प्रीतिकाल की सामान्य प्रवृत्तियां और बिहारी के काव्य की विशेषतायें
1. हिन्दी के श्रृंगारकालीन रीतिबद्ध काव्य संस्कृत के काव्यशास्त्र के आधार पर लक्षण देते हुए लिखे गए कुछ ग्रंथ तो संस्कृत रचनाओं के मूल अनुवाद हैं और कुछ छायानुवाद के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। इन ग्रन्थों में मौलिक उद्भावनाएँ नहीं के बराबर हैं।
2. रीतिबद्ध काव्यों में कवि ‘कवि- शिक्षक’ के पद पर आसीन, काव्य की विशेषताओं को समझाने और समझने का प्रयत्न करता है। दूसरे रूप में ये शास्त्र कवि भी कहे जा सकते हैं।
3. रीतिबद्ध काव्यों में लक्षणों से अधिक उदाहरणों को महत्ता प्राप्त हुई है। एक ओर तो इनके सृष्टाओं ने विशुद्ध लक्षण ग्रंथों की रचना की, दूसरी ओर सरस उदाहरण एकत्र कर श्रृंगार रसपूर्ण काव्य ग्रन्थ भी लिखे ।
4. रीतिबद्ध आचार्य कवियों में आचार्यत्व एवं कवित्व का अद्भुत समन्वय मिलता है। संस्कृत में आचार्यत्व और कवित्व दोनों पृथक-पृथक थे, कवि कर्म और आचार कर्म दोनों में भिन्नता थी; शृंगार-काल में यह भेद समाप्त हो गया।
5. रीतिबद्ध काव्यकारों ने अपने ग्रंथ की रचना पद्य में ही की है। कहीं-कहीं गद्य का भी पुट मिल जाता है। कुलपति मिश्र के ‘रस-रहस्य’ में बीच-बीच में गद्य की भी झाँकी मिल जाती है। इन ग्रन्थों की रचना पद्य में होने के कारण विवेचना स्वाभाविक नहीं हो पायी है।
6. रीतिबद्ध काव्यों में स्थल-स्थल पर श्रम साध्यता और यांत्रिकता का प्राचुर्य है। इस धारा के कवियों का मूल उद्देश्य पांडित्य प्रदर्शन और काव्य- कौशल प्रदर्शन था।
बिहारी पर रीति परम्परा का इतना गहरा प्रभाव था कि प्रेम की सहज व्यंजना करने वाले अकृत्रिम भावों को भी उन्होंने कहा और अतिशयोक्ति से आवृत्तकार कर दिया है। प्रेम का स्वाभाविक रूप ऊहात्मक शैली में सामने नहीं आने पाया है।
प्रतिनिधि कवि-बिहारी रीतिकालीन श्रृंगारी कवि हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में रीतिकालीन समस्त परम्पराओं का बड़ी सफलतापूर्वक निर्वाह किया है। डॉ० गुलाबराय ने लिखा है कि रीतिकाल के समय के कवियों में कला का प्राधान्य था । भाव कला के आश्रित हो गया था । कला भाव के प्रसार में सहायक न थी वरन् कला के उद्घाटन के लिए भावों का अस्तित्व था। उस समय के कवियों में प्रायः कवित्व और आचार्यत्व साथ-साथ चलता था। कुछ ऐसे भी कवि थे जिनमें आचार्यत्व स्वतन्त्र रूप तो न था वरन् उनका कवित्व आचार्यत्व की पृष्ठभूमि पर पोषित और पल्लवित हुआ था, बिहारी उसी प्रकार के कवि थे, उनमें काव्यांगों के लक्षण तो नहीं किन्तु शृंगार सम्बन्धी काव्य में सभी उपादान (संचारी, अनुभाव तथा हाव-भाव आदि) अलंकारों के सूत्र में गुंथे हुए मिल जाते हैं। यदि लक्षण लिखने को आचार्यत्व की कसौटी माना जाए तो बिहारी आचार्य नहीं थे किन्तु यदि शास्त्र ज्ञान को आचार्यत्व का निर्णायक माना जाए तो बिहारी के आचार्यत्व में किसी प्रकार की कमी न थी। कहने का भाव यह है कि रीतिबद्ध काव्य कवियों को शास्त्र कवियों की समता में सम्मान दिखाने का कार्य बिहारी ने अपनी सतसई द्वारा किया। रीतिकाल में लक्षण ग्रन्थ रचने की परम्परा को छोड़कर स्वतन्त्र मुक्तक द्वारा शास्त्र बोध कराने का मार्ग बिहारी ने ही उन्मुक्त किया। बिहारी हिन्दी के अमर कवि हैं। हिन्दी में उनका वही स्थान है जो अंग्रेजी साहित्य में ‘बायरन’ और संस्कृत साहित्य में ‘अमरुक’ का है। अतः संक्षेप में बिहारी की विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
