हिन्दी साहित्य

सन्त काव्य धारा के प्रमुख कवियों का संक्षिप्त परिचय

सन्त काव्य धारा के प्रमुख कवियों का संक्षिप्त परिचय
सन्त काव्य धारा के प्रमुख कवियों का संक्षिप्त परिचय

सन्त काव्य धारा के प्रमुख कवियों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।

सन्त काव्य धारा के प्रमुख कवि

विद्वानों ने सन्तकाव्य का प्रमुख प्रवर्तक कबीर दास को माना है, लेकिन कबीर से पहले विठ्ठल सम्प्रदाय में भी बहुत से सन्त कवि हुए थे, जिनमें नामदेव, ज्ञानेश्वर, मुक्ताबाई, सहजोबाई आदि नाम उल्लेखनीय हैं। यद्यपि नामदेव ने अपने भाव मराठी में व्यक्त किये हैं किन्तु उन्होंने हिन्दी में भी पद रचना की है। उनके पद गुरु ग्रन्थ साहिब में संग्रहीत हैं। कुछ विद्वानों ने नामदेव को ही सन्त काव्य-धारा का प्रर्वतक माना है, तथा बाद में कबीर ने उसे पल्लवित और पुष्पित किया। सन्त काव्य धारा के सन्त कवि रामानन्द जी के शिष्य थे। रामानन्द जी ने उत्तरी भारत में भक्ति आन्दोलन का उन्नयन किया। निम्नवत् दोहे के अनुसार कबीर, पीपा, रैदास तथा सेन आदि सन्त कवि के प्रमुख शिष्यों में से थे-

अनन्तानन्द कबीर सुखा सुरसुरा पद्मावति नरहरि ।

पीपा भावनन्द रैदासु धनासेन, सुरसरि की धरिहरि ।।

नामदेव

सन्त नामदेव सतारा जिले में कन्हाड़ के पास नरसीबमनी गांव में 1270 ई० में उत्पन्न हुए। इनके पिता का नाम दामाशेट और माता का नाम जोनाबाई था। ये जाति के छीपी थे और सन्त ज्ञानेश्वर के समकालीन थे। नामदेव अपने समय में महाराष्ट्र तथा उत्तरी भारत में इतने प्रतिष्ठित हो चुके थे कि कबीर, रैदास, कमाल और मीरा आदि ने उनका स्मरण बड़े आदर से किया है।

इनके पिता और पूर्वज भगवान के भक्त थे। भक्ति की प्रेरणा इन्हें उनसे मिली और अन्त में ये विरक्त हो गये। किंवदन्ती है कि यह पहले डाकू हो गये थे किन्तु एक दिन किसी स्त्री से उसके पति के डाकुओं से मारे जाने और फलस्वरूप हुई दुर्दशा का वर्णन सुनकर ये सब कुछ छोड़ पंढरपुर में जाकर विठोबा के भक्त हो गये। इस प्रकार ये विठ्ठल संप्रदाय में दीक्षित हुए। नामदेव पहले सगुणोपासना और कीर्तन किया करते थे। एक तो ये अलाउद्दीन द्वारा मूर्तियों को भग्न होते हुए देख चुके थे, दूसरे ज्ञानदेव अनेक युवतियों से उन्हें नाथ पंथ में ले आए थे। इसलिए बाद में इनका झुकाव निर्गुण भक्ति की ओर होता गया। नामदेव ने विठोवा खेजर नाम के नाथपंथी सन्त को अपना गुरु बनाया। इस प्रकार सगुणोपासना से हटकर नामदेव नाथपंथी निरंजन की साधना में प्रवृत्त हुए। ज्ञानदेव के निधन पर नामदेव महाराष्ट्र छोड़कर हरिद्वार होते हुए गुरु रामदास जिले (पंजाब) के घूमने या घोमनर गांव में जा बसे। वहां रचे गये पदों का संकलन आदि ग्रंथ में है। वहाँ इनके हिन्दू और सिख दोनों अनुयायी थे। वे आज भी नामदेव पंथी या नामदेव वंशी कहलाते हैं।

साहित्य- सन्त नामदेव मराठी साहित्य के प्रमुख भक्त कवि थे। इनके बहुत से पद हिन्दी में भी हैं जिनका संकलन आदि ग्रंथ में है। नामदेव प्रथम सगुणोपासक थे, इनका एक उदाहरण दृष्टव्य है-

धनि धनि मेवा रोमावली धनि धनि कृष्ण ओढ़े काँवली ।

धनि धनि तूं माता देवकी, जिह घर रमैया कंवला पति ।

नाथपंथी वारकरी संप्रदाय में दीक्षित होने के उपरांत ये हिन्दू मुसलमानों की मिथ्या रूढ़ियों का विरोध करने लगे। जैसे-

हिन्दू अन्धा तुरकौ काना दुवा ते ज्ञानी सयाना ।

हिन्दू पुर्जे देहरा, मुसलमान मसीत ॥

नामा वहीं सेविये जहां देहरा न मसीत ॥

इसी प्रकार इनके साहित्य में संप्रदाय वाली सामग्री मिल जाती है। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से इनका साहित्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। हमारे विचारानुसार, हिन्दी साहित्य में सन्त मत के प्रवर्तन का श्रेय सन्त नामदेव को देना ही समीचीन है।

सन्त काव्य और कबीर

जीवन वृत्त-मध्ययुगीन अन्य सन्त और भक्त कवियों के समान कबीर का जीवनवृत्त भी प्रायः अंधकारमय है। उनमें जन्म मृत्यु, वास स्थान, वंश और यहाँ तक कि यथार्थ नाम के सम्बन्ध में असंदिग्ध रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। हाँ, इतना अवश्य है कि वे सिकन्दर लोधी के समकालीन थे। नाभादास के भक्तमाल और बील, हंटर, ब्रिग्स, मेकलिफ, स्मिथ तथा भंडारकर आदि के इतिहास ग्रंथों से भी उक्त तथ्य की पुष्टि हो जाती है। कबीरदास ने अपने साहित्य में जयदेव और नामदेव का उल्लेख किया है, इससे सिद्ध है कि इनके पश्चातवर्ती थे। नामदेव का समय तेरहवीं शताब्दी का अंतिम चरण माना गया है। सन्त पीपा ने बड़ी श्रद्धा से कबीर का नाम स्मरण किया है। इससे स्पष्ट है कि कबीर पीपा से पहले थे। पीपा का जन्म सं० 1482 में हुआ। ‘कबीर चरित्र बोध में, 1455 वि. ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा सोमवार को कबीर की जन्म-तिथि स्वीकार की गई है, जिसका आधार निम्नांकित दोहा है-

चौदह सौ पचपन साल गए चन्द्रवार एक ठाठ ठए।

जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी प्रगट भए ।

डॉ. श्यामसुन्दर दास ने उक्त दोहे में ‘गए’ शब्द का अर्थ व्यतीत लगाकर 1456 को कबीर का जन्म सम्बत् माना है। डॉ. हजारीप्रसाद ने भी इसी सम्वत् को स्वीकार किया है, किन्तु डॉ० माताप्रसाद गुप्त प्रभृति विद्वानों ने सं. 1455 ज्येष्ठ पूर्णिमा सोमवार को कबीर की जन्मतिथि माना है क्योंकि इंडियन एस्ट्रॉलाजी के आधार पर गणना करने से यही तिथि ठीक बैठती है, अतः संo 1455 में इनका जन्म मानना अधिक उपयुक्त और तर्कसंगत है।

स्वामी रामानन्द कबीर के दीक्षागुरु थे। इस कथन की पुष्टि अन्तःसाक्ष्य के आधार पर भी हो जाती है। कबीर का कहना है, “काशी में हम प्रगट भये, रामानन्द चेताये”। नाभादास के भक्तमाल और अनन्तदास के ‘प्रसंग पारिजात’ से भी उक्त तथ्य की पुष्टि हो जाती है। कुछ विद्वानों ने शेख तकी को कबीर का गुरु माना है, किन्तु यह बात अन्तःसाक्ष्य और बहि:साक्ष्य के आधार पर सर्वथा अमान्य है। कबीर ने शेख तकी के प्रति कहीं भी श्रद्धा प्रकट नहीं की है। शेख तकी को सम्बोधन करते हुए कबीर द्वारा कहे गये ‘सुनहु’ शेख तकी तुम’ इन शब्दों में जो कठोरता और कर्कशता है वह कबीर जैसे गुरुभक्त से अपने गुरु के प्रति प्रत्याशित नहीं थी।

