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रीतिमुक्त काव्य धारा पर प्रकाश डालिए ।
यद्यपि 17वीं शताब्दी के साहित्य में रीतिबद्ध काव्यप्रणयन की प्रवृत्ति उत्तरोत्तर बलवती होती गई, किन्तु इसमें समानान्तर काल में रीतिमुक्त काव्यों की भी रचना हुई। इस काल में कुछ ऐसे भी कवि हुए, जिन्होंने रीति के बन्धन से मुक्त होकर साहित्य-सृष्टि की। इन्होंने केशव, मतिराम और चिन्तामणि के समान न तो कोई लक्षण ग्रंथ लिखा और न ही बिहारी की भांति कोई रीतिबद्ध रचना लिखी। इन रीतिमुक्त कवियों की संख्या पचास से भी अधिक है। इनमें से कुछ कवि ऐसे हैं जिन्होंने लक्षणबद्ध रचना नहीं की और वे अपने स्वच्छंद प्रेम की पीर जनता को सुनाते रहे। इस वर्ग में घनानन्द, आलम, बोधा और ठाकुर आदि आते हैं। दूसरा वर्ग उन कवियों का है जिन्होंने प्रबन्ध-काव्य लिखे, जैसे लाल और सूदन आदि। तीसरे वर्ग में दानलीला और मानलीला आदि पर वर्णनात्मक प्रबन्ध काव्य लिखने वाले आते हैं। चौथे वर्ग में नीति-संबंधी पद्य और सूक्तियां लिखने वाले आते हैं जैसे वृन्द, दीनदयाल गिरि और गिरधरदास आदि। पांचवें वर्ग में ब्रह्मज्ञान, वैराग्य और भक्ति पर लिखने वाले कवि आते हैं। छठें वर्ग में वीर रस के फुटकर पद्य लिखने वाले आते हैं।
उपर्युक्त वर्गों के सभी कवि प्रस्तुत काल की रीति-मुक्त धारा के अंतर्गत आते हैं, क्योंकि न तो उन्होंने कोई लक्षण-प्रथ लिखा और न लक्षण-ग्रंथों से प्रभावित होकर काव्य रचना की। इनके काव्यों में भावपक्ष की प्रधानता है। इनकी शैली अलंकारों के अनावश्यक बोझ से भी आक्रान्त नहीं हुई है। भाषा के क्षेत्र में भी ये लोग अधिक सफाई से उतरे हैं। इनके काव्यों में सामाजिकता की घोर अवहेलना भी नहीं है और न ही रुग्ण श्रृंगारिकता है। इनका शृंगार-चित्रण अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ, संयत और स्वच्छ है। इनके काव्य के मूल में स्वान्तः सुखाय की प्रेरणा काम कर रही है, अतः उसमें लोक-संग्रह की परिपुष्ट भावनायें हैं। रीति मुक्त धारा में शृंगारी कवियों का शृंगार चित्रण एक भिन्न पद्धति पर चला है, अतः उनके काव्य की सामान्य प्रवृत्तियों और विशेषताओं का अध्ययन कर लेना आवश्यक है।
रीति मुक्त शृंगारी काव्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ
(1) स्वच्छंद, संयम प्रेम का चित्रण- इन कवियों का प्रेम-संबंधी दृष्टिकोण अत्यंत व्यापक और उदार है। इन्हें रीतिबद्ध कवियों के समान बंधी बंधाई परिपाटी पर प्रेम का चित्रण करना अभीष्ट नहीं है। रीतिबद्ध कवियों का प्रेम चित्रण साहित्य-शास्त्र द्वारा चर्चित रूढ़ियों, परम्पराओं और कवि समयों के अनुसार होता रहा, उसमें उन्मुक्त रूप से हृदय का स्पन्दन नहीं आ सका। इन रीतिबद्ध कवियों का प्रेम रसिकता की कोटि से आगे नहीं जा सका, परन्तु रीतिमुक्त कवियों का प्रेम स्वच्छंद और संयत है। उसे कहीं भी रीति के बंधे-बंधाये साँचों में ढालने का प्रयास नहीं किया गया है। उसमें भावप्रवण हृदय की सच्ची अनुभूति है। कहीं भी कृत्रिमता नहीं और न ही कहीं कोई छिपाव और दुराव है तथा काइयाँ और बाँकापन है। कवि घनानन्द के शब्दों में-