1. बिहारी की शास्त्रीय दृष्टि- बिहारी ने लक्षण नहीं लिखे हैं परन्तु इन प्रन्थों की पृष्ठभूमि में सुन्दर उदाहरण दिए हैं लक्षणों के अनुरूप लक्ष्य प्रस्तुत करना ही सतसई का ध्येय था। जिस काल में बिहारी ने सतसई लिखी वह संस्कृत और हिन्दी काव्य साहित्य में लक्षण ग्रन्थों के उत्कर्ष का समय था।
2. गागर में सागर भरने का प्रयास- बिहारी ने अपने दोहों में गागर में सागर भरने की उक्ति को चरितार्थ किया है जैसा कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने लिखा है कि यह बात साहित्य क्षेत्र में इस तथ्य की स्पष्ट घोषणा करती है कि किसी कवि का यश उनकी रचनाओं के परिणाम के हिसाब से नहीं होता गुण के हिसाब से होता है गुणक कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में चरम उत्कर्ष को पहुंचा इसमें कोई सन्देह नहीं है।
3. समास गुण की प्रधानता – बिहारी में समास-गुण तो विशेष रूप से है ही किन्तु ये कल्पना, भाव, सुकुमारता और शब्द चयन चातुर्य में भी किसी से कम न थे ।
4. बिहारी के काव्य में शृंगार की प्रधानता- बिहारी ने शृंगार रस के सभी अंगों को अपनाया है और अपने दोहों में प्रायः सभी प्रमुख अलंकारों का समावेश किया है। रीतिकाल शृंगार रस के मुक्तक प्रन्थों में बिहारी सतसई से अधिक प्रचार और किसी ग्रन्थ का नहीं हुआ। शृंगार रस के अतिरिक्त अन्य भावों को भी बिहारी ने अपनाया है। यों तो संचारियों तथा सात्विक भावों की दृष्टि से प्रायः सभी के उदाहरण मिल सकते हैं, किन्तु यहाँ व प्रमुख भावों की ओर ही संकेत करना पर्याप्त होगा।
5. भक्ति और नीति के दोहे – बिहारी ने भक्ति और नीति के सुन्दर दोहे लिखे हैं।
6. विलासमय समास- बिहारी ने अपने समय के विलासमय समाज का अच्छा वर्णन किया है। प्रायः रीतिकार के सभी कवि अपने-अपने आश्रयदाताओं के शीश महलों, उच्च अट्टालिकाओं, झाड़-फानूसों कुसुमित कुंजों, विहार-भूमियों, संकेत स्थलों, सुरम्य बागों एवं तड़ागों, शीतल फुब्बारों, सुरमित उपवनों, क्रीड़ा, पर्वतों आदि के वर्णन में ही लीन दिखाई देते हैं। इस प्रकार बिहारी ने तत्कालीन जीवन में व्याप्त विलासिता का जीता-जागता चित्र अंकित किया है।
सांसारिकता- डॉ० द्वारिकाप्रसाद सक्सेना ने लिखा है- भक्तिकालीन कवि यद्यपि राजनीतिक दासता के शिकंजे में कसे हुए थे, तथापि उनके हृदय में आध्यात्मिकता की आभा सदैव देदीप्यमान रहती थी। उनके हृदय पर राजाओं के ऐश्वर्य एवं धन ने ऐसा प्रभाव स्थापित कर दिया कि वे ‘यथा राजा तथा प्रजा’ की कहावत को चरितार्थ करते हुए रात-दिन सांसारिक भोग-विलास, ऐशो-आराम, काम-क्रीड़ा, नारी-सौन्दर्य, कामी जनों के गूढ़ातिगूढ़ रहस्य नारियों के हाव-भावों आदि के चित्रण में ही लीन रहने लगे और अपने काव्य द्वारा पर्याप्त धनोपार्जन भी करने लगे। इस दिशा में बिहारी ने सर्वाधिक ख्याति प्राप्त की।