कबीर के जन्म के सम्बन्ध में भी अनेक किंवदन्तियां प्रचलित हैं। कुछ एक का कहना है कि एक विधवा ब्राह्मणी ने लोक-लाजवश अपने नवजात शिशु कबीर को काशी के लहरतारा नामक तालाब के निकट फेंक दिया था, जिसका पालन-पोषण निःसन्तान जुलाहा दम्पती नीरू और नीमा ने किया। इस बात का समर्थन कबीर का अपने-आपको जुलाहा कहने से भी हो जाता है। कबीरपंथियों ने कबीर का जन्म ही नहीं माना है। उनका कहना है कि अमावस्या की रात्रि को जबकि नभमण्डल घटाटोप मेघों से आच्छादित था और विद्युत कौंध रही थी, उस समय लहरतारा नामक तालाब में एक कमल प्रकट हुआ फिर वह ज्योति में परिणत हुआ और वह ब्रह्म स्वरूप ज्योति ही कबीर है। अस्तु । यह सारी कहानी कबीर को अलौकिक महत्व प्रदान करने के लिए गढ़ी हुई प्रतीत होती है। किसी सौभाग्यवती माता ने कबीर को निश्चित रूप से जन्म दिया था और उसका लालन-पालन जुलाहा परिवार में हुआ। डॉ॰ बड़थ्वाल के अनुसार कबीर जुलाहा कुल के थे जो मुसलमान होने से पहले जोगियों के अनुयायी थे। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर का सम्बन्ध जुगी जाति से जोड़ा है। यह जाति हिन्दुओं में बड़ी अस्पृश्य और हेय समझी जाती थी। इसका सम्बन्ध नाथपंथी योगियों से था। मुसलमानों के आगमन पर इसने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। कबीर इसी जाति के रत्न थे । अस्तु ! कबीर का जन्म संo 1455 में काशी में हुआ और निधन 1575 में मगहर में हुआ।

कबीर गृहस्थी थे। इनकी पत्नी का नाम लोई था। डॉ० रामकुमार वर्मा ने इनकी एक अन्य पत्नी भी मानी है जिसका नाम धनिया या रमजनिया था। कमाल और कमाली इनके पुत्र और पुत्री थे। कबीर की कई उक्तियों से आभास मिलता है कि इनका पारिवारिक जीवन सुखी नहीं था। कुछ विद्वानों ने इनके निहाल और निहाली दो पुत्र और पुत्री भी माने हैं।

व्यक्तित्व- महात्मा कबीर परम सन्तोषी, उदार, स्वतंत्रचेता, निर्भीक, सत्यवादी, अहिंसा, सत्य और प्रेम के समर्थक, सात्विक प्रकृति, बाह्याडम्बर-विरोधी तथा क्रांतिकारी सुधारक थे। वे मस्तमौला, लापरवाह फक्कड़ फकीर थे। वे जन्मजात विद्रोही थे और उनमें एक अदम्य साहस एवं अखंड आत्मविश्वास था। वे प्रखर प्रतिभा तथा विलक्षण अथक सशक्त व्यक्तित्व से सम्पन्न थे। वे सिकन्दर लोदी के सामने झुके नहीं, हिन्दू और मुसलमानों के प्रबल रोप ने उन्हें तनिक भी विचलित नहीं किया, वे योगियों के प्रभाव से आहत नहीं हुए और न ही सूफी उन्हें अपने संप्रदाय में मिला सके। उन्होंने कदाचार का डटकर विरोध किया। वे जीवपर्यन्त अपनी अटपटी वाणी से उत्तरी भारत का नेतृत्व करते रहे। सुकरात के समान वे सामाजिक व्यवस्था और धार्मिक व्यवस्था पर तीव्रतम आघात करते थे। सुकरात के समान शासक वर्ग ने कबीर को भी विष का प्याला पीने को दिया, किन्तु वे पीकर पचा गये। कबीर का व्यक्तित्व कुछ अजीब-सा है। डॉ० हजारी प्रसाद इस सम्बन्ध में लिखते हैं-“वे सिर से पैर तक मस्तमौला स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़, भक्त के सामने निरीह, धूर्त भेषधारी के आगे प्रचंड, दिल के साफ, दिमाग के दुरुस्त, भीतर से कोमल, बाहर से कठोर, जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वन्दनीय थे। युगावतार की शक्ति और विश्वास लेकर वे पैदा हुए थे और युग प्रवर्तक की दृढ़ता उनमें वर्तमान थी इसलिए वे युग प्रवर्तन कर सके।”

ग्रंथ – ‘बीजक’ कबीर की प्रामाणिक रचना मानी गई है। इसमें कबीर के उपदेशों का उनके शिष्यों द्वारा संकलन है। ‘बीजक’ के तीन भाग हैं-साखी, सवद, रमैनी। कई विद्वानों ने कबीर के ग्रंथों की संख्या 57 से 61 तक मानी है। अनुराग सार, उपगीता, निर्भय ज्ञान, शब्दावली और रेखतों आदि पुस्तकों को कबीर रचित कहा गया है, किन्तु इस सम्बन्ध में प्रामाणिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। कबीर की कविता के मुक्तक होने के कारण परवर्ती सन्त कवियों ने मनमाने ढंग से उसे घटाया और बढ़ाया। कबीर की रचनाओं का बहुत-सा भाग ऐसा है जो कबीर के भक्तों ने रचा और महत्व के लिए कबीर के नाम पर प्रचारित कर दिया। इस प्रकार कबीर के नाम से प्रसिद्ध रचनाओं में से कबीर की वास्तविक रचनाओं को खोज पाना बहुत कठिन है।

कबीर के सिद्धान्त- कबीर निराकारवादी थे। निराकार की प्राप्ति ज्ञान से संभव है। वह घट में बसता है, उसे बाहर खोजने की आवश्यकता नहीं है। उनका कहना है-“हिरदै सरोवर है अविनासी”। कबीर ने बार-बार ‘राम’ शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु उनका राम सगुण अर्थात् दाशरथि राम न होकर परम ब्रह्म का प्रतीक है। कबीर राम को पुकारने की आवश्यकता निश्चित रूप से महसूस करते हैं, इसलिए उन्हें कोई न कोई नाम भी देना ही पड़ता है। उनके ही शब्दों में-

दशरथ सुत तिहु लोक बखाना।

 राम नाम का मरम है आना ।।  तथा

तू हरखि गुण गाई ।

कबीर एकेश्वरवादी है, किन्तु उनका एकेश्वरवाद मुस्लिम एकेश्वरवाद से भिन्न पड़ता है। मुसलमान धर्म के अनुसार- ईश्वर समस्त प्राणियों और स्थानों से भिन्न और परम समर्थ है। परंतु कबीर द्वारा प्रतिपादित ईश्वर व्यापक है, वह समस्त संसार में रम रहा है। वह अलख, अगोचर और वर्णनातीत है। वह केवल शास्त्रों और पुराणों के अध्ययन एवं ज्ञान से नहीं जाना जाता है। बल्कि वह प्रेमपूर्ण भक्ति से प्राप्य है। निर्गुण राम और भक्ति-तत्व कबीर को सिद्धों और नाथों से अलग कर देते हैं और इसी कारण कबीर में अधिक सरसता आ गई है। कबीर की भक्ति अनन्य भाव से संपन्न है। उनमें कर्मकांड के विधि-विधानों और बाह्याचारों के लिए अवकाश ही नहीं हैं, वह सर्वथा निष्काम है। भक्ति के मार्ग में माया कनक और कामिनी के रूप में व्यवधान डालती है, अतः कबीर ने इसकी कटु भर्त्सना की है। कबीर की भक्ति एक ऐसा राज मार्ग है जिस पर सभी सुगमता से चल सकते हैं, उसमें ऊंच-नीच, ब्राह्मण, शूद्र और स्पृश्यास्पृश्य का कोई प्रश्न नहीं है-

जाति पाँति पूछे नहिं कोई,

हरि को भजे सो हरि का होई।

हां, भक्ति में प्रेम अपेक्षित है। कबीर की इस प्रेम भावना ने भक्ति को मधुर एवं सहज बना दिया है। कबीर ने भक्ति और प्रेम के सहारे ब्रह्म से तादात्म्य करना चाहा है और वहीं शुद्ध भावनात्मक रहस्यवाद की सृष्टि हो जाती है। वैसे तो कबीर ने परमात्मा के माता-पिता आदि अनेक रूपों की कल्पना करके अपना सम्बन्ध जोड़ना चाहा है किन्तु परमात्मा की पति और आत्मा की पत्नी रूप में कल्पना करके प्रेम का एक महान भारतीय आदर्श रूप उपस्थित किया, जो कि अत्यंत भव्य बन पड़ा है। हिन्दी के कुछ विद्वानों ने कबीर के इस प्रेम को सूफियों से प्रभावित कहा है, किन्तु यह समीचीन नहीं है। हां, कबीर में प्रेम की मादकता आंशिक रूप से सूफियों की देन अवय कही जा सकती है। सूफियों का रहस्यवाद और कबीर का रहस्यवाद समता की अपेक्षा विषमता अधिक रखते हैं। इस दिशा में सूफियों में विदेशी पद्धति है जबकि कबीर में विशुद्ध भारतीयता है।