अति सूधे सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
यहाँ साँचे चलें तजि आपनपौ झिझकै कपटी जे निसाँक नहीं ।
निःसन्देह रीतिबद्ध कवियों- बिहारी, मतिराम, देव और पद्माकर में कहीं-कहीं प्रेम की अत्यंत मार्मिक उक्तियाँ मिल जाती हैं पर वे अधिक नहीं। रीति का मोह पग-पग पर आकर अड़ जाता है और उनकी कल्पना स्वच्छंद बिहार नहीं कर पाती। बिहारी आदि कवियों की कल्पना की स्वतंत्र उड़ान में स्वामि सुखाय की भावना का व्याघात भी उपस्थित हो जाता है। चमत्कार प्रदर्शन और कवि दंगलों में प्रतियोगिता की प्रवृत्ति के कारण रीतिबद्ध कवियों में दूर की कौड़ी पकड़ने का भद्दापन आ गया है, किन्तु रीतिमुक्त कवियों का प्रेम इन सभी विकृतियों से मुक्त है। इनके प्रेम में शुद्ध हृदय का योग है, बुद्धि की कतरब्योंत नहीं है। यह प्रेम उनकी आत्मा की पुकार है। रीतिबद्ध कवियों में शृंगार में दूती और सखियों द्वारा प्रेमी और प्रेमिका के मिलन का आयोजन किया गया है, परन्तु यहाँ अंतरंग और बहिरंग सखियों का विधान नहीं है। और यदि कहीं इनके काव्य में दूती और सखी का प्रयोग हुआ भी है तो वहाँ यह तटस्थ रूप से प्रेमी की शब्दावली ही दुहराती है, अपनी बुद्धि की कतरब्योंत नहीं दिखलाती। रीतिबद्ध कवियों में रीतिशास्त्र की गढ़ी-गढ़ाई नायिकाओं के प्रतिमान हैं, उसमें सौतों की असूया, मान के विविध रूप, हावों की भावभंगी, खण्डिता की व्यंगपूर्ण उक्तियाँ, विपरीत और सुरतान्त आदि के असंस्कृत चित्र हैं, पर ये कवि प्रेम के स्वच्छंद गायक हैं। इनके यहाँ रीति का विशेष आदर नहीं है। यदि कहीं इनमें रीति का निर्वाह हुआ भी है तो परोक्ष रूप से। इनका प्रेम एकनिष्ठ है, इसमें लोकापवाद की तनिक भी चिन्ता नहीं। इन कवियों पर कवि कालिदास की यह उक्ति पूर्णतः चरितार्थ होती है-‘न कामवृत्तिवत्चनीयमीक्षते । इनके पास प्रेम की सच्ची अनुभूतियाँ हैं और इनका इन्होंने उदात्त रूप में वर्णन किया है।
(2) शृंगार के संयोग और वियोग पक्ष- वैसे तो इन कवियों ने शृंगार के उभय पक्षों का वर्णन किया है; किन्तु इनकी मनोवृत्ति वियोग-पक्ष में अधिक रमी है। कारण स्पष्ट है, संयोग में बाहरी जगत् की प्रधानता होती है और उस समय की अन्तरवृत्ति भी बहर्मुख होती है। ऐसी स्थिति में प्रेम की सघनता और तरलता अभिव्यक्त नहीं हो पाती। कवि की दृष्टि मुद्राओं और हावभावों तक ही पहुंच पाती है। वियोग-पक्ष में कवि की दृष्टि अन्तर्मुखी होती है। वह अन्तस्तल के प्रेम की अतल गहराइयों तक बैठने के लिए आतुर रहता है। वियोग की अमिट प्यास उसके भाव-पेशल हृदय को सर्वदा द्रवित रखती है, अतः उसमें क्रियाशीलता बनी रहती है। यह एक तथ्य है कि विरह अनुभूति का स्वरूप जितना तीव्र होता है वह मिलन-पक्ष में नहीं। इन रीतिमुक्त कवियों की विरह विषयक धारणा अत्यंत विलक्षण है। यहां संयोग में भी वियोग पीछा नहीं छोड़ता है। घनानंद के शब्दों में।
