शिक्षक प्रतिमान से आप क्या समझते हैं ? किसी एक प्रतिमान का वर्णन करो।
शिक्षा की प्रक्रिया, शिक्षण द्वारा छात्रों को दिए जाने वाले निर्देशों (Instructions) से आरम्भ होती है। प्रत्येक शिक्षक, बौद्धिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए जाने अनजाने किसी एक प्रणाली को अपनाता है, इस प्रणाली द्वारा वह छात्रों को पढ़ाता है और अपने पढ़ाने के तरीकों से यह देखता है कि छात्र उसकी बात को ग्रहण कर रहे हैं या नहीं। यह प्रणाली प्रतिमान ( Model) कहलाती है।
शिक्षण प्रतिमान या प्रारूप उन परिस्थितियों तथा प्रक्रियाओं की व्यवस्थित क्रम में व्याख्या करता है, जिनसे वह क्रिया संचालित होती है। शिक्षण के मूल प्रतिमान में व्यवहार प्रवेश (Entering Behaviour), प्रक्रिया (Process) तथा व्यवहार परिवर्तन (Behavioural Change) निहित होते हैं। बी० आर० जोयस (B. R. Joyce) ने शिक्षण प्रतिमान की व्याख्या इस प्रकार की है— शिक्षण प्रतिमान, निर्देश की विश्लेषित रूपरेखा होते हैं। वे छात्र को वाँछित व्यवहार करने के लिए बाध्य करते हैं।
शिक्षण प्रतिमान में लक्ष्य, संरचना, सामाजिक प्रणाली तथा मूल्यांकन प्रणाली निहित हैं। इन चारों को प्रत्येक प्रतिमान में क्रियाशील होना पड़ता है।
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1. ग्लेजर (Glaser) द्वारा प्रस्तुत शिक्षण प्रतिमान
रॉबर्ट ग्लेजर (Robert Glaser, 1962) ने एक शिक्षण प्रारूप (Teaching Model) विकसित किया है। किसी भी शैक्षिक प्रक्रिया तथा शिक्षण कार्य (Instructional task) की सफलता उसके आधारभूत (Basic) प्रारूप (Model) पर निर्भर करती है। मनोविज्ञान मानता है कि भय के द्वारा हम किसी क्रिया को सफलतापूर्वक लागू नहीं कर सकते। प्रेम तथा सहानुभूति के द्वारा ही हम शिक्षण तथा अधिगम की प्रक्रिया को विकसित कर सकते हैं।
इस आधारभूत शिक्षण प्रारूप के चार तत्व हैं। ये चारों तत्व इस चित्र से प्रकट होते हैं-
यह चित्र आधारभूत शैक्षिक प्रारूप को प्रकट करता है। ये चारों भाग शिक्षण की प्रक्रिया को पूर्णतः प्रदान करते हैं। हम यहाँ पर इन चारों भागों का वर्णन कर रहे हैं-
1. शैक्षिक लक्ष्य (Instructional Objectives)- जॉन पी० डीसैको (John P. Dececco) ने शैक्षिक लक्ष्यों के अन्तर्गत एक उद्देश्य निर्धारित किया है—शैक्षिक लक्ष्यों को निर्देशात्मक लक्ष्यों में परिवर्तित करना (To Convert Educational Objectives into Instructional Objectives)। ये लक्ष्य देश, काल तथा परिस्थिति के अनुसार भिन्न हो सकते हैं। आधारभूत भावना सभी देशों में एक ही होती है— बालक में निहित प्रच्छन्न उपयोगी शक्तियों का विकास। इसलिए शैक्षिक लक्ष्यों का निर्धारण और उनका निर्देशात्मक लक्ष्यों में परिवर्तन किन्हीं अर्थों में वांछित लक्ष्य की प्राप्ति की ओर बढ़ता कदम है।
