रीतिकाल का प्रवर्तक कौन है ? स्पष्ट कीजिए।
हिन्दी साहित्य में रीति-परम्परा का प्रवर्तन कोई आकस्मिक घटना नहीं है। इसका एक निश्चित आधार है और यह एक सुविकसित परम्परा के सहारे चली है। वैसे यह एक कथन चाहे हमें अतिशयोक्ति प्रतीत हो कि हिन्दी में रीति का उदय उसके जन्मकाल से हो गया था, परन्तु इतना तो निश्चित है कि उसकी इस प्रवृत्ति के प्रेरणा-स्रोत संस्कृत काव्य-शास्त्रीय ग्रंथ हैं। यह प्रेरणा उसे अपने पूर्ववर्ती अपभ्रंश-काव्य से नहीं मिली। उसमें इसकी कोई परम्परा नहीं। दो-एक ग्रंथ छन्द, व्याकरण आदि पर अवश्य हैं जिनमें गौण रूप से किसी ग्रंथ के बीच में नायिका भेद शृंगारादि का विवेचन है। परन्तु भक्ति और वीरगाथा वर्णन की परम्पराएँ अपभ्रंश से रीतिकाव्य में नहीं आई। इसका मुख्य प्रेरणा-स्रोत तो संस्कृत साहित्य ही है।
भक्ति-युग के उत्तर काल में रीतिकाव्य की परम्परा पड़ी और इस धारा के प्रवर्तन का श्रेय निश्चित रूप से आचार्य केशवदास को है । यद्यपि इस दिशा में केशव से पूर्व छिटपुटे प्रयत्न हुए किन्तु उनमें रीति धारा को प्रेरणा देने की सामर्थ्य नहीं थी। हिन्दी साहित्य के कई इतिहासकारों ने पुण्य या पुष्प (सं० 1770) को जिसने संस्कृत के किसी अलंकार ग्रंथ के आधार पर हिन्दी में अलंकार ग्रंथ लिखा, हिन्दी का प्रथम रीति कवि स्वीकार किया है परन्तु इस ग्रंथ का अस्तित्व संदिग्ध है। यदि वास्तव में उस समय का कोई ऐसा ग्रंथ मिल सके, तो वह न केवल रीतिकाव्य का, वरन् हिन्दी का प्रथम ग्रन्थ ठहरता है।
रीति काव्य में लिखा गया सबसे पहला ग्रंथ कृपाराम (1598) की हित तरंगिणी’ है। इसका आधार भारत का नाट्यशास्त्र और भानुदत्त की ‘रसमंजरी’ है। मोहन लाल मिश्र का श्रृंगार-सागर’ (सं० 1616), रहीम के ‘बरवै नायिका भेद’, नन्ददास कृत ‘रस मंजरी’- ये तीनों नायिका भेद संबंधी ग्रंथ हैं। रहीम के केवल नायिका-भेद के उदाहरण दिये हैं। नन्ददास की ‘रस-मंजरी’ भानुदत्त की ‘रस-मंजरी’ पर पूर्णतः आधृत है। सूरदास कृपाराम के सम-सामयिक थे। उनके अपने ‘सूरसागर’ तथा ‘साहित्य लहरी’ में नायिका भेद तथा चित्रालंकारों का आभास परोक्ष रूप में मिल जाता है। अकबर के समकालीन कवि करनेस बन्दीजन ने ‘कर्णाभरण ‘भूषण’, ‘श्रुति भूषण’ और ‘भूप भूषण’ नामक तीनों ग्रंथ अलंकार विषय पर लिखे । निःसन्देह केशवदास से पूर्व इन उपर्युक्त रीतिग्रंथों का प्रणयन हो चुका था परन्तु इनमें से कोई भी महत्वपूर्ण प्रभाव रखने वाला ग्रंथ नहीं है। इन ग्रंथों में रीति-धारा की अखंडता नहीं है। इन कवियों में से किसी ने काव्य के एक भी अंग का विस्तृत वर्णन कर दिया है तो दूसरे ने काव्य के किसी दूसरे लघु अंग पर अपना लक्ष्य मात्र प्रस्तुत कर दिया है। सच यह है कि जिस युग में इन काव्यों का प्रणयन हुआ वह भक्तिनिष्ठ युग था । अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुचते हैं कि रीतिकाव्य का सबसे पहले सही शास्त्रीय निरूपण आचार्य केशव ने ही अपनी रसिकप्रिया और कविप्रिया में सर्वांगता किया है।
