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संविधान सभा के अन्तर्गत भाषा विवाद (Debate on Language in the Constituent Assentbly)
संविधान निर्माण के समय हमारे संविधान निर्माताओं के समक्ष भाषायी प्रदेशों की माँगों को सन्तुष्ट करना तथा भाषा अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करने की प्रमुख समस्या थी। संविधान सभा में के प्रश्न पर लम्बी बहस हुई परन्तु भाषा के प्रश्न को पूरी तरह से हल नहीं किया गया। हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता तो दी गयी परन्तु साथ ही दक्षिणी राज्यों द्वारा हिन्दी के प्रवल विरोध के कारण अंग्रेजी को केन्द्र तथा राज्यों के मध्य ‘सम्पर्क भाषा‘ (Link Language) के रूप में बनाये रखा गया। संविधान सभा ने राज्यों के पुनर्गठन के प्रश्न को भी हल नहीं किया। संविधान के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गयी कि संसद को किसी भी नये राज्य के निर्माण का अधिकार हो । दो या दो से अधिक राज्य यदि राष्ट्रपति से प्रतिवेदन करें कि उनकी सीमाओं अथवा नामों में परिवर्तन कर दिया जाय तो राष्ट्रपति की संस्तुति पर संसद में इस प्रकार का विधेयक प्रस्तुत किया जा सकता है। इस प्रकार हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान निर्माण के समय राज्यों के पुनर्गठन की समस्या को भविष्य के लिए छोड़ दिया।
भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन (Reorganization of the States on the Linguistic basis)
स्वतन्त्रता से पूर्व भी भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की माँग की जाती रही थी। सन् 1938 के नेहरू समिति की रिपोर्ट में कहा गया था “भाषायी आधार पर प्रान्तों का अब पुनः वर्गीकरण करना पूर्णरूप से वांछनीय हो गया है। सामान्य रूप से भाषा, संस्कृति, परम्पराओं तथा साहित्य की एक विशेष किस्म है।” स्वतन्त्रता के पश्चात् भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की माँग जोर पकड़ने लगी। 22 दिसम्बर, 1953 को तत्कालीन प्रधानमन्त्री नेहरू ने लोकसभा में राज्यों पुनर्गठन के लिए फजल अली की अध्यक्षता में एक आयोग की स्थापना की घोषणा की। 30 सितम्बर, 1955 को इस आयोग की रिपोर्ट प्रकाशित की गयी। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि राज्यों का पुनर्गठन करते समय भाषा, संस्कृति, परम्पराओं तथा अन्य पक्षों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। आयोग ने सिफारिश की कि एक भाषा-भाषी राज्य में विभिन्न भाषा बोलने वाले समूहों की शैक्षणिक तथा संचार सम्बन्धी आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए। आयोग ने यह भी सिफारिश की कि विभिन्न राज्यों में भाषायी अल्पसंख्यकों को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए तथा अखिल भारतीय सेवाओं का पुनर्गठन किया जाना चाहिए। आयोग का विचार था कि भाषायी जातीयता को मान्यता देते हुए इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि कहीं अन्य बातों का सन्तुलन न बिगड़ जाय। हिन्दी के अतिरिक्त अन्य प्रादेशिक भाषाओं को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। अंग्रेजी को विश्वविद्यालयों तथा उच्चकोटि की शिक्षा संस्थाओं में शिक्षा का माध्यम बनाये रखना चाहिए। भाषा के आधार पर ‘पृथक् देश’ के विचार को हतोत्साहित किया जाना चाहिए तथा ‘एक भाषा एवं एक प्रान्त’ के विचार को भी नहीं पनपने देना चाहिए। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की कि एक भाषावाद के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन से पृथकतावादी तथा क्षेत्रीय प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलेगा। इन खतरनाक प्रवृत्तियों को रोकने के लिए विभिन्न राज्यों में आपस में सहयोग का विस्तार किया जाना चाहिए।
केन्द्र की द्विभाषावादी नीति (Bilingual Policy of the Centre)
