“‘विनय पत्रिका’ के भावपक्ष तथा कलापक्ष का युक्तियुक्त विवेचन कीजिये ।
तुलसीकृत ‘विनयपत्रिका’ भक्ति का अनूठा ग्रंथ होते हुए भी काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से प्रौढ़ रचना है। ‘विनयपत्रिका” के काव्यत्व को प्रमुख विशेषता यह है कि उनमें काव्य, भक्ति तथा संगीत का अदभुत समन्वय है। ‘विनय पत्रिका’ भक्त के हृदय के आत्मोद्वार हैं। इस ग्रन्थ के पद विराट, उदात्त तथा महानु भावों का पुंज है।
काव्य-सौन्दर्य के दो प्रमुख तत्व है-भाव-पक्ष तथा कला-पक्ष। भाव-पक्ष तथा कला-पक्ष की समृद्धि अथवा सुगढ़ता के भाषा अधिकार पर आश्रित होती है। महाकवि तुलसीदास का भाषा पर विशेष अधिकार था। तुलसी की किसी भी कृति क उठा लीजिए – चाहे बज हो या अवधी। भाषा पर अचूक अधिकार होने के कारण ही आचार्य शुक्ल ने लिखा है- “भाषा जैग अधिकार गोस्वामी जी का था, वैसा और किसी हिन्दी कवि का नहीं। पहली बात तो यह ध्यान देने की है कि ‘अव और ‘बज’ काव्य-भाषा को दोनों शाखाओं पर उनका समान और पूर्ण अधिकार था। रामचरितमानस को उन्होंने ‘अवधी’ में लिखा है जिसमें पूरबी और पछाँही (अवधी) दोनों का मेल है। कवितावली, विनयपत्रिका और गीतावली तीनों की भाषा है। कवितावली बज को चलती भाषा का एक सुन्दर नमूना है। पार्वतीमंगल, जानकीमंगल और रामलला नहछू ये तीनों पूर्वी अवधी में हैं। भाषा पर ऐसा विस्तृत अधिकार और किस कवि का था ? न सूर अवधी लिख सकते थे न जायसी ब्रज।’
भावपक्ष तथा कलापक्ष की दृष्टि से ‘विनयपत्रतका’ अत्यधिक समृद्ध रचना है। मूलतः जो कवि अधिक भावुक होता है। उसके काव्य का भावपक्ष अत्यन्त स्निग्ध तथा सहज सौन्दर्य से मंडित होता है। मूलतः भावपक्ष तथा कलापक्ष में विरोध-सा है। जिस कवि का कलापक्ष जितना सुगढ़ अथवा प्रौढ़ होता है उसका भावपक्ष उतना ही निर्बल होता है। इस सम्बन्ध में आचार्य केशवदास का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। केवल कविता के भावपक्ष के साथ काव्य-पद्धति का ईमानदारी से निर्वाह न कर सके। यही कारण है कि ‘कठिनकाव्य का प्रेत’ नामक संज्ञा से प्रतिष्ठित हुए। महाकवि तुलसीदास, सुरदास अथवा नन्ददास के विषय में ऐसी बात संगत नहीं लगती। ये कवि जन्म-जात काव्य प्रतिभा के पुंज थे। दूसरे इन कवियों का सामान्य व्यावहारिक ज्ञान भी इतना विस्तृत एवं मंजा हुआ था कि कविता के भावपक्ष तथा कलापक्ष की बराबर रक्षा कर सके। ‘विनयपत्रिका’ के भावपक्ष तथा कलापक्ष का मूल्यांकन इस प्रकरा है-
भावपक्ष- भावपक्ष का सीधा सम्बन्ध कवि हृदय पक्ष से है। हृदय पक्ष से अनुभूतियों का प्रसव होता है। अनुभूति जब वृद्धि के खराद पर चढ़ कर अभिव्यक्ति के रूप में सामने आती है तो उसमें विशेष चमत्कार अथवा कलात्मकता होती है। काव्यात्मक सौन्दर्य की बाह्य-सज्जा अथवा चमत्कृति जो कुछ भी पाठक अनुभूत कर पाता है वह कलापक्ष होता है और जो उसमें हृदय को छू लेने वाली रसज्ञता होती है वह भावपक्ष होता है। भावपक्ष के अन्तर्गत मूलतः इस व्यंजना अथवा सहृदयता को महत्व दिया जाता है।
