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रीतिकाल की सामाजिक परिस्थितियाँ | रीतिकालीन सामाजिक संरचना व कला दृष्टि

रीतिकाल की सामाजिक परिस्थितियाँ | रीतिकालीन सामाजिक संरचना व कला दृष्टि
रीतिकाल की सामाजिक परिस्थितियाँ | रीतिकालीन सामाजिक संरचना व कला दृष्टि

रीतिकाल की सामाजिक परिस्थितियाँ

सामाजिक परिस्थितियाँ- भक्तिकालीन समाज की सारी विशिष्टताओं को समेट कर चलने वाला यह युग सामाजिक दृष्टि में यदि कोई नवीन तत्व पाता है तो वह है बाह्य आडम्बर। राजनीतिक दाँवपेंच तथा भीतरी खोखलेपन ने भारतीय समाज को विभिन्न प्रकार की कृत्रिमताओं से भर दिया था। मुगल दरबारी जीवन अब सर्वसाधारण तक पहुँच चुका था। उत्तरकालीन गुडिया मुगल सम्राटों के अनुकरणों पर दरबारी साज-सज्जा तथा हरमों की सज-धज को संवारने वाले स्थानीय शासक दरबारी संस्कृति के प्रचार में सहायक सिद्ध हो रहे थे। मुगलकालीन कलात्मकता ने, जिसका प्रभाव देश के व्यापक क्षेत्रों में स्थापित था, समाज को कलात्मक प्रवृत्ति प्रदान कर दी थी, पर तत्कालीन सामाजिक विषमताओं ने कुछ ठोस तथा स्थायी तत्व की गुंजाइश नहीं छोड़ रखी थी। फलतः समाज के हाथ केवल कृत्रिमता ही लगती है। यह कृत्रिमता भी जड़वत होती जा रही है। इसकी मात्रा ऊपरी स्तर में बहुत अधिक, मध्यमवर्गीय समाज में अपेक्षाकृत कम तथा निम्न वर्ग में बहुत ही न्यून थी। किन्तु अब तक प्रायः सभी ललित कलाओं का सम्बन्ध समाज के ऊपरी वर्ग से स्थापित हो चुका था। वही इसका तथाकथित मर्मज्ञ, प्रेमी तथा आश्रयदाता बन चुका था। होते गए और समाधि स्थल-पूजा, पोथी-पूजा, चित्र-पूजा से होते हुए विशुद्ध मूर्ति-पूजा को अपनाते जा रहे थे। फलतः संप्रदाय के कुछ गायकों के भावों में भी कुछ रसिकता का पुट आता जा रहा था। शैली भी लालित्यपूर्ण होती जा रही थी। यद्यपि अधिकांश कवि दोहा छंदों का ही प्रयोग करते रहे, पर कुछ की रुचि कवित सवैया की ओर भी झुकती जा रही थी। संदरदास का नाम इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। प्रेमाख्यान काव्य-परंपरा की सत्रहवीं शताब्दी के अंतिम चरण तक जाते-जाते अलंकारिता के मोह में फंसी दिखाई पड़ती है। कृष्ण-काव्य परंपरा तो कलात्मकता को अपना एकमात्र संबल बना चुकी थी। भक्ति भाव अब केवल शृंगारिक भावों के उद्दीपन का बहाना मात्र बनकर रह गया था। यदि राधा-कृष्ण शब्द को इस साहित्य से निकाल दिया जाय तो परवर्ती कृष्णभक्त कवियों की रचनाएँ विशुद्ध शृंगारिक एवं कलात्मक कवियों की श्रेणी में रक्खी जा सकती हैं।