केशवदास ने भाषा कवियों के सामने हिन्दी काव्य-रचना का एक नवीन मार्ग खोल दिया जो शुद्ध साहित्यिक रचना का मार्ग था। इसलिए केशव का महत्व भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समान उनके परवर्ती लेखकों ने बराबर स्वीकार किया है। उन्होंने वीरगाथा वर्णन परम्परा को अपनाते हुए ‘वीरदेवसिंह चरित’ तथा ‘जहांगीर जस चंद्रिका’ लिखी। ज्ञान और भक्ति की काव्य परम्परा में ‘विज्ञान गीता’ और ‘राम-चंद्रिका’ का प्रणयन किया। साथ ही कविप्रिया और रसिकप्रिया को लिखकर उन्होंने रीतिकाव्य की परिपाटी भी डाली। इस प्रकार भक्तिकाल में होते हुए भी इन्होंने एक सुनिश्चित रीतिकाव्य-परम्परा का प्रवर्तन किया। केशव ने ‘रसिकप्रिया’ और ‘कविप्रिया’ में काव्यशास्त्र के लगभग सभी अंगों पर प्रकाश डाला है। उन्होंने भाषा का कार्य, कवि की योग्यता, कविता का स्वरूप और उद्देश्य, कवियों के प्रकार, काव्य-रचना के ढंग, कविता के विषय, वर्णन के विविध रूप, काव्य-दोष, अलंकार, रस, वृत्ति आदि विषयों पर अपने निजी ढंग से प्रकाश डाला है। हम पहले कह चुके हैं कि केशव ने काव्य के सभी सौन्दर्य-विधायक धर्मों को अलंकार कहा है। इस प्रकार केशव द्वारा गृहीत अलंकार बहुत व्यापक हैं, उसके काव्यशास्त्र के परम्परात्मक सीमित अर्थ में समझना संगत न होगा। उसमें शब्द, अर्थ और शब्दार्थ अलंकारों के अतिरिक्त भूमि भूषण भूतल के प्राकृतिक दृश्यों, राज्यश्री, भूषण, राजा संबंधी वस्तुओं का सविस्तार वर्णन आदि अनेक विषय समाविष्ट हैं। इस प्रकार केशव के अलंकार वर्णन में प्राकृतिक दृश्य तथा समाज का व्यापक निरीक्षण भी समाहित है। हमें ऐसा लगता है कि केशव ने अलंकार वर्णन के अन्तर्गत मध्यकाल के वर्णक कवि के सभी वर्ण्य विषयों का किंचित समावेश कर लिया है। इनमें यद्यपि काव्यशास्त्रीय विषयों का पूर्ण विवेचन, पूर्ण ज्ञान और मौलिक सिद्धांत-सर्जन की क्षमता का अभाव है। वे चमत्कार-प्रिय और अलंकारवादी कवि हैं। उनका सिद्धांत वाक्य है-
जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुबरन सरस सुवृत्त।
भूषण बिनु न विराजई, कविता बनिता मित्त ॥
उन पर पूर्व ध्वनि-काल का प्रभाव स्पष्ट है। केशव ने भामह, दंडी और केशव मिश्र आदि संस्कृत के आचार्यों का अनुकरण मात्र किया है, उन्होंने किसी भी मौलिक काव्य सिद्धांत को जन्म नहीं दिया है। परन्तु इतना होने पर भी केशव का हिन्दी-क्षेत्र में प्रथम आचार्यत्व असंदिग्ध है। रीति-परम्परा के प्रवर्तन का श्रेय केशव को छोड़कर न तो उनके किसी पूर्ववर्ती हिन्दी कवि को दिया जा सकता है और न उनके किसी परवर्ती कवि को। कृपाराम का क्षेत्र अत्यंत संकुचित है, सर्वांग निरूपण की दृष्टि से उनका कोई स्थान नहीं है। चिन्तामणि भी केशव की समकक्षता में नहीं आ सकते। चिन्तामणि के बाद रीतिकाव्य ग्रंथों की अविच्छिन्न परम्परा चल पड़ने से उन्हें रीतिमार्ग प्रवर्तन का श्रेय मिलना एक संयोग मात्र है।
