ललित कला और काव्यकला का समन्वय अथवा हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग
भक्ति काल का साहित्य अपने पूर्ववर्ती तथा परवर्ती कालों के साहित्य से निश्चित रूप से उत्तम है। हिन्दी साहित्य का आदिकाल और रीतिकाल तो इसकी प्रतिद्वन्द्विता में बिल्कुल नहीं ठहर सकते। हाँ, आधुनिक काल का साहित्य अपनी व्यापकता और विविधता की दृष्टि से कुछ अंशों में भक्तिकाल से आगे निकल जाता है। परन्तु अनुभूति की गहनता और भावप्रवणता के क्षेत्र में वह भी हिन्दी के भक्ति की समकक्षता में नहीं आ सकता है। आचार्य द्विवेदी के शब्दों में, “समूचे भारतीय इतिहास में अपने ढंग का अकेला साहित्य है। इसी का नाम भक्ति साहित्य है। यह एक नई दुनिया है।” यह साहित्य एक महती साधना और मोल्लास का देश है। जहाँ जीवन के सभी विषाद, नैराश्य और कुंठाएँ धुल जाती हैं। भारतीय जनता भक्ति साहित्य के श्रवण से उस युग में आशान्वित होकर सान्त्वना प्राप्त करती रही है, आज भी उसे तृप्ति मिल रही है। भविष्य में भी यही साहित्य उसके जीवन का सम्बल बना रहेगा। भक्ति काव्य जहाँ उच्चतम धर्म की व्याख्या करता है वहाँ उसमें उच्च कोटि के काव्य के भी दर्शन होते हैं। इसकी आत्मा भक्ति है, उसका जीवन स्रोत रस है, उसका शरीर मानवी है। रस की दृष्टि से भी यह काव्य श्रेष्ठ है। यह साहित्य एक साथ हृदय, मन और आत्मा की भूख की तृप्त करता है। यह काव्य एक साथ लोक तथा परलोक का स्पर्श करता है। यह साहित्य परम भक्ति का साहित्य है, इसमें आडम्बरविहीन एक मुक्तिपूरक सरल जीवन की सरल झांकी है। डॉ० श्यामसुन्दरदास के शब्दों में, “जिस युग में कबीर, जायसी, तुलसी, सूर जैसे रससिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्य वाणी उनके अन्तःकरणों से निकल कर देश के कोने-कोने में फैली थी उसे साहित्य के इतिहास में सामान्यतः भक्ति युग कहते हैं। निश्चित ही वह हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग था।” आगे चलकर वे लिखते हैं-“हिन्दी काव्य में से यदि वैष्णव कवियों के काव्य को निकाल दिया जाये तो जो बचेगा वह इतना हलका होगा कि हम उस पर किसी प्रकार का गर्व न कर सकेंगे। लगभग 300 वर्ष की इस हृदय और मन साधना के बल पर ही हिन्दी अपना सिर अन्य प्रान्तीय साहित्यों के ऊपर उठाये हुए है। तुलसीदास, सूरदास, नन्ददास, मीरा, रसखान, हितहरिवंश, कबीर इनमें से किसी पर भी संसार का कोई साहित्य गर्व कर सकता हैं। हमारे पास ये सब हैं। ये वैष्णव कवि हिन्दी भारती के वण्ठमाल हैं।” यह साहित्य एकदम अनुपम और विलक्षण है। यह साहित्य कविता सम्बन्धी दृष्टिकोण, काव्य सौष्ठव, भावपक्ष और कलापक्ष, संगीत, भारतीय संस्कृति और सभ्यता, भिन्न-भिन्न काव्य रूपों, लोकमंगल, मनोरंजन और भाषा सभी दृष्टियों से सर्वोत्तम बन पड़ा है।
काव्य सम्बन्धी दृष्टिकोण- भक्ति काव्य के साहित्यकार का कविता सम्बन्धी दृष्टिकोण अत्यंत उदात्त है। उसने अपनी वाणी का उपयोग प्राकृत जन-गुणगान में नहीं किया। इनका काव्य आदिकाल और रीतिकाल के कवि के समान राज्याश्रय में पल्लवित एवं पुष्पित नहीं हुआ बल्कि आत्म-प्रेरणा का फल है। अतः यह स्वामिनः सुखाय न होकर स्वान्तःसुखाय अथवा सर्वान्तः सुखाय सिद्ध हुआ। भक्तिकाल के कलाकार को न तो सीकरी से कोई सरोकार था और न ही किसी नरेश की फरमाइश की परवाह। इसका साहित्य निश्छल आत्माभिव्यक्ति है, जिसमें सत्य, उल्लास, आनन्द और युग निर्माणकारीणी प्रेरणा है।
