शिक्षा से आप क्या समझते हैं ? शिक्षा को परिभाषित करते हुए इसकी प्रकृति की विवेचना कीजिए। अथवा शिक्षा का संकुचित एवं व्यापक अर्थ स्पष्ट करते हुए शिक्षा की परिभाषा दीजिए। इसकी विशेषताएँ भी बताइए। अथवा शिक्षा क्या है ? शिक्षा की प्रकृति का वर्णन कीजिए। अथवा ‘शिक्षा विज्ञान है अथवा कला। ‘विवेचना कीजिए।
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शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education)
1. शिक्षा का शाब्दिक अर्थ – “शिक्षा” शब्द ‘शिक्ष’ धातु से बना है। ‘शिक्ष’ का अर्थ है- ज्ञान प्राप्त करना अथवा विद्या ग्रहण करना। ‘विद्या’ शब्द का प्रयोग भी शिक्षा के अर्थों में किया जाता है। विद्या शब्द की व्युत्पत्ति ‘विद’ धातु से हुई है। ‘विद’ का अर्थ है जानना। इस प्रकार ‘विद्या’ का अर्थ हुआ-ज्ञान। ईशोपनिषद के अनुसार, विद्या से आशय उस ज्ञान से है जिसको प्राप्त करने के पश्चात् और कुछ जानना शेष न रह जाय। इस अर्थ में विद्या से तात्पर्य है- ‘आत्म-ज्ञान’ ।
शिक्षा का प्राचीन समय में अर्थ- प्राचीन समय में विभिन्न देशों में समाज के आदर्शों और उद्देश्यों के अनुसार शिक्षा को विभिन्न अर्थ दिए गये हैं। उदाहरणार्थ- प्राचीन भारत में ‘शिक्षा’ को ‘आत्मज्ञान’ और ‘आत्मप्रकाशन’ का साधन माना गया है। प्राचीन चीन में शिक्षा द्वारा व्यक्तियों को सामाजिक व्यवस्था का आदर करने का प्रशिक्षण दिया जाता था। प्राचीन यूनान में व्यक्ति को राजनैतिक, सामाजिक, मानसिक, नैतिक और सौन्दर्य ज्ञान के लिए शिक्षा प्रदान की जाती थी। प्राचीन रोम में शिक्षा व्यक्ति को जीवन के व्यावहारिक कार्यों के लिए तैयार करती थी। इस प्रकार उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि प्राचीन समय में शिक्षा का अर्थ सभी देशों में भिन्न-भिन्न प्रकार से स्वीकार किया गया है।
2. शिक्षा का संकुचित अर्थ- शिक्षा के संकुचित अर्थ के अनुसार शिक्षा से आशय उस शिक्षा से है जो एक निश्चित स्थान अर्थात् विद्यालय या कॉलेज में दी जाती है। इसमें शिक्षा की एक निश्चित योजना होती है। यह एक निश्चित समय तक दी जाती है। इसमें बालक को निश्चित विधियों से ज्ञान प्रदान किया जाता है। शिक्षा के संकुचित अर्थों में शिक्षा कुछ विषयों तक ही सीमित रहती है। बालक को केवल उसी प्रकार की शिक्षा दी जाती है जिसे उसके लिए उपयोगी समझा जाता है। शिक्षा प्रदान करने का मुख्य स्थान ‘विद्यालय’ होता है। विद्यालय में शिक्षक के द्वारा शिक्षा प्रदान की जाती है। शिक्षक पर ही बालक को ज्ञान प्रदान करने का दायित्व होता है।
उपरोक्त व्याख्या के आधार पर कहा जा सकता है कि शिक्षा का अर्थ विशेष प्रकार की पुस्तकों का अध्ययन करना है। बालक पुस्तकों का कीड़ा बनकर रह जाता है। उसे किसी प्रकार का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाता। पुस्तकें उसके चरित्र तथा मस्तिष्क का विकास नहीं कर पातीं। इसी आधार पर शिक्षा को ‘शिक्षा’ न कहकर ‘शिक्षण’ या ‘निर्देश’ (Instruction) कहा जाता है। टी० रेमाण्ट (T. Raymont) का कथन है, “संकुचित अर्थ में शिक्षा का प्रयोग बोलचाल की भाषा एवं कानून में किया जाता है ।”