राज्याश्रितता – रीतिकाल में कवि न तो निर्जन प्रदेश, तीर्थ स्थान, गिरि कन्दरा या देव मन्दिर में रहना पसन्द करते थे और न किसी प्राकृत-जन के गुण-गान करने में। उनकी माता सरस्वती सिर धुनकर पश्चाताप करती थीं, अपितु सामन्तकालीन वातावरण से पालन-पोषण होने के कारण राजा महाराजाओं के सुसज्जित महलों में रहना अच्छा समझते थे तथा किसी अलौकिक सत्ता की अपेक्षा लौकिक सत्ता अथवा प्राकृत-जन का गुणगान करना अपना परम सौभाग्य समझते थे, क्योंकि इन्हीं प्राकृत जनों अथवा राजा-महाराजाओं से उन्हें धन और यश प्राप्ति होती थी, इनके दरबारों में आकर ही इनकी ‘प्रतिभा स्फुटित’ होती थी और इनके समीप रहने पर ही इनकी वाणी का शृंगार होता था। इसका कारण यह था कि बिहारी के ‘नहि पराग नहिं मधु’ वाले दोहे ने कामासक्त राजा जयसिंह पर ऐसा जादू डाल दिया था कि वे काम-क्रीड़ा को छोड़कर राज-काज देखने के लिए विवश कर दिए गए थे। यही बिहारी की कविता की अद्भुत शक्ति थी, जिसने बिहारी को अद्भुत यश एवं अपार धन राशि प्रदान की थी।
कामुकता- रीतिकालीन कवियों के काव्य में नायक-नायिकाओं की काम-क्रीड़ाओं का ऐसा चित्रण मिलता है जिसमें कामुकता तथा कामातुरता का ही प्राधान्य सर्वत्र दिखाई देता है।
नायिका भेद- रीतिकालीन कवियों, नायिकाओं के सामाजिक व्यवहार, नायक के साथ संयोग एवं वियोग, नायक के प्रति प्रेम, स्वभाव, यौवन, गुण आदि के आधार कितने ही भेद-प्रभेद किए हैं, जिसके परिणामस्वरूप नायिकाओं के तीन सौ चौरासी तक भेद किए हैं। इस प्रकार बिहारी ने पूर्वानुरागिनी, अन्य संभोग दुखिता, स्वयं दूतिका, अज्ञात यौवन मुग्धा, नवोढ़ा, प्रौढ़ा, ज्ञात यौवन, विरहोत्कण्ठिता, स्वाधीनपति-वासक सज्जा आदि विभिन्न प्रकार की नायिकाओं के बड़े ही मार्मिक एवं मनोरंजक चित्र अंकित किए हैं।
नखशिख- रीतिकालीन कवियों की यह प्रवृत्ति भी प्रमुख रूप से रही है कि वे रूप-सौन्दर्य का चित्र अंकित करने के लिए उसके नाखून से लेकर शिखा तक अंग-प्रत्यंग की छवि का चित्र प्रस्तुत किया करते हैं। बिहारी का यह नखशिख वर्णन शृंगारिकता के साथ-साथ सौन्दर्य चेतना की उदबुद्ध करने वाला है और इसमें विलक्षणता का प्राधान्य है ।
भाषा, भाव, शैली एवं प्रभाव सभी दृष्टिकोणों से उनका काव्य अनुपमेय है तभी तो आचार्य पद्मसिंह शर्मा ने उनके विषय में लिखा है कि ब्रजभाषा के साहित्य में बिहारी सतसई का दर्जा बहुत ऊंचा है। अनूठे भाव और उत्कृष्ट काव्य गुणों की यह खान है
व्यंग्य और ध्वनि का आकार है। संस्कृत कवियों में कवि कुल गुरु कालिदास जिस प्रकार शृंगार रस वर्णन, प्रसाद गुण, उपमा अलंकार आदि में कारण सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं उसी प्रकार हिन्दी कवियों में महाकवि बिहारी लाल जी का आसन सबसे ऊँचा है।
उपर्युक्त सभी विशेषताओं के कारण हम कह सकते हैं कि बिहारी काव्य में वे सभी विशेषताएँ मिल जाती हैं जो रीतिकाल की विशेषताएँ मानी जाती हैं अर्थात् बिहारी रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि हैं।
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