नाथपंथियों के समान कबीर ने इन्द्रिय-साधना, प्राण-साधना और मन-साधना पर भी बल दिया है। अजपाः सुरति, निरंजन, नाड़ी साधन और कुंडलिनी साधन आदि बातें कबीर में मिलती हैं, किन्तु स्मरण रखना होगा कि कृच्छसाध्य होने के कारण हठयोग उन्हें पसन्द नहीं था, उन्हें अभिप्रेत तो सहज योग ही था। कबीर का सहज रूप की ओर झुकना कदाचित् रामानन्द के प्रभाव का फल है। यही कारण है कि कबीर हिन्दू और मुसलमानों की साधना की जटिल क्रियाओं, आडम्बरों, अंधविश्वासों और रूढ़ियों का कड़ा विरोध करते हैं। कबीर में वैष्णवों का प्रपत्तिवाद हैं, जैनों की अहिंसा और बौद्धों की बुद्धिवादिता है। आचार्य शुक्ल ने कबीर के एकेश्वरवाद को इस्लामिक माना है। जबकि हरिऔध ने इनके एकेश्वरवाद को उपनिषदों के अद्वैतवाद से प्रभावित मना है। हमारे विचारानुसार डॉ० त्रिगुणायत सत्य के अधिक निकट हैं। कबीर को कोई भी व्यवस्थित शास्त्रीय ज्ञान नहीं था। वे बहुश्रुत और सारग्राही थे। उन्हें जो भी बात जिस संप्रदाय की ग्राह्य प्रतीत हुई ले ली, उन्हें एक सामान्य भक्ति मार्ग की प्रतिष्ठा करनी थी और उसके लिए यही माध्यम उपयुक्त था। विविध संप्रदायों के प्रभावों को ग्रहण करते हुए भी उन पर वैष्णवों का विशिष्ट प्रभाव है। उन्होंने अन्य संप्रदायों की अपेक्षा वैष्णवों के प्रति अधिक श्रद्धा प्रदर्शित की है। सच तो यह है कि विभिन्न मत-मतान्तरों के प्रभावों के होते हुए भी उनका निजी व्यक्तित्व कहीं भी तिरोहित नहीं हुआ। वे साधना- क्षेत्र में युग-गुरु और साहित्य क्षेत्र में युग-स्रष्टा हैं। संप्रदाय चाहे जो भी हो और जैसा हो उसकी अनुगति की उन्हें कोई आवश्यकता नहीं थी, बल्कि उसे वे एक ढकोसला मानते थे। परम व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा ही उनके विचार-दर्शन का मूल आधार था।

रहस्यवाद- कबीर हिन्दी साहित्य में आदि रहस्यवादी कवि माने जाते हैं और इस क्षेत्र में उनका अत्यंत उच्च स्थान है। आचार्य शुक्ल के अनुसार साधना के क्षेत्र में जो महत्व ब्रह्म का है, साहित्य के क्षेत्र में वही महत्व रहस्यवाद का है। दूसरे शब्दों में रहस्यवाद ब्रह्म से आत्मा के तादात्म्य का प्रकाशन है। आलोचकों ने रहस्यवाद की दो कोटियां कर दी हैं- (क) भावनात्मक रहस्यवाद, (ख) साधनात्मक रहस्यवाद। कबीर में रहस्यवाद के दोनों रूपों के दर्शन होते हैं। भावनात्मक रहस्यवाद को भी अनेक अवस्थाओं में विभक्त कर दिया गया है-

प्रथमावस्था में परमामा की आत्मा दिव्य ज्योति के दर्शन से आकर्षित एवं चकित हो जाती है। कबीर अपने प्रियतम के अलौकिक सौन्दर्य पर विमुग्ध हैं। उनके लिए ईश्वर गूंगे के गुड़ के समान अनिर्वचनीय एवं अकथनीय है। वे कहते हैं-

कहत कबीर पुकार कै, अद्भुत कहिए ताहि ।

द्वितीय अवस्था में परमात्मा से मिलने की आतुरता प्रकट की जाती है। इस अवस्था में विरह-मिलन, आशा-निराशा, अभिलाषा-वेदना की अत्यंत सजीव तरल अभिव्यक्ति होती है। कबीर इस दृष्टि से हिन्दी साहित्य में अद्वितीय ठहरते हैं। कबीर की सी अनुभूति की तीव्रता, वेदना की पुकार और व्याकुलता की गहराई कदाचित् आज के कलाविज्ञ रहस्यवादी कवियों में भी नहीं मिलती है। कबीर ने मिलन की आतुरता का जिस कलात्मकता और विरह-वेदना का जिस मार्मिकता से वर्णन किया है, वह हिन्दी साहित्य में दुर्लभ है। एक-दो शब्द चित्र दृष्टव्य हैं-

आंखड़ियां झाई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि ।

जीभड़ियां छाला पड्या राम पुकारि-पुकारि ।।

सुखिया सब संसार है खावै अरु सोवै ।

दुखिया, दास कबीर है, जागै अरु रोवै ॥

तृतीय अवस्था आत्मा और परमात्मा के ऐक्य की है। इस सम्बन्ध में कबीर के चित्र अत्यंत हृदयस्पर्शी बन पड़े हैं-

लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल ।

          लाली देखन मैं गयी मैं भी हो गयी लाल ||    तथा

ज्यू जल में जल पैसिन निकसे, यूं ढरि मिल्या जुलाहा ।

डॉ० त्रिगुणायत कबीर के रहस्यवाद के सम्बन्ध में लिखते हैं-“कबीर के काव्य में प्रेममूलक भावना- प्रधान रहस्यवाद का अनुभूतिमय प्रकाशन है। रहस्यवाद की अभिव्यक्ति अनुभूति के आश्रय से होती है। अनुभूति भावना से सम्बन्धित है। भावना प्रेम की प्रधान प्रवृत्ति है। यह अनुभूति प्रेम पर अवलम्बित होने के कारण जीव और ब्रह्म में एक अविच्छिन्न और अनन्य सम्बन्ध स्थापित करती है। प्रेम की चरम परिणति दाम्पत्य प्रेम में देखी जाती है। अतः रहस्यवाद की अभिव्यक्ति सदा प्रियतम और विरहिणी के आश्रय में होती है।” कबीर अपने प्रियतम की अखंड सुहागिनी का स्वांग रचते हुए कहते हैं-

दुलहिन गावहु मंगलाचार ।

तन रति करि मै मन रति करिहौ पंच तत्त बराती ।

रामदेव मोरे पाहुल आये हौ जौबन मदमाती ॥

कबीर के प्रियतम मिलन की आतुरता संसार के किसी भी प्रेम व्यापार से अधिक तीखी और चुटीली है। संसार के विरही जनों के विरह का भले ही कभी अन्त होता हो परन्तु कबीर को सदा के लिए विरह व्यथा को झेलना है। रात्रि की समाप्ति के पश्चात् चकवी के लिए चकवे से मिल सकना संभव है, परन्तु कबीर के लिए दिन-रैन दोनों समान हैं। उनके विरह का न अथ है न इति-

चकवी बिछुरी रैन की आइ मिली परभाति ।

जो जन बिछरे राम से ते दिन मिलै न राति ॥

विरह कमंडल कर लिये वैरागी दोऊ नैन।

मांगे दरस मधूकरी छके रहे दिन रैन ।

वासरि सुख ना रैन सुख, ना सुख सपने माह

कबीर बिछुड़ या राम से ना सुख धूप न छोह ।।

कबीर में गंभीर रहस्य अनुभूतियों, विरह-व्याकुलता, आत्मसमर्पण की उत्कंठा, प्रेमपूर्ण भक्ति, आंतरिक प्रेम की निष्ठा, परमात्मा-मिलन की उत्कृष्ट अभिलाषा, विरहिणी के विरह पेशल हृदय की नाना स्थितियों के बड़े ही हृदयाप्लावी कलात्मक चित्र उपलब्ध होते हैं, जिनमें भावनात्मक रहस्यवाद का आदर्श अपनी पूर्णता को प्राप्त हो गया है।

कबीर के प्रणयात्मक चित्रों में शृंगार का स्वरूप चाहे लौकि हो अथवा अलौकिक, उनमें एक अनुपम रस है। वह अपने लौकिक रूप में घर-गृहस्थियों के लिए जितना आल्हादक है उतना ही वह मुमुक्षुजनों के आतम-राम के लिए आनन्ददायक है। उनका शृंगार उनके व्यक्तित्व, धर्म और दर्शन के समान कुछ विलक्षण और निराला है। एक ओर जहां वह अपने परिष्कृत रूप में लोक-सीमाओं को छूता है, तो दूसरी ओर ऊर्ध्व प्रयाण की बलवती प्रेरणा देता है।

कुछ विद्वानों ने कबीर के रहस्यवाद में अभिव्यक्ति प्रेम-पक्ष को सूफियों से प्रभावित माना है, किन्तु हमारे विचार में प्रेम का यह स्वरूप सन्त मत में महाराष्ट्र के भक्ति आंदोलन के विठ्ठल संप्रदाय के परम्परागत रूप से आया है। सूफियों और कबीर के रहस्यवाद में एक मौलिक अंतर है, कबीर के रहस्यवाद में दाम्पत्य भाव की कल्पना का स्वरूप विशुद्ध भारतीय है, जबकि सूफियों में यह कल्पना विदेशी पद्धति पर आधारित है, हां, इस दिशा में प्रेम की मादकता दोनों में समान है।