भावपक्ष और कलापक्ष – भक्ति काव्य में मर्त्य और अमर्त्य लोक का एक सुखद संयोग है। उसमें भावपक्ष और कलापक्ष परस्पर इतने घुलमिल गये हैं कि इन्हें पृथक् करना सहज व्यापार नहीं है। भक्ति काव्य का अनुभूति पक्ष और अभिव्यक्ति पक्ष सन्तुलित शक्ति और परस्पर पोषक है। कविता से तुलसी की शोभा नहीं बढ़ी प्रत्युत तुलसी के द्वारा कविता महिमा संपन्न हुई है। सूर का काव्य भक्ति कविता और संगीत सुन्दर त्रिवेणी है। कबीर, जायसी, मीरा, रसखान, हितहरिवंश, नन्ददास और नानक की कलाकृतियों पर हिन्दी साहित्य विश्व साहित्य के सम्मुख गर्व कर सकता है। भक्ति का काव्य विश्वजनीन एवं शाश्वत काव्य है। रीतिकाल का साहित्य भावपक्ष की अपेक्षा शिथिल और कलापक्ष की अपेक्षा अधिक सबल है। रीतिकाल में अलंकरण तथा प्रदर्शन की प्रवृत्तियों का प्राधान्य है। अतः प्रायः उसमें आत्मा की सहज स्फूर्ति और प्राणों के स्पन्दन का अभाव है। सीमित परिधि में नायिका भेद की रूढियों तथा आलंकारिक चमत्कार का प्रदर्शन ही रीति कवि का उद्देश्य बन गया था। उसमें यह व्यापकता नहीं जो भक्ति काव्य में उपलब्ध होती है। इसमें कविता के बहाने राधा-कान्ह का स्मरण होता रहा और साथ-साथ शास्त्र कर्म के निर्वाह की भी लालसा बनी रही। परिणामतः कला के सहज उद्रेक से रीति काव्य शून्य ही रहा। अस्तु । अपवाद तो सर्वत्र मौजूद होते ही हैं। आदिकाल की प्रायः रचनायें संदिग्ध और अप्रामाणिक हैं। ऐसी स्थिति में उनके भावपक्ष और कलापक्ष के विषय में निश्चयात्मक रूप से कुछ कहना कठिन है। किन्तु एक बात तो निश्चित है कि आदिकाल का साहित्य प्रामाणिक होने की दशा में भी भक्ति काव्य की प्रतिद्वन्द्विता में खड़ा नहीं हो सकता ।
भारतीय संस्कृति – भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति और सभ्यता, आचार और विचार सभी कुछ भक्ति काव्य के सुदृढ एवं सुन्दर कलेश्वर में सुरक्षित हैं। जैसे राष्ट्रीय महासभा कांग्रेस की स्वतंत्रता प्राप्ति के निर्मित किए आन्दोलन का सही इतिहास जानने के लिए मुंशी प्रेमचन्द के साहित्य का अध्ययन आवश्यक है, उसी प्रकार मध्यकालीन भारतीय संस्कृति के सम्यक अवबोध के लिए भक्ति काव्य का अवलोकन अनिवार्य है। इसमें सगुण-निर्गुण भक्ति-योग, दार्शनिकता-आध्यात्मिकता और आदर्श जीवन के भव्य चित्र सन्निहित हैं। तुलसी के रामचरित मानस का उत्तरी भारत में वही स्थान हैं जो यूरोप में बाइबिल का । आधुनिक भारतीय धर्म और संस्कृति तुलसी निर्मित है। तुलसी का मानस ‘नाना पुराण निगमागम’ का सार है। उन्होंने भक्ति ज्ञान और कर्म की समन्वयात्मक त्रिवेणी से मुमूर्त राष्ट्र के शरीर में अमर प्राणों का संचार किया। भारत के सम्बन्ध में कहा जाता है कि इनके किसान भी दूसरे देशों के नेताओं से अधिक सुसंस्कृत हैं। यदि यह सत्य है तो इसका समूचा श्रेय प्रातः स्मरणीय तुलसी को ही है। भक्ति काव्य में ऐसी धार्मिक भावनाओं का समावेश है जिनका मुसलमानी धर्म से कोई विरोध नहीं बल्कि उसमें भारतीय संस्कृति के मूल तत्व सन्निहित हैं। मेरे विचार में भक्ति काल का समस्त साहित्य समन्वय की विराट चेष्टा है। आदिकाल के साहित्य में युग-पुरुषों का चित्रण इतना अतिरंजनापूर्ण है कि वे इतिहास के व्यक्ति : ‘इकर कोरे काव्यगत पात्र रह गये हैं। रीतिकाल के कवि ने कविता के व्याज से राधाकृष्ण का स्मरण किया किन्तु राधाकृष्ण साधारण नायिका और नायक से ऊपर नहीं उठ सके। उसने राधा और कृष्ण के नाम पर मानसिक फफोले फोड़े जिससे अजस्र वा ना की धारा बही। उसने अपनी सारी शक्ति नायिका के कच और कुच के महीने से महीन चित्र उतारने में लगा दी। “तुलसी के राम और सीता तो अलौकिक और आदर्श व्यक्ति हैं ही सूर, नन्ददास आदि के कृष्ण तथा राधा भी समय रूप में रीतिकालीन राधा-कृष्ण के समान असंयत नहीं हैं। वे ‘पतति पावन’ बहुत अधिक हैं और लीला-विलासी बहुत कम।” कुल मिलाकर भक्तिकालीन साहित्य तत्कालीन जनता का उन्नायक, प्रेरक एवं उद्धती है। तथा भारतीय संस्कृति और आदर्श का सशक्त रूपदेष्टा है। वह राम, श्याम सुन्दर, गिरधर गोपाल, अलख निरंजन और एक ओंकार का मारक है जो आज भी हिन्दूजनजीवन के लिए प्रातःस्मरणीय है।””
ललित कलाओं का उन्नयन- भक्ति काव्य में न केवल काव्य-कला की अपितु संगीत, नृत्य, चित्र, मूर्ति आदि कलाओं की भी उन्नति हुयी। सगुण भक्ति धारा से अधिकांश कवि संगीत के भी अच्छे जानकार थे। काव्य में संगीतात्मकता के सन्निवेश के लिए जिस आत्म-विश्वास तीव्रानुभूति, सहज स्फूर्ति और अन्तःप्रेरणा की आवश्यकता होती है, भक्त कवियों में वह पर्याप्त मात्रा में थी। वृन्दावन संगीत और काव्य दोनों का केन्द्र था। अष्टछाप के प्रायः सभी कवि अच्छे संगीतज्ञ थे। विशेष रूप से गोविन्द स्वामी। अकबरी दरबार के प्रसिद्ध गायक तानसेन कृष्ण भक्त कवि हरिदास के ही प्रिय शिष्य थे। श्रीनाथ जी के मन्दिर में प्रतिदिन कीर्तन के आयोजन होते थे जिनमें विभिन्न राग-रागिनियों के आधार पर स्वर-ताल-लय-बद्ध संगीत की गूंज सुनाई पड़ती थी । अष्टछाप के ही सूरदास और परमानन्द दास भी संगीत के उत्कृष्ट आचार्य और गायक थे। राधावल्लभ सम्प्रदाय के प्रसिद्ध भक्त हित हरिवंश- श्रेष्ठ गायक थे। हरिराम व्यास ध्रुपद शैली के प्रमुख प्रचारक थे। उस समय ग्वालियर भी संगीत का प्रमुख केन्द्र बन चुका था।
कृष्ण भक्त कवि अपने उपास्य की प्रेममयी लीलाओं का आनन्द विभोर होकर अभिनय करते थे, रास लीला के माध्यम से नृत्यकला की विविध झाकियाँ प्रस्तुत करते थे। मीराबाई अपने प्रभु के समक्ष नृत्य किया करती थीं। तुलसीदास ने मानस के आधार पर रामलीला का प्रचार किया था। इस प्रकार रामलीला और रासलीला के माध्यम से जिस लोक-धर्मी नाट्य परम्परा का विकास हुआ, उसने भारतीय सांस्कृतिक जीवन को बहुत गहराई तक प्रभावित किया। कत्थक और गुजरात के गरबा नृत्य में सगुण भक्ति काव्य का प्रभाव देखा जा सकता है। इन भक्त कवियों ने भारतीय जीवन की आध्यात्मिक चेतना को दिशा निर्देश दिया ही, लोक जीवन में नूतन स्फूर्ति का भी संचार किया। विदेशी आक्रमणकारियों से संत्रस्त और धार्मिक अत्याचारों से पीड़ित जीवन से निराश भारतीयों के लिए इनका काव्य बहुत बड़ा सम्बल बना वस्तुतः भक्तों की वाणी में निराशा और पलायन का स्वर नहीं हैं, अपितु वह हमें विषम परिस्थितियों से भी जूझते हुए मंगलमय पथ के खोज की प्रेरणा देता है और सदाचार की प्रतिष्ठा की।