‘विनयपत्रिका’ के सारे पद आत्मनिवेदात्मक शैली में भक्ति भावना से लिखे गये हैं। इन पदों में जहाँ-जहाँ कवि ने लौकिक जीवन तथा सांसारिक विवशताओं का चित्रण किया है वहाँ वैराग्य की प्रधानता हो गई है। तुलसी ने यत्र-तत्र सांसारिक मायाजालों से प्रस्त जीव को भक्ति भावना के माध्यम से मुक्ति प्राप्त करने का सन्देश दिया है। मूलतः समूचा काव्य ‘शान्तरस’ का अनूठा संग्रह बन गया है किन्तु शान्तरस की निष्पत्ति में कवि की जो शुद्ध आत्माभिव्यक्ति है वह भक्ति भावना से ओत-प्रोत है। भक्त जब इन पदों का पाठ अथवा अध्ययन करता है तब उसके मन में वैराग्य तो उत्पन्न होता है परन्तु उसका हृदय भक्ति रस में गोते लगाने लगता है। वह संसार से वैराग्य न लेकर इसी संसार में रहता हुआ भक्तित्व के माध्यम से मुक्ति की। कामना करता है। फलतः भक्त को भक्ति रस का आस्वाद प्राप्त होता है। इन पदों में तुलसी ने सांसारिक, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों का भावात्मक चित्रण किया है। इन तत्वों के मर्म को जानते ही पाठक का हृदय भाव विह्वल हो उठता है। तुलसी की विनयपत्रिका इन विकारों का उल्लेख करके राम के प्रति अनन्य अनुराग की प्रेरणा देती है-
संजय, तप, तप, नेम, धरम, व्रत, बहु भेषज समुदाई ।
तुलसीदास भव-रोग राम पद-प्रेम ही नहिं जाई ।।
“विनयपत्रिका’ के भक्ति रस का स्थायी भाव ही ‘राम-पद-प्रेम’ है। इसी ‘राम-पद-प्रेम’ का बार-बार भक्तिभावना से उल्लेख करते-करते महाकवि राम के अनुग्रह को प्राप्त करते हैं फलतः भगवान् राम को उनकी विनयावली के भाव-पुष्पों को अंगीकार करना पड़ता है-
‘विहंसि राम को सत्य है, सुधि में हूँ लही है।’
‘मुदित माथ नावत, बनी तुलसी अनाथ की, परी रघुनाथ हाथ सही है।’
भक्ति रस की दृष्टि से भावपक्ष के अन्तर्गत निम्न पद विशेषतः उल्लेखनीय है-
‘ऐसी मूढ़ता या मन की’
परिहरि राम भगति-सुर-सरिता, आस करत ओसकन की ॥
धूम-समूह निरखि चातक ज्यों तृषित जानि मति धन की।
नहिं तहँ सीतलता न धारि, पुनिहानि होति लोचन की ॥
ज्यों गज-काँच विलोकि सेन जड़ छाँह आपने तन की।
टूटत अति आतुर अहार बस छति बिसारि आनन की ।।
कहाँ लौं कहाँ कुचाल कृपानिधि ! जानत हौं गति जन की।
तुलसीदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पन की ।।”
यहाँ भगवान राम आल बन विभाव और भक्त आश्रय विभाव है। ‘धूम-समूह’ चातक, गज काँच आदि तथा प्रभु का अन्तर्यामी रूप दृष्टान्त के परिप्रेक्ष्य में उद्दीपन है। भक्त का नतमस्तक होना, भटकन, चिन्तावश मूढ़ बनना, विवशता आदि की व्यंजना वाली चेष्टाएँ अनुभाव हैं। आलस्य, ग्लानि, चिन्ता, दैन्य तथा धैर्य आदि संचारी भाव हैं। इन सबके संयोग से भगवान के प्रति भक्त के हृदय में जो ‘राम-पद-प्रेम’ रति पैदा होती है वही भक्ति रस है।
‘विनयपत्रिका’ के अनेक पदों को पढ़ कर भक्त के हृदय में भक्ति भावनाप्रद भावोर्मियों का अपार सागर लहराने लगता है। तुलसी की दास्यभक्ति भावना प्रधान है। विनयपत्रिका में भगवान बड़े हैं, सर्वस्व हैं। राम छोटे हैं-
“राम सों बड़ो है कौन, मो सों कौन छोटो ?