हितहरिवंश, ध्रुवदास, छत्रसाल आदि की कृष्ण-संबंधी कविताएँ घोर शृंगारिकता का परिचय देती हैं। रामकाव्य की मधुरोपासना की ओर देखा-देखी उन्मुख हो चुका था। यहाँ यह भी कह देना अनिवार्य हैं कि कृष्ण तथा राम भक्ति शाखा के कवियों में जो घोर शृंगारिकता का उत्तरोत्तर प्रचार होता जा रहा था उसके पीछे केवल युग की सामान्य सामाजिक प्रवृत्ति का ही हाथ न था प्रत्युत कुछ ऐसे संस्कृत ग्रंथों को भी इसका प्रेरणा-स्रोत कहा जा सकता है, जिनमें राधा-कृष्ण तथा सीता-राम का श्रृंगारिक रूप बड़ी रोचकता के साथ चित्रित किया गया था। इन्हीं संस्कृत ग्रंथों से शैली एवं कहीं-कहीं भाव लेकर तथा अपने नवोदित संप्रदाय के सिद्धांतों को महत्व देते हुए कुछ कवियों ने राधा-कृष्ण को घोर शृंगारिक रूप प्रदान किया था।

उपर्युक्त विवेचन के स्पष्टीकरण हेतु कुछ उदाहरण निम्नवत् हैं-

‘नवल किशोर नवल नागरिया ।

अपनी भुजा स्याम भुज ऊपर स्याम भुजा अपने उर धरिया ।।

करत विनोद तरनि-तनया तद, स्वामा स्याम उमगि रस भरिया ।

यों लपटाइ रहे उर अन्तर, मरकत मनि कंचन ज्यों जस्सिदास मदनमोहन (सोलहवीं शती)

‘विपिन घन कुंज रति केलि भुज मेलि रुचि,

स्याम स्यामा मिले सरद की जामिनी।

हृदय अति फूल, रसमूल प्रिय नागरी,

कर निकर मत्त मनु विविध गुन रागिनी ।।

सरस गति परिहास, आवेस बस,

दलित दल मदन बल कोक रस जामिनी।

हितहरिवंश सुनि लाल लावन्य मिटे,

प्रिया अति सूर सुख-सुरत संग्रामिनी ॥ “

-हितहरिवंश (सोलहवीं शती)

अभिप्राय यह कि आने वाली पीढ़ी को पूर्ववर्ती साहित्य ने ही विषय-वस्तु तथा शैली दोनों का रूप निर्धारित कर दिया था और हम देखते हैं कि आगामी दो सौ वर्षों का साहित्य इसी अनुबंध में बंध कर चलता है।

पर जहाँ भक्तिकालीन शृंगारी कविताएँ प्रभावोत्पादक सिद्ध होती हैं, वहीं आलोच्य युग में वीर गाथा कालीन काव्य-परंपरा के भी दर्शन होते हैं। किसी भी युग में पूर्ववर्ती युग की किसी प्रवृत्ति का उसी प्रकार पूर्णरूपेण लोप नहीं हो जाता है, जैसे किसी विगत सामाजिक या धार्मिक परंपरा का आने वाले युग में समूल अंत नहीं हो जाता। कारण स्पष्ट है। हर युग रूढ़िवादी भी हुआ करते हैं, जिनकी रुचि परंपरित विधि-विधानों तथा मान्यताओं के अधिक निकट रहती है। यद्यपि भूषण के में कुछ पहले हमें किसी उल्लेखनीय कवि का बोध नहीं है तथापि यह निश्चित है कि लोक-साहित्य में वीर गाथा- काव्य की परंपरा चलती रही होगी, जिसने भूषण, मान कवि, लाल कवि, श्रीधर (मुरलीधर), सूदन, हरिकेश, जोधराज, चन्द्रशेखर बाजपेयी आदि को वीर- काव्य-रचना की प्रेरणा दी होगी।

रीतिकाल की सामान्य प्रवृत्तियों

रीतिकाल की सामान्य प्रवृत्तियों का निरूपण हम निम्नलिखित चार आधारों पर कर सकते हैं-

(1) रीति प्रवृत्ति और उसकी निरूपण पद्धति । (2) शृंगार प्रवृत्ति और उसका स्वरूप। (3) जीवन दर्शन और उसका काव्य पर प्रभाव। (4) कला और उसका रूप आकार।