काव्य रूप- काव्य रूपों की विविधता की दृष्टि से भी भक्तिकाल काफी समृद्ध है। इसमें प्रबन्ध काव्य, मुक्तक काव्य, सूक्ति-काव्य, संगीत काव्य, गेय काव्य, नाटक कथाकाव्य, जीवन चरित्र, गद्य काव्य और उपदेश काव्य सभी कुछ उपलब्ध होता है। काव्य रूपों की विविधता की दृष्टि से आधुनिक काल निःसंदेह भक्तिकाल से उत्कृष्ट है, पर जहाँ तक आदि काल और रीतिकाल का प्रश्न है, वे भक्ति काव्य के सम्मुख इस दिशा में नगण्य हैं।
भाषा – अवधी और ब्रजभाषा दोनों ही भक्ति काव्य में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंची हुई दृष्टिगोचर होती हैं। एक ओर तुलसी के द्वारा अवधी का खूब परिमार्जन और परिष्कार हुआ तो दूसरी ओर ब्रजभाषा सूर और नन्ददास आदि कृष्ण-भक्त कवियों के द्वारा सुव्यवस्थित और सुसंस्कृत हुई । उसकी पाचन शक्ति और व्यापकता में अपूर्व उन्नति हुई। यह ठीक है कि भक्ति काव्य में बृजभाषा के अपेक्षित व्याकरण का समस्त रूप तैयार न हो सका, किन्तु रीतिकाल में प्रयुक्त ब्रजभाषा की अपेक्षा उसका रूप साधु था। रीतिकाल में प्रयुक्त ब्रजभाषा के साथ खिलवाड़ हुआ और शब्दों की कलाबाजी के कारण उसका रूप विकृत हो गया। आदिकाल की भाषा संक्रमण काल की भाषा है।
लोकरक्षण एवं लोकरंजन- निर्गुणवादी कबीर तथा जायसी ने अपने-अपने माध्यम से हिन्दू मुस्लिम, धार्मिक एवं सांस्कृतिक एकता के लिए प्रयत्न किया। तुलसी के राम में शील, शक्ति और सौन्दर्य का सुखद समन्वय है। सूर के कृष्ण में सुन्दरता की प्रधानता है। तुलसी ने जहां मृतप्रायः हिन्दू राष्ट्र की धमनियों में नव निर्माण के नवीन रक्त का संचार किया वहीं सूर ने जीवन में सौन्दर्य पक्ष का उद्घाटन करके जीवन के प्रति आसक्ति और आस्था को प्रतिष्ठित किया। भक्ति काव्य जहाँ एक ओर परलोक की ओर झाँकता है वहाँ दूसरी ओर इस लोक को भी पैनी दृष्टि से देखता है। भक्ति काव्य एक साथ हृदय, मन और आस्था की बुभुक्षा को शान्त करता है। हृदय और मन के लिए उच्च कोटि का काव्य सौन्दर्य और धार्मिकता अपेक्षित है और आत्मा की तृप्ति के लिए आध्यात्मिकता। ये सभी वस्तुएँ भक्ति काव्य में हैं। सचमुच भक्ति काव्य मर्त्य और अमर्त्य का एक अनूठा सोहाग है।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि विचारों की उत्तमता, भावनाओं और अनुभूतियों की प्रकृष्टता, काव्य सम्बन्धी उद्देश्य और दृष्टिकोण की उदारता, कलापक्ष और भावपक्ष की उच्चता, भावनाओं की मधुरता, संगीत की आस्वादनीयता, काव्यात्मक रूपों की शैलियों तथा भाषाओं की विविधता, सहज रसनीयता और भारतीय संस्कृति की भास्वरता आदि की दृष्टि से भक्तिकालीन साहित्य अतुलनीय है। ऐसा वरिष्ठ साहित्य किसी देश को बड़े सौभाग्य से ही प्राप्त हुआ करता है। भक्ति साहित्य के पीछे एक बलवती साधना है, अतएव उसका साध्य उच्च अभिनन्दनीय तथा परम रमणीय है। किन्तु भक्ति साहित्य की कतिपय परिसीमाएं भी हैं। उसने जीवन के आध्यात्मिक पक्ष को इतना अधिक महत्व दे दिया कि उसका भौतिक पक्ष उपेक्षणीय रह गया। इसके अतिरिक्त इसमें गद्य काव्य के नाना रूपों- उपन्यास, नाटक, कहानी, निबन्ध, आलोचना और एकांकी आदि का सर्वथा अभाव है। अतः इसमें साहित्य के नाना रूपों की विविधता और व्यापकता नहीं आ सकी। कविता के क्षेत्र में निःसंदेह भक्तिकाल हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग है किन्तु गद्य और पद्य दोनों की उच्चता, गहनता और व्यापकता की सामूहिक दृष्टि से आधुनिक काल भी कम प्रकृष्ट नहीं है।
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