किन्तु आचार्य शुक्ल ने रीति परम्परा का प्रवर्तक आचार्य केशव को न मानकर चिन्तामणि को माना है। शुक्ल जी का इस संबंध में कहना है कि- “हिन्दी में रीति-ग्रंथों की अविरल और अखण्डित परम्परा का प्रवाह केशव की ‘कविप्रिया के 50 वर्ष पीछे चला और वह भी एक भिन्न आदर्श को लेकर, केशव के आदर्श को नहीं।” आगे चलकर वे लिखते हैं-“हिन्दी रीति ग्रंथों की अखंड परम्परा चिन्तामणि त्रिपाठी से चली, अतः रीतिकाल का आरंभ उन्हीं से मानना चाहिए।” हिन्दी लक्षणकारों ने केशव के आदर्श को न अपनाकर भिन्न आदर्श को अपनाया इस बात को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं-“केशव के दिखाये हुए पुराने आचार्यों (भामह, उद्भट आदि) के मार्ग पर न चलकर परवर्ती आचार्यों को परिष्कृत मार्ग पर वह चली जिसमें अलंकार- अलंकार्य का भेद हो गया था। हिन्दी के अलंकार ग्रंथ अधिकतर चन्द्रालोक और कुवलयानन्द के अनुसार निर्मित हुए। कुछ ग्रंथों में काव्यप्रकाश और साहित्यदर्पण का भी आधार पाया जाता है। काव्य के स्वरूप और अंगों के संबंध में हिन्दी के रीतिकार कवियों ने संस्कृत के इन परवर्ती ग्रंथों का मत ग्रहण किया। इस प्रकार देवयोग से संस्कृत साहित्यशास्त्र के इतिहास की एक संक्षिप्त उद्धरणी हिन्दी में हो गई।” आचार्य शुक्ल के उपर्युक्त शब्दों के अध्ययन के पश्चात् हम कह सकते हैं कि उन्होंने निम्न कारणों के आधार पर केशव को रीति ग्रंथों का प्रवर्तक नहीं माना है-
(1) एक तो रीति की अखंड परम्परा केशव के पचास वर्ष बाद में चली ।
(2) परवर्ती रीतिकारों ने भिन्न आदर्श को अपनाया और केशव का स्मरण तथा अनुसरण तक नहीं किया।
(3) केशव तुलसी के समकालीन हैं अतः वे भक्ति युग में ठहरते हैं। कदाचित् शुक्ल ने इसीलिए केशव को भक्ति युग के फुटकर कवियों में रखा है।
इस अध्ययन के अनन्तर हमारे सम्मुख आचार्य केशव से सम्बद्ध नाना प्रश्न उपस्थित होते हैं-
(1) क्या उनके रसिकप्रिया और कविप्रिया रीति-परम्परा से बाहर ठहरते हैं ? क्या उनमें काव्यशास्त्र के अंगों का सर्वांग निरूपण नहीं हुआ ?
(2) क्या केशव ने रीतिशास्त्र का सर्वाग निरूपण करके रीति-परम्परा का प्रवर्तन नहीं किया ?
(3) क्या रीति-परम्परा के भिन्न आदर्श को ग्रहण करके केशव के 50 वर्ष पश्चात् प्रवाहित होने से उन्हें (केशव को) इस श्रेय से वंचित कर दिया जाय ?
(4) क्या हम प्रवर्तक का यह अर्थ लगायें कि जिससे परवर्ती लोग प्रेरणा पाकर उसका अनुकरण करें ?