कबीर में साधनात्मक रहस्यवाद भी देखा जा सकता है। सन्त संप्रदाय का सीधा विकास योगियों के नाथ संप्रदाय से हुआ, अतः कबीर पर योगियों व हठयोग का प्रभाव है। इनके साहित्य में इंगला, पिंगला, सुषुम्ना, पट्टल, त्रिकुटी, बह्मरन्ध, सूर्य और चन्द्र आदि हठयोग के पारिभाषिक शब्द मिलते हैं, जिनसे आत्मा और परमात्मा के ऐक्य को द्योतित किया गया है। जैसे-

गगन गरजै अभी बादल गहिर गम्भीर ।।

चहदिसि दमके भीजै दास कबीर ।।

झीनी- झीनी बीनी चदरिया।

इसी प्रकार

कभी-कभी इन्होंने उलटबांसियों के द्वारा रहस्य भावना को प्रकट करना चाहा है। यथा-

बरसे कम्बल भीजै पानी ॥

कहीं कबीर के रहस्यवाद पर शंकर के अद्वैतवाद का भी प्रभाव स्पष्ट है। जैसे-

जल में कुम्भ और कुम्भ में जल है भीतर बाहर पानी ।

फूटा कुम्भ जल जलहिं समाना यह तत कथौं गयानी ॥

जिस प्रकार शंकर आत्मा और परमात्मा के मिलन में माया का प्रबल अवरोध स्वीकार करते हैं, वैसे ही कबीर ने भी माया को अवरोधक तत्व माना है। कबीर ने माया के प्रतीक कनक और कामिनी की कड़ी भर्त्सना की है। कबीर ने शंकर के समान ईश्वर को ज्ञानगम्य कहा है। कहीं-कहीं पर शंकर के समान इन्होंने संसार को मिथ्या भी माना है।

कबीर के पास रूपकों और अन्योक्ति का भंडार भरा पड़ा है। रहस्यमयी अनुभूतियों को स्पष्ट करने के लिए इन्होंने रूपकों और अन्योक्तियों का कलात्मक प्रयोग किया है। उदाहरण के लिए-

हंसा प्यारे सरवर तजि कहं जाय ?

जोहि सरवर बिच मोती चुनते बहु विध केलि कराय ||

इसी प्रकार उनका एक रूपक देखिये-

सन्तो भाई आयी ज्ञान की आंधी रे ।

भ्रम की टाटी सबै उड़ानी माया रहे न बांधी रे ||

कबीर भावना की अनुभूति से युक्त हैं, उत्कृष्ट रहस्यवादी हैं और जीवन के अत्यंत निकट हैं।

कबीर का सामाजिक पक्ष- कबीर मूलतः भक्त हैं, परन्तु उनकी भक्ति केवल आत्म-भक्ति तक ही सीमित रही हो, ऐसी बात नहीं है। उसमें अन्तःसंघर्ष के साथ लोक-संघर्ष और निवृत्ति के साथ प्रवृत्ति भी है। वे एक साथ भक्त, कवि, सुधारक और युग-नेता भी हैं। वे समरथ का परवाना लाए थे, हंस उबारने के लिए। कबीर ने यह सब कुछ धर्मोपदेशों के माध्यम से किया है। उस समय धर्म ही युग चेतना का रूप और माध्यम था। ईश्वरोपासना के अधिकार की मांग वास्तव में आर्थिक-सामाजिक न्याय की मांग थी और उन बनावटी तथा ऊपर से थोपी गई मर्यादाओं को तोड़ने की मांग थी, जो विशाल जन-समूह को अपने अधिकारों से वंचित किये हुए थीं। यही कारण है कि उस समय के तमाम जन-आन्दोलनों का बाह्य रूप मार्मिक था, तमाम उदबुद्ध नेता धर्म के नाम पर ही मानव मुक्ति और मानव मात्र की समानता और एकता पर जोर देते थे। उन सबने उन तमाम सामाजिक कुरीतियों, अन्धविश्वासों, रूढ़ियों, साम्प्रदायिक कट्टरताओं, बाह्य विधि-विधानों और कर्मकांड के आडम्बरों पर खुलकर आक्रमण किया है। उस युग के नेता का उद्देश्य था किसी भी माध्यम से जन-समाज में होने वाले किसी भी शोषण को, चाहे वह सामाजिक, धार्मिक या आर्थिक हो, समाप्त करना। इस प्रकार इतिहासपरक दृष्टि से देखने पर विदित होता है कि कबीर- काव्य में उस युग की मूलभूत समस्याओं का यथार्थ चित्रण हैं। इस बात का सारा दायित्व उस समय की परिस्थितियों को है।

निःसंदेह कबीर के समय में मुस्लिम शासन काफी दृढ़ता के साथ भारत में पांव पसार चुका था और तलवार के बल पर अपने धर्म प्रचार के लिए पूर्णतः कटिबद्ध था, किन्तु उस समय हिन्दुओं का उच्च सत्ताधारी वर्ग संघबद्ध इस्लाम का मुकाबला करने की कोशिश कर रहा था। उस समय यहां ब्रह्मवादी कर्मकांडी, शैव, वैष्णव, शाक्त, स्मार्त आदि अनेक मत प्रचलित थे, जो स्मृति, पुराण, लोकाचार, कुलाचार, आदि पर आधारित थे। स्मार्त पंडितों ने शास्त्रीय विवेचन के आधार पर समाज को संगठित करने का प्रयत्न किया, किंतु उन्होंने निम्न जातियों को वर्जनशील समझा। इसकी प्रतिक्रिया में सिद्धों, योगियों तथा सन्तों ने उच्च सत्ताधारी वर्ग तथा शासक वर्ग के प्रति विद्रोही स्वर अलापा। मुस्लिम आक्रमण भारत के लिए कोई नई वस्तु नहीं थी। हां, एक रूप में यह नवीन अवश्य था। इससे पूर्व का आक्रांता वर्ग भारतीय संस्कृति और सभ्यता में आत्मसात् हो गया, किन्तु मुस्लिम अपनी ऐकान्तिक कट्टरता के कारण भारतीय जनता से अलग-थलग बने रहे, शासक और शासित का भेद-भाव बना रहा। हिन्दू और मुस्लिम जातियों में परस्पर वैमनस्य और विद्वेष चरम सीमा को पहुँचता गया। मुसलमानों के प्रारंभिक आक्रमणों के कुछ समय पूर्व उत्तर भारत में निम्न वर्ग की जातियों की ओर से विद्रोह का झण्डा लहराया जाने लगा था। बिहार में बौद्ध धर्म का प्रभाव समाप्त होते ही वज्रयान संप्रदाय के रूप में बौद्ध सिद्धों का प्रभाव पड़ा, जो अधिकतर समाज की उपेक्षित और निम्न श्रेणियों से आते थे। नाथ संप्रदाय इन सिद्धों का विकसित रूप है। सिद्धों और नाथों ने शास्त्रीय स्मार्त मत को ठुकराया तथा उपनिषद्, ब्रह्म सूत्र के मतवाद को हेय ठहराया। इन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था पर सीधी चोट की और कर्मकांड के जटिल विधि-विधानों पर निर्मम प्रहार किये। इधर सुदूर दक्षिण के आलवार भक्तों का भक्ति का आन्दोलन अब रामानन्द के नेतृत्व में उत्तर भारत में पहुंच चुका था जिसमें ऊंच-नीच का कोई भेद-भाव नहीं था और भक्ति के क्षेत्र में सबको समान अधिकार प्राप्त था। कबीर रामानन्द की शिष्य परम्परा में थे।

कबीर के समय देश में धर्म की एक और धारा प्रवाहित हो रही थी, वह थी सूफी साधना की धारा सूफी लोग इस्लाम के एकेश्वरवाद से सन्तुष्ट न थे और भगवान को विशिष्टाद्वैतवादी वेदान्तियों की तरह मानते थे। ये लोग मुसलमान उल्माओं की तरह कट्टर और संकीर्ण मतवादी न थे और न ही इन्हें मुस्लिम धर्म के कर्मकांड पक्ष (शरीयत) पर विश्वास था। इस प्रकार कबीर के समय में और उससे पहले धार्मिक आंदोलनों के रूप में जनता का विद्रोह तीन धाराओं में फूटा और जनवादी कबीर ने इन तीनों को सम्यक् रूप से आत्मसात् करके सर्वसाधारण जनता के लिए एक सामान्य मार्ग का निर्देश किया :

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढाई अक्षर प्रेम के, पढ़े सो पंडित होय ।।

डॉ० हजारीप्रसाद के शब्दों में, “कबीर ऐसे ही मिलन बिन्दु पर खड़े थे, जहां से एक ओर हिन्दुत्व निकल जाता है और दूसरी ओर मुसलमानत्वः जहां से एक ओर ज्ञान निकल जाता है और दूसरी ओर अशिक्षा; जहां एक ओर भक्ति मार्ग निकल जाता है और दूसरी ओर योग मार्ग; जहां से एक ओर निर्गुण भावना निकल जाती है और दूसरी ओर सगुण साधना-उसी प्रशस्त चौराहे पर वे खड़े थे। वे दोनों ओर देख सकते थे और परस्पर विरुद्ध दिशा में गये हुए मार्गों के दोष, गुण उन्हें स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। कबीर का भगवद्दत्त सौभाग्य था। उन्होंने इसका खूब उपयोग भी किया।”

