सिद्ध कीजिए कि बिहारी सफल युक्तकार कवि हैं ?
जो स्वतः ही अपना अर्थ व्यक्त करने में समर्थ हो उसे मुक्तक रचना कहते हैं। मुक्तक रचना में छन्द का पूर्वापर लगाव दूसरे छन्द से नहीं होता। प्रबन्ध में मुक्तक से यही भिन्नता होती है कि प्रबन्ध रचना जहाँ सानुबन्ध होती है वहीं उसकी कथा प्रवाहपूर्ण होती है। मुक्तक रचना यद्यपि निरपेक्ष भाव से होती है किन्तु उसमें जीवन का कोई खण्ड चित्र होना चाहिये। ऐसी दशा में मुक्तक रचना बहुत प्रभावशाली होती है। बिहारी का एक दोहा ही “नहि पराग नहि मधुर मधु नहिं विकास इहि काल।” आमेर नरेश जयसिंह के जीवन में क्रान्ति ला देता है और उन्हें विलास के पंक से निकाल लाता है। मुक्तकों में मर्मस्पर्शी वृत्तों का चुनाव इतना स्पष्ट होना चाहिये कि पाठक की पहुँच उस तक सरलता से हो जावे और यह चुनाव सामान्य जीवन-क्षेत्र से ही हो।
रसमयता, संक्षिप्तता और केन्द्रीयता मुक्तक रचना की विशेषताएँ हैं। कोमलकान्त पदावली और भाषा का माधुर्य मुक्तक के सौन्दर्य को निखार देता है।
मुक्तक दो प्रकार के होते हैं। एक सरस, रसयुक्त और दूसरा नीरस या रस विहीन नीरस मुक्तक रचनाओं के चमत्कार विधायक और नीति बद्ध उक्तियाँ होती हैं परन्तु नीति और चमत्कार विधायक सभी कथन काव्य नहीं कहा जा सकता। हिन्दी में मुक्तक रचयिताओं ने प्रायः नीति वाक्य ही कहे हैं। बिहारी की रचना मुक्तक काव्य की दृष्टि से सफल है तथा उनकी उक्तियाँ सर्वथा सरस हैं, नीरस नहीं-
सटपटाति सी स्पर्शमुखी, मुख घूँघट पर ढाँकि ।
पावक झरसी झमकि कै, गई झरोखा झाँकि ॥
उपरोक्त कथन में सरसता पूर्णतया है। नायिका की अभिलाषा दशा का चित्रण है। वह लपक कर झरोखे से नायक की छवि देख जाती है। कहीं लोग उसे देख न लें इसलिये सटपटाती है। लज्जा के कारण झाँकने में हिचकिचाती भी है। वहाँ अनुभवों की सम्यक योजना है। त्रास, क्रीड़ा, उत्सुकता आदि संचारी भाव है। निम्न दोहे को बिहारी की सूक्ति रचनाओं में रखा जा सकता है-
कनक-कनक तै सौगुनी मादकता अधिकाय ।
या खाये बौरात जग, या पाये बौराये ॥
उपरोक्त कथन में कोई भाव या रस व्यंजना नहीं हैं। केवल तथ्य का चतुराई से सम्पादन किया गया है।
बिहारी के मुक्तकों में भाव और कला दोनों पक्षों का सुन्दर समन्वय और योग है। बिहारी ने ऐसे सरस सन्दर्भों को ग्रहण किया है जो पाठकों को रस में सराबोर कर देता है। बिहारी के काव्य में कल्पना की समाहार शक्ति और भाषा की समास शक्ति बहुत अधिक है। कवित्त, सवैया आदि बड़े छन्दों की अपेक्षा बहुत छोटा पंक्तियों वाला छन्द दोहा उन्हें पसन्द है। जिसमें समास-पद्धति से भावों को व्यक्त करने की क्षमता होगी वही दोहा छन्द में अपनी बात भली-भाँति कह सकता है। रहीम इस टक्कर पर कुछ खरे उतरते हैं। दोहे की मानसिकता और सामासिकता को ध्यान में रखकर ही रहीम कवि कहते हैं-
दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं ।
ज्यों रहीम नर कुण्डली, सिमिट कूदि कढि जाहि।।
दोहे के भावों और शब्दों को उसी प्रकार समेटना पड़ता है जिस प्रकार जलते हुए गोल घेरे के बीच से अपने शरीर को खूब तौल कर और सिमट कर नट निकल जाता है। बिहारी के दोहों में समास-पद्धति और कल्पना की समाहार शक्ति अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँची हुई मिलती है। उनके दोहे नाविक के तीर के समान गम्भीर घाव करते हैं-
सतसैया के दोहरे ज्यों नाविक के तीर ।
देखन को छोटे लगे घाव करे गम्भीर ॥
एक दोहा प्रस्तुत है बिहारी का, जिसमें संस्कृति की चार पंक्तियों वाले पद को अपनी कल्पना की समाहार शक्ति और समास पद्धति का सहारा लेकर कितनी कसावट से दो पंक्तियों में बुन दिया है कि संस्कृत मूल में लिखे से अधिक सौन्दर्य इसमें आ गया है-
शून्यं वासाग्रह विलोक्य शयानादुत्थाय किचिक्छनै ।
मित्रा व्याजमुपागस्य सुरिचं निर्व्याज पत्युर्मूखलु ।
विश्रव्य परिचुं बया जातपुलकामालोक्य यट स्थली ।
लज्जान भ्रमुखी प्रियेण हंसता वाला चिर चुम्बिता ।
अब उपरोक्त वर्णन को बिहारी के दोहे में देखिये-
मैं निसहा सोयो समुझि, मुँह चूम्यो दिग जाय ।
हँस्यो, खिस्यानो गलगही रही गरै लपटाय ।।
बिहारी ने सांगरूपक से एक दोहे में पर्याप्त व्यापारों का समाहार और विविध चेष्टाओं का संयोजन एक साथ कर दिया है। एक अन्य उदाहरण प्रस्तुत है-
खौरि पनच भृकुटी धनुष अधिक समरु तजि कानि ।
हनन तरुन मृग तिलक-सर सुरक भाल भरि तानि ।।
उपरोक्त दोहे में बाण चलाने के लक्ष्य तथा धनुष की पूरी सज्जा का वर्णन आ गया है। बाण चलाने की अनी पर भी बिहारी की दृष्टि पहुँच गयी है। नासिका के मस्तक पर लगी खौर प्रत्यंचा, भृकुटी-धनुष, तिलक वाण और सुरक भाल-अनी है। चलाने वाले कामदेव और तरुण लोग लक्ष्य-मृग हैं।
चेष्टा विधान का एक उदाहरण प्रस्तुत है। श्रीकृष्ण ने ब्रज की रक्षा के लिये गोवर्धन उठाया। बीच में उनकी दृष्टि राधा पर पड़ती है। प्रेमोद्रेक होने से हाथ काँपने लगता है। कम्पन की स्थिति में पर्वत डगमगाने लगता है। ब्रजवासी चिन्तित हो उठते हैं और सोचते हैं कि अब क्या होगा ? जब श्रीकृष्ण को यह बात ज्ञात हुई तो उन्हें बड़ी लज्जा महसूस हुई। लज्जित होने में प्रेम के प्रकट हो जाने की भी आशंका है और रक्षा कार्य में शिथिलता आने का भय है। इतने लम्बे चौड़े वर्णन को बिहारी ने अपनी भाषा की सामासिक शक्तियों से एक दोहे में बाँध दिया है-
डिगत पानि डिगुलात गिरि, लखि सब ब्रज बेहाल।
कम्प किसोरी दरस तें, खेर सकाने लाल ।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि बिहारी का काव्य एक सफल मुक्तक काव्य है। उन्हें यह सफलता कल्पना की समाहार शक्ति और भाषा की समास पद्धति पर व्यापक अधिकार होने के कारण मिली।
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