सूरदास का वात्सल्य वर्णन ( Surdas Ka Vatsalya Varnan)
वात्सल्य वास्तव में रस नहीं भाव है लेकिन अब इसकी गणना रस के अन्तर्गत की जाती है। जैसे प्रेयस या प्रेयसी से सम्बन्धित ‘रति’ से शृंगार और ईश्वर सम्बन्धी रीति से भक्ति उसी प्रकार सन्तान सम्बन्धी रीति से वात्सल्य भी रस होता है। पुराने आलंकारिकों ने तो प्रेमी-प्रेमिका की रीति के अतिरिक्त देवादि विषयक रति को भात ही माना है। सूर के पदों में दो ही रस प्रमुख हैं- श्रृंगार और वात्सल्य। क्योंकि भक्त सूर वात्सल्यरूपिणी और कामरूपिणी भक्ति से विभोर होकर अपने अन्तरतम को अपने आराध्य के सामने निकालकर रख देते हैं। उनके काव्य के अध्ययन के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि सूर सर्वप्रथम भक्त तत्पश्चात् कवि । सूर वात्सल्य की भूमिका कृष्ण जन्म से प्रारम्भ करते हैं। वसुदेव अपने पुत्र नवजात कृष्ण को गोकुल में यशोदा के पास चुपके से छोड़ आते हैं, और उनकी नवजात कन्या को उठा ले आते हैं। यशोदा नन्द को इसका पता भी नहीं चलता। सूर के वात्सल्य में विस्तृत और विशद चित्रण है, शिशु लीलाओं का सर्वांगीण वर्णन है, सारी बाल सुलभ चेष्टाओं का सूक्ष्म विवरण है, बालकों की प्रवृत्तियों और माता-पिता के हृदय के भावों का वैज्ञानिक भण्डार है, साथ ही अनुभूतियों की सरस व्यंजना । सूर ने शृंगार को रस राजत्व दिया, तो वात्सल्य को रस की सीमा तक पहुँचा दिया।
पुत्रोत्पत्ति के बाद यशोदा उन्हें सुलाने के लिये बढ़ाई से पालना बनाने को कहती हैं, जिसमें उनका मातृ हृदय झलकता है-
अति परम सुन्दर पालना गढ़िल्यावरे बढ़या ।
शीतल चन्दन कटाउ धरि खारादि रंग लाऊ ।
विविध चौकी बनाउ रंग रेशम लगाउ,
हीरा मोती लाल मढ़या ।
पालना बनकर आ गया। उसमें कृष्ण को झुलाने का वर्णन बहुत ही मार्मिक, बच्चों के स्वभाव और भाँ की स्निग्ध स्वाभाविक मातृ-क्रिया का सूक्ष्म चित्र है-
यशोदा हरि पालने झुलावे ।
हलराव, दुलराइ, मल्हावे, जोइ सोइ कहु गावै ।
मेरे लाल को आउ निदरिया काहे न आनि सुलावे
* * * *
कबहूँ पलक हरि मूंद लेते हैं, कबहुँ अधर फरकायें।
सोवत जानि मौन है कैरहि करि करि सैन बतावे ।
इहि अन्तर अकुलाय उठे हरि, जसुमति मधुरै गावै।
धीरे-धीरे जैसे-जैसे बालकृष्ण का शारीरिक एवं चेष्टा सम्बन्धी विकास होता गया सूर जैसे-तैसे उसका चित्र खींचते गये। ऐसी कोई क्रिया कलाप, अवस्था, स्थिति बालक की नहीं जिसका वर्णन उन्होंने न किया हो। अन्य भाव या रस आदि को तो सभी अन्य कवियों ने विशद रूप से चित्रित किया है और सूर इसमें अपनी विशिष्टता की पहचान कराने में पीछे नहीं रहे लेकिन यदि सूर साहित्य से बाल वर्णन हटा दिया जाय तो वह निष्पारम्भ हो जाएगा। सत्य तो यह है कि वात्सल्य भाव हृदय की परिष्कृततम निस्पृहता की स्थिति है, जिसमें प्रेम निःस्वार्थ होता है। लाला भगवानदीन के शब्दों में- “बाल चरित्र ही इनकी कविता की आत्मा है। इसके बिना इसका साहित्य आत्मा-विहीन शरीर के समान है। पारिवारिक जीवन में घर की चहारदीवारी के अन्दर हमें बालकों को प्रकृति का जितना परिचय हो सकता है उसका ज्यों का त्यों स्वाभाविक वर्णन सूरदास जी से सुन लीजिये। साथ हो माता के स्नेह और माता के वात्सल्य का नमूना भी सूर सागर में देख लीजिये।’
सामान्यतः मातायें अपने बच्चे के शारीरिक विकास के लिये अत्यन्त आतुर और लालायित रहती हैं। इसका स्वाभाविक चित्रण प्रस्तुत है-
जसुमति मन अभिलास करै।
कब मेरो लाल घुटरुवनि रेंगें, कब धरनी पग द्वैक धरे ।
कब द्वै दाँत दूध के देखों, कब तुतरे मुख बैन झरे।
कब नन्दहि बाबा करि बोले, कब जननी कहि मोहि ररै।
इसी प्रकार जब कोई नई क्रिया बच्चे करते हैं अथवा उनका कोई शारीरिक शक्ति अथवा अंग विकास में आता है तो मातायें खुशी के मारे फूली