(1) रीति प्रवृत्ति और उसकी निरूपण पद्धति- इस युग में शास्त्रीय आधार पर रीतिकाव्य लिखने की पद्धति चल पड़ी थी, जिन्हें रीति ग्रन्थ या लक्षण ग्रन्थ कहा गया। ये रीति ग्रन्थ तीन प्रकार की निरूपण पद्धति पर आधारित थे-

(क) काव्य के सभी अंगों का निरूपण जैसे दास का ‘काव्य निर्णय’, कुलपति मिश्र का ‘रस रहस्य’, रसिक गोविन्द का ‘रसिक गोविन्दानंद घन’ चिन्तामणि का ‘काव्य-विवेक’ आदि ।

(ख) शृंगार रस और नायिका-भेद का निरूपण जैसे मतिराम का ‘रस-राज’, देव का ‘भावविलास’, दास का ‘रस-निर्णय, पद्माकर का ‘जगद्विनोद’ आदि ।

(ग) अलंकार-निरूपण जैसे जसवन्त सिंह का ‘भाषा-भूषण’, ‘पद्माकर का ‘द्याभरण’, मूरतिमिश्र का ‘अलंकार-माला, भूपति का ‘कंठाभूषण‘ आदि ।

इन रीति-ग्रन्थों की प्रेरणा या तो भानुदत्त की रस- मंजरी जैसे रस- शास्त्र थे या चन्द्रालोक और कुवलयानंद जैसे संक्षिप्त पद्धति पर लिखे अलंकार-शास्त्र । कहीं-कहीं प्रेम-क्रीड़ाओं के द्योतक काम शास्त्र भी आधार बने। जैसे रीतिग्रन्थ सफल काव्य शास्त्र नहीं कहे जा सकते और न ही इनके प्रणेता सफल आचार्य। इनमें गद्य के अभाव में न तो सिद्धान्त विवेचन है, न ही कोई मौलिकता और न ही किसी सिद्धान्त या वाद की प्रतिष्ठां संस्कृत ग्रन्थों की उद्धरणी मात्र से ये ग्रन्थ भ्रामक अनुवादों से पूर्ण हैं। रीतिकाल की इस स्थिति का उल्लेख करते हुए डॉ० नगेन्द्र सारांश रूप में कहते हैं कि इस युग में काव्य-मर्मज्ञ अनेक हुए। प्रकांड विद्वानों की भी कमी न थी। परन्तु एक तो युग की रुचि ही गम्भीर नहीं रह गई थी, लोग मीमांसा का नहीं रसिकता का आदर करते थे इसलिये उनकी दृष्टि संस्कृत के उत्तर- कालीन अधोगत साहित्य-शास्त्र से ऊपर नहीं जा पाती थी। दूसरे सबसे बड़ा अभाव गद्य का था जिसके कारण सूक्ष्म विश्लेषण संभव नहीं था। परिणाम यह हुआ कि इनका रीति-निरूपण वर्णनात्मक ही रह गया विवेचनात्मक नहीं हो पाया। “

इस प्रकार रीतिकाल में आकर आचार्य और कवि एक हो गये; और आचार्यत्व का रूप भी शिक्षा और प्रचार का हो गया, काव्य- अंगों के शास्त्रीय उल्लेख का हो गया न कि सैद्धान्तिक विवेचन का।

यद्यपि दो आचार्य कवि शास्त्रविद् और काव्य मर्मज्ञ थे किन्तु अपने विलासी आश्रय दाताओं की रुचि के अनुसार इन्होंने काव्य में रसिकता को प्रश्रय दिया और इसी कारण इनके द्वारा जितना काव्य-निरूपण हुआ वह तर्क- सिद्ध पद्धति पर न होकर रस सिद्ध पद्धति पर हुआ। इसी आधार पर डा० नगेन्द्र ने रीति कालीन कवियों को स्वभाव से रसविद् और प्रवृत्ति से शास्त्रविद् कहा है।