2. पूर्व व्यवहार (Entering Behaviour) – पूर्व व्यवहार छात्रों के व्यवहार के स्तर को (शिक्षण आरम्भ करने से पूर्व) इंगित करता है। पूर्व ज्ञान तथा अनुभव, मानसिक योग्यता, संवेगात्मक दशा आदि इसी के अन्तर्गत आते हैं। पूर्व व्यवहार (Entering behaviour) शब्द मानव योग्यता, वैयक्तिक भिन्नता तथा तत्परता का प्रतीक है। पूर्व व्यवहार, वास्तव में शिक्षक को शिक्षण आरम्भ करने से पूर्व कहाँ से किस प्रकार आरम्भ करें, का चुनाव करने के सभी अवसर प्रदान करता है। इसका मूल आधार है पूर्वज्ञान तथा अनुभव के आधार पर भावी ज्ञान तथा कौशल का अर्जन करने की मानसिक तथा शारीरिक तत्परता। पूर्व व्यवहार में तत्परता (Readiness) तथा परिपक्वता (Maturation) का होना आवश्यक है। वैयक्तिक भिन्नताओं पर भी ध्यान देना आवश्यक हो जाता है। व्यक्तित्व का प्रभाव अलग से पड़ता है। पूर्ण व्यवहार में (1) अधिगम स्थिति (Learning Sets), (2) अधिगम योग्यता (Learning Abilities), (3) अधिगम शैली (Learning Styles) निहित होते हैं। यह तत्व पूर्व व्यवहार शिक्षण की प्रक्रिया को व्यावहारिक आधार प्रदान करता है।
3. शैक्षिक प्रक्रिया (Instructional Procedures) – इस तत्व के अन्तर्गत शैक्षिक प्रक्रिया तथा उसकी व्यवस्था के दर्शन होते हैं। यह प्रक्रिया शैक्षिक लक्ष्यों से भिन्न हो सकती है। इसमें कौशल (Skills), अवधारणा (Concepts), सिद्धान्त (Principles) तथा समस्या समाधान (Problem Solving) आदि प्रक्रियाओं को अपनाया जाता है। लक्ष्यों की प्राप्ति तथा व्यवहार प्रवेश के माध्यम से शैक्षिक प्रक्रिया का संचालन होता है। ये प्रक्रियाएँ, यदि सही रूप में चुनी जाएँ, अध्यापकों के पूर्वाग्रहों से मुक्त हों तो निःसन्देह इनके परिणाम अच्छे होते हैं। शैक्षिक प्रक्रिया में अधिगम की दशाएँ-आन्तरिक तथा बाह्य एवं उत्तेजनात्मक परिस्थितियाँ अनेक प्रभाव उत्पन्न करती हैं। शैक्षिक प्रक्रिया में अधिगम की दशाओं को शैक्षिक लक्ष्यों के सन्दर्भ में व्यवस्थित किया जाता है। इसलिए अध्यापक को अनुकूलित अधिगम के शास्त्रीय तथा प्रगतिशील रूप को अपनाना आवश्यक हो जाता है।
4. निष्पत्ति का मूल्यांकन (Performance Assessment)- शैक्षिक प्रारूप का यह तत्व प्राप्त ज्ञान तथा कौशल की मात्रा का मापन करने की ओर संकेत देता है। अध्यापक द्वारा प्रदत्त ज्ञान तथा कौशल को किस सीमा तक छात्रों ने सीखा है; इसका जानना अत्यावश्यक है। शिक्षण की इस प्रक्रिया में अध्यापक का व्यक्तित्व केन्द्र में नहीं है; अपितु वह शैक्षिक प्रक्रिया के अनेक अंगों में से एक है। अनेक प्रकार के अध्यापक-निर्मित तथा प्रमापीकृत (Standardized) परीक्षणों का उपयोग छात्रों की योग्यता का मापन करने के लिए किया जाता है। निष्पत्ति का मूल्यांकन वस्तुतः शिक्षण प्रारूप की प्रक्रिया का अन्तिम छोर है। शिक्षण प्रारूप के चारों तत्व एक-दूसरे से जुड़े हैं और इनका सापेक्ष सम्बन्ध है।