इस तथ्य से हिन्दी साहित्य का कोई विद्वान् इनकार नहीं कर सकता कि रसिकप्रिया और कविप्रिया में काव्य का सर्वांग-निरूपण है। अतः इन ग्रंथों को रीति-परम्परा के बाहर कदापि नहीं रखा जा सकता। यह ठीक है कि केशव के अलंकारवादी तथा चमत्कारवादी होने के कारण इन ग्रंथों में काव्य-समीक्षा संतुलित और सुव्यवस्थित नहीं है, उसमें कदाचित एकांगिता है। पर दृष्टिकोण की एकांगिता के लिए केशव को रीति-परम्परा के प्रवर्तन के श्रेय से वंचित करना असंगत होगा। वक्रोक्तिकार तथा ‘रीतिकार’ के दृष्टिकोण भी तो संकुचित थे पर क्या उन्हें इनके सम्प्रदायों के प्रवर्तन के श्रेय से वंचित किया जाता है ? निःसन्देह केशव के पचास वर्ष पश्चात् एक भिन्न आदर्श को लेकर रीति-परम्परा प्रवाहित हुई और वह भी चिन्तामणि से। इस संबंध में हम पहले ही कह चुके हैं कि इसे एक सुयोग ही समझना चाहिए। केशव के युग में कवियों और जनता की मनोवृत्ति रीति- परम्परा के प्रति उतनी झुक नहीं पाई थी और यह स्वाभाविक भी था क्योंकि केशव से तो इस परम्परा का सुनिश्चित आरंभ ही हुआ था। हम कह सकते हैं कि केशव को इतनी अच्छी परिस्थितियां नहीं मिलीं जितनी कि चिन्तामणि को ।
शेष रही भिन्न आदर्श को लेकर चलने की बात और केशव के अनुकरण एवं स्मरण का प्रश्न। सच तो यह है कि न तो चिन्तामणि ने ही किसी निजी मौलिक आदर्श की स्थापना की है और न ही केशव ने केशव ने अलंकार सम्प्रदाय का अनुकरण किया है और चिन्तामणि ने किसी भिन्न सम्प्रदाय का दोनों ने संस्कृत काव्यशास्त्र का अनुसरण किया है और परवर्ती रीति-कवियों ने भी संस्कृत के काव्यशास्त्र का अनुसरण किया है। आचार्य मम्मट से पूर्व संस्कृत साहित्य में कितने ही सम्प्रदाय प्रचलित थे और कितने ही काव्यशास्त्रीय ग्रंथ, पर उन्होंने अपने समन्वयात्मक दृष्टिकोण और पैनी दृष्टि से अपने पूर्ववर्ती काव्य-सम्प्रदायों का एक संतुलित सामंजस्य अपने ‘काव्यप्रकाश’ में उपस्थित किया। बाद में संस्कृत आचार्यों ने मम्मट का अनुकरण किया। पर इसका तात्पर्य यह कभी नहीं कि मम्मट से पूर्ववर्ती काव्य-सम्प्रदाय और उनके प्रवर्तकों के महत्व और अस्तित्व निःशेष हो जायेंगे। हमें वामन को रीति-सम्प्रदाय का तथा कुन्तक को वक्रोक्ति-सम्प्रदाय का प्रवर्तक मानना ही पड़ेगा, भले ही उनके परवर्ती आचार्यों ने उनके आदर्श का अनुकरण न किया हो और फिर काव्यशास्त्र में खंडन-मंडन तथा एक नवीन आदर्श की प्रतिष्ठा की बात तो चलती ही रहती है। ऐसी बात नहीं कि परवर्ती हिन्दी के रीति-कवियों ने केशव का स्मरण न किया हो। केशव के प्रति देव और दास जैसे महाकवियों ने अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की है, किन्तु किसी ने चिन्तामणि का आचार्य के रूप में स्मरण नहीं किया।