3. शिक्षा का व्यापक अर्थ – शिक्षा के व्यापक अर्थ के अनुसार, शिक्षा आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है। यह शिक्षण की प्रक्रिया उसी समय प्रारम्भ हो जाती है जब बालक का जन्म होता है तो उस समय उसके इर्द-गिर्द सभी व्यक्ति घूमते हैं लेकिन वह सबसे पहले अपनी माँ के सम्पर्क में आता है। इसके उपरान्त अपनी आवश्यकताओं, इच्छाओं की पूर्ति हेतु परिवार के अन्य सदस्य, पड़ोस तथा समाज के सम्पर्क में आता है। बाल्यावस्था से ही बालक को प्राकृतिक वातावरण के साथ समायोजित होने का प्रयास करना पड़ता है और आयु बढ़ने के बाद वह सामाजिक, राजनैतिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करता है। इससे बालक धीरे-धीरे परिवार, पड़ोस, स्कूल, समाज आदि संस्थाओं से कुछ-न-कुछ सीखता रहता है इसलिए शिक्षा के विषय में लिखा गया है कि “शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो जन्म से लेकर मृत्यु तक निरन्तर चलती रहती है।”
स्पष्ट है कि शिक्षा का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। शिक्षा उस विकास का नाम है जो जन्म से लेकर जीवन के अन्तिम क्षण तक चलता रहता है। इस विकास के बिना बालक का जीवन सफल नहीं हो सकता। ‘शिक्षा’ शब्द का यही व्यापक अर्थ है।
4. शिक्षा का विश्लेषणात्मक अर्थ – ‘शिक्षा’ शब्द को विभिन्न विद्वानों ने अलग अलग अर्थों के रूप में स्वीकार किया है-
(i) कुछ विद्वान शिक्षा को विद्यालय की परिधि तक सीमित मानते हैं, किन्तु शिक्षा के सन्दर्भ में इस प्रकार की धारणा दोषपूर्ण है क्योंकि शिक्षा विद्यालय तक सीमित नहीं रहती। वह जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है। मानव जीवन भर कुछ-न-कुछ सीखता रहता है। सीखने के लिए आयु व स्थान निर्धारित नहीं होता।
(ii) शिक्षा मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है – शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में बढ़ते विकास की प्रक्रिया के फलस्वरूप कुछ विद्वानों का मानना है कि बालक के मस्तिष्क को जबरन स ठूस के भरना शिक्षा नहीं है। इसके विपरीत शिक्षा का अभिप्राय बालक की समस्त शक्तियों के विकास से है। शिक्षाशास्त्री एडीसन का मानना है कि “शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य में निहित शक्तियों का विकास होता है।”
(iii) शिक्षा एक गतिशील प्रक्रिया- शिक्षा एक गतिशील प्रक्रिया है, जड़ नहीं। जिस प्रकार राष्ट्र, समाज आदि की परिस्थितियों में अन्तर आता है, ठीक उसी प्रकार शिक्षा के उद्देश्यों में परिवर्तन हो जाता है और उसी के अनुसार बालक को शिक्षा प्रदान की जाती है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है इसीलिए समय-समय पर पाठ्यक्रम में परिवर्तन हो जाता है।
(iv) शिक्षा उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया – शिक्षा एक उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है, क्योंकि कोई भी – उद्दीपन कोई भी क्रिया करता है तो उसका उद्देश्य उसमें छिपा रहता है। ठीक इसी प्रकार शिक्षा बालक में समाज में समायोजन की क्षमता, चरित्र का निर्माण, बुद्धि का विकास, शारीरिक विकास तथा कार्य करने की क्षमता को विकसित करती है।
5. शिक्षा का वास्तविक अर्थ- शिक्षा के शाब्दिक अर्थ को ठीक नहीं माना जा सकता क्योंकि शाब्दिक अर्थ वास्तविक अर्थ नहीं होता है। शिक्षा का विश्लेषणात्मक अर्थ शिक्षा को स्पष्ट करने का प्रयास करता है। वास्तव में शिक्षा का वास्तविक अर्थ शिक्षा के संकुचित तथा व्यापक अर्थ के मध्य में निहित है। शिक्षा एक गत्यात्मक प्रक्रिया है। यह मनुष्य को जीवन में प्रगति करने को तैयार करती है। शिक्षा स्थिर नहीं है। यह सदैव गतिशील रहती है।
“शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है, जो मनुष्य की जन्मजात शक्तियों के स्वाभाविक और सामंजस्यपूर्ण उन्नति में सहयोग देती है, उसकी वैयक्तिकता का पूर्ण विकास करती है, उसे अपने वातावरण से समायोजन करने में सहायता प्रदान करती है, उसे जीवन और नागरिकता कर्त्तव्यों और दायित्वों के लिए तैयार करती है और व्यवहार और विचार तथा दृष्टिकोण में ऐसा परिवर्तन करती है जो समाज, देश व विश्व के लिए हितकर होता है।”
वास्तव में शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति की जन्मजात शक्तियों को विकसित करती है। शिक्षा बालकों की वैयक्तिकता का विकास करती है। शिक्षा व्यक्ति का वातावरण से समायोजन करने में उसकी सहायता करती है।
शिक्षा की परिभाषाएँ (Definitions of Education)
प्रिंसटन रिव्यू के अनुसार- “शिक्षा सीखना नहीं है बल्कि मस्तिष्क की शक्तियों का अभ्यास तथा विकास है और यह ज्ञान के केन्द्र एवं जीवन के संघर्षों के माध्यम से प्राप्त होती है।”
जॉन डीवी- “शिक्षा व्यक्ति की उन योग्यताओं के विकास का नाम है जो उसे उसके वातावरण पर नियन्त्रण रखना सिखाते हैं और उसकी सम्भावनाओं को पूर्ण करती है।”
गांधी जी- “शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक और मनुष्य के सर्वांगीण विकास शरीर, मस्तिष्क और आत्मा से है।”
स्पेन्सर- “शिक्षा में आदतें, स्मरण, आदर्श, स्वरूप, शारीरिक तथा मानसिक कौशल, बौद्धिकता और रूप नैतिक विचार और ज्ञान ही नहीं, विधियाँ भी शामिल हैं।”
फ्राबेल- “शिक्षा एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक की अन्तःशक्तियों को बाहर लाया जाता है।”
मिल्टन- “पूर्ण एवं उदार शिक्षा वह है जो किसी व्यक्तिगत कार्यों का चतुराई, दक्षता और उदारता के साथ करना सिखाती है।”
शिक्षा का आधुनिक सम्प्रत्यय (Modern Concept of Education)
(1) शिक्षा का राजनीतिक सम्प्रत्यय- राजनीतिशास्त्रियों ने राज्य और उसके शासन तंत्र पर अधिक विचार किया है। उनके अनुसार व्यक्ति और समाज का रूप राज्य और शासनतंत्र के अनुसार होना चाहिए। व्यक्ति को इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए जो समाज और राज्य के हित में हो। शिक्षा के द्वारा श्रेष्ठ नागरिकों का निर्माण किया जाना चाहिए। श्रेष्ठ नागरिकों के निर्माण से ही एक श्रेष्ठ राष्ट्र का निर्माण किया जा सकता है।
(2) शिक्षा का वैज्ञानिक सम्प्रत्यय- वैज्ञानिक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और उसकी सभी क्रियाओं का अध्ययन करते हैं। वे किसी वस्तु या व्यक्ति की क्रियाओं को वैज्ञानिक ढंग से देखते हैं। बालक की जन्मजात शक्तियों के सम्बन्ध में वे मनोवैज्ञानिकों से सहमत हैं। उसके व्यवहार के सम्बन्ध में वे शिक्षाशास्त्रियों से सहमत हैं। उनके मतानुसार बालक अपनी जन्मजात शक्तियों के द्वारा ही बाह्य वातावरण के साथ समायोजन करता है।
(3) शिक्षा का आर्थिक सम्प्रत्यय- अर्थशास्त्रियों ने अपने विचार आर्थिक स्रोत और आर्थिक तंत्र पर दिये हैं। वे व्यक्ति और समाज को आर्थिक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। उनके अनुसार शिक्षा एक उत्पादक क्रिया है। उनके अनुसार शिक्षा उपभोग की वस्तु होते हुए उत्पादन का कारक भी है। शिक्षक व्यक्ति में उत्पादन शक्ति अशिक्षित से अधिक होती है। व्यक्ति की शिक्षा पर किया गया व्यय उसके द्वारा अर्जित अतिरिक्त लाभ से बहुत कम होता है। अर्थशास्त्रियों के अनुसार शिक्षा आर्थिक निवेश के समान ही होती है। इससे व्यक्ति में उत्पादन और संगठन के कौशलों में वृद्धि होती है। इस प्रकार व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की उत्पादन क्षमता में वृद्धि करता है।