2. कम्प्यूटर (Computer) आधारित शिक्षण प्रारूप
कम्प्यूटर आधारित शिक्षण प्रारूप का विकास लारेन्स स्टोलुरो (Lawrence Stolurow) तथा डेनियल डेविस (Daniel Davis) ने 1965 में किया था। इस प्रारूप में अध्यापक का स्थान कम्प्यूटर ले लेता है। इन्होंने इस प्रारूप में शिक्षण की प्रक्रिया को दो भागों में बाँटा है—(i) पूर्व निर्देशित अवस्था (Pre-tutorial Phase), (ii) निर्देशित अवस्था (Tutorial Phase)। पहली के अन्तर्गत किसी एक छात्र के लिए किसी शैक्षिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रोग्राम का चयन करना और दूसरी के अन्तर्गत चयन किए गए प्रोग्राम का प्रयोग करना आता है। इसके माध्यम से छात्र को शिक्षित किया जाता है। और देखा जाता है कि मौलिक प्रोग्राम की अपेक्षा नया प्रोग्राम किस सीमा तक उपयोगी है। कम्प्यूटर आधारित प्रारूप इस प्रकार है
इस प्रारूप में निवेश के अन्तर्गत छात्रों की विशेषताएँ, अभिवृत्ति तथा निष्पत्ति का स्तर; खोज तथा मूल्यांकन के अन्तर्गत शिक्षण कार्यक्रम की खोज, एक से अधिक प्रोग्राम, एक प्रोग्राम, प्रोग्राम शून्यता तथा इनका मूल्यांकन आता है। उपलब्धि में शिक्षण प्रोग्राम का उपयोग तथा सामग्री का प्रस्तुतीकरण आता है। कम्प्यूटर आधारित शिक्षण प्रारूप की तुलना आधारभूत शिक्षण प्रारूप तथा परम्परागत शिक्षण प्रारूप से इस प्रकार की जो सकती है-
1. कम्प्यूटर शिक्षण प्रारूप में पूर्व निर्देशित अवस्था में आधारभूत शिक्षण प्रारूप शैक्षिक लक्ष्य तथा व्यवहार प्रवेश तथा शैक्षिक प्रक्रिया निहित है।
2. शैक्षिक प्रोग्राम शैक्षिक प्रक्रिया के सादृश्य होता है।
3. पारस्परिक प्रणाली में कम्प्यूटर द्वारा दिए गए निर्णयों को अध्यापक स्वीकार करता है।
4. अध्यापक (i) क्या पढ़ाना है (लक्ष्य), (ii) किसे पढ़ाना है (व्यवहार प्रवेश), (ii) कैसे पढ़ाना है (शैक्षिक प्रक्रिया) को अपनाता है। उसे छात्रों की निष्पत्ति का निर्धारण भी करना पड़ता है।
5. यह प्रारूप ज्ञान के भण्डार के रूप में कार्य करता है।
3. विद्यालय-अधिगम प्रारूप (Model for School-Learning)
इस शिक्षण प्रारूप का विकास जॉन कैरोल (John Carroll) ने 1962, 63 एवं 65 में किया था। इस प्रारूप को उसने अपने समय का सर्वाधिक उपयुक्त प्रारूप बताया था। उसने यह माना कि विद्यार्थी किसी शैक्षिक उद्देश्य को उस सीमा तक प्राप्त करता है, जिस सीमा तक वह उसे अधिगमित करने के लिए समय लगाता है। इस प्रारूप के पाँच तत्व हैं। इनमें तीन का सम्बन्ध व्यवहार प्रवेश (Entering Behaviour) तथा दो का सम्बन्ध शैक्षिक प्रक्रिया (Instructional Procedures) से है-
1. अभिवृत्ति (Aptitude) – कैरोल ने व्यवहार प्रवेश का पहला तत्व अभिवृत्ति (Aptitude) बताया है। विद्यार्थी आदर्श अधिगम दशाओं में अधिगम की अधिकतम मात्रा ग्रहण करता है; यह अभिवृत्ति के कारण होता है। जिस छात्र की अभिवृत्ति जितनी अधिक होगी, अधिगम में उसका समय उतना ही कम लगेगा।