राम सों खरो है कौन, मो सों कौन खोटो ?’
आचार्य शुक्ल ने इस पद के भावतत्व पर टिप्पणी करते हुए लिखा है-“सारी विनयपत्रिका का विषय यही है- राम की बड़ाई और तुलसी की छोटाई। दैन्यभाव जिस उत्कर्ष को गोस्वामी जी में पहुँचा है, उस उत्कर्ष को और किसी भक्त में नहीं।” ने राम की सर्वव्यापकता को लोक-जीवन में देखा था। विनयपत्रिका में राम का जो व्यक्तित्व चित्रित किया गया है वह लोक-रक्षक के साथ-साथ लोक रंजन का भी कारक है । इसी भावना से प्रेरित होकर कवि राम के चरणों में ही रति चाहता है। कवि को दूसरा कोई स्वार्थ अथवा स्पृहा अभीष्ट हैं ही नहीं। इसमें तो रागात्मकता ही है।
चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु रिधि- सिधि, विपुल बड़ाई ।
हेतु रहित अनुराग रामपद बढ़े अनुदिन अधिकाई ॥
डॉ० रामचन्द्र मिश्र के शब्दों में- “विनयपत्रिका में भक्ति- तत्वों की अपूर्व निधि भरी हुई है। भक्त उनसे अपने आदर्शों की प्राप्ति कर अलौकिक ब्रह्मानन्द की अनुभूति कर सकता है। वह स्वतः भक्ति का आदर्श है और तुलसी उसके कारण भक्त के आदर्श हो उठे हैं।” स्पष्ट है कि तुलसी की विनयपत्रिका का भाव पक्ष पूर्णतः समृद्ध है । भाव पक्ष की पुष्टि में विनयपत्रिका के अनेक छन्दों को लिया जा सकता है।
कलापक्ष- कलापक्ष काव्य का बाह्य पक्ष है। कवि के अन्तस के आनन्द-तत्व का जिस रूप में व्यक्तीकरण होता है वह कलापक्ष में समाहित होता है। कलापक्ष में कवि का बुद्धित्व प्रधान रहता है जिसके आधार पर काव्य सत्य उद्घटित होता है। कलापक्ष के अन्तर्गत भाषा, शब्द-भंडार, अलंकार तथा उक्ति वैचित्र्य आदि का अध्ययन किया जाता है। ‘विनयपत्रिका’ के कलापक्ष का मूल्यांकन इस प्रकार है-
भाषा- मूलतः ‘विनयपत्रिका’ ब्रजभाषा की अनोखी कृति है। ‘विनयपत्रिका’ में चलती हुई ब्रज भाषा के साथ-साथ बज-भाषा के साहित्यिक स्वरूप का भी बराबर उपयोग किया है। भावुक कवि ने छोटी-छोटी भाव-व्यंजना के लिये सरल ब्रज भाषा का प्रयोग किया है। इस प्रकार के पदों में शब्द-योजना ललित तथा सुकोमल है। ऐसे पदों में प्रायः स्वाभाविक तद्भव शब्दों का प्रयोग है-
भलो भली भाँति है जो मेरे कहे लागि है।
मन राम-नाम सों सुभाय अनुरागि है।
राम-नाम को प्रभाव जानि जूड़ी आगि है।
सहित सहाय कलिकाल भीरु भागि है ।।
जहाँ कवि का विचारतत्व गम्भीर होता है वहाँ भाषा तत्सम शब्दों में सुगठित है । वाक्यावली लम्बी तथा प्रांजल है। कवि ने अनेक पदों में तत्सम शब्दों का प्रयोग किया है। ऐसे पदों में केवल ब्रजभाषा की क्रिया तथा प्रत्यय ही दृष्टिगत होते हैं। पदावली में कादम्बरी की रचना-शैली का दर्शन होने लगता है-
“जयति अंजनी गर्न अयोधि-संभूत विधु विवुधकुल-कैरवा नंदकारी।
केसरी चारुलोचन-चकोरक-मुखद, लोक मन-शोक संताप हारी।
जयति सिंगार-सर-तामरसदेह-दामदुतिदेह-गेन गृह विस्योपकारी।
सकल-सौभाग्य-सौन्दर्य-सुखमारूप मनोभव-कोटि- गरवापहारी ।”