(4) शिक्षा का मनोवैज्ञानिक सम्प्रत्यय- मनोविज्ञान का अध्ययन क्षेत्र बालक का बाह्य स्वरूप और उसका अन्तःकरण दोनों होते हैं। मनोवैज्ञानिक के अनुसार शिक्षा बाह्य इन्द्रियों और अन्तःकरण का प्रशिक्षण है। उनके अनुसार बालक जन्म से कुछ शक्तियों को लेकर जन्म लेता है और शिक्षा का कार्य इन शक्तियों का विकास करना है। बालक की इन जन्मजात शक्तियों का विकास कैसा किया जाये इस सम्बन्ध में पेस्टालॉजी ने लिखा है- “शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक समरस और प्रगतिशील विकास है।”
शिक्षा की प्रकृति (Nature of Education )
शिक्षा की प्रकृति को हम निम्न रूप में स्पष्ट कर सकते हैं-
शिक्षा विज्ञान के रूप में (Education as a Science)
आधुनिक युग प्रत्येक दृष्टिकोण से विकसित एवं तार्किक युग है आज प्रत्येक विषय का व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है। व्यवस्थित अध्ययन के लिए विषय के स्वरूप को निर्धारित करना भी अनिवार्य होता है। सामान्य रूप से सभी विषयों का वर्गीकरण दो मुख्य वर्गों में किया जाता है। ये वर्ग हैं कला तथा विज्ञान । अब प्रश्न उठता है कि शिक्षा क्या है कला अथवा विज्ञान ? इस प्रश्न के समाधान के लिए शिक्षा का मूल्यांकन अलग-अलग रूप से कला तथा विज्ञान की कसौटियों पर किया जायेगा। इसके लिये सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि विज्ञान तथा कला की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं ? –
विज्ञान क्या है ?
सामान्य रूप से रसायनशास्त्र, भौतिकशास्त्र अथवा जीवशास्त्र आदि विषयों को विज्ञान माना जाता है, परन्तु यह धारणा अनुचित है। वास्तव में कोई भी अध्ययन क्षेत्र विषय-सामग्री के आधार पर विज्ञान वर्ग में सम्मिलित नहीं किया जा सकता। यदि विषय-सामग्री के आधार पर किसी ज्ञान को विज्ञान की संज्ञा दी जाने लगे तो समस्या यह होगी कि भिन्न-भिन्न विषय सामग्री वाले ज्ञान को विज्ञान कहना सम्भव न होगा। ऐसी स्थिति में रसायनशास्त्र तथा जीवशास्त्र दोनों को ही एक समान नाम अर्थात् ‘विज्ञान’ दे पाना सम्भव न होगा, क्योंकि इन दोनों की विषय सामग्री में पर्याप्त अन्तर है।
इस तथ्य को श्री जी० ए० लुण्डवर्ग (G. A. Lundberg) ने इन शब्दों में व्यक्त किया है, “विषय सामग्री के आधार पर विज्ञान की परिभाषा करने का प्रयत्न केवल भ्रम में डालना है। “
अब प्रश्न उठता है कि वास्तव में वह कौन-सी कसौटी है जो कि किसी भी ज्ञान को या विषय को विज्ञान की संज्ञा प्रदान करती है ? इस समस्या का समाधान विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। सर्वश्री गिलिन तथा गिलिन ने विज्ञान की पहचान इन शब्दों में प्रस्तुत की है, “जिस क्षेत्र का हम अनुसंधान करना चाहते हैं उसकी ओर एक निश्चित प्रकार की पद्धति ही विज्ञान की वास्तविक पहचान है।” प्रस्तुत कथन द्वारा स्पष्ट है कि यदि किसी विषय के अनुसंधान के लिए एक निर्धारित पद्धति का अध्ययन करने के लिए एक निर्धारित पद्धति को अपनाया जाये तो उस विषय को विज्ञान कहा जाता है। हम कह सकते हैं कि अध्ययन पद्धति द्वारा विज्ञान का निर्धारण होता है न कि विषय-वस्तु द्वारा। इसी तथ्य को कार्ल पियर्सन ने इन शब्दों में प्रस्तुत किया “समस्त विज्ञान की एकता उसकी पद्धति में है, उसकी विषय-वस्तु में नहीं।” वैज्ञानिक पद्धति द्वारा किया गया प्रत्येक अध्ययन वैज्ञानिक अध्ययन कहलाता है तथा इस प्रकार से प्राप्त ज्ञान को वैज्ञानिक ज्ञान कहा जाता है। विज्ञान