छाया किये हुए है।

साहित्यिक सौन्दर्य- किसी भी रूप में हो, पर यह सत्य है कि यह रासो काव्यों में सर्वाधिक लोकप्रिय है। इसी से डॉ. प्रियर्सन इसे सर्वाधिक लोकप्रिय महाकाव्य मानते हैं, वहीं अन्य विद्वान् इसे विकसनशील लोक महाकाव्य की संज्ञा प्रदान करते हैं। डॉ. शम्भूनाथ सिंह इसे मात्र मनोरंजन प्रधान काव्य मानते हैं। उनके अनुसार- इसमें विशुद्ध वैयक्तिक वीरता, स्वाभिमान, दर्प और साहसपूर्ण कार्यों का वर्णन किया गया है। नैतिक, राष्ट्रीय या धार्मिक मूल्यों के प्रति कोई आग्रह नहीं रहा है। इसका प्रधान उद्देश्य मनोरंजन करना और उसके माध्यम से वीर पूजा की प्रवृत्ति जाग्रत कर वीर भावना का संचार करना रहा है। डॉ. राजनाथ शर्मा की मान्यता है कि यह मत पूर्णत: सही नहीं। इसका विकास राष्ट्रीय संवेदना और वीर भावना की पीठिका पर ही हुआ है। यह एक गेय काव्य है। इसलिए इसमें चमत्कार प्रदर्शन, पाण्डित्य प्रदर्शन और अलंकरण की प्रवृत्ति नहीं मिलती। वस्तुतः इस काव्य का मूलरूप लोक कथा की गीतात्मक परम्परा का ही रहा होगा। उसे साहित्यिक रूपान्तर उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ही प्रदान करने की चेष्टा की गई है। डॉ. शर्मा ने इसकी निमन पंक्तियाँ उद्धृत की हैं-

सदा तरैया ना बन फूलै, यारों सदा न सावन होय ।

स्वर्ग मड़ैया सब काहूँ को, यारो सदा न जीवै कोय ||

इसे डॉ. शर्मा बैसवाड़ी बोली की रचना मानते हैं।

(4) विजयपाल रासो- इसमें विजयपाल सिंह के युद्धों का वर्णन है जिसका रचयिता नसिह भाट माना जाता है। मिश्र बन्धुओं ने इसका रचना काल सम्वत् 1355 माना है, जबकि विजयपाल का काल सम्वत् 1043 के आस-पास ठहरता है। कुछ विद्वान् भाषा-शैली की दृष्टि से इसे सोलहवीं सदी की कृति मानते हैं । यह मात्र 42 छन्दों में उपलब्ध है अतः इसका इतना ही ऐतिहासिक महत्व है कि यह एक रासो काव्य है। विशेष अध्ययन का अवकाश ही नहीं है।

(5) हम्मीर रासो- इसका नाम तो है, पर ग्रन्थ नहीं। यह भी एक विचित्रता है कि अभी तक यह कृति उपलब्ध नहीं हो सकी है। अपभ्रंश के ‘प्राकृत पैगलम्’ नामक एक संग्रह ग्रन्थ में संग्रहीत हम्मीर सम्बन्धी 8 छन्दों के आधार पर ही आचार्य शुक्ल ने इसे एक स्वतन्त्र ग्रन्थ मान लिया था। इसके रचनाकार शारंगधर माने जाते हैं। डॉ. राजनाथ शर्मा के अनुसार- “कुछ पदों में ‘जज्जल भणह’ वाक्यांश देख राहुल जी ने इन छन्दों को जज्जल नामक किसी कवि के रचे छन्द माना है। यथा- “हम्मीर कज्जु कज्जल भणह कोणाहल मुह मह जलनु।” आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत है कि- “प्राकृत पैगलम्” की टीका में भी इन्हें जज्ल की उक्ति माना गया है। अतः इसके रचयिता जज्जल ही ठहराते हैं। परन्तु कुछ आलोचक तो और भी आगे बढ़ गये। उन्होंने जज्जल को हम्मीर का मन्त्री सिद्ध करते हुए यह घोषणा की कि इन छन्दों में हम्मीर की वीरता का वर्णन न होकर जज्जल की वीरता का उललेख है।” अतः यह स्वतः ही गहरे विवाद के घेरे में आ जाता है। डॉ. राजनाथ शर्मा के अनुसार- “यदि शारंगधर को इसकी रचयिता और हम्मीर का समकालीन माना जाए तो इसकी रचना सम्वत् 1350 के आस-पास होनी चाहिए। परन्तु इसकी अव्यवस्थित परवर्ती भाषा को देखकर कुछ विद्वान् इसे सोलहवीं सदी के आस-पास की रचना मानते हैं।

(6) पृथ्वीराज रासो – हिन्दी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण रासो काव्य ‘पृथ्वीराज रासो’ है। इसका रचयिता चन्द्रवरदायी माना जाता है। काव्य-सौष्ठव, छन्द-योजना, अलंकार-विधान, वस्तु-वर्णन, भाव-व्यंजना, प्रकृति-चित्रण आदि की दृष्टि से यह वीरगाथा काल की अनुपम कृति है। इसके सम्बन्ध में यह भी प्रसिद्ध है कि इसका पूर्वार्द्ध जहाँ चन्द्रवरदायी ने लिखा, वहीं इसकी उत्तरार्द्ध उसके पुत्र जल्हण ने लिखा था। कहा जाता है कि शहाबुद्दीन गौरी जब पृथ्वीराज को पराजित कर बन्दी बनाकर गजनी ले गया था, तो चन्द अपने इस ग्रन्थ को अपने पुत्र के पास छोड़कर वहीं चले गये थे-

पुस्तक जल्हण हत्थ दै चलि राज्जन नृप काज ।

यह बात दूसरी है कि इसकी प्रामाणिकता पर सन्देह है।

रासो की प्रतियाँ- इसकी लगभग 60 हस्तलिखित प्राचीन प्रतियाँ मिल चुकी हैं। इसमें 69 सर्ग तथा 16,360 छन्द हैं। इसका संस्करण काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा डा. माताप्रसाद गुप्त के सम्पादन में प्रकाशित हुआ है।

रासो की साहित्यिकता – यह एक सफल काव्य रचना मानी गयी है। इसमें वीर श्रृंगार प्रभावी रूप है। इसे विकसनशील महाकाव्य माना जाता है। इसकी अभिव्यंजना प्रणाली भी व्यापक है। छन्दों का विविध प्रयोग इसकी महत्ता का कारण है। इसका वस्तु-वर्णन, चरित्रांकन, भाव-व्यंजना, रस-योजना, अलंकार- विधान, अलंकार-योजना, शैली आदि की दृष्टि से भी यह उत्तम काव्य है।

इसकी प्रामाणिकता पर पृथक् से अगले प्रश्न में विचार किया जा रहा है।

उपसंहार – हिन्दी साहित्य के इन रासो ग्रन्थों की यह स्थिति रही है कि इन्हें संदिग्ध और अप्रामाणिक ही माना जाता रहा । साथ ही यह भी विडम्बना है कि इन्हें आदिकालीन काव्य की प्रमुख कृतियाँ मानते हुए भी संदिग्ध माना गया है। फिर भी जो उपलब्ध सामग्री है उसके आधार पर यह माना जाता है कि यह काव्य-परम्परा हिन्दी साहित्य की निधि है। इससे आरम्भकालीन साहित्य की भाषा तथा काव्य-निधि का पता चलता है। अतः इनके महत्व को झुठलाया नहीं जा सकता।

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Anjali Yadav

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