शब्द भण्डार- तुलसी का शब्द कोश भी व्यापक है। इन्होंने तत्सम तद्भव, देशज, विदेशी आदि सभी प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया है। विनयपत्रिका में बुन्देलखंडी शब्दों का भी कुछ मात्रा में प्रयोग मिलता है यथा-“काऊ ल्यावों, अथाई, बनवारी आदि । विनयपत्रिका में अरबी-फारसी के शब्द भी बजभाषा के व्याकरण में अच्छी तरह खप गये हैं। यथा-निहाल, जरे, खलल जहरु, मिसकीन, सरम, लवार, बैरक, कलाई, सरम, मुकाम, जहान, गरीब, गुलाम, साहिब, बुलंद, दाद, गुल, खलक आदि। इतना नहीं ‘विनयपत्रिका’ में कवि ने मुहावरे तथा लोकोक्तियों का भी बराबर प्रयोग किया है- ‘भूमि पर चादर छीबो, लुनि है पै सोई जोई जेहि बई है, सकुच वेचि सीखाई, अब नाकहि आई, होत हरे होने विरवनि दल, पूतरों बाधि है, मूंडहि बढि है है की कोठिला धोएँ आदि। देखिए निम्न मुहावरे में तुलसी अपनी दीनता व्यक्त करने में कितने समर्थ हैं-
‘तुलसी तिहारो, तुमही पै तुलसी के हित,
राखि कहाँ हाँ तो जो पे है हाँ माखी धीय की।’
वास्तव में समास शैली में तत्सम शब्दों की बहुलता के कारण भी यह ग्रंथ संगीत तथा भक्तित्व की दृष्टि से अनूठा है। विनयपत्रिका की भाषा लक्षणा प्रधान है।
अलंकार – तुलसीदास की ‘विनयपत्रिका’ अलंकारों का गढ़ है। ‘पत्रिका’ के पदों की अलंकार-योजना सहज है। कवि ने लगकर अलंकारों का प्रयोग नहीं किया है। हाँ, यत्र-तत्र सांगरूपकों की योजना में अवश्य ही तुलसी ने अपनी कलात्मक प्रतिभा के रंग दिखाये हैं। शब्दालंकार एवं अर्थालंकार की दृष्टि से विनयपत्रिका का कोई भी पद खाली नहीं है, कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में कोई न कोई अलंकार अवश्य ही समाया हुआ है। विनयपत्रिका में प्रयुक्त अलंकारों की बानगी इस प्रकार है-
शब्दालंकार अनुप्रास-
‘सेइअ सहित सनेह देह भरि, कामधेनु कलिकांसी।
समानि साके-संताप पाप-रुज सकल-सुमंगल रासी ।’
‘दनुजसूदन, दयासिंधु, दंभापहन, दहन दुर्दोष दर्पापहर्त्ता ।
दुष्टतादमन, दमभवन, दुःखोघेहर, दुर्ग दुर्वासना-नाशकर्ता ॥
भूरिभूषण, भानुमंत, भगवत, भव भंजनाभयद, भुवनेश भारी ।
भावनातीत, भववंद्य भवभक्तिहित भूमिउद्धरण, भूधरण-धारी ।”
विनयपत्रिका के प्रत्येक पद में अनुप्रास के भेदों-प्रभेदों की छटा है। यह अनुप्रास अलंकार ही है जिसके कारण ‘विनयपत्रिका वर्ण मैत्री, वर्ण-संगति तथा वर्ण-संगीत की योजना हो सकी है। इस प्रवृत्ति के कारण ‘विनयपत्रिका’ के सांगीतक सौन्दर्य बोध क उत्कर्ष हुआ है।
श्लेष- ‘तुलसी’ दलि रुध्यो वह सठि साखि तिहारे
यहाँ तुलसी के दो अर्थ हैं-पौध और कवि ।
यमक-सिव ! सिव ! होड़ प्रसन्न करु दाया।
करुनाम उदार कीरति बलि जाऊं हरहु निज माया।
‘यहाँ ‘सिव’ के क्रमशः अर्थ हैं- 1. कल्याण रूप तथा 2. शिव भगवान ।
अर्थालंकार: उपया-
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन भरण भवभय दारुणं ।
नवकंज लोचन, कंजमुख, कर-कंजु, पद-कंजारुणं ।।