या वैज्ञानिक का कार्य इसी प्रकार के ज्ञान को अर्जित करना है। इसी तथ्य को कार्ल पियर्सन ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “तथ्यों का वर्गीकरण उनके अनुक्रम और सापेक्षिक महत्त्व को जानना ही विज्ञान का कार्य है।” विज्ञान के अर्थ के इस सामान्य विवेचन के उपरान्त विज्ञान की मुख्य विशेषताओं का भी उल्लेख करना अनिवार्य है। ये विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- वैज्ञानिक अध्ययन के लिए एक विशिष्ट पद्धति को अपनाया जाता है, जिसे वैज्ञानिक पद्धति कहा जाता है।
- समस्त वैज्ञानिक अध्ययन तथ्यात्मक होते हैं अर्थात् विज्ञान तथ्यों का अध्ययन करता है, आदर्शों का नहीं।
- विज्ञान सम्बन्धित घटनाओं के विषय में कार्य-कारण सम्बन्धों को ज्ञात करता है।
- वैज्ञानिक अध्ययन सार्वभौमिक होते हैं।
- वैज्ञानिक नियम एवं सिद्धान्त सत्यापनशील होते हैं।
- विज्ञान सम्बन्धी घटनाओं के विषय में भविष्यवाणी भी करता है।
- वैज्ञानिक अध्ययन नैतिक दृष्टि से निरपेक्ष होते हैं।
क्या शिक्षा विज्ञान है ? – विज्ञान का अर्थ एवं विशेषताओं को जान लेने के उपरान्त इसी आधार पर निर्धारित करना होगा कि शिक्षा विज्ञान है या नहीं। अब यह प्रश्न उठता है कि शिक्षा में कहाँ तक विज्ञान की अनिवार्य विशेषताएँ पायी जाती हैं ? यदि तटस्थ रूप से देखा जाये तो हम कह सकते हैं कि शिक्षा को विशुद्ध विज्ञान की श्रेणी में रखा जा सकता है। शिक्षा के सिद्धान्त न तो सार्वभौमिक हैं और न ही अन्तिम। वे समय एवं काल के साथ परिवर्तित होते हैं। इसके अतिरिक्त शिक्षण अर्थात् शिक्षा प्रदान करने में भिन्न-भिन्न रीतियों- नीतियों एवं पद्धतियों को अपनाना पड़ता है। ‘शिक्षा’ के विभिन्न सिद्धान्त तो वैज्ञानिक हैं परन्तु व्यवहार पूर्ण रूप से वैज्ञानिक नहीं है। इस नीति में शिक्षा को हद से हद आदर्शात्मक विज्ञान की श्रेणी में रख सकते हैं।
क्या शिक्षा कला है ? – शिक्षा के स्वरूप के विषय में कुछ विद्वानों का मत है कि यह एक कला है। कला वह विद्या है जिसका उद्देश्य सृजनात्मकता है। कला के माध्यम से रचनाएँ होती हैं। कला के निर्धारित नियम या कठोर बन्धन नहीं होते हैं। कला एवं कलाकार मुक्त होते हैं।
अब प्रश्न उठता है कि शिक्षा किस हद तक कला है? यह सत्य है कि शिक्षा द्वारा सृजन होता है तथा शिक्षा के परिणामस्वरूप बच्चे के नये रूप का विकास होता है। इस अर्थ में शिक्षा को कला तथा शिक्षक को कलाकार कहा जा सकता है। शिक्षक अपने विचारों को शिक्षार्थी तक पहुँचाने के लिए काफी हद तक स्वतन्त्र होता है तथा वह प्रेषण के ढंग बदल-बदलकर अपना कार्य करता है। शिक्षक कलाकार की ही भाँति शिष्य को निखारता है। शिष्य पर शिक्षक की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है, परन्तु इसके साथ-साथ शिक्षक कुछ हद तक परतन्त्र एवं नियमों में बँधा भी होता है। इस हद तक शिक्षण की मुख्य पद्धतियाँ भी पूर्व निर्धारित तथा निश्चित होती हैं। इस स्थिति में शिक्षा को शुद्ध कला की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।
निष्कर्ष – उपरोक्त वर्णन द्वारा स्पष्ट होता है कि शिक्षा न तो शुद्ध विज्ञान है और न ही शुद्ध कला, इसमें दोनों के कुछ तत्त्व विद्यमान हैं। वैसे आधुनिक रूप से क्रमशः शिक्षा के क्षेत्र में वैज्ञानिक पद्धति का अधिक-से-अधिक उपयोग करने की ओर रुझान है। ऐसी स्थिति में शिक्षा को व्यावहारिक विज्ञान की कोटि में रखा जा सकता है।
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