कबीर ने जातिगत, वंशगति, धर्मगत, संस्कारगत, विश्वासगत और शास्त्रगत रूढ़ियों और परम्परा के मायाजाल को बुरी तरह छिन्न-भिन्न किया है। एक ओर वे पंडितों को खरी-खोटी सुनाते हैं तो दूसरी ओर मुल्लाओं की कटु आलोचना करते हैं। एक ओर मन्दिर तथा तीर्थाटन आदि की निस्सारता बताते हैं तो दूसरी ओर मस्जिद और हज्ज-नमाज की निरर्थकता सिद्ध करते हैं। वे पुकार उठते हैं-

अरे इन दोउन राह न पाई,

हिन्दुन की हिन्दुआई देखी तुरकन की तुरकाई ।

वर्णाश्रम व्यवस्था पर व्यंग्य करते हुए वे कहते हैं- “तुम किस प्रकार ब्राह्मण हो और हम किस प्रकार शूद्र, हम किस प्रकार घृणित रक्त हैं और तुम किस प्रकार पवित्र दूध हो।” इधर बनारस के ठग सन्तों का भंडा फोड़ते हुए कहते हैं- “साढ़े तीन गज की धोती पहने हुए, तिहरे तागे लपेटे हुए गले में जयमाला डाले हुए और हाथ में माला लिये हुए इन अभागों को हरि का सन्त नहीं कहना चाहिए, ये लोग तो बनारस के ठग हैं।” राज्य की ओर से की गई न्याय व्यवस्था के आडम्बर पर चोट करते हुए वे कहते हैं-“काजी, तुमसे ठीक तरह बोलते नहीं बना, हम तो दीन बेचारे ईश्वर के सेवक हैं और तुम्हारे मन को राजसी बातें ही भाती है। लेकिन इतना समझ लो कि ईश्वर धर्म के स्वामी ने कभी अत्याचार करने की आज्ञा नहीं दी।” सच तो यह है कि वे सुकरात थे जो सत्य न्याय के लिए बड़ी से बड़ी यन्त्रणा को सहने को तैयार थे। उन्होंने युगानुरूप मानवीय आदर्शों की स्थापना की। कबीर का जीवन और काव्य भारत की सामन्ती व्यवस्था की रूढ़ियों, पाखंडों और मिथ्याचार के प्रति एक जिहाद है। मध्ययुग के गहन कुहासे में कबीर की वाणी ने अमर आलोक का काम किया और आज का प्राणी भी उससे बहुत कुछ प्रकाश पाता है। डॉ० शिवदान सिंह चौहान के शब्दों में, “यह कहकर कि ‘साई के सब जीव है कीरी कुंजर दोष’ उन्होंने मानव मात्र की समानता का सिद्धांत प्रचारित किया और ईश्वर की धर्मोपासना के लिए सबके लिए समान अधिकार की मांग की। इस विराट् जन-आन्दोलन के सबसे प्रमुख और कृती नेता के रूप में उन्होंने अपने मुख से जो कहा, उसमें हमें उनके युग का पूरा चित्रण मिलता है और भविष्य के लिए जीवन-संदेश भी। कबीर की यह मान्यता थी कि व्यक्ति समाज की इकाई है। समाज की सप्राणता सुगठित व्यक्ति के गुणों और आचरण पर निर्भर करती है। समाज की समरूपता तुभी निश्चित है जबकि जाति, वर्ण और वर्गभेद न्यून हो । कबीर की साधना वैयक्तिक और आध्यत्मिक होते हुए भी समष्टिपरक है। प्रसिद्ध इतिहासकार बर्कले मध्ययुगीन भारतीय इतिहास की परिस्थितियों का सिंहावलोकन करते हुए लिखते हैं-“जनता की धर्मान्धता तथा शासकों की नीति के कारण कबीर के जन्मकाल के समय में हिन्दू-मुसलमान का पारस्परिक विरोध बहुत बढ़ गया था। धर्म के सच्चे रहस्य को भूलकर कृत्रिम विभेदों द्वारा उत्तेजित होकर दोनों जातियां धर्म के नाम पर अधर्म कर रही थीं। ऐसी स्थिति में सच्चे मार्गप्रदर्शन का श्रेय कबीर को है। यद्यपि कबीर के उपदेश धार्मिक सुधार तक ही सीमित हैं, तथापि भारतीय नव युग के समाजसुधारकों में कबीर का स्थान सर्वप्रथम है, क्योंकि भारतीय धर्म के अंतर्गत दर्शन, नैतिक आचरण एवं कर्मकांड तीनों का समावेश है। कबीर ने शताब्दियों की संकुचित चित्तवृत्ति को परिमार्जित कर समाज के प्रत्येक व्यक्ति को उदार बना दिया, यही उनकी विशेषता है।

काव्य-समीक्षा- कबीर सन्त पहले हैं, कवि बाद में उनकी वाणी में धार्मिक दृष्टिकोण की प्रधानता है, काव्यगत दृष्टिकोण गौण। कविता उनका उद्देश्य नहीं थी बल्कि वह समरथ का परवाना एवं संदेश पहुंचाने की साधना थी, साध्य नहीं थी। उन्होंने कागद-मसी को छुआ तक नहीं था और न ही कवि-कर्म का उन्होंने विधिवत् अध्ययन किया था। उन्होंने कहीं भी कविता करने की प्रतिज्ञा भी नहीं की, परन्तु फिर भी उनकी काव्य-गगरी में अमित रस एकत्रित हुआ है, जो किसी भी साहित्य का शृंगार हो सकता है। डॉ० रामकुमार इस सम्बन्ध में लिखते हैं-“कबीर का काव्य बहुत स्पष्ट और प्रभावशाली है। यद्यपि कबीर ने पिंगल और अलंकार के आधार पर काव्य रचना नहीं की तथापि उनकी काव्यानुभूति इतनी उत्कृष्ट थी कि वे सरलता से महाकवि कहे जा सकते हैं। कविता में छंद और अलंकार गौण है, संदेश प्रधान है। कबीर ने अपनी कविता में महान संदेश दिया है। उस संदेश के प्रकट करने का ढंग अलंकार से युक्त न होते हुए भी काव्यमय है ।”

हिन्दी के कुछ आलोचकों ने कबीर को कवि स्वीकार करने में संकोच दिखाया है। उनका कहना है कि कबीर को छंद और अलंकार शास्त्र का ज्ञान नहीं था। वे दोहा, छंद को ठीक-ठीक नहीं लिखते और न ही अनुप्रासादि अलंकारों की चकाचौंध पैदा कर सकते हैं, उनकी भाषा अटपटी और बेठिकाने की है, उसमें ग्राम्य दोष है। अस्तु, कबीर की योगपरक रचनाओं में नीरसता है, उनकी उलटबांसियों में शुष्कता है और उनकी आलोचनात्मक कटुक्तियों में काव्य के स्थान पर तिलमिला उठने की भावना है। परन्तु इतना होने पर भी कबीर को कवि पद से वंचित करना कदाचित् उनके साथ अन्याय करना होगा।

सच्चे काव्य और सच्ची कला की कसौटी अनुभूति की सच्चाई है। कबीर इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। उन्हें कागद लेखी पर विश्वास नहीं, आंखन देखी पर विश्वास है। उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट, आडम्बर और कृत्रिमता के जन-जीवन सम्बन्धी अनुभूतियों को सरल और सीधे ढंग से अभिव्यक्त किया है, उन पर अलंकारों का मुलम्मा चढ़ाने की चेष्टा नहीं को, परन्तु फिर भी उनमें जीवन का सत्य निर्मल स्फटिक मणि के समान देदीप्यमान है। कबीर की सरल शब्दों में आत्माभिव्यक्ति उनके अतुल आत्मविश्वास की शक्ति से अनुप्राणित है जो सहज ही हृदय पर प्रभाव करती है। मीरा का काव्य अलंकारों और पिंगल की खराद पर पूरा नहीं उतरता, किन्तु इसी आधार पर उन्हें कवि पद से बहिष्कृत नहीं किया जा सकता है। कविता को मर्यादा जीवन की भावात्मक और कल्पनात्मक विवेचना में है। यह विवेचना कबीर में पर्याप्त है। कबीर के कवि में यथेष्ट सरसता, द्रवणशीलता और मार्मिकता है। कबीर काव्य उस स्थान पर तो बहुत ऊंचा उठ गया है, जहां उन्होंने विरहिणी आत्मा के स्पन्दन, हास और रूदन, मिलन और बिछोह के साकार चित्र अंकित कर दिये हैं और दरअसल यहाँ पर उनका काव्य एक अलौकिक वस्तु बन गया है। उनके एक-दो ऐसे सौन्दर्यपूर्ण चित्र दृष्टव्य हैं-