उत्प्रेक्षा- कंदर्प अगणित अमित छवि, नवनील नीरद सुन्दरं ।
पटपीत मानह तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरं ॥
व्यतिरेक- ‘सून्य भीति पर चित्र रंग नहिं तनु बिनु लिखा चितेरे।
धारो मिट इन मरइ भीति दुख पाइहि एहि तन हेरे ।’
प्रतीप- ‘नीलकंज वारिद तमाल मनि इन्ह तनु तें दुति पाई।’
यथासंख्य- “सत्रु मित्र मध्यस्थ तीनि ये मन कीन्हें वारि आई।
त्यागन, गहन, उपेच्छनीय, अहि हारक तन की नाई ॥
उदाहरण-
ऐसी मूढ़ता या मन की।
परिहरि राम भगति- सुर-सरिता, आस करत ओसकन की ।।
धूम-समूह निरखि चातक ज्यों, तृषित जानि गति मन की।
नहि तह सीतलता न बारि, पुनि हानि होत लोचन की ।।
ज्यों गज-काँच विलोकि सेन जड़ छाँह आपने तन की।
टूटत अति आतुर अहार बस, छति बिसारि आनन की ।।
व्याजस्तुति-
बावरो रावरो नाह भवानी।
दानि बड़ो दिन देत दये बिनु वेद बड़ाई भानी ||
निजघट की बरबात विलोकहु हौ तुम परम सयानी।
सिबकी दई सम्पदा देखत, श्री सारदा सिहानी।
जिनके भाल लिखी लिपि मेरी, सुख की नहीं निसानी ।
तिन रंकन कौ नाक संवारत हौं आयो नकवानी ॥
रूपक- रूपक तुलसी जी का सर्वाधिक प्रिय अलंकार है। विशेषकर तो मानस में तुलसी ने बड़े व्यापक सांगरूपकों की योजना की है। विनयपत्रिका में अर्धनारीश्वर शिव को बसंत बनाकर कवि ने बड़े ही सुन्दर सांगरूपक की रचना की है-
देखो-देखो, वन बन्यो आजु उमाकंत । आनो देखन तुमहि आई रितु बसन्त ।
जनु तनुदुति चंपक कुसुम-माल। बरबसन नील नूतन तमाल ।
कल कदलि जंघ, पद कमल लाल सूचतं कटि केहरि गति मराल ।
भूषन प्रसून बहू विविध रंग। नूपुर किंकिनि कलरव बिहंग।
कर नवल बकुल पल्लव रसाल। श्रीफल कुच, कंचुकिलता जाल ।
आनन सरोज, कच मधुप गुंज। लोचन बिसाल नव नील कंज ।
पिक वचन चरित बर बर्हिकीर । सित सुमन हास, लीला समीर ।
कह तुलसीदास सुनु सिव सुजान। उर बसि प्रपंच रचे पंचबान ।
करि कृपा हरिय भ्रम- कंदकाम। जेहि हृदय बसहिं सुखरासिराम ।।
इसी प्रकार ‘काशी’ को कामधेनु के रूप में चित्रित करके तुलसी ने सांगरूपक की रचना तो की है परन्तु यह सांगरूपक भद्दा ही बन पड़ा है-
‘सेइय सहित सनेह देह भरि कामधेनु कलि कासी।
मरजादा चहुँ ओर चरन बर सेवत सुरपुर वासी ॥
तीरथ सब सुभ अंग रोम सिवलिंग अमित अविनासी ।
अन्तर अयन अयन भल थल, फल अच्छ बेद विस्वासी ।।
गल कंबल बरुना विभाति, जनु लूम लसति सरिता सी ।
लोल दिनेस त्रिलोचन लोचन करनघंट घटा सी।’
इसी प्रकार ‘मन’ को मच्छ के रूप में सांगरूपक चित्रित किया है :
‘विषय-वारि मन-मीन मित्र नहीं होत कवहूँ पल एक।
ताते सही विपति अति दारुन जनमत जीनि अनेक ।।
कृपा डोरि वनसि पद अंकुस परम प्रेम मृदु चारो।
एहि विधि वेधि हरहु मेरी दुख कौतुक राम तिहारो ॥”
इन पंक्तियों में कहा है-भक्त का मनरूपी मीन विषयरूपी जल में बराबर डूबा रहता है जिससे दारुण दुख की अनुभूति होती है। भक्त राम से कृपा रूपी डोरी में प्रभु के चरण चिन्ह अंकुश रूपी वंशी के काँटे में प्रेम रूपी कोमल चारा लगाकर म रूपी मीन को पकड़ने की विनय करता है।
