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रीतिमुक्त कवियों की सामान्य विशेषताएँ एंव घनानन्द का स्थान

रीतिमुक्त कवियों की सामान्य विशेषताएँ एंव घनानन्द का स्थान
रीतिमुक्त कवियों की सामान्य विशेषताएँ एंव घनानन्द का स्थान

रीतिमुक्त कवियों की विशेषताएँ बताते हुए रीतिमुक्त कवि के रूप में घनानन्द का स्थान निर्धारित कीजिए।

रीतिमुक्त कवियों की सामान्य विशेषताएँ

रीतिमुक्त कवियों की प्रमुख सामान्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

1. व्यक्तिपरक रचना- इन कवियों ने व्यक्तिपरक अनुभूति का सच्चा प्रकाशन किया है। इनकी नायिकाएँ हाँड-मांस वाली प्रेमिकाएँ हैं। घनानन्द की सुजानता सर्वविदित है। बोधा, आलम तथा ठाकुर ने भी अपने प्रेम सम्बन्धों को स्वीकार किया है। इनका प्रेम एकनिष्ठ है। इनकी अभिव्यक्ति वैयक्तिकता के सस्पर्श के कारण पीड़ा से पूर्ण एवं टीस भरी बन गई हैं-

हम कौन सों कहें अपनी।

दिलदार तो कोई दिखातो नहीं।। (बोधा)

2. भक्ति-भावना – इनकी भक्ति भावना वस्तुतः इनके व्यक्तिगत प्रेम का उदात्तीकरण है। इनके अन्तर की सहजता ही न्यूनाकिरूप में भक्तिमयी हो गई है।

धनानन्द निम्बार्क सम्प्रदाय में दीक्षित थे और सखी भाव के भक्त थे। श्रीकृष्ण के प्रति उन्होंने परकीया के रूप में हृदय है के प्रेमभाव हृदय का निवेदन किया है।

3. भावप्रवणता- रीति काव्य के कवियों की कविता या तो बिहारी की भाँति अतिशय बौद्धिक है अथवा मतिराम की भाँति अतिशय सहज है। परन्तु इसी काल के रीतिमुक्त कवियों की कविता भावपूर्ण कविता है। उसमें भाव प्रवणता की प्रधानता है। इनके काव्य में रीति कवियों के समान अलंकारों की भरमार एवं कृत्रिमता नहीं है। घनानन्द ने रीझ को पटरानी और बुद्धि को दासी कहा है।

4. इन कवियों के श्रृंगार वर्णन में वर्ण्य- विषयों, व्यक्तियों की मुद्राओं के वर्णन कम है, उन मुद्राओं तथा अनुभावों के द्वारा हृदय पर पड़ने वाले प्रभाव का अधिक वर्णन है।

5. तीव्र आवेग की व्यंजना- इन कवियों ने हृदय के भावों के प्रसार के लिए अधिक भावभूमि की खोज की है तथा कलापक्ष की उपेक्षा की है। शास्त्र में गिनाई गई सामग्री के भरोसे रहकर काव्य-रचना करना ये कवि काव्य के साथ खिलवाड़ करना समझते थे-

डेल सो बनाय आय मेलत सभा के बीच।

लोगन कवित्त कीबो केल करि जानो है। (ठाकुर)

ये कवि हृदय की अनुभूति को पूरी सचाई के साथ व्यक्त करने वाले कवि थे ।

6. प्रेम के प्रति सैद्धान्तिक विषमता- स्वच्छन्द कवियों ने प्रेम की साधना को जीवन का मूलमन्त्र बताया है। इनका प्रेम अधिकतर विषम है। सम प्रेम (तुल्यानुराग) वस्तुतः जीवन का आनन्द है तथा विषम प्रेम जीवन की कठोर साधना है। ये कवि प्रायः विषम प्रेम की साधना में ही लीन रहे, यद्यपि इन्होंने कई स्थलों पर अपने प्रिय अर्थात् प्रेम पात्र को अनेक मधुर तिक्त उपालम्भ भी दिए हैं। घनानन्द में प्रेम के प्रति आस्था अविचल है। वे प्रेम की अग्नि में आजीवन जलने को प्रस्तुत हैं-