यह कैसी संयोग न जानि परै जु वियोग न क्योहूँ बिछोहत है।
वस्तुतः इन कवियों की प्रेम तृषा सदा बढ़ती ही रहती है, चाहे तो मिलनयामिनी हो और चाहे विरह की अमावस्या । इन कवियों में प्रेम की अथाह पीर है और उस पीर के पहचानने के लिए हृदय आपेक्षित हैं। घनानन्द के शब्दों में-
समुझे कविता घनआनन्द की
हिय आँखिन प्रेम की पीर तकी ।।
आचार्य विश्वनाथ प्रसाद ने इन कवियों की प्रेम-पीर को सूफी कवियों से प्रभावित माना है। उनका यह विश्वास है कि इनके काव्यों में वर्णित प्रेम-पीर फारसी काव्यधारा का प्रभाव है जो कि सूफियों के माध्यम से आया। उनके ही शब्दों में, “इन स्वच्छंद कवियों ने फारसी काव्यगत वेदना की विवृत्ति के साथ-साथ इस प्रेम-पीर का स्वागत किया। इनकी रचना में वियोग के आधिक्य का कारण यही है। लौकिक पक्ष में इनका विरह-निवेदन फारसी काव्य की वेदना की विवृत्ति से प्रभावित है और अलौकिक पक्ष में सूफियों की प्रेम-पीर से।” आगे चलकर वे लिखते हैं-“कृष्ण भक्ति के अंतर्गत विरह की पुकार का अवकाश पाकर ये कवि कृष्ण और गोपियों की विरह-दशा की ओर स्वाभावतः उन्मुख हुए। इसी से सूफियों की भाँति रहस्यादर्शता के व्याख्यान की व्यापक विवृत्ति इनमें नहीं रह गयी। स्वच्छंद कवियों में सूफियों के संपर्क और प्रभाव के कारण कहीं-कहीं रहस्य की झलक भर मिलती है।” स्मरण रखना होगा कि सभी जगह इनका प्रेम सूफियों से प्रभावित नहीं कहा जा सकता है। कहीं-कहीं पर यह प्रभाव अवश्य है। बोधा का इश्कनामा और घनानन्द की इश्कलता में फारसी पद्धति के इश्क का वर्णन किया गया है। इन कवियों में प्रेम की अनन्यता है। दूसरे लोग तो कविता बनाने हैं, परन्तु इन्हें कविता आकर बना जाती है। रीतिमुक्त धारा के प्रायः सारे कवि प्रेम के उपासक हैं, उन्हें प्रेम-विहीन जाग निःसार प्रतीत होता है। इनकी स्पष्ट घोषणा है-
आनन्द अनुभव होत नहिं विना प्रेम जग जान।
के वह विषयानन्द के ब्रह्मानन्द बखान ।।
इन्होंने कृष्ण के सगुण सलौने रूप को अपने काव्य विषय बनाया है, अतः इन्होंने राधा और कृष्ण के संयोग-पक्ष के प्रेम की भी बड़ी मनोहर और मार्मिक झांकियाँ प्रस्तुत की हैं। रीतिबद्ध कवियों के सामन इन्होंने कहीं भी मिलन-पक्ष के असंस्कृत और अपरिष्कृत चित्र नहीं उतारे। इनका प्रेम वासना-पंकिल न होकर स्वच्छ एवं उदात्त है। इनके प्रेम में न तो कहीं छिपाव और दुराव है और न कहीं चमत्कार प्रदर्शन । संक्षेप में कहा जा सकता है कि इनका प्रेम बहिर्मुखी न होकर अन्तर्मुखी अधिक है, अतः उसमें हृदय की मार्मिक सूक्ष्म अनुभूतियां और सौन्दर्य की महीन से महीन बारीकियाँ हैं। वस्तुतः ये प्रेम हृदय और सौन्दर्य के सच्चे पारखी हैं।