2. अध्यवसाय (Perseverance) – इस तत्व के अन्तर्गत वह समय आता है, जिसे विद्यार्थी किसी वांछित शैक्षिक लक्ष्य को प्राप्त करने में लगाता है। वांछित समय से अधिक परिश्रम करने का परिणाम उचित नहीं होता।
3. निर्देश ग्रहण करने की योग्यता (Ability to Comprehend Instruction) – यह तत्व इस बात का द्योतक है कि छात्र में शाब्दिक तथा बौद्धिक योग्यता कितनी है। इसी तत्व के कारण वे शैक्षिक लक्ष्य को सरलता से ग्रहण कर लेते हैं। उन्हें बार-बार शैक्षिक निर्देश देने की आवश्यकता नहीं होती।
4. अधिगम के अवसर (Opportunity to Learn) – इस तत्व में किसी शिक्षण दिशा में आवंटित समय में अधिगम की मात्रा पर ध्यान दिया जाता है। उचित अवसर प्रदान करके अधिगम के वांछित लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है।
5. निर्देश का गुण (Quality of Instruction) – व्यवस्थित शैक्षिक निर्देश और उसका प्रस्तुतीकरण शैक्षिक गुण के रूप में आता है। यह गुण अध्यापक की स्पष्ट भाषा, छात्रों की आवश्यकता तथा आकांक्षा के अनुकूल होता है। यह गुण पाठ्य पुस्तकों, अभ्यास पुस्तिकाओं, शिक्षण यन्त्रों आदि में भी आवश्यक है।
इस प्रारूप में कैरोल ने मनोवैज्ञानिक आधारों का वर्णन किया है। शिक्षण प्रारूप से इसकी तुलना किस प्रकार हो सकती है। कैरोल का यह प्रारूप शैक्षिक लक्ष्यों को अप्रत्यक्ष रूप से प्राप्त करना चाहता है। इस प्रारूप का अधिकांश अभिवृत्ति (विशेष योग्यता), अध्यवसाय (अभिप्रेरणा), निर्देश ग्रहण की योग्यता (सामान्य बुद्धि) से सम्बन्धित है। इस प्रारूप में मूल्यांकन की प्रक्रिया का समावेश नहीं किया गया है।
4. अन्तःक्रियात्मक प्रारूप (Interaction Model)
इस प्रारूप को सामाजिक अन्तःक्रिया प्रारूप (Social-Interaction Model) भी कहते हैं। यह मनोवैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है और नैड फ्लैन्डर्स (Ned Flanders) ने 1960 में इसका विकास किया। फ्लैन्डर्स ने छात्र तथा अध्यापक की क्रियाओं को दस श्रेणियों में विभक्त किया है। आगे सारिणी में ये क्रियाएँ दी गई हैं-
इन सभी श्रेणियों में सात अध्यापक की दो छात्रों की एक मौन की है। इस प्रारूप में अध्यापक के शिक्षण-कौशल का विकास होता है। निरीक्षक की भूमिका इस विधि द्वारा अध्यापक की क्रिया का विश्लेषण करने में महत्वपूर्ण होती है। फ्लैन्डर्स ने शिक्षक प्रभाव द्वारा अन्तःक्रियात्मक विश्लेषण के लिए तीन सिद्धान्तों को माना है- (i) छात्रों को कक्षागत परिस्थितियों में नियंत्रित करने से कक्षागत क्रियाओं में वृद्धि तथा निष्पत्ति में अवनति होती है। (ii) कक्षागत अधिगम में छात्रों के भाग लेने पर नियन्त्रण करने पर निर्भरता में वृद्धि नहीं होती, निष्पत्ति में वृद्धि होती है। (iii) कक्षागत अधिगम में छात्रों को भाग लेने की स्वतन्त्रता से निर्भरता कम होती है तथा निष्पत्ति में वृद्धि होती है।