केशव तुलसी के समकालीन होने के नाते भक्ति-युग में आते हैं, जबकि रीतिकाल का आरंभ सं० 1700 वि。से है। इस आधार पर भी केशव को प्रवर्तक आचार्य पद से वंचित नहीं किया जा सकता। इस संबंध में आचार्य श्यामसुन्दरदास के विचार पठनीय हैं- “यद्यपि समय-विभाग के अनुसार केशवदास भक्तिकाल में पड़ते हैं और यद्यपि गोस्वामी तुलसीदास आदि के समकालीन होने तथा रामचन्द्रिका आदि ग्रंथ लिखने के कारण ये कोरे रीतिवादी नहीं कहे जा सकते, परन्तु उन पर पिछले काल के संस्कृत साहित्य का इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि वे अपने काल की काव्यधारा से पृथक् होकर चमत्कारवादी कवि हो गये और हिन्दी में रीति-ग्रंथों की परम्परा के आदि आचार्य कहलाये।”
हम केशव के बहुमुखी व्यक्तित्व की तुलना पहले ही भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से कर चुके हैं। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समान उनके परवर्ती लेखकों ने उनका महत्व बराबर स्वीकार किया है। केशव ने रीति परम्परा के इस नवीन मार्ग को खोलते हुए भी अपनी पूर्ववर्ती परम्परा का त्याग नहीं किया। उन्होंने वीरगाथा परम्परा को अपनाते हुए ‘वीरसिंहदेव चरित’ तथा ‘जहाँगीर जस चन्द्रिका’ लिखी। ज्ञान और भक्ति काव्य की परम्परा में विज्ञान-गीता और रामचन्द्रिका का प्रणयन किया, साथ ही कविप्रिया और रसिकप्रिया को लिखकर उन्होंने रीतिकाव्य की परिपाटी भी डाली। रीतिकालीन कवियों और आचार्यों ने थोड़े-बहुत हेरफेर के पश्चात् केशव काव्य की प्रवृत्तियों का अनुसरण अपने काव्यों में किया है। अतः केशव केवल रीति-पराम्परा के ही प्रवर्तक नहीं ठहरते प्रत्युत रीतिकालीन साहित्य में उपलब्ध होने वाली अन्य प्रमुख प्रवृत्तियों के प्रवर्तक भी ठहरते हैं। हम यह निःसंकोच भाव से कह सकते हैं कि रीति- परम्परा को सुप्रवर्तित और पूर्णतः प्रतिष्ठित करने का श्रेय केशव को ही है। वे केवल रीतिकाल और रीति- परम्परा के प्रवर्त्तक आचार्य ही नहीं हैं बल्कि हिन्दी रीतिकाव्य में रस-रीति के प्रतिष्ठापक भी हैं अतः इन दोनों दृष्टियों से केशव का महत्व अक्षुण्ण है।
केशव के पश्चात् चिन्तामणि का नाम आता है। उन्होंने काव्यशास्त्र को अत्यंत सरल रूप में प्रस्तुत किया है और इस प्रयत्न में ये सफल भी रहे हैं। रीति ग्रंथकारों में सरल और सुबोध शैली में लिखने वाला चिन्तामणि जैसा और कोई भी दूसरा आचार्य नहीं है। इन्होंने ‘पिंगल’, ‘रस-मंजरी’, ‘शृंगार-मंजरी’ तथा ‘कविकुल- कल्पतरु’ नाम के ग्रंथ लिखे हैं ।
चिन्तामणि के साथ मतिराम और भूषण का नाम आता है। ये दोनों पारिवारिक तथा साहित्यिक दृष्टि से चिन्तामणि से प्रभावित हैं, परन्तु फिर भी इनका अपना अलग व्यक्तित्व, महत्व और क्षेत्र है। मतिराम ने श्रृंगार रस का चित्रण किया है, जबकि भूषण ने वीररस का। भूषण का ‘शिवराज भूषण’ अलंकार ग्रंथ है पर रीति ग्रंथ की दृष्टि से अलंकार निरूपण के विचार से यह ग्रंथ उत्तम नहीं कहा जा सकता। लक्षणों की भाषा स्पष्ट नहीं है और उदाहरणों में भी कई-कई जगह अव्यवस्था है। मतिराम ने ‘रस राज’ और ‘ललित ललाम’ दो रीति ग्रंथ लिखे हैं। रस और अलंकार की शिक्षा के लिए ये ग्रंथ अत्यंत उपयोगी हैं। अपनी सरसता और स्पष्टता के कारण ये दोनों ग्रंथ रीतिकाल में अत्यंत लोकप्रिय हुए।