(3) भक्ति का स्वरूप- इन कवियों ने राधा और कृष्ण की लीलाओं का उन्मुक्त गान किया है, किन्तु इतने भर से इन्हें कृष्ण-भक्त कवि सूरदास आदि की कोटि में नहीं रख जा सकता है। वैसे तो बिहारी मतिराम, देव और पद्माकर आदि ने राधा-कृष्ण के नाम का उल्लेख किया है, पर नामोल्लेख मात्र से उन्हें भक्त कवि कहना भूल है। वस्तुतः रीतिकाल की इस धारा के सभी शृंगारी कवियों को भक्त कवि नहीं कहा जा सके। इन पर भी लगभग किसी रीतिकालीन कवि का यह कथन-
आगे के कवि रीझिहैं तो कविताई,
न तु राधिका कन्हाई सुमरिन को बहानो है।
चरितार्थ होता है। रहीम, रसखान, आलम, सेनापति, शेख और घनानन्द को अशुद्ध रूप से भक्त कवि नहीं कहा जा सकता है। इनका प्रमुख उद्देश्य शृंगार-वर्णन था। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद इस संबंध में लिखते हैं- “इनकी रचना के प्रायः तीन खंड हैं। प्रथम खंड में इनकी रुचि रीतिबद्ध रचना की ओर दिखाई देती है, जिसमें इनकी ऐसी रचनाएँ आती हैं जिनमें इन्होंने काव्यक्षेत्र में अपनी वाणी की परख या जाँच की है। दूसरे खंड में इन्होंने रीतिबद्ध रचना का परित्याग कर दिया है और स्वच्छंद रूप से प्रेम के पवित्र क्षेत्र में पदार्पण किया है। तीसरे खंड में इनकी रचनाएँ भक्तिपरक हो गयी हैं।” आगे चलकर वे लिखते हैं कि यदि भक्त कहे बिना संतोष न मिले तो इन्हें उन्मुक्त भक्त कवि नहीं कहा जा सकता है। मेरे विचार में सभी रीतिमुक्त शृंगारी कवियों को उन्मुक्त भक्ति भी नहीं कहा जा सकता है। हां, अधिक से अधिक रसखान और घनानन्द को उक्त कोटि में रखा जा सकता है। इनकी भक्ति में साम्प्रदायिकता और संकीर्णता की भावनाएँ नहीं हैं। उन्होंने अनेक देवी-देवताओं के प्रति उदार आस्था प्रदर्शित की है।
(4) प्रकृति चित्रण – वैसे तो हिन्दी साहित्य के प्रथम तीन कालों में प्रकृति चित्रण प्रायः उपेक्षित ही रहा है, किन्तु रीतिकाल के कवि ने तीन- श्रृंखलाओं में आबद्ध होने के कारण इस ओर से और भी दृष्टि खींच ली। रीतिकाल में प्रकृति कहीं सजीव रूप में चित्रित नहीं हुई है। प्रकृति का इन कवियों ने उद्दीपन रूप में ग्रहण किया है। सेनापति की रचना में प्रकृति कहीं-कहीं उद्दीपन के बंधन से मुक्त अवश्य मिल जाती है। गुमान मिश्र का कृष्णचन्द्रिका नामक प्रबन्ध-काव्य इस दृष्टि से विशेष ध्यान देने योग्य है। इसमें कवि ने संस्कृत कवियों के समान प्रकृति के खुले दर्शन कराये हैं। गुमान के भाई खुमान का अप्रकाशित कृष्णायन भी इस दृष्टि से ध्यान देने योग्य है। द्विजदेव प्रकृति-चित्रण में स्वच्छंद दृष्टि लेकर बाहर निकले हैं। ‘विरह वारीश’ में बोधा ने प्रकृति-वर्णन कुछ तो शास्त्रबद्ध और कुछ स्वच्छंद वृत्तिबद्ध रखा है।