अध्यापक जय प्रत्यक्ष प्रभाव का प्रयोग करता है, तब वह छात्रों की स्वतन्त्रता को नियन्त्रित करता है। 5, 6, 7 नम्बर की क्रिया करते समय अध्यापक की भूमिका प्रभुत्वपूर्ण होती है। वह बातें अधिक करता है और छात्रों को अनुक्रिया के अवसर कम मिलते हैं। 1-4 श्रेणी के अन्तर्गत छात्रों को अधिगम क्रिया में स्वतन्त्रता रहती है। स श्रेणी में 1-2 पद आरम्भिक तथा 5-6 उत्तरपद हैं। फ्लैन्डर्स ने अधिगम के इस चक्र को इस प्रकार बताया है। “पहले बौद्धिक अन्तर या समस्या उत्पन्न की जाती है। दूसरे, समस्याओं की पहचान की जाती है। तीसरे, समस्या में आपसी सम्बन्ध पृथक् किए जाते हैं चौथे कार्य आरम्भ होता है, तथा सूचना प्राप्त करना, सूत्र का प्रयोग करना, समस्या का प्रयास आदि। पाँचवें, प्रगति का परीक्षण एवं मूल्यांकन, छठे, अतिरिक्त समस्याओं पर नवीन ज्ञान का विनियोग तथा सार्थक रूप में व्याख्या करना।”
सारणी
फ्लैन्डर्स अन्तःक्रियात्मक विश्लेषण
अध्यापक क्रिया (Teacher Talk)
छात्र क्रिया (Student Talk) | प्रत्यक्ष प्रभाव (Direct Influence) | अप्रत्यक्ष प्रभाव (Indirect Influence) |
1. विचार स्वीकृति (Accept Feelings) – सहज रूप में छात्रों की भावनाओं तथा विचारों को स्वीकार करना। ये विचार नकारात्मक, स्वीकारात्मक स्मरण, तथा भविष्य कथन के रूप में हो सकते हैं।
2. प्रशंसा या प्रोत्साहन (Praises or Encourages) – छात्रों की क्रिया तथा व्यवहार की प्रशंसा, तनाव दूर करने वाले मजाक, शाबाश, आगे कहो आदि । 3. स्वीकृति या छात्रों के विचारों का उपयोग (Accepts or uses ideas of students) – छात्रों द्वारा प्रकट विचारों का स्पष्टीकरण, विकास (अध्यापक यदि अपने विचार भी शामिल करें तो वह 5वीं श्रेणी हो जाती है)। 4. प्रश्न करना (Asks Questions) – पाठ्य सामग्री अथवा प्रक्रिया से सम्बन्धित इस आशय से प्रश्न करना कि छात्र उत्तर दें। |
5. भाषण (Lectures) – पाठ्य सामग्री, प्रक्रिया, स्वयं के विचार एवं तथ्यों को प्रकट करने के लिए।
6. निर्देश देना (Gives Directions) – छात्रों को आदेश, निर्देश आदि देना। 7. आलोचना (Criticizes or justifies authority) – ऐसे वक्तव्य जो छात्रों के व्यवहार में परिवर्तन लाएँ। ये स्वीकृत प्रतिमान वाले हों। इसमें अध्यापक स्वयं संदर्भ के रूप में प्रकट होता है। वह ऐसा क्यों कर रहा है, क्या कर रहा है आदि। |
8. छात्र क्रिया-अनुक्रिया (Student Talk Response) – अध्यापक की अनुक्रिया के सन्दर्भ में छात्रों की क्रिया। अध्यापक छात्रों के वक्तव्यों को स्वीकृति देता है।
9. छात्र क्रिया उपक्रम (Students Talk Initiation) – छात्रों द्वारा उपक्रम, छात्र निर्धारित करें कि आगे कौन बोलेगा। निरीक्षक को ध्यानपूर्वक देखना आवश्यक है। 10. मौन या उलझन (Silence or Confusion) – रुकना, थोड़े समय मौन, किसी बात को समझना आदि। |