इन रीति-ग्रंथकारों में कुलपति, सुखदेव और देव के नाम भी उल्लेखनीय हैं। कुलपति का ‘रस रहस्य’ मम्मट के काव्यप्रकाश के आधार पर लिखा गया है। इदसमें ध्वनि-सिद्धांत का सम्यक् प्रतिपादन है। सुखदेव मिश्र ने रसों और छंदों को लेकर लिखा है। इनके उदाहरण अत्यंत रोचक और महत्वपूर्ण हैं। देव में आचार्यत्व और कवित्व दोनों की ही उत्कृष्टता विद्यमान है। इनके आचार्यत्व के संबंध में शक्ल जी लिखते हैं-कुलपति और सुखदेव, ऐसे साहित्यशास्त्र के अभ्यासी पंडित भी विशद रूप में सिद्धान्त-निरूपण का मार्ग नहीं पा सके। अतः आचार्य के रूप में देव को भी कोई विशेष स्थान नहीं दिया जा सकता।”
देव के उपरान्त और आधुनिक युग के पूर्व तक लगभग डेढ़ सौ वर्षों तक रीति काव्य का खूब विस्तार हुआ। इस काल के लक्षणकारों में सुविख्यात कालिदास, सूरति मिश्र, श्रीपति, सोमनाथ, भिखरीदास, दूलह, पद्माकर, बेनी, रसिक-गोविन्द, प्रतापसिंह आदि हैं। इनके द्वारा रीति परम्परा को एक निश्चित और दृढ़ स्वरूप प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त सैकड़ों अन्य कवियों ने इस रीति पद्धति का आलम्बन लेकर अपनी काव्य-रचना इस युग में की। वास्तव में यह समय ही ऐसा था कि रीति या लक्षण-ग्रंथों की न केवल राजदरबारों में बल्कि जनता के बीच में भी प्रशंसा होती थी।
कालिदास ने ‘वधू-विनोद’ नामक ग्रंथ नायिका भेद पर लिखा परन्तु इनकी ख्याति का आधार ग्रंथ ‘कालिदास हजारा’ है।
इसमें एक सहस्र कवियों की रचनाओं का चुना हुआ संग्रह है। सूरति मिश्र का प्रधान ग्रंथ ‘काव्य-सिद्धांत’ है जिसमें काव्यशास्त्र के लगभग सभी अंगों का विवेचन अधिकारपूर्ण ढंग से किया गया है। इस काल के अति प्रसिद्ध आचार्यों में श्रीपति और भिखारीदास हैं। श्रीपति ने प्रायः काव्यों के सभी अंगों का मार्मिक वर्णन किया है। इन्होंने अपने पूर्ववर्ती कवियों और आचार्यों के दोषों का भी निर्देशन किया है। आचार्य भिखारीदास पर इनका बहुत कुछ प्रभाव है। इनका लक्षण ग्रन्थ है ‘काव्य सरोज’ । सोमनाथ ने ‘रसपीयूषनिधि’ नामक विशलकाय ग्रंथ लिखा है। ये ध्वनि-सिद्धांत के अनुयायी हैं। इन्होंने काव्य के सभी अंगों का विद्वत्तापूर्ण विवेचन किया है। सोमनाथ वास्तव में श्रीपति और भिखारीदास के समकक्ष ही ठहरते हैं।
भिखारीदास रीतिकाल के अंतिम बड़े आचार्य हैं। इनके ग्रंथ हैं-‘काव्य निर्णय’, ‘शृंगार निर्णय’, ‘छन्दार्गाव विमल’ और ‘रस सारांश’। इनका सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ ‘काव्य निर्णय’ है। यह साहित्यशास्त्र का सबसे उत्कृष्ट ग्रंथ है। इसमें दास जी का विवेचन बड़ा ही सुलझा हुआ और वैज्ञानिक है। इन्होंने काव्यशास्त्र संबंधी कुछ नवीन उद्भावनायें भी की हैं। वस्तुतः आचार्य भिखारीदास काव्यशास्त्र के एक गंभीर एवं प्रकाण्ड पंडित थे।
