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विनय-पत्रिका स्फुट काव्य है, खंडकाव्य है, प्रबंधात्मक-प्रगीत काव्य है अथवा मुक्तक काव्य है।

विनय-पत्रिका स्फुट काव्य है, खंडकाव्य है, प्रबंधात्मक-प्रगीत काव्य है अथवा मुक्तक काव्य है।
विनय-पत्रिका स्फुट काव्य है, खंडकाव्य है, प्रबंधात्मक-प्रगीत काव्य है अथवा मुक्तक काव्य है।

विनय-पत्रिका’ स्फुट काव्य है, खंडकाव्य है, प्रबंधात्मक-प्रगीत काव्य है अथवा मुक्तक काव्य है। अपने मत की तर्कसम्मत पुष्टि कीजिये ।

भारतीय काव्यांग में काव्य कोटियों के प्रमुख दो रूप हैं- (1) प्रबन्ध काव्य और (2) मुक्तक काव्य । प्रबन्ध काव्य के भी दो प्रकार हैं- महाकाव्य, और खण्डकाव्य । ‘महाकाव्य’ में युग-विशेष के व्यापक आयाम को दृष्टि में रखते हुए कवि किसी उदात्त पात्र के समग्र जीवन का आलोचन प्रबन्धात्मक रूप में करता है। दूसरी ओर ‘खण्डकाव्य’ में कवि किसी जीवन के किसी एक अंग विशेष अथवा प्रमुख घटना का सांगोपांग प्रबन्धात्मक शैली में ही चित्रण करता है। ‘मुक्तक काव्य’ में किसी एक विचार तत्व अथवा अनुभूति का चमत्कारपूर्ण शैली में सरस चित्रण होता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, “मुक्तक में प्रबन्ध के समान रसधारा नहीं रहती जिसमें कथा-प्रसंग की परिस्थिति में अपने को भूला हुआ पाठक मग्न हो जाता है और हृदय में एक स्थायी प्रभाव ग्रहण करता है। इसमें तो रस के ऐसे छींटे पड़ते हैं जिनमें हृदय-कलिका थोड़ी देर के लिये खिल उठती है। यदि प्रबन्ध काव्य एक विस्तृत वनस्थली है तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता इसी से यह सभा समाजों में अधिक उपयुक्त होता है। मुक्तक काव्य में उत्तरोत्तर अनेक दृश्यों द्वारा संघटित पूर्ण जीवन या उसके किसी एक पूर्ण अंग का प्रदर्शन नहीं होता, बल्कि कोई एक रमणीय खण्ड दृश्य इस प्रकार सहसा सामने ला दिया जाता है कि पाठक या श्रोता कुछ क्षणों के लिए मंत्रमुग्ध-सा हो जाता है। इसके लिये कवि को मनोरम वस्तुओं और व्यापारों का एक छोटा-सा स्तवक कल्पित करके उन्हें अत्यन्त संक्षिप्त तथा सशक्त भाषा में प्रदर्शित करना पड़ता है। अतः जिस कवि में कल्पना की समाहार शक्ति के साथ भाषा की समास शक्ति जितनी ही अधिक होगी उतनी ही वह रचना सफल होगी।” मुक्तक काव्य के लिये किसी भी छन्द विशेष के प्रयोग का बंधन नहीं होता। हरिगीतिका, सवैया तथा कवित्त आदि छन्दों में रचित मुक्तक गेय होते हैं। भक्त कवियों ने भक्ति भाव से प्रेरित होकर जिन पदों की रचना की है उनमें भक्ति को भावत्व का ही विश्लेषण प्रमुख है। इसीलिये सूर, कबीर, तुलसी आदि के पद ‘गेय मुक्तक’ काव्य की कोटि में आते हैं।

विषय-विधान- तुलसी की ‘विनयपत्रिका’ पद शैली में लिखी गई है। इस शैली में तुलसी ने गीतावली, श्रीकृष्ण गीतावली की भी रचना की है। उक्त दोनों ही प्रन्थों में ‘विनयपत्रिका’ का अन्यतम स्थान है। ब्रजभाषा में निर्मित यह रचना सूरदास की काव्यशैलियों से प्रभावित है। ‘विनयपत्रिका’ में कुल 279 पद हैं। ये पद शास्त्रीय संगीत की दृष्टि से विशेषतः उल्लेखनीय हैं। मंगलाचरण के रूप में गणेश, सूर्य, शिव, देवी, गंगा-यमुना, काशी, चित्रकूट, हनुमान, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, सीता-राम, नर-नारायण, बिन्दु-माधव की स्तुति में पद हैं। इन स्तुतियों के उपरान्त तुलसी की विनयावली शुरू होती है। इस विनयावली का प्रत्येक छन्द पत्रात्मक शैली में विशेष सम्बोधनों से आरम्भ होता है। इन पदों में प्रभु की प्रभुता तथा उदारता, भक्ति का दैन्य, विवशता एवं कलियुग की विषमताओं का विस्तृत चित्रण है । इस काव्य के अन्त में भरत तथा लक्ष्मण के अनुमोदन करने पर एवं सीता जी द्वारा सुधि दिलवाने पर भगवान राम द्वारा ‘विनयपत्रिका’ की स्वीकृति का उल्लेख है। ‘विनयपत्रिका’ के प्रस्तुतीकरण का चित्रण इस प्रकार है-