(2) शृंगार प्रवृत्ति और उसका स्वरूप- रीतिकालीन दूसरी प्रवृत्ति शृंगारिकता रही, जिसे डा० नगेन्द्र के अनुसार रीति काव्य के स्नायुओं में बहने वाली रक्त धारा कहना चाहिए। इस युग के काव्य को कृष्ण भक्ति की जैसी परम्परा, फारसी साहित्य की जैसी हुस्न परस्ती और इश्क-मिजाजी, संस्कृत और प्राकृत के शृंगारी मुक्तकों की जैसी परम्परा हाथ लगी थी और आश्रयदाताओं की जिस रसिकता और विलासिता का सामना करना पड़ा था, उस सबके कारण इस काव्य में न तो कहीं अप्राकृतिक गोपन का भाव है और न ही दमन की ग्रन्थियाँ । यह काव्य कुंठाओं से मुक्त, घुमड़न तथा मानसिक छलना से रहित, रूप पर रीझने को, नयन के प्यास की, शरीर सुख-साधन की उत्कट उमंग लिये हैं। इनका शृंगार प्रेम का आदर्श तथा रोमानी साहसिकता लिये नहीं अपितु इसमें विलास की रसिकता है न कि प्रेम की एक निष्ठा, स्थूल शारीरिकता है न कि आंतरिकता। “इन कवियों की सौंदर्य दृष्टि शरीर के अंगों तक ही अटकी है, मन के सूक्ष्म सौंदर्य तक कम ही पहुँच पाती है और आत्मा का सात्विक सौंदर्य तो उसकी परिधि से बाहर था ही।

रीतिकालीन कवि दरबारों के आश्रित थे। अतएव उनके शृंगार में दरबारी रसिकता और विलासिता होते हुए भी उसमें कहीं वेश्याविलास और हुस्न परस्ती की गन्ध नहीं। इनमें नागरिकता तो आई है पर स्वेच्छाचारिता नहीं। रीतिकालीन नायिकाएँ सदा गार्हस्थिक वातावरण और रंग में चित्रित की गई हैं। इन कवियों ने स्वकीया प्रेम की ही महत्ता दी है-‘पात्र मुख्य सिगार को ‘शुद्ध स्वकीया नारि।’ गणिका प्रेम को रसाभास माना है-

“काजी प्रीति कुचालि की बिना नेह रस-रीति,

मार-रंग मारू-मही बारू-की-सी भीति।”

रीतिकालीन शृंगार के गार्हस्थ्य रूप की चर्चा करते हुए डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है- “इतना होते हुए भी रीतिकाल के कवि ऐकांतिक शृंगारी नहीं हैं। उनकी रचना में गृहस्थी का भरपूर रस है । परन्तु गृहस्थी में भी नारी केवल एक टाइप है, व्यक्ति नहीं। भारतीय साहित्य में टाइप की प्रधानता रही है, पर रीतिकाल में वह चरमसीमा पर पहुंच गई है।”

रीतिकालीन नारी सामन्ती रसिक दृष्टि से उपभोग का उपकरण मात्र है न कि चेतन इकाई। डॉ० नागेन्द्र ने इसे ‘कामिनी छरी अनूप’ के वाग्विस्तार के सम्बन्ध में ठीक ही कहा है-

“नायिक भेद का विस्तार नारी के भोग्य रूपों का ही विस्तार है।”

इस प्रकार नारी को या तो विलास की सामग्री ही समझा गया या फिर ‘तीय छवि-ग्रहिणी’ तथा ‘देखते हरै विवेक को ‘चित्त हरै करि प्रीति’ के रूप में चित्रित किया गया। उसे समाज की गौरवशालिनी सत्ता तथा चेतन-शक्ति के रूप में समादृत नहीं किया गया।

डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि यहाँ नारी कोई व्यक्ति या समाज के संघटन की इकाई नहीं बल्कि विलास का एक उपकरण मात्र हैं, पुरुष के आकर्षण का एक केन्द्र भर है, उसका सामाजिक अस्तित्व मानो कुछ है ही नहीं। शृंगारी कवि का प्रधान आकर्षण नारी का मादक रूप ही है, इस साहित्य में चित्रित नारी अपनी महिमा से महीयसी नहीं बन पाई।’

