रीतिकालीन साहित्य का मूल्यांकन कीजिए।
रीतिकालीन साहित्य का मूल्यांकन
1. रचना- काव्यगत अभिव्यंजना पद्धति और काव्य रूप प्रतिपादित विषय में सम्पूर्णता स्वतन्त्र नहीं है। प्रतिपादित विषय काव्य को प्रभावित करता है और अभिव्यंजना पद्धति को भी रीतिकाल में प्रबन्ध रचना का पूर्ण अभाव नहीं है, किन्तु इस काल की मुख्य रचना पद्धति मुक्तक ही है। केशवदास ने प्रबन्ध रचना की है, किन्तु उनकी श्रेष्ठता ‘राम चन्द्रिका’ में नहीं, ‘रसिक प्रिया’ में है। ‘रामचन्द्रिका’ एक असफल प्रबन्ध रचना है। देव, मतिराम, चिन्तामणि, पद्माकर, भिखारीदास, सोमनाथ, भूषण, जशवन्तसिंह आदि ने अपने को मुक्तक काव्य तक ही सीमित रखा है। रीतिकाल में प्रबन्ध काव्यों की रचना मुख्यतः वीर काव्यों के रूप में हुई है, किन्तु इन प्रबन्ध काव्यों में कथा- विन्यास और चित्रण की अपेक्षा वस्तु वर्णन प्रेम की प्रधानता है। प्रेम बन्धनों के रचयिताओं में बोधा और आलम को छोड़कर एक भी महत्वपूर्ण कवि नहीं हुआ।
रीतिकाल की कविता के मुख्य छन्द हैं- दोहा, सोरठा, रोला, कवित्त और सवैया। जिनमें दोहा, सोरठा और रोला छोटे छन्द हैं, जिनमें लक्षणा प्रस्तुत किए गए हैं। कवित्त तथा सवैया बड़े छन्द माने जाते हैं जो उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं है कि रीतिकाल का कवित्व, कवित्व और सवैयों में ही प्रकट हुआ है।
2. विषय – मिश्र बन्धुओं ने रीतिकाल को अलंकृत काल का नमा दिया है। कुछ अंशों में यह नामांकरण ठीक भी था। रीतिकाल के कवि के विषय में परिपाटीबद्ध थे। नायिका-भेद तथा विभिन्न नायिकाओं के लक्षण नख-सिख के अन्तर्गत सौन्दर्य उपमान, संयोग और वियोग की विभिन्न दशायें सभी कुछ निश्चित थे और प्रत्येक कवि ने उसका ही वर्णन किया है। अतः रीतिकालीन कवि अपनी विशेषता वर्ण्य विषय की नवीनता के द्वारा नहीं, कथन की वक्रता के द्वारा ही प्रकट करता था। उसने अपने कथन को चमत्कारपूर्ण बनाया है, क्योंकि उसका विषय चमत्कारिक नहीं था।
3. अलंकार – रीतिकाल की कविता में अतिलंकरण का बाहुल्य है। इसी विशेषता को लक्ष्य करके मिश्रबन्धुओं ने इसका नाम ‘अलंकृत काल’ रखा था। कविता का प्रमुख विषय श्रृंगार के कारण रूप आकार की सजावट भी अनिवार्य थी। दूसरे इस काल में सांस्कृतिक साहित्य के पुष्प अलंकार शास्त्र की लोकप्रियता भी आश्रयदाताओं की चमत्कारी मनोवृत्ति के कारण बढ़ गयी थी। विरोधाभास तथा असंगति अलंकार का चमत्कार इस उदाहरण में देखिए- जिसे बिहारी सतसई ने किया गया है-
दृग उरझट टूटम कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति ।
परति गांठ दुरजन हिये दई नई यह रीति ।।