“विनय पत्रिका’ दीन की बापू आप ही बांचो ।

हिये हेरि तुलसी लिखी, सो सुभाय सही परि, बहुरि पूँछिये पाँचो ।।

बिहँसि राम कह्यो ‘सत्य है, सुधि मैं हूँ लही है।”

मुदित माथ नावत, बनी तुलसी अनाथ की, परी रघुनाथ हाथ सही है।’

वास्तव में ‘विनयपत्रिका’ समय-समय पर लिखे गये पदों का विशिष्ट संग्रह है। ऊपर से देखने पर इन पदों में हमें कोई विशेष क्रम नहीं दिखाई देता और न ही इन पदों में किसी उदात्त पात्र के जीवन का सांगोपांग आलोचन है। अतः इस दृष्टि से इसे हम महाकाव्य की कोटि में नहीं रख सकते। इस काव्य ग्रन्थ में किसी के जीवन की घटना विशेष का भी प्रबन्धात्मक चित्रण नहीं है जिससे कि इसे खण्डकाव्य की कोटि में रखा जा सके। इस ग्रन्थ का प्रत्येक छन्द भक्त के हृदय का भक्ति भाव से प्रेरित स्वछन्द उद्गार है। यदि भाव-तारतम्य की दृष्टि से ‘विनयपत्रिका’ के पदों का मूल्यांकन करें तो हम उसमें भक्त की हीनता है तथा विनय भाव योजना का उत्तरोत्तर चरम विकास पाते हैं। ऐसा लगता है कि प्रत्येक पद में कवि के आत्मोद्वार उसी तरह निकल रहे हैं जैसे रूई में से सूत के तार निकलते हैं। भावों की निबंधना में एक सूत्रात्मकता है। भाव-बोध की दृष्टि से ‘विनयपत्रिका’ के पदों में प्रबंधात्मकता है। जिस प्रकार पत्रात्मक शैली में सहृदय के हृदय से एक के बाद एक उद्गार निकलता जाता है उसी प्रकार प्रभु राम को भेजी गई पत्रिका में तुलसी के आत्मोद्वार भी ग्रंथित हैं।

गीतिकाव्य की प्रमुख विशेषताएँ- संक्षिप्तता, कोमलकान्त पदावली, आत्माभिव्यक्ति, संगीतात्मकता, भावप्रवणता आदि की दृष्टि से भी ‘विनय-पत्रिका’ का प्रत्येक पद खरा उतरता है। ‘विनयपत्रिका’ के प्रत्येक पद में कवि ने भावों की गूढ़ता की व्यंजना करने के लिये लौकिक जीवन के अनेक व्यापक दृष्टान्तों को संक्षिप्त रूप देकर अपने उद्गारों में समेटने का प्रयास किया है। कोमल भावों की अभिव्यक्ति के लिये कवि ने एकदम मसृण तथा कोमल पदों की योजना की है जिसमें कहीं भी कर्णकटुता अथवा क्लिष्टता नहीं है। प्रत्येक शब्द की योजना में विशेष लालित्य है। कोमलकान्त पदावली होने के कारण ही ‘विनयपत्रिका’ भक्तों का कण्ठहार है। गीतिकाव्य की प्रमुख विशेषता ही आत्माभिव्यक्ति है। हृदय के सच्चे उद्गार जब हृदय का मंथन करके प्रसूत होते हैं तब उनमें हृदय का प्रतिपाद्य को व्यंजित करने में सफल है। इन पदों के राग भावों के नितान्त अनुकूल हैं।

‘विनयपत्रिका’ की गीतितत्व की समृद्धि पर विचार करते हुए सुश्री महादेवी वर्मा ने लिखा है- “जहाँ मीरा के हृदय में बैठी हुई नारी और विरहिणी के लिये भावातिरेक सहज प्राप्य था और उसकी वेदना इतनी आत्मानुभूत थी कि ‘है ली । मैं तो दरद दिवानी मेरो दरद न जाणै कोय’ की ध्वनि के साथ ही रोम-रोम उसकी वेदना का स्पर्श कर लेता है और सूर में भावों की कोमलता तथा भाषा की मधुरता होते हुए भी कथा इतनी पराई है कि हम कहने की इच्छामात्र लेकर उन्हें सुना सकते हैं, बहते नहीं तथा कबीर के रहस्य भरे पद हमारे हृदय को स्पर्श कर सीधे बुद्धि से टकराते हैं और अधिकतर हममें उनके विचार ध्वनित हो उठते हैं, भाव नहीं, जो गीत का लक्ष्य है, किन्तु वहाँ प्रातः स्मरणीय गोस्वामी जी के विनय के पद तो आकाश की मन्दाकिनी कहे जा सकते हैं, हमारी कभी गन्दली, कभी स्वच्छ वेगवती, सरिता नहीं। मनुष्य की चिरन्तन अपूर्णता का ध्यान करके उनके पूर्ण इष्ट के सम्मुख हमारा मस्तक श्रद्धा से, नम्रता से नत हो जाता है परन्तु हृदय कातर कन्दन नहीं कर उठता ।