सुपने में साई मिले, सोवत लिया जगाय ।

आंख न खोलूं डरफ्ता मति सपना हो जाय ।।

नैनों अन्दर आव तू नैन झांपि तोही लेऊ ।

ना मैं देखूं और को ना तोहि दोखन देऊ ।।

कबीर के काव्य का विषय भक्ति है जो एकमात्र अनुभूति का विषय है। उसकी अभिव्यक्ति भाषा की शक्ति से बाहर है, किन्तु उस सूक्ष्म विषय की कबीर की वाणी में अत्यंत कलात्मक अभिव्यक्ति हुई है। यह कबीर के सफल कवि के लिए कोई कम गौरव और महत्व की बात नहीं है। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, “इस प्रकार के कबीर ने रूप के द्वारा अरूप की व्यंजना की है, कथन के सहारे अकथ्य को कहा और इसी में हमें कबीर के काव्य का चरम रूप मिलता है। काव्य-शास्त्र के आचार्य इसे ही कवि कर्म की सबसे बड़ी शक्ति बताते हैं।”

भले ही कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे, परन्तु वे बहुश्रुत अवश्य थे। वे एक सिद्ध कवि की भांति काव्य परम्पराओं, कवि समयों तथा कवि-कर्म के अन्य ज्ञातव्य रहस्यों से परिचित थे। उन्हें यह सब कुछ परम्परा से प्राप्त हुआ था। उन्हें भावों को सहज में चमत्कृत कर देने वाले अलंकारों का भी ज्ञान था। उनके काव्य में रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा प्रतिवस्तूपमा, यमक, अनुप्रास, मालोपमा, विरोधाभास, निदर्शन, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास तथा पर्यायोक्त आदि अलंकारों का सुन्दर प्रयोग है। रूपक अलंकार के प्रयोग में वे इतने लब्धप्रतिष्ठ हैं जितना कि कालिदास अपनी उपमाओं के लिए। एक उदाहरण दृष्टव्य है-

नैनों की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाइ।

पलकों की चिक डारि के पिय को लिया रिझाइ ।।

कबीर अपनी शैली के स्वयं निर्माता हैं। उनका समस्त काव्य मुक्तक शैली में है। उनके व्यक्तित्व के गुण मस्तमौलापन, अक्खड़पन और मौजीपन उनकी शैली में अवतरित हो गये हैं, अतः उसमें प्रभावात्मकता, बल और ओज है। इनकी भाषा खिचड़ी भाषा है, जिसको कि कई विद्वानों ने अव्यवस्थित और अपरिष्कृत कहा है, पर यह स्मरण रखना होगा कि उनकी भाषा में अभिव्यक्ति के सभी आवश्यक उपकरण मौजूद हैं। उन्होनें भावों की अभिव्यक्ति के लिए कहीं भी भाषा सम्बन्धी विवशता का अनुभव नहीं किया। डॉ० हजारीप्रसाद के शब्दों में, “भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा, उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा दिया; बन गया तो सीधे-सीधे नहीं तो दरेरा देकर। भाषा कुछ लाचार-सी कबीर के सामने नजर आती है। वाणी के ऐसे बादशाह को साहित्य रसिक काव्यानन्द का आस्वाद करने वाला न समझें तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता है।”

कबीर का अभिव्यक्ति-पक्ष चाहे सूर, तुलसी और केशव का सा न हो, परन्तु जो कुछ है, वह इतना पर्याप्त है कि वे किसी रियासत से नहीं वरन् ईमानदारी से कवि कहला सकते हैं। डॉ० श्यामसुन्दरदास इस सम्बन्ध में लिखते हैं- “कबीर ने अपनी उक्तियों पर बाहर से अलंकारों का मुलम्मा नहीं लगाया, जो अलंकार मिलते हैं, वे उन्होंने खोज-खोज कर नहीं बिठाये। मानसिक कलाबाजी और कारीगरी के अर्थ में कला का उनमें सर्वथा अभाव है, किन्तु सच्ची कला के लिए तथ्य की आवश्यकता है।” “भावुकता के दृष्टिकोण से कला आडम्बरों के बंधन से निर्मुक्त तथ्य है।” एक विद्वान द्वारा प्रयुक्त इस काव्य परिभाषा को यदि काव्य क्षेत्र में प्रयुक्त करें तो बहुत कम कवि सच्चे कलाकारों की कोटि में आ सकेंगे। किन्तु कबीर का आसन इस ऊंचे स्थान पर अविचल दिखाई देता है। सर्वप्रियता और प्रभाव भी कवि सफलता के मानदण्ड स्वीकार किये जा सकते हैं। सन्त संप्रदाय तो इनसे प्रभावित है ही, साथ-साथ सूफी कवि जायसी, रहीम और रसखान आदि को भारतीय भावना अपनाने की प्रेरणा कबीर से मिली। सिक्खों के आदि गुरु नानक तथा दूसरे गुरु कवि इनसे प्रभावित हैं। आज के राष्ट्रीय कवियों में मैथिलीशरण गुप्त तथा सोहनलाल द्विवेदी आदि के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता का पथ कबीर बहुत पहले से प्रशस्त कर चुके हैं। हिन्दी के सूक्तिकार वृन्द, गिरधर और दीनदयाल आदि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कबीर के ऋणी हैं। रहस्यवादी क्षेत्र में आदिकवि ठहरते हैं। इस क्षेत्र में रवीन्द्र तथा हिन्दी के आधुनिक रहस्यवादी कवि कबीर के प्रति आभारी हैं। गांधी जी इनके सत्यानुप्राणित काव्य से अत्यंत प्रभावित थे। कबीर के भाव प्रवण हृदय की भावुकता कहीं कहीं ठहयोग के सैद्धान्तिक निरूपण से दब गई है, किन्तु अधिकांश पदों में प्रायः समीकरण का रम्य सौरभ है, जो जन-मन-कलिका को आच्छादित और विकसित कर देता है। सच यह है कि कबीर की वाणी जनता की वाणी है, इसलिए वह अनायास ही जनता के हृदय का हार बन सकी और कबीर भारतीय जनता के सुख-दुःख के साथी बन गये। इस सम्बन्ध में आचार्य द्विवेदी लिखते हैं-“सच पूछा जाय तो जनता कबीरदास पर श्रद्धा करने की अपेक्षा प्रेम अधिक करती है। इसलिए इनके सन्त रूप के साथ कवि रूप बराबर चलता रहता है। वे केवल नेता और गुरु ही नहीं हैं साथी और मित्र भी हैं।” कबीर के अप्रतिम व्यक्तित्व के समान इनके काव्य के विलक्षण प्रभाव को आचार्य शुक्ल ने भी स्वीकार किया है, “भाषा बहुत परिष्कृत और परिमार्जित न होने पर भी कबीर की उक्तियों में कहीं कहीं विलक्षण प्रभाव और चमत्कार है।” आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्द भी इस सम्बन्ध में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं-“हिन्दी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई उत्पन्न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी जानता है-तुलसीदास।”

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कबीर साहित्य और धर्म के क्षेत्र में एक नवीन क्रान्ति के जनक थे, आलोचना की एक नवीन शैली के जन्मदाता तथा एक सफल कवि थे। कबीर के काव्य सौष्ठव को जानने के लिए उनके समस्त काव्य की थाह लेनी होगी। केवल उसकी सतह को छूने से शायद कुछ भी उपलब्ध न हो। कबीर की निम्नांकित उक्ति जीवन और उनके काव्य पर समान रूप से चरितार्थ होती है-

जिन ढूंढा तिन पाइयां गहरे पानी पैठि ।

मैं बपुरा वूडन डरा रहा किनारे बैठि ।।

प्रियादास का निम्नलिखित कथन कबीर के व्यक्तित्व और कृतित्व को काफी सीमा तक उजागर करता है-

भक्ति विमुख जो धर्म सो, अधरम करि गायो,

जोग्य जग्य वतदान, भजन बिनु तुच्छ दिखायो।

हिन्दू तरक प्रभान, रमैनी सबदी साखी,

प्रश्न पात नहिं वचन, सबहिं को हित को भाखी।

आरूढ़ दसा है जगत, पर मुख देखी नाहिन भनी ।

कबीर कानि राखी नहीं वर्णाश्रम पदरसनी ॥

रैदास (रविदास)

जीवन वृत्त- रैदास (रविदास) रामानन्द की शिष्य परम्परा में थे। कबीर के समकालीन सन्तों में इनका नाम बड़े आदर से लिया जाता है। आप कदाचित् आयु में कबीर से बड़े थे। इन्होंने स्वयं अपनी जाति चमार बताई है-“कह रैदास खलास चमारा।” इनके महत्व को बढ़ाने के लिए इन्हें पूर्व जन्म में ब्राह्मण बताया गया है। ऐसा प्रसिद्ध है कि ये नित्यप्रति ढोरों का व्यवसाय करते हुए माया का परित्याग करके भगवद्ददर्शन में समर्थ हो सके थे। आप काशी में रहा करते थे। सन्त रविदास पढ़े-लिखे नहीं थे, कबीर के समान बहुश्रुत थे। मीराबाई ने इन्हें अपने गुरु के रूप में स्मरण किया है। चमार जाति के लोग अपने-आपको रविदासी कहते हैं।