दूलह कवि ने अलंकारों पर ‘कवि कुल कंठाभरण’ नामक ग्रंथ लिखा। इसमें लक्षण-उदाहरण एकसाथ चलते हैं। ऐसा ही वैरीसाल का ‘भाषाभरण’ भी अलंकारों पर लिखा गया सुन्दर ग्रंथ है।
रीतिकाल के अन्तिम प्रसिद्ध कवि पद्माकर रीति- परम्परा के वास्तव में अन्तिम प्रतिभासम्पन्न कवि थे। इन्होंने ‘जगद विनोद’ और ‘पद्माभरण’ दो रीति-ग्रंथ लिखे हैं। इनका ‘जगद्विनोद’ मतिराम के ‘रसराज’ के समान रसिकों और काव्य अभ्यासियों दोनों का कंठहार रहा है। वास्तव में यह श्रृंगार रस का सारग्रन्थ प्रतीत होता है। बेनी का ‘नव रस तरंग’ भी काव्य की दृष्टि से उत्कृष्ट है । परन्तु लक्षण महत्व के नहीं हैं। रसिक गोविन्द का ‘रसिका गोविन्दानन्द घन’ काव्यशास्त्र पर लिखा गया काव्य-ग्रंथ। इसमें नाट्यशास्त्र साहित्य-दर्पण और काव्यप्रकाश का आधार लिया गया है। प्रतापसाहि का प्रमुख ग्रन्थ ‘व्यंग्यार्थ कौमुदी’ है। संक्षिप्त शैली में होने के कारण यह ग्रंथ अत्यंत गूढ़ बना हुआ है।
इन लक्षणकारों के अतिरिक्त रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त कवियों ने इस परम्परा में परोक्ष रूप से लिखा है। इन्होंने लक्षणा नहीं दिये केवल उदाहरण ही प्रस्तुत किये हैं। इन पर भी रीति परम्परा का कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य ही है। बिहारी की सतसई की पृष्ठभूमि में निश्चित रूप से रीति-परम्परा काम कर रही है। स्वच्छन्द रीति से लिखने वाले कवि हैं- घनानन्द, बोधा, आलम, ठाकुर आदि। इनमें हमें स्वच्छन्द प्रेमोक्तियाँ मिलती हैं जो पद्माकर, मतिराम, देव आदि के छंदों के समान ही हैं। अत: इस पर भी परोक्ष रूप से रीति-परम्परा का प्रभाव देखा जा सकता है।
रीतिकाव्य की परम्परा रीतिकाल तक ही समाप्त नहीं हो जाती वरन् आधुनिक समय तक यह बराबर चलती आ रही है। सं० 1900 वि० के पश्चात् भी लक्षण-ग्रंथ लिखे गये, परन्तु इन ग्रंथों की विशेषता यह है कि इनके अधिकांश में लक्षण और व्याख्या गद्य में ही प्रस्तुत किये गये हैं। इन्होंने अपने उदाहरण न जुटाकर पूर्ववर्ती कवियों के उदाहरण दिये हैं। इन ग्रंथों के विषय के स्पष्टीकरण पर अधिक बल दिया गया है। आधुनिक युग के प्रमुख रीतिकार और प्रमुख रीति-ग्रंथ हैं- रामदास का ‘कवि कल्पद्रुम’, ग्वाल के ‘कविदर्पण’ आदि बहुत से ग्रंथ, लछिराम के ग्रंथ, मुरारिदान का ‘जसवन्त भूषण’, प्रताप नारायण का ‘रस कुसुमाकर’, भानु का ‘काव्य प्रभाकर’, पोद्दार का ‘काव्य कल्पद्रुम’, रसाल का ‘अलंकार पियूष’, केडिया का ‘भारतीभूषण’, हरिऔध का ‘रस कलश’, बिहारी लाल भट्ट का ‘साहित्य सागर, मिश्रबन्धु का ‘साहित्य परजात’ आदि आदि ।
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