चाहो अनचाहो जान प्यारे पै अनन्द घन;

प्रीति-रीत विषम स रोम-रोम बसी है। (घनानन्द)

7. वियोग व्यथा की मार्मिकता- रीति कवियों का वियोग वर्णन कल्पना की उपज एवं ऊहात्मक है। रीतिमुक्त कवियों के वियोग वर्णन के पीछे व्यक्तिगत अनुभूति है। मादक संयोग की पृष्ठभूमि में निकट भविष्य में होने वाले वियोग की मार्मिक व्यंजना घनानन्द की बहुत बड़ी विशेषता है।

इन कवियों ने किसी नायिका के बहाने से अपना विरह-वर्णन न करके स्वयं अपने वियोग-भावना का प्रकाशन किया है।

8. प्रेम का बन्धनहीन स्वरूप- सूरदास आदि कृष्ण भक्त कवियों द्वारा निरूपित कृष्ण और गोपियों का स्वच्छन्द प्रेम निरूपण कवियों के आकर्षण एवं प्रेरणा का विषय बना। इन्होंने उसी व उसी प्रकार के प्रेम का सहज स्वाभाविक वर्णन किया। इनका प्रेम-पंथ सीधा, सच्चा और निश्चित है। उसमें रीति कवियों की कृत्रिमता एवं उच्छृंखलना का अभाव है। रीतिमुक्त कवियों का प्रेम एन्द्रिय अनुभव की वस्तु नहीं बल्कि सूक्ष्म-साधना का विषय है-

यह सूधी सनेह को मारग है।

जहाँ नेकु सयानप वॉक नहीं।

जहाँ साँचे चलेतजि आपनपौ ।

झिझक कपटी जे निसांक नहीं। (घनानन्द)

डॉ० बच्चन सिंह ने ठीक ही लिखा है कि ‘इन कवियों का प्रेम’ न तो रीतिबद्ध कवियों की भांति शरीरी है और न प्लेटोनिक प्रेम की तरह अशरीरी और नायकी। इनकी स्थिति बहुत कुछ मध्यवर्तिनी है।”

9. लौकिक पक्ष की कविता- इनकी अनुभूति सामान्य या लौकिक है। उस पर किसी प्रकार का आवरण नहीं है। इन कवियों ने न तो भक्त कवियों की आलौकिकता का दावा किया और न प्रेम के विषय में सूफी कवियों की भांति किसी उपलब्धि का प्रदर्शन ही किया है। इन्होंने राधा-कृष्ण के नाम पर बहुत कम लिखा है; जो कुछ लिखा है, स्वानुभूति के रूप में लिखा है। जनता के सम्पर्क में रहने के कारण इन कवियों ने होली, गनगौर आदि त्यौहारों के वर्णन में भी अपना मन लगाया है। ठाकुर कवि ने बुंदेलखण्ड में मनाये जाने वाले कई त्यौहारों चटकीला वर्णन किया है।

10. आत्म-निवेदन की शैली- रीतिकाल के कवियों की भाँति प्रणय-निवेदन के लिए इन कवियों ने दूती अथवा सखी का सहारा नहीं लिया है। इन्होंने भक्त कवियों की भाँति अपने प्रेम का निवेदन स्वयं ही किया है। इन कवियों में इतना नैतिक बल था कि इन्होंने समाज की चिन्ता किए बिना अपने प्रेम पात्रों को सीधे सम्बोधित किया है। घनानन्द द्वारा सुजान को सम्बोधित करना सर्वविदित है।

11. प्रांजल भाषा- रीतिमुक्त कवियों का काव्य लौकिक पक्ष प्रधान है। इस कारण इनकी भाषा सहन और व्यावहारिक है। इनकी भाषा प्रायः परिमार्जित, व्यवस्थित एवं प्रांजल है। पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के शब्दों में, “इन्होंने अलंकृत, शैली का व्यवहार बराबर किया है, परन्तु पाण्डित्य प्रदर्शन के लिए कभी नहीं, हृदय की स्थिति का सच्चा आभास देने के लिए।” बनानन्द तो भाषा प्रवीण हैं हीं । ठाकुन ने लोकोक्तियों का जैसा विनियोग किया है, वैसा हिन्दी के काव्य में अन्यत्र दुर्लभ है।