सरकारी भाषा आयोग’ (Official Language Commission) द्वारा हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में घोषित करने पर गैर-हिन्दी भाषी क्षेत्रों द्वारा इसका तीव्र विरोध किया गया। उत्तरी भारत के राज्यों द्वारा सरकारी भाषा आयोग की सिफारिशों का स्वागत किया गया। सन् 1963 में ‘सरकारी भाषा अधिनियम’ (Official Language Act) पारित कर दिया गया। इस अधिनियम के अनुसार यह व्यवस्था की गयी कि केन्द्र के सरकारी कार्यों के लिए हिन्दी के अतिरिक्त अंग्रेजी का भी प्रयोग जारी रहेगा। संसद के कामकाज को चलाने के लिए भी अंग्रेजी का प्रयोग जारी रहेगा। केन्द्र अधिनियमों, अध्यादेशों तथा संसद में प्रस्तावित विधेयकों का हिन्दी अनुवाद किया जायेगा।
सरकारी भाषा आयोग की सिफारिशों पर दक्षिणी भारत के राज्यों द्वारा प्रतिकूल प्रतिक्रिया व्यक्त की गयी। गैर-हिन्दी भाषा राज्यों के 70 संसद सदस्यों ने प्रधानमन्त्री के समक्ष एक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। इस प्रतिवेदन में इस आयोग की सिफारिशों को सन् 1990 तक लागू न करने की माँग की गयी तथा यह भी कहा गया कि इस अवधि में अंग्रेजी के प्रयोग को जारी रखा जाना चाहिए। सन् 1961 में पश्चिमी बंगाल विधानसभा ने बंगाली भाषा को अंग्रेजी के स्थान पर सरकारी कामकाज की भाषा घोषित किया। इसी प्रकार असम विधानसभा ने भी अंग्रेजी के स्थान पर असमिया भाषा को सरकारी कामकाज की भाषा घोषित करने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया, परन्तु असम में रहने वाले बंगालियों द्वारा इसका भारी विरोध किया गया। तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने दक्षिणी राज्यों के निवासियों को आश्वासन दिया कि उनकी मर्जी के बगैर हिन्दी उन पर थोपी नहीं जायेगी, परन्तु गैर-हिन्दी भाषी राज्यों को सरकार के आश्वासन पर विश्वास नहीं हुआ। अतःः सन् 1967 में संसद ने सरकारी भाषा संशोधन अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम के अनुसार यह निश्चित किया गया कि केन्द्रीय सरकार के कामकाज में अंग्रेजी का प्रयोग तब तक जारी रहेगा जब तक कि सभी राज्यों के विधानमण्डल हिन्दी को स्वेच्छा से स्वीकार कर लें। सरकार ने गैर-हिन्दी भाषी राज्यों को सन्तुष्ट करने के लिए त्रिभाषा फार्मूला (Three Language Formula) निकाला। केन्द्र के इस फार्मूले के अन्तर्गत प्रत्येक को अंग्रेजी, हिन्दी तथा एक प्रादेशिक भाषा सीखनी होगी। इस फार्मूले से भी भाषा की समस्या पूरी तरह हल नहीं हो पायी है। गैर-हिन्दी भाषा राज्यों का हिन्दी विरोध आज भी बना हुआ है। इन राज्यों के विरोध कारण राष्ट्र भाषा का प्रश्न आज भी अधर में लटका हुआ है। हिन्दी को संविधान में राष्ट्रभाषा का स्थान अवश्य प्राप्त है परन्तु व्यवहार में वह राष्ट्रभाषा का रूप नहीं ग्रहण कर पायी है।
संविधान के अन्तर्गत भाषायी अल्पसंख्यकों को सुरक्षा (Safeguards for the Linguistic Minorities under the Constitution)
भारत में विभिन्न भाषायी अल्पसंख्यक समूहों को हमारे संविधान के अन्तर्गत पर्याप्त सुरक्षायें प्रदान की गयी हैं, जो निम्न प्रकार हैं-
भारत के राज्य क्षेत्र अथवा उसके किसी भी भाग के निवासी को अपनी विशेष लिपि अथवा भाषा को बनाये रखने का अधिकार प्राप्त है। भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक समूहों को अपनी भाषा की उन्नति के लिए शिक्षा संस्थाओं की स्थापना तथा उनकी व्यवस्था करने का अधिकार प्सिफारिशों भाषायी अल्पसंख्यकों को संविधान के अन्तर्गत सुरक्षा प्रदान करने के लिए अनुच्छेद 350 के अनुसार, “भाषायी अल्पसंख्यकों के लिए आयुक्त” (Commissioner for Linguistic Minoritics) की व्यवस्था है। इस अधिकारी की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जायेगी। इस अधिकारी का कर्त्तव्य भाषायी अल्पसंख्यकों से सम्बन्धित समस्याओं पर राष्ट्रपति को सुझाव देना है।
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