उपर्युक्त विश्लेषण द्वारा ‘विनयपत्रिका’ के प्रतिपाद्य का विश्लेषणात्मक मूल्यांकन सामने आ जाता है। अब हम इसके काव्यरूप के सम्बन्ध में विविध विद्वानों के मत प्रस्तुत करते हैं।

डॉ० माता प्रसाद गुप्त ने ‘विनयपत्रिका’ को गीतिकाव्य मानते हुए लिखा है- “विनयपत्रिका का संसार के आत्मनिवेदन साहित्य में अत्यन्त उच्च स्थान माना जाता है। इन्हीं गीतों के कारण वास्तव में तुलसीदास गीतिकारों में स्थान पाने के अधिकारी हैं। आत्माभिव्यंजन के गीति-काव्य के विषय में वे एक अत्यन्त सफल कलाकार प्रमाणित होते हैं।”

डॉ० रामचन्द्र मिश्र ने मान्य विद्वानों के मतों की आलोचना करते हुए ‘विनयपत्रिका’ को ‘अस्फुट काव्य’ की संज्ञा से अभिहित किया है। उन्होंने लिखा है- “विनयपत्रिका के मुक्तक काव्य होने से कुछ विचारक इसे स्फुट पदों का संग्रह मात्र मानते हैं। काव्य में पदों के मध्य में यत्र-तत्र असम्बद्धता के कारण इस प्रकार का विचार स्वाभाविक-सा है, किन्तु, भक्त कवि के उद्देश्य के अनुकूल पदों में समाहित भावनाओं की ध्वनि पर मनन करने से यह धारणा निर्मल है। पद-रचना भले ही स्फुट हो, क्योंकि तुलसी एक विरक्त संत थे, उससे उनका यह काव्य भी अन्यों के समान एक ही स्थल और एक ही समय पर नहीं लिखा गया, किन्तु इस तथ्य के साथ तक सत्य है कि अपनी अनुभूतपूर्ण निर्णीत रूपरेखा में उन्होंने अपने सभी पदों को पिरो दिया है। इसी से वह ‘अस्फुट काव्य’ है। “

डॉ० विमल कुमार जैन ने ‘विनयपत्रिका’ के पदों के मुक्तात्मक संग्रह को दृष्टि में रखते हुए इसे ‘खण्ड-काव्य’ तो नहीं कहा पर इसके परिवेश में खण्ड-काव्य की झलक देखी है- “यह ग्रन्थ मुक्तक रूप में भले ही लिखा गया, परन्तु इसमें पत्रिका के नाते एक भाव-सूत्र क्रम से रहा हुआ। इसलिये हम इसे खण्डकाव्य न कह कर भी इसमें खण्डकाव्य की झलक पाते हैं।”

आचार्य शुक्ल ने इस ग्रन्थ को आत्मनिवेदनात्मक गीति-काव्य माना है- ‘विनयपत्रिका‘ में अलबत्ता तुलसीदास जी अपनी दशा का निवेदन करने में बैठे हैं। उस ग्रन्थ में जगह-जगह अपनी प्रतीति, अपनी भावना और अपनी अनुभूति को स्पष्ट ‘अपनी” कहकर प्रकट करते हैं, जैसे-

‘संकर साखि जौ राखि कहाँ कछु तौ जरि जीह गरो ।

अपनो भलो राम नामहि तें तुलसिहि समुझि परो ।’

इस बात को ध्यान में रखना चाहिये कि अनुभूति ऐसी नहीं जो एकदम सबसे न्यारी हो। ‘विनय’ में कलि की करालता से उत्पन्न जिस व्याकुलता या कायरता का उन्होंने चित्रण किया है वह केवल उन्हीं की नहीं है, समस्त लोकचित्रण की है। इसी प्रकार जिस दीनता, निरालम्बता, दोषपूर्णता या पापमग्नता की उन्होंने व्यंजना की है, वह भी भक्त मात्र के हृदय की सामान्य वृत्ति है। वह और सब भक्तों की अनुभूति से अविच्छिन्न नहीं, उसमें कोई व्यक्तिगत वैलक्षण्य नहीं।”

उपर्युक्त मतों को दृष्टि में रखते हुए विनयपत्रिका के काव्य-प्रतिपाद्य की समीक्षा के परिवेश में हम यह कह सकते हैं कि-

काव्यरूप की दृष्टि से ‘विनयपत्रिका’ ‘आत्मनिवेदनात्मक पत्रात्मक गीतिकाव्य’ है।

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Anjali Yadav

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