रीतिकालीन कवियों ने न तो नारी को सामाजिक आदर दिया है, न नारीत्व की महिमा। नारी को मादक तथा रसिकता के लिए उत्तेजक बनाने के लिए कवियों ने उसका सहज, यथार्थ रूप प्रस्तुत नहीं किया जिसमें वह गोबर पाथती, खेत निराती तथा घर के काम-धंधों में उलझी दिखाई जा सके। उन्होंने नारी को गरीबी के वातावरण में भी चित्रित नहीं किया अन्यथा वह रईसी वैभव के लिए मादक कैसे बन पाती। अतएव रीतिकालीन नायिकायें विशाल प्रासादों में रहती हैं उनके सेज की चादरें चांदनी और दूध की उज्ज्वलता को लज्जित करती हैं, उनके पायदान में बहुमूल्य मखमल का उपयोग होता है, उनकी सेवा में नियुक्त दासियाँ जिन पानदानों, इत्रदानों, और फूलदानों का व्यवहार करती हैं उनमें सोने-चांदी की बहार रहती है। नायिकाओं के परिधान में कीमखाब, साटन और अतलस के वस्त्र प्रयुक्त होते हैं। उनकी साड़ियों की किनारी सुवर्णखचित होती है और चारु चुनरी चटकीले रंगों से लहरदार बनी रहती हैं अंगराय नवटन, पान, में दी, आंजन, काजल, सिंदूर, कुंकुम के साथ ही सीसफूल, कर्णफूल, तरौना, बेसर, नथ, हार, कंगन, पायल, बिछुआ आदि शोभा को सौगुनी बनाती हैं। गुलाब, बेला के गजरे, जूही और चमेली की भीनी-भीनी महक आदि से सदा मद बनी रहती हैं।

इस प्रकार रीतिकालीन नारी शोभा का भार है। अलंकारों का आडम्बर है, रईसी की धाक है, विलासिता की वैभवपूर्ण वस्तु, मादकता का मद है, रसिकता का आधार है, रूप की बरसात है, छवि की अनूप छड़ी है, फिर विवेक क्यों न हरे और फिर इसके साथ इसके पास अनियारे दीर्घ कानन-चारी नैन हैं, रूप ठग है, हंसी की फांस है, बाण की ‘बंक विलोकनि’ है, कटाक्ष है।’

नारी सौन्दर्य पर भी इन कवियों की दृष्टि जाना स्वाभाविक ही है। सौन्दर्य भी वह जो मादक हो, उत्तेजक हो, रसिकता को हवा दे सके, विलासिता को मद पिला सके। इसी कारण रीतिकालीन कवि शरीर की अलंकृत शोभा का ही अधिक वर्णन करते हैं, सौन्दर्य के नागरिक, परिमार्जित परन्तु कृत्रिम रूप को ही अभिव्यक्ति देते हैं। उनकी नारियाँ युवतियाँ हैं, अनुरागमयी हैं, प्रेम की नोंक-झोंक, रास का विलास जानती हैं। उनके कटाक्ष-कोर, आनन-ओप, दीपशिखा सी देह, जातरूप के रूप, शोभा के भार से ‘सूधे पांय’ न रख सकने वाली सुकुमारता का वर्णन किया गया है और कहीं-कहीं तो सौन्दर्य के पीछे ऐसे लठ लेकर पड़े हैं कि चिबुक, उसके गढ़े और रोमावली तो हैं ही, प्यारी के मुख के तिल और मस्से तक को नहीं छोड़ा और तो और चेचक के दाग को भी लेकर वर्णन किया है। रीतिकालीन इस श्रृंगारिकता को किसी ने मानसिक थकान से पिंड छुड़ाने का बहाना कहा है किसी ने रुग्ण मनोभाव । किसी ने इसे अश्लीलता की सीमा तक पहुँचा बताया है और किसी ने इसका मूलाधार रसिकता में बताकर इसमें तरलता और छटा ही अधिक पाई है, आत्मा की पुकार एवं तीव्रता कम, विलासिकता ही अधिक देखी है। साहसिक और रोमानी प्रेम का अभाव ही पाया है।’ इस पर शृंगारिकता को एक सामाजिक कवच भी दिया गया है। इस शृंगार के आश्रय भी, उस युग के धर्म और भक्ति के समान ही, श्री कृष्या और राधा हैं। कृष्ण नायक हैं, राधा नायिका और गोपियाँ सखी तथा दूती रूप। समस्त शृंगार राधा-गोविन्द सुमरिन के बहाने’ से रचा गया है। ‘शृंगार भावना को भक्ति का आवरण दिया गया है। राधारानी और गोपाल लाल घूम फिर कर सभी प्रकार की शृंगार चेष्टाओं के विषय बन जाते हैं। यह भक्ति भावना सामाजिक कवच का काम करती है।”