मन्तव्य- इनमें सन्तों की सहज सरलता, उदारता, निस्पृहता, सन्तुष्टि और तितिक्षा आदि गुण थे। ये भगवत्-प्राप्ति के लिए अहंकार की निवृत्ति को आवश्यक मानते थे। कबीर के समान इनके भी ईश्वर निराकार थे। इन्होंने भी कबीर की भांति निराकार को हरि आदि शब्दों से पुकारा है, किन्तु इनके ईश्वर सगण न होकर निर्गुण हैं। इनकी भक्ति प्रेम-भाव की है। कबीर का माधुर्य भाव भी इन्हें अभीष्ट है। इनका कहना है कि उस परमात्मा का यथार्थ परिचय केवल सुहागिन ही प्राप्त कर सकती है क्योंकि वह अपने-आपको सर्वात्सना भावेन अर्पण कर देती है।

रचनाएँ एवं काव्य महत्व- गुरु ग्रंथ साहब तथा अन्य कई संग्रहों में इनके पद बिखरे हुए मिलते हैं। कहा जाता है कि इनकी बहुत-सी रचनाएं राजस्थान में अभी तक हस्तलिखित रूप में मिलती हैं। इनकी रचनाओं का एक संग्रह ‘रैदास की वानी’ बेलवेडियर प्रेस प्रयाग से प्रकाशित हो चुका है। इनकी भाषा काफी सरल और सुगम है। इनकी वाणी में फारसी के शब्दों की बहुलता है। संभवतः फारसी भाषा उस समय तक राज-सम्मान प्राप्त कर चुकी थी और जन-साधारण में भी उसका प्रवेश हो गया था। आचार्य द्विवेदी इनकी कविता की विशेषता बताते हुए लिखते हैं-“साधारणतः निर्गुण सन्तों में कुछ-न-कुछ सुरति निरति और इंगला, पिंगला का विचार आ ही जाता है। रैदास के कुछ भजनों में भी वे स्पष्ट आये हैं परन्तु रैदास की वाणियां इन उलझनदार बातों से मुक्त हैं। यद्यपि उनमें अद्वैत वेदान्तियों के परिचित उपमानों तथा नाथों और निरंजनों के सहज, शून्य आदि शब्द भी आ गए हैं, फिर भी उनमें किसी प्रकार की वक्रता या अटपटापन नहीं है और न ज्ञान के दिखावे का आडम्बर ही है। आगे चलकर वे लिखते हैं- “आडम्बरहीन सहज शैली और निरीह आत्मसमर्पण के क्षेत्र में रैदास के साथ कम सन्तों की तुलना की जा सकती है। यदि हार्दिक भावों की प्रेषणीयता काव्य का उत्तम गुण हो तो निःसंदेह रैदास के भजन इस गुण से समृद्ध हैं।” इनकी कविता का नमूना देखिए-

तीरथ बरत न करौ अंदेशा तुम्हारे चरन कमल भरोसा ॥

जहं तहं जाओं तुम्हारी पूजा तुमसा देव और नहीं दूजा ||

नानक देव

जीवन वृत्त- सिक्ख मत के प्रवर्तक श्री गुरु नानक देव जी का जन्म सं० 1526 विक्रमी तलवंडी नामक गांव में हुआ। इनके पिता का नाम कालूराम था जो एक साधारण पटवारी थे। इनकी माता का नाम तृप्ता था। 17 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह बटाला (गुरुदासपुर) निवासी मूलचन्द खत्री की कन्या सुलक्खना से हुआ। उससे दो पुत्र उत्पन्न हुए-श्रीचन्द और लक्ष्मीचन्द | श्रीचन्द प्रसिद्ध उदासी संप्रदाय के प्रवर्तक बने। गुरु नानक देव बाल्यकाल से ही साधु वृत्ति के थे। किसी नौकरी या व्यवसाय में इनका मन नहीं लगा। बाल्यकाल में इनकी शिक्षा पं० ब्रजनाथ शर्मा तथा मौलाना कुतुबुद्दीन के यहां हुई। इनका पंजाबी, हिन्दी, फारसी तथा संस्कृत से अच्छा परिचय था। गृहस्थी में नानक का मन रमा नहीं। इन्होंने देश-विदेश का भ्रमण किया तथा यात्रा में अनेक जैन साधुओं, मुसलमानों, फकीरों, योगियों तथा सन्तों का सत्संग किया। रैदास तथा नामदेव के साथ
इनकी भेंट हुई थी। किवदन्ती है कि इनकी भेंट कबीर से भी हुई थी, किन्तु इस सम्बन्ध में निश्चयात्मक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है।

मन्तव्य – नानक देव अधिक विद्वान तथा शास्त्र-ज्ञानी नहीं थे। वे बहुश्रुत तथा निजी अनुभव के धनी थे। वे निराकारवादी थे। उन्होंने अवतारवाद, मूर्ति पूजा, ऊंच-नीच और वर्णभेद का विरोध किया है। हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए तथा ब्रह्म (अकाल पुरुष) की प्राप्ति के लिए सीधे-सादे उपदेश दिये। उनमें कहीं भी वक्रता और खण्डनात्मकता नहीं है। उनकी आध्यात्मिकता क्षेत्र सम्बन्धी मान्यताएं प्रायः वे ही हैं जो कि दूसरे सन्तों की हैं। उनके पदों में भक्ति, सरलता, दीनता और आत्मसमर्पण की भावनाएं मार्मिक बन पड़ी है।

रचना उसका महत्व- गुरु नानक देव समय-समय पर जो पद रचते रहे उनका संग्रह होता रहा। उनके तथा उनके पीछे के गुरुओं के द्वारा रचे गये पदों को सिक्ख धर्म के छठे गुरु अर्जुन ने 1604 ई० में संकलित करके ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ का निर्माण किया। दसवें गुरु गोविन्द सिंह तक गुरु द्वारा रचे गए पदों को गुरु ग्रंथ साहिब में जोड़ दिया गया। आज यह ग्रंथ सिक्ख संप्रदाय का सिद्धांत ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ में संकलित पद पंजाबी, ब्रज भाषा तथा नागरी भाषा के हैं। इसमें कहीं भी विचारों की संकीर्णता अनुदारता तथा साम्प्रदायिक असहिष्णुता नहीं है। इसमें अभिव्यक्त विचार एक शुद्ध निर्गुणवादी हिन्दू के हैं। सिक्खों को हिन्दू धर्म से अलग समझने की प्रवृत्ति अंग्रेजों की राजनीति की देन है, जो कि आज स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भी अपने नये रंग ला रही है।

गुरु नानक देव की वाणी में एक अद्भुत प्रेरणादायिनी शक्ति है। ऐसी अलौकिक शक्ति किसी भी अन्य मध्ययुगीन सन्त की वाणी में नहीं है। आचार्य हजारीप्रसाद इस सम्बन्ध में लिखते हैं-‘जिन वाणियों से मनुष्य के अन्दर इतना बड़ा अपराजेय आत्मबल और कभी समाप्त न होने वाला साहस प्राप्त हो सकता है, उनकी महिमा निःसन्देह अतुलनीय है। सच्चे हृदय से निकले हुए भक्त के अत्यंत सीधे उद्गार और सत्य के प्रति दृढ़ रहने के उपदेश कितने शक्तिशाली हो सकते हैं, यह नानक की वाणियों ने स्पष्ट कर दिया है।” इनकी कविता का एकाध नमूना देखिये-

रैन गंवाई सोइ कै, दिवस गंवाइया खाय ।

हीरे जैसा जन्म है, कउड़ी बदले जाय ।।

दादू दयाल

जीवन वृत्त- इनका जन्म सं० 1601 विक्रमी में गुजरात प्रदेश के अहमदाबाद नगर में हुआ। इनके जन्म के सम्बन्ध में अनेक किंवदन्तियां प्रचलित हैं। कहा जाता है कि दादू एक छोटे से बालक के रूप में साबरमती नदी में बहते हुए किसी ब्राह्मण को मिले थे। कुछ इन्हें लोदी रामनागर का पुत्र मानते हैं। इनके शिष्य रज्जब ने भी इन्हें धुनिया कहा है। बंगाल के बाउल संप्रदाय में इनका नाम बड़े आदर से लिया जाता है। इससे भी इनके मुसलमान धुनिया होने का अनुमान लगाया जा सकता है। सम्भवतः ये निरक्षर थे। इन्हें कबीरपंथी बुडून बाबा (वृद्धानन्द अथवा ब्रह्मानन्द) से दीक्षा मिली थी। ये गृहस्थ थे। इनके पुत्र-पुत्रियों का नाम भी लिया जाता है। ये काफी भ्रमणशील थे। सन् 1556 ई० में अकबर के निमंत्रण पर वे फतेहपुर सीकरी गये और वहां अकबर के साथ काफी दिनों तक आध्यात्मिक चर्चा करते रहे। सम्राट अकबर इनके उपदेश से अत्यंत प्रभावित हुआ था। इनका देहान्त 1603 में नरौन (जयपुर) में हुआ।