इस चक्र में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव (i) छात्रों की निर्भरता, तथा (ii) निष्पत्ति को प्रभावित करते हैं। इस पर वैयक्तिक भिन्नता का पर्याप्त प्रभाव रहता है। शिक्षण का यह प्रारूप आधारभूत शैक्षिक प्रारूप ही है, क्योंकि इसमें शैक्षिक लक्ष्यों के व्यवहार प्रवेश की सम्भावना नहीं रखी गई। छात्र भी प्रत्यक्ष अधिगम क्रिया से प्रभावित होते हैं।
5. तीन अन्य ऐतिहासिक शिक्षण प्रारूप
जॉन पी० डीसैको ने आधारभूत शिक्षण प्रारूप का वर्णन करते हुए तीन ऐतिहासिक शिक्षण प्रारूपों को तुलना हेतु प्रस्तुत किया है-
(i) सौकेटिक प्रारूप (The Socratic Model)- इस प्रारूप में ये विशेषताएँ हैं-(1) पूछना (Inquiry), (2) अनुभवों का संगठन तथा (3) शिक्षण विधि। ये तीनों प्रक्रियाएँ शैक्षिक लक्ष्य की उपलब्धि कराती हैं, इस विधि को जॉर्डन (1963) ने निरीक्षण विधि माना है, शिक्षण का प्रारूप नहीं। यह तो खोज (Discovery) तथा प्रत्यय अधिगम (Concept Learning) पर बल देता है।
(ii) शास्त्रीय मानववादी प्रारूप (The Jesuit or Classical Humanist Model)- यह प्रारूप जेसस प्रारूप कहलाता है। पन्द्रहवीं से उन्नीसवीं सदी तक शिक्षण का यही प्रारूप प्रचलित रहा। यह विधि-सामग्री संगठन, शिक्षण विधि, प्रभावपूर्ण निर्देश पर बल देती है। यह विधि पुनर्जागरण युग की देन है। अभिजात वर्ग में इसी विधि तथा प्रारूप में शिक्षा दी जाती थी। इसमें अध्यापक के आदर्श का अनुकरण करने की आशा की जाती थी।
(iii) वैयक्तिक विकास प्रारूप (The Personal Development Model)- प्रगतिशील शिक्षा के आन्दोलन स्वरूप बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में यह प्रारूप विकसित हुआ। यह विधि जीवन समायोजन आन्दोलन पर बल देती है। इसमें अध्यापक की भूमिका प्रमुख होती है। कोम्ब (Comb) एवं स्निग (Snygg) ने इस प्रारूप को वैयक्तिक विकास की सम्भावनाओं पर विकसित किया।
शिक्षण प्रतिमानों की उपयोगिता
कारलिंगर के शब्दों में- “शिक्षण सिद्धान्त तथा परिभाषाओं, परिकल्पनाओं तथा उनसे सम्बन्धित चरों का एक गठन है। यह शिक्षण की क्रमबद्ध विचारधारा को प्रस्तुत करता है। इनमें चरों के आपसी सम्बन्धों की व्याख्या की जाती है। ये शिक्षण की भविष्यवाणी तथा उसकी व्याख्या करते हैं। “
शिक्षण प्रतिमान, शिक्षण सिद्धान्तों पर आधारित हैं। इनकी उपयोगिता इस प्रकार है-
- उद्देश्य प्राप्ति में सहायक होना ।
- अनुभवों को दिशा देना।
- उपयुक्त शैक्षिक परिस्थितियों का निर्माण करना ।
- शिक्षण व्यूह तथा युक्तियों का चयन करना ।
- शिक्षण में सुधार करना।
शिक्षण प्रतिमान, शिक्षण के क्षेत्र में विकसित नवीन धारणा है। इनका कितना उपयोग किया जाना चाहिए, विचार का विषय है।
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