(5) तत्कालीन सांस्कृतिक झाँकी- स्वच्छंद दृष्टि के कारण इस धारा के कवि देश के सांस्कृतिक बिम्ब को प्रस्तुत करने में समर्थ हो चुके हैं। रीतिबद्ध कवि बसन्त के वर्णन के अन्तर्गत, होली के त्यौहार, गुलाब की गारद और केसर के कीच के वर्णन से आगे नहीं बढ़ सके। रीतिमुक्त कवि स्वच्छंद दृष्टि के कारण देश के आनन्दोल्लास में भी खूब शरीक हुए। ठाकुर ने अपनी रचनाओं में बुंदेलखंड के सांस्कृतिक जीवन का वैभवमय चित्र खड़ा किया है। उन्होंने अखतीत, गननौर, बटसावित्री और होली आदि के बड़े ही भावुक चित्र प्रस्तुत किये हैं। नरोत्तम दास की रचनाओं में उस समय का दीन-हीन भारत मुखरित हो उठा है। गन्नौर का वर्णन वैसे तो पद्माकर ने भी किया है, परन्तु उन्होंने ठाकुर जैसी अभिरुचि नहीं दिखाई। रीतिबद्ध काव्य में चित्रित मनोविनोदों में कलात्मक-सुभगता का स्थान विलासिता ने ले लिया। उत्तर रीति-काव्य में विनोदों के नाम पर विलास के उपकरणों की जम कर चर्चा हुई है। लगता है जैसे कि उत्तर रीति कवि-कवि होने के साथ-साथ कामशास्त्री के दायित्व को भी निभा रहा हो। उसने प्रत्येक ऋतु के अनुकूल विलास के चमत्कारी नुस्खों और कामोद्दीपन अमोघ मसालों की लम्बी-लम्बी सूचियाँ प्रस्तुत कर दी हैं। रीतिकाव्य में चित्रित ऐश्वर्य तथा विलास के उपकरणों पर विदेशी प्रभाव की कल्पना सर्वथा निराधार है। रीति कवि ने सामूहिक क्रीड़ाओं-झूला तथा होली आदि में विलासिता के स्वर को सदा उच्च बनाये रखा है। इसने आंखमिचौनी और चोर-मिहीचनी का जमकर वर्णन किया है। क्योंकि इसमें स्पर्शजन्य कामवासनात्मक सुख की उपलब्धि अधिकाधिक संभव थी। रीति-काव्य में निरूपित मनोविनोदों में प्रणय जीवन के बहुत संकुचित पक्ष केवल ऐन्द्रिय भोग को ही प्रस्तुत किया गया है।
(6) काव्य-पद्धति- इस धारा के कवियों ने आरंभ में रीतिबद्ध कवियों के समान रीति नियमों को ग्रहण किया, परन्तु शनैः शनैः उसका परित्याग कर दिया। इन कवियों ने रीतिकाल के प्रचलित कवि समयों और रूढ़ियों को अपनाया। रीतिबद्ध रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त सभी कवियों ने नेत्र व्यापार संबंधी उक्तियाँ समान रूप से पाई जाती हैं। रीतिबद्ध कवियों के समान रसखान, आलम, ठाकुर और घनानन्द में खंडिता की उक्तियाँ मिलती हैं। ऐसा करने का कारण स्पष्ट है, जो कवि दरबारी थे उन्हें उर्दू और फारसी के काव्य रचना से होड़ लेनी थी। उन्होंने उर्दू कविता की माशूक की बराबरी में खंडिता को पेश किया। स्वच्छंद कवियों ने इस पद्धति का ग्रहण इसलिए किया कि प्रेम-वैषम्य के लिए उन्हें भी भारतीय काव्यपद्धति में यही बात अनुकूल दिखाई पड़ी। इस प्रसंग में यह बात स्मरणीय है कि इन स्वच्छंद कवियों ने खंडिता के द्योतक चिन्हों के ब्यौरे प्रस्तुत न करके उसके हृदय को दिखलाने का प्रयत्न किया है। बाद में तो इस प्रकार की उक्तियों से इन कवियों का मन हट गया। सुरतांत या विपरीत रति के कुत्सित चित्र प्रायः इन कवियों में नहीं मिलते हैं । जहाँ मिलते भी हैं वहाँ उनकी प्रारंभिक रचना के रूप में जबकि वे इस मैदान में हाथ आजमाने की सोच रहे थे। बोधा में कहीं-कहीं पर कुछ बाजारू रंग-ढंग मिलता है। घनानन्द और ठाकुर आदि पर भी फारसी काव्य पद्धति की रंगत देखी जा सकती है। इन कवियों की रचनाओं के तीन खंडों का उल्लेख हम पहले कर चुके हैं जो इनकी काव्य-पद्धति के पर्याप्त परिचायक हैं।
(7) मुक्तक शैली – वैसे तो समूचे रीतिकाल में मुक्तक शैली की प्रधानता रही क्योंकि यह शैली उस समय की वातावरण के अनुकूल पड़ती थी। इस धारा के कवियों में भी इस शैली का बोलबाला रहा, किन्तु फुटकर रूप से प्रबन्ध रचनाएं भी होती रहीं। आलम ने ‘माधवानल कामकन्दकला’, ‘सुदामा चरित’ और ‘श्याम सनेही’ नामक तीन प्रबन्ध-काव्य प्रस्तुत किये। बोधा ने भी ‘माधवानल कामकन्दकला’ या ‘विरह वारीश’ नामक प्रबन्ध-काव्य प्रस्तुत किया। इस प्रकार और भी कई प्रबन्ध रचनायें इस काल में हुई।
(8) शब्दालंकार- इस धारा में अधिकाशंतः कवित्त, सवैया और दोहा जैसे छंदों का प्रयोग किया गया। यद्यपि बीच-बीच में छप्पय, बरवै, हरिपद आदि छंदों का प्रयोग किया गया है, किन्तु सभी रीति कवियों की वृत्ति अधिकतर दोहा, सवैया और कवित्त में रमी है। रीतिमुक्त धारा के कवियों ने अलंकारों का प्रयोग अपने प्रकृत रूप में किया है। इनके अलंकार कहीं भी पांडित्य-प्रदर्शन के लिए नहीं आए बल्कि इनके द्वारा हृदय की सूक्ष्म वृत्तियों के द्योतन के लिए सहायता मिली है। इनके यहाँ अलंकार साधन रूप में आये हैं न कि साध्य के रूप में। इस संबंध में घनानन्द की निम्न पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
नेह भीजी बातें रसना पै उर आँच लागे ।
हाय साथ लाग्यौ, पै समीतन न कहुँ लहै ।
इन पंक्तियों में विषमतामूलक विरोधाभास अलंकार की सुन्दर छटा है।
(9) ब्रजभाषा- इन कवियों ने साफ-सुथरी ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। रीतिबद्ध कवियों में बिहारी, मतिराम और पद्माकर को छोड़कर दूसरे कवियों में भाषा की सफाई के दर्शन नहीं होते। भूषण और देव आदि ने तो स्वेच्छानुसार शब्दों का अंग-भंग किया है। इनकी भाषा में प्रादेशिकता का पुट बना रहा। परन्तु रीतिमुक्त कवियों में न तो भाषा के अंग-भंग की प्रवृत्ति है और न ही प्रादेशिक पुट है। रसखान और घनानन्द ने तो ब्रजभाषा का ऐसा प्रयोग किया है, जिसे ब्रजभाषा का साहित्यिक परिनिष्ठित रूप स्वीकार किया जा सकता है।
इनकी भाषा में उक्ति-वैचित्र्य, लाक्षणिकता, लोकोक्तियों और मुहावरों का भी सुन्दर प्रयोग हुआ है। घनानन्द की भाषा की लाक्षणिकता विशेष हृदयग्राही है। ठाकुर ने लोकोक्तियों का अत्यंत सुन्दर प्रयोग किया है।
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