12. युग की सजग चेतना- स्वच्छन्द काव्यधारा में हमें रीतिकाल की सजग साहित्य चेतना का परिचय प्राप्त होता है। ठाकुर ने अपने एक छन्द में उस काल की काव्य कला पर व्यंग्य किया है। इन कवियों ने ब्रजभाषा को अतिशय भावाभिव्यक्ति की शक्ति प्रदान की।

रीतिमुक्त कवियों में घनानन्द का स्थान

घनानन्द की सर्वाधिक अनुभूति वियोगाग्नि में प्रकट हुई है। इस कारण इनकी कविता में सर्वाधिक आवेग है। उनकी वेदना आकाश से पाताल तक व्याप्त दिखायी देती है। उनके अन्तर की हूक ही वस्तुतः उनकी कविता बन गई।

घनानन्द का प्रेम सर्वथा निश्छल एवं सरल है। घनानन्द ने सुजान को जिस ढंग से सम्बोधित किया है, उसमें उनकी व्यक्तिगत अनुभूति मुखर हो उठी है। वैयक्तिकता के संस्पर्श ने घनानन्द की कविता को बहुत ही मार्मिक बना दिया है-

आनन्द निधान प्रान प्रीतम सुजान जौ की।

सुधि सब भाँतिन औ बेसुध करत है।

घनानन्द का वियोग वर्णन पूर्णतया बेजोड़ है। वियोग संयोग में भी उनका पीछा नहीं छोड़ता है। संयोग की पृष्ठभूमि में आसन्न वियोग की जैसी मार्मिक व्यंजना घनानन्द में मिलती है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है।

प्रेम के प्रति सैद्धान्तिक विषमता की दृष्टि से घनानन्द अद्वितीय हैं। वे प्रेम की अग्नि में आजन्म जलने को प्रस्तुत उनकी अविचल आस्था सर्वथा स्पृहणीय है। भाषा के क्षेत्र में घनानन्द की कोई समानता नहीं कर सकता है। समस्त समालोचक एक स्वर से उनकी भाषा प्रवणता को स्वीकार करते हैं। बृजनाथ ने अपनी प्रशस्ति में उन्हें भाषा प्रवीन कहा है-

नेहि महा ब्रज भाषा प्रवीन औ सुन्दरतानि के भेद कौ जानै।

भाषा-प्रचीन सुछंद की सहजता एवं प्रभावशीलता के कई कारण हैं-

1. जनपदीय या स्थानीय शब्दों का सफल योगदान तथा लक्षणा का सफल निर्वाह ।

2. विरोधाभास – घनानन्द की कविता में विरोधाभास का बहुत ही सुन्दर प्रयोग हुआ है। इस कारण ऐसे स्थलों पर शब्दों और भाषा दोनों के स्वरूप निखर उठे हैं।

3. मुहावरों का प्रयोग- मुहावरे तो इनकी कविता में भरे पड़े हैं। इस कारण इनकी भाषा अत्यधिक सजीव बन गई है। भाषा की गति को भाव के अनुकूल मोड़ने में घनानन्द सर्वाधिक समर्थ दिखाई देते हैं। वे अवधी भाषा और व्रज भाषा दोनों के प्रयोग में सर्वाधिक प्रवीण दिखायी देते हैं। वाक्य ध्वनि, पद ध्वनि के अतिरिक्त घनानन्द ने पदांश ध्वनि से भी कई जगह काम लिया है। घनानन्द की कविता में भावपक्ष एवं कलापक्ष का पूर्ण विकास पाया जाता है। भावों को नवीन मार्गों पर ले जाने में वे पूर्ण सफल हुए हैं। रीतिमुक्त कवियों में घनानन्द शीर्षस्थान के अधिकारी हैं।

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Anjali Yadav

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