शिक्षा के प्रमुख स्वरूपों अथवा प्रकारों की विवेचना कीजिए।
शिक्षा के स्वरूप (प्रकार) (Forms of Education)
शिक्षा एक जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है जो बालक और व्यक्ति के सर्वतोन्मुखी विकास में सहायता प्रदान करती है। शिक्षा को विभिन्न रूपों में अपना कार्य सम्पन्न करना होता है। शिक्षा के प्रमुख रूप अथवा प्रकार निम्नवत् हैं-
(1) औपचारिक, अनौपचारिक एवं निरौपचारिक शिक्षा- औपचारिक शिक्षा व्यवस्थित ढंग से निश्चित योजना के अनुसार प्रदान की जाती है इसे विशेष सविधिक शिक्षा के नाम से पुकारा जाता है। अनौपचारिक शिक्षा व्यक्ति के जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक चलती रहती है इसे अविधिक शिक्षा के नाम से जाना जाता है। निरौपचारिक शिक्षा औपचारिक शिक्षा और अनौपचारिक शिक्षा का मिश्रण है इसे निरौपचारिक अथवा औपचारिकेत्तर शिक्षा के नाम से भी जाना जाता है।
(2) प्रत्यक्ष एवं परोक्ष शिक्षा – प्रत्यक्ष एवं परोक्ष शिक्षा शिक्षक के प्रभाव के अनुसार होती है। प्रत्यक्ष शिक्षा में छात्र के जीवन पर शिक्षक के व्यक्तित्व का सीधा एवं गहन प्रभाव पड़ता है। जॉन डी० वी० का विचार है कि, “शिक्षा द्विमुखी प्रक्रिया है जो शिक्षक और शिक्षार्थी के मध्य होती है ।” शिक्षक अपने ज्ञान और आदर्श से छात्र को प्रभावित करता है। और बालक उसके सम्पर्क में आकर उसका अनुसरण करता है। जब शिक्षा का प्रत्यक्ष प्रभाव छात्र पर नहीं पड़ता और शिक्षक परोक्ष साधनों द्वारा छात्र को प्रभावित करता है, तो ऐसी शिक्षा को परोक्ष शिक्षा कहते हैं। इसमें शिक्षक बालक पर अपना प्रभाव डालने के लिए अप्रत्यक्ष अथवा परोक्ष साधनों का सहारा लेता है। इस प्रकार की शिक्षा में छात्र को अपनी इच्छानुसार पढ़ने की स्वतंत्रता होती है।
(3) निश्चयात्मक और अनिश्चयात्मक शिक्षा – यदि शिक्षा का उद्देश्य बालक को किसी पूर्व निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए तैयार करना होता है तो उसे निश्चयात्मक शिक्षा कहते हैं। इस शिक्षा में निश्चित प्रयोगों द्वारा बालक पर विशेष प्रभाव डाला जाता है जिससे कि वह किसी एक क्षेत्र में निपुण हो जाय। इसके विपरीत जब किसी पूर्व निश्चित उद्देश्य और शिक्षा योजना के बिना ही बालक का समुचित विकास करना होता है तो उसे अनिश्चयात्मक शिक्षा कहा जाता है। इस शिक्षा के द्वारा बालक का शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास होता है। शिक्षक शिक्षार्थी को अपनी इच्छानुसार शिक्षित करने का प्रयास नहीं करता बल्कि बालक स्वयं अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों, इच्छाओं और रुचियों के अनुसार अपने व्यक्तित्व का विकास करता है।
(4) व्यक्तिगत एवं सामूहिक शिक्षा व्यक्तिगत शिक्षा- के अन्तर्गत एक बालक अथवा व्यक्ति को शिक्षा प्रदान की जाती है और शिक्षा का प्रभाव उसी पर केन्द्रित किया जाता है। इस प्रकार की शिक्षा में बालक की प्रवृत्तियों एवं उसकी रुचियों को ध्यान में रखकर उसके व्यक्तित्व का विकास किया जाता है। शिक्षक शिक्षण की विभिन्न आधुनिक विधियों को प्रयोग में लाता है। सामूहिक शिक्षा अनेक बालकों अथवा व्यक्तियों को एक साथ प्रदान की जाती है। सभी शिक्षार्थी कक्षा में एक साथ बैठकर एक ही प्रकार की शिक्षा प्राप्त करते हैं। इस प्रकार की शिक्षा में प्रत्येक बालक पर व्यक्तिगत ध्यान नहीं दिया जाता बल्कि कक्षा के सभी बालकों को समान स्तर पर एक ही ढंग से शिक्षा प्रदान की जाती है। इस प्रकार की शिक्षायें बालकों के मानसिक विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक है।
(5) सामान्य और विशिष्ट शिक्षा – सामान्य शिक्षा छात्र के सामान्य जीवन के लिए प्रदान की जाती है। इसमें छात्र को किसी व्यवसाय के लिए तैयार नहीं किया जाता बल्कि उसे जीवन के सामान्य व्यावहारिक ज्ञान से परिचित कराया जाता है। इस शिक्षा का कोई विशेष उद्देश्य नहीं होता, इसीलिए इसे उदार शिक्षा भी कहा जाता है। इस शिक्षा से बालक में तत्परता आती है। सामान्य शिक्षा के विपरीत विशिष्ट उद्देश्य होता है। इसके द्वारा बालक को किसी कार्य या व्यवसाय विशेष के लिए तैयार किया जाता है, जैसे-डॉक्टर, इंजीनियर, प्रकाशक, प्रबन्धक, चित्रकार आदि। इस शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य बालक को किसी विशेष दिशा में तत्संबंधी आवश्यक गुणों एवं कार्य-कुशलता से युक्त करना है।
(6) एकांगी और सर्वांगीण शिक्षा- मानव व्यक्तित्व के तीन पक्ष माने गये हैं- शारीरिक विकास, बौद्धिक विकास एवं भावनात्मक विकास एकांगी शिक्षा वह है जो व्यक्तित्व के किसी एक पक्ष को ध्यान में रखकर प्रदान की जाती है। इसके विपरीत सर्वांगीण शिक्षा के अन्तर्गत व्यक्तित्व के सभी पक्षों के विकास का प्रयास किया जाता है।
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