इस प्रकार नख-शिख की संकीर्ण गलियों और नायिका भेद के विविध रंगों में श्रृंगार के रसिक, मादक, आडम्बरपूर्ण रूप को यथासंभव अभिव्यक्ति देकर आश्रयदाताओं की विलास सामग्री के उपयुक्त इस काव्य को प्रस्तुत किया गया है।

(3) रीतिकालीन काव्य का जीवन दर्शन- रीतिकालीन कवियों का जीवन दर्शन अस्वस्थ और संकुचित है। जब राजाश्रय ही आजीविका हो, शृंगारी काव्य ही कर्म हो, रसिकता ही लक्ष्य हो, विलासिता ही साध्य हो और वाह-वाह ही पांडित्य हो तो जीवन दर्शन कैसा होगा। इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। अतः रीतिकाव्य का जीवन-दर्शन स्थूल और भौतिक कहा जा सकता है। पर भौतिकता भी वास्तविक जीवन की कठोरता से संघर्ष लेने वाली न होकर ह्रासोन्मुखी सामंतवादी रसिकता से परिबद्ध और सीमित है। जीवन रीतियों की दासता है न कि वास्तविकताओं के साथ संघर्ष लेने वाली साहस भरी उमंग।

रीतिकालीन कवि प्रेम को जैसा केन्द्र बिन्दु बनाकर चले हैं। उसका रूप बड़ा ही निकृष्ट और हीन है। यह प्रेम न होकर रीतिबद्ध सामंती रसिकता है।

“यह प्रेम आरम्भ से अंत तक महत्वाकांक्षा से शून्य, सामाजिक मंगल के मनोभाव से प्रायः अस्पृष्ट, पिंडनारी के आकर्षण से हततेज और स्थूल प्रेम-व्यंजना से परिलक्षित है।” इस प्रेम में प्रेम नहीं उसका मोहन है। “यह जीवन का एक विराम स्थल है जहाँ सभी प्रकार की दौड़-धूप से श्रांत होकर मानव नारी की मधुर अंचल छाया में बैठ अपने दुःखों और पराभावों को भूल जाता है।”

इस प्रकार रीतिकालीन काव्य का जीवन दर्शन एकांगी और संकुचित होकर भी युग की ह्रासोन्मुख प्रवृत्ति के अनुरूप एक मोहक, मधुर रमणीयता अवश्य लिए है, जो मन को विश्राम दे सकती है; रस का संचार कर सकती है।

निष्कर्ष स्वरूप हम कह सकते हैं कि रीतिकालीन जीवन दर्शन दर्शन न होकर एक दृष्टि मात्र है, एक प्रवृत्ति है जिसमें गहराई और गंभीरता की आशा व्यर्थ है। सामाजिक समस्याओं की अनभिज्ञता से दूर यह मनोरंजन तथा मनोविनोद को ही सब कुछ मानने वाली दृष्टि रीति-बद्धता और अलंकरण प्रियता की द्योतक बन कर रह गई है और जब-जब उसे अपनी यह संकुचित, अस्वस्थ दृष्टि खलती है तब वह उसे भक्ति का आवरण दे डालता है।