मन्तव्य – दादू का स्वभाव अत्यंत सरल था। वे त्यागी और क्षमाशील थे। प्रायः सन्त मत की समस्त मान्यताएं इनके काव्य में देखने को मिलती हैं। ये स्वभाव से बड़े दयालु थे, कदाचित् इसी कारण ये दादू दयाल कहलाये। इन्होंने ब्रह्म या परब्रह्म नाम का एक संप्रदाय चलाया किन्तु यह आज दादू संप्रदाय के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। इस संप्रदाय के लोग कोई साम्प्रदायिक चिन्ह धारण नहीं करते, जप करने की केवल सुमिरनी लिये रहते हैं, सूफियों की भांति इन्होंने भी प्रेम को भगवान की जाति और रूप कहा है।

रचना : उसका महत्व- दादू दयाल के शिष्यों ने उनकी वाणी के संग्रह ‘हरडे वाणी’ तथा ‘अंग वधू’ नाम से किये थे। वर्तमान युग में अजमेर, काशी, जयपुर और प्रयाग से उनके संकलन प्रकाशित हुए हैं और प्रसिद्ध विद्वान् क्षितिमोहन सेन ने बंगला में दादू नाम का जो अध्ययन पंथ प्रस्तुत किया है, उसमें भी उनका समावेश है। दादू दयाल की रचनाओं की संख्या बीस हजार कही जाती है। किन्तु हमारा विचार है कि यह उनके पदों की संख्या होगी और यह संख्या भी असंदिग्ध नहीं कही। जा सकती। इनकी भाषा राजस्थानी मिश्रित पश्चिमी हिन्दी है। अरबी और फारसी के शब्दों का भी उसमें बहुत प्रयोग है। उनकी वाणी में कबीर जैसा वाग्वैदग्ध्य नहीं है पर सरसता और गंभीरता पर्याप्त है। उसमें आध्यात्मिक वातावरण की सुन्दर सृष्टि हुई है। दादू में खण्डनात्मकता का स्वर इतना तीव्र नहीं जितना कि कबीर में। आचार्य द्विवेदी दादू और कबीर का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए लिखते हैं- “कबीर के समान मस्तमौला न होने के कारण वे प्रेम के वियोग और संयोग के रूपकों में वैसी मस्ती नहीं ला सके, पर स्वभावतः सरल और निरीह होने के कारण ज्यादा सहज और पु असर बना सके हैं। दादू को मैदान बहुत कुछ साफ मिला था और उसमें उनके मीठे स्वभाव ने आश्चर्यजनक असर पैदा किया। यही कारण है कि दादू को कबीर की अपेक्षा अधिक शिष्य और सम्मानदाता मिले।”

दादू की कविता का एक नमूना देखिये, जिसमें उनके मत का सार समाहित है-

आपा मेटै हरि भजै, तन मन तजै विकार।

निबैरी सब जीव सों, दादू यह मत सार ।।

सुन्दरदास

जीवन वृत्त- सुन्दरदास दादू के शिष्यों में सर्वाधिक शास्त्रीय ज्ञानसम्पन्न महात्मा थे। वे वसुर जाति के खंडेलवाल वैश्य थे। इनका जन्म सं० 1653 में जयपुर राज्य की पुरानी राजधानी द्यौसा में हुआ। इन्होंने छोटी ही अवस्था में दादू दयाल का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया था। ग्यारह वर्ष की आयु में इन्होंने काशी जाकर दर्शन, साहित्य, व्याकरण, वेदान्त और पुराणों का गंभीर अध्ययन निरंतर अठारह वर्ष तक लगातार किया। फारसी से भी इनका अच्छा परिचय था। भ्रमण की ओर इनकी विशेष रुचि थी। इनका देहान्त सं० 1746 में हुआ ।

रचनाएं- सुन्दरदास ने कुल मिलाकर छोटे-बड़े 42 ग्रंथों की रचना की। ये सभी रचनाएं सुन्दर ग्रंथावली के नाम से संकलित हैं। इनके ग्रंथों में ‘सुन्दर विलास अथवा सवैया’ बहत प्रसिद्ध हैं। इन ग्रंथों में गृहीत विषयों के सम्बन्ध में आचार्य द्विवेदी लिखते हैं- “विषय अधिकांश में संस्कृत ग्रंथों में संगृहीत तत्ववाद है जो हिन्दी कविता में नई चीज होने पर भी शास्त्रीय ज्ञान रखने वाले सहदयों के लिए विशेष आकर्षक नहीं है। छंद-बद्ध पहेलिकाओं से भी उन्होंने अपने काव्य को सजाने का प्रयास किया है। असल में सुन्दरदास सन्तों में अपने बाह्य उपकरणों के कारण विशेष स्थान के अधिकारी हो सके हैं। फिर भी इस विषय में तो कोई संदेह नहीं कि शास्त्रीय ढंग के वे एकमात्र निर्गुणिया कवि हैं।” सन्त कवियों में इन्हें एकमात्र कौशल निष्णात है कहा जा सकता है। इनकी कविता सम्बन्धी मान्यता है-

बोलियो तो तब जब बोलिबे की बुद्धि होय,

ना तौ मुख मौन गहि चुप होय रहिये ।

जोरियो तो तब जब जोरिबे की रीति जानै,

तुक छन्द अरथ अनूप जायें तहिये ॥

ये शृंगार रस के प्रबल विरोधी थे। सन्त होते हुए भी इन्हें हास्य रस से विशेष अनुराग था। इनकी बहुत-सी उक्तियों में हास्य, व्यंग्य एवं विनोद की सुन्दर सृष्टि हुई है। इन्होंने नारी की निन्दा भी भरपूर की है। काव्यशास्त्र का सम्यक् ज्ञान होने के कारण इनकी कविता में रस-निरूपण तथा अलंकारों की सृष्टि विधिवत् हुई है। कई आलोचकों ने इन्हें कवि के नाते सन्त संप्रदाय के कवियों में शीर्ष स्थान प्रदान किया है। किन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि भावना का सहज एवं अकृत्रिम विकास जो अन्य निरक्षर सन्तों में हुआ है वह सुन्दरदास में नहीं है। इस सम्बन्ध में आचार्य द्विवेदी के विचार दृष्टव्य हैं- “इसका परिणाम यह हुआ कि इनकी कविता के बाह्य उपकरण तो शास्त्रीय दृष्टि से कदाचित निर्दोष हो सके थे, पर वक्तव्य विषय का स्वाभाविक वेग जो इस सन्त जाति की सबसे बड़ी विशेषता है, कम हो गया।”

मलूकदास

जीवन वृत्त- सन्त मलूकदास का जन्म इलाहाबाद जिले के कड़ा गांव में सं० 1631 में हुआ। इनके पिता का नाम सुन्दरलाल खत्री था। जिनकी कक्कड़ की उपाधि थी। मुरार स्वामी नाम के महात्मा से इन्हें दीक्षा मिली थी। ये आजीवन गृहस्थी रहे, और संo 1739 में इन्होंने कड़ा गांव में प्राण छोड़े।

रचनाएँ- निम्नलिखित रचनाएँ इनसे सम्बद्ध बताई जाती हैं- (1) ज्ञान बोध, (2) रतनखान, (3) भक्त बच्छावली, (4) भक्त विरुदावली, (5) पुरुष विलास, (6) दस रत्न ग्रंथ, (7) गुरु प्रताप, (8) अलख बानी (9) रामावतार लोला। पर इनमें कितनी प्रामाणिक रूप से मलूक द्वारा लिखित हैं, निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। इनके चुने हुए ग्रंथों और साखियों का एक संग्रह जी के नाम से प्रकाशित हो चुका है।

मन्तव्य – इन्होंने मलूक के नाम से एक पंथ चलाया। इनके विश्वासानुसार आत्मज्ञान ही मुक्ति है। आत्मसमर्पण इनकी भक्ति का सार कहा जा सकता है। निम्नांकित दोहा जो आलसियों का एकमात्र मूल मन्त्र है, मलूकदास से सम्बद्ध बताया जाता है-

अजगर करे न चाकरी, पंछी करै न काम।

दास मलूका कह गये, सबके दाता राम ।।

पर हमारे विचारानुसार यह दोहा मलूक पथ प्रवर्तक से सम्बद्ध न होकर किसी और मलूक नाम के व्यक्ति से सम्बन्ध रखता है।

काव्य समीक्षा- इनकी भाषा में अरबी, फारसी के शब्दों का प्राचुर्य है परन्तु फिर भी यह काफी सरल और सुव्यवस्थितः है। इनके कई-कई पद तो अच्छे कवियों के पदों से टक्कर ले सकने वाले हैं। इनकी कविता का एक और नमूना दृष्टव्य है-

माला जपौ न कर जपा, जिभ्या कही न राम ।

सुमिरन मेरा हरि करें, मैं पाया बिसराम ।।

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Anjali Yadav

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