तुलसी के सांगरूपकों की प्रमुख विशेषता यह है कि इनमें तुलसी की कला का सौन्दर्य झलकने लगता है तथा एक सांगरूपक में अनेक अलंकार आ मिलते हैं।
उक्ति वैचित्र्य – भाषा पर अनूठा अधिकार होने के कारण तुलसी काव्य भाषा में बराबर लक्षणा का प्रयोग करते चलते हैं। उक्ति में जरा-सा बाँकपन ला देने से इसका परिपाक बड़ा मार्मिक बन पड़ता है। ‘विनयपत्रिका’ में विशेष कर व्याजस्तुति के प्रसंगों में तुलसी ने उक्तियों की गठन में अनोखी विलक्षणता भरी है। यहाँ एक ही उदाहरण लिया जा रहा है जिसकी आचार्य। शुक्ल ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है-
‘हौ’ सनाथ है ही सही, तुमहूँ अनाथपति जौ लघुतहि न भितैहौं।’
“लघुता से भयभीत होना’ कैसी विलक्षण उक्ति है, पर साथ ही कितनी सच्ची है। शानदार अमीर लोग गरीबों से क्यों नहीं बातचीत करते ? उनकी ‘लघुता’ ही के भय से न ? वे यही न डरते हैं कि इतने छोटे आदमी के साथ बातचीत करते लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे ? अतः लघुता से भयभीत होने में जो एक प्रकार का विरोध सालक्षित है, वह हृदय पर किस शक्ति से प्रभाव डालता है।”
अन्यत्र तुलसी ने लिखा है- “मैं तो बहुत बड़ा पापी हूँ, तो मेरा उद्धार करना ही पड़ेगा। आप तो पतितपावन हैं, शरणागत वत्सल हैं। फलतः नाम की लाज तो रखनी ही पड़ेगी
कुटिल सतकोटि मेरे रोम पर बरियाँह, सधुगनती में पहलेहि गनावौँ ।
परम बर्बर खार्व गर्व पर्वत चढ्यौ, अग्य सर्वग्य जन-मनि जनाबौं ।
सांच किधौं झूठ मोको कहत कोऊ कोऊ राम ! राबरो हौं तुम्हरौ कहावौं ।
विरद की लाज करि दास तुलसिंहिं, देव, लेहु अपनाइ अब देहु जनि वावौँ ।
रामचरित मानस यदि ज्ञान रत्नाकर है तो विनय पत्रिका भावम्बोधि है। डाँ० भागीरथ मिश्र ।
भाव-बोध- इस प्रकार उपर्युक्त विश्लेषणोपरान्त स्पष्ट हो जाता है कि विनयपत्रिका का काव्य-सैन्दर्य अद्वितीय है। इस ग्रन्थ में तुलसी की कला का चरमोत्कर्ष परिलक्षित होता है। विचार-तत्व गम्भीर भी है और सरस भावानुकूल भी। विनयपत्रिका की भाषा में उतार-चढ़ाव आते गये हैं। भावोत्कर्ष के लिए कवि ने रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का जहाँ भी प्रयोग किया है। वहाँ काव्य-सौष्ठव में कृत्रिमता नहीं आने पाती है। सारांश यह है कि विनयपत्रिका में काव्य के भाव पक्ष तथा कला-पक्ष का सुन्दर समन्वय है । विनयपत्रिका काव्य संगीत तथा भक्ति की प्रौढ़ कृति है । काव्य माधुरी तथा वैलक्षण्य की जो गरिमा इस कृति में देखी जा सकती है अन्यत्र दुर्लभ है। डॉ. भगीरथ मिश्र के शब्दों में-” ‘विनयपत्रिका’ मनुष्य के सक्रिय आध्यात्मिक जीवन का सजीव चित्र है। रामचरितमानस यदि ज्ञान रत्नाकर है, तो विनयपत्रिका भावाम्बोधि है।”
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