इस प्रकार रीतिकाल के कवियों ने अलंकारों का भरपूर प्रयोग किया है, किन्तु चमत्कार मूलक अलंकारों का ही। शब्दालंकारों में यमक, श्लेष और अनुप्रास तथा अर्थालंकारों में सदृश्यमूलक अलंकारों का प्रयोग अधिक किया गया है। रीतिकालीन कवि का अप्रस्तुत विधान मुख्यतः दरबारी जीवन से लिया गया है क्योंकि कवि का परिचित वातावरण वही था।
4. भाषा – रीतिकाल के काव्य की भाषा ब्रज भाषा है। रीतिबद्ध कवियों में बजभाषा का सुन्दर रूप देव में है। बिहारी इत्यादि अन्य रीतिबद्ध कवियों में ब्रजभाषा पर प्रादेशिक भाषाओं की छाप है। बिहारी की भाषा में राजस्थानी, बुन्देलखण्डी, अवधी अत्यादि के प्रयेग मिलते हैं। बिहारी की भाषा में फारसी के शब्द भी मिलते हैं। भाषा का परिमार्जन एवं उसकी शक्ति का परिवद्र्धन रीतिमुक्त कवियों ने किया है। पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने रीतिमुक्त कवियों की ब्रजभाषा की सेवा का स्मरण बड़े ही मार्मिक शब्दों में किया है- “घनानन्द और ठाकुर ने ब्रज भाषा को बहुत शक्ति दी है। वाक्यांशों का ऐसा विधान, शब्दों का मनमाना और निरर्थक प्रयोग करने वालों में कहाँ ? लोकोक्तियों का जैसा विनियोग ठाकुर ने किया है, हिन्दी के दूसरे कवि ने नहीं । घनानन्द की रचना में तो भाषा स्थान-स्थान पर अर्थ की सम्पत्ति से समृद्ध होकर सामने आती है। वाक्य ध्वनि तो दूर रहे, इन्होंने पदांश ध्वनि से भी जगह-जगह काम लिया है। एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा-
“मेरो मनोरथ हूँ वहिये अरु हैवै मो मनोरथ पूरनकारी।”
अतः स्पष्ट हो जाता है कि घनानन्द जी बजभाषा के तो पूरे जानकार थे ही भाषा की गति को भी भाव के अनुकूल मोड़ सकते थे। ये ‘बृजभाषा प्रवीण’ और ‘भाषा-प्रवीण’ दोनों ही थे। इसलिए बिहारी और घनानन्द भाषा की दृष्टि से अपने युग के श्रेष्ठ कवि हैं। बिहारी भाषा की अपूर्व समाहार शक्ति है तो घनानन्द में व्यंजनात्मकता है। मतिराम भी सरस कवि हैं। पद्माकर में भाषा का माधुर्य है। रीतिकाल की ब्रजभाषा पर फारसी का प्रभाव काफी दिखलाई पड़ता ही है। फारसी का प्रयोग बाद के कवियों-रीतिकवियों की भाषा में विशेष रूप से दिखाई देता है। प्रान्तीय बोलियों से भी रीति कवि अछूते नहीं हैं। विभिन्न बोलियों का प्रभाव उस क्षेत्र के कवियों में प्रकट होता ही रहा है। रीतिकाल की अवधि में भी रचना हुई है, किन्तु इस काल की मुख्य काव्य भाषा ब्रज भाषा ही थी। सारांश यह है कि रीतिमुक्त धारा के कवियों के काव्य में भाषा की शक्ति देखने योग्य है। ब्रजभाषा का इन कवियों ने परिमार्जन करके एवं तत्सम शब्दों का प्रयोग करके उसे सुसंस्कृत एवं शक्तिशाली बनाया और दो सौ वर्ष तक वह हिन्दी साहित्य क्षेत्र में एकछत्र राज्य करती रही। यहाँ तक कि आधुनिक काल में भी रत्नाकर के “उद्भव शतक” वियोगी, हरि की भक्ति विषयक रचनाओं में इसका प्रयोग हुआ जो इसकी महत्ता का परिचायक है।
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