(4) रीतिकाल की कला और उसका रूप- रीतिकालीन काव्य कला अलंकृत है, उसमें चकाचौंध लाने, उसे शोभा के भार से लादने और उक्ति वैचित्र्य के द्वारा उसे अनूठा रूप देने का बड़ा निपुण प्रयोग किया गया हैं। कला को यह अलंकरण अलंकारों की चमत्कारी योजना से भी हुआ है। जिसमें यद्यपि उपमा, रूपक, अतिशयोक्ति आदि की प्रधानता है पर इसके साथ ही यमक, अनुप्रास, श्लेष आदि का खिलवाड़ भी कम नहीं। कुछ भी हो इसमें सन्देह नहीं कि रीतिकाल अलंकारों का समृद्ध कोष है। अलंकारों का अधिकांश रूप में यनज प्रयोग हुआ है न कि तुलसी आदि की भाँति से आयास ही आ गये हैं।

रीतिकाल की कला का अलंकरण भाषा के मधुर प्रयोग और कोमल शब्दों के चयन से भी हुआ है। भाषा में नागरिक मसृणता, एक खास नाजुक मिजाजी, प्रयत्नपूर्वक कर्कश कठोर वर्णों के प्रयोग से बचाव और काव्य भाषा के लिए उपयुक्त रससिक्तता मिलती है । इसके लिए इन कवियों ने भाषा में व्यवस्था लाने की अपेक्षा शब्दों के टकसाली सिक्के ढालने का प्रयास ही अधिक किया है, उन्हें सुडौल रूप देने का ही प्रयत्न अधिक किया है। भाषा और शैली के अलंकरण में कला को निखार देने वाले उपमानों के जो मोती और नग जड़े गये हैं वे परम्परागत और रूढ़ हैं। कहीं-कहीं तो यह रूढ़ि इतनी अधिक है कि उसे जाने बिना प्रसंग स्पष्ट ही नहीं होता, अर्थ का चमत्कार और उक्ति का अनूठापन सामने ही नहीं आता। ये उपमान बहुधा कम प्रतीक हैं, विलास के उपकरण हैं। इस प्रकार अलंकरण की यह सामग्री रूढ़ ही नहीं सीमित भी है ।

रीतिकालीन काव्य का रूप आकार दरबारी, आश्रय के कारण मुक्तक के पद्धति का है और सभी सभाओं के अनुकूल है। इसमें प्रबन्ध की रसाधारा नहीं, इसकी फुटियाँ हैं छीटें हैं। इसीलिये मुक्तक का ढांचा गतिबद्ध न होकर छन्द-बद्ध है। छन्दों में भी कवित्त, सवैया और दोहा ही प्रयुक्त हुए हैं।

इस प्रकार रीतिकालीन काव्य केवल विषय-वस्तु की दृष्टि से ही रीतिबद्ध नहीं, कला और रूप आकार की दृष्टि से भी रीति-बद्ध है। भक्ति-काल में भाषा, शैली, छन्द-विधान, रचना-विधान आदि की दृष्टि से जिस अनेकरूपता और मौलिकता का परिचय दिया गया, उसका रीतिकाल में सर्वथा अभाव रहा। रीतिकाल में एक ही भाषा ब्रज, एक ही रस शृंगार, एक ही रचना पद्धति मुक्तक और दोहा-कवित्त सवैया के बंधे रूप पर सब कवि पिष्टपेषण करहे रहे। इस काल के रीति-काव्य की सामान्य प्रवृत्ति केवल रीति- प्रन्थ या लक्षण-ग्रन्थ का निर्माण बता देने से ही लक्षित नहीं हो जाती, अपितु, जीवन, भाषा, छन्द, शैली, रस आदि सम्बन्धी पाई जाने वाली रीति-बद्धता भी है, जो इसे रीति काव्य बनाती है। अतएव बिहारी सतसई की समीक्षा भी इसी आधार पर होनी चाहिए, न कि केवल लक्षण समन्वित रीतिमन्थ रचना के आधार पर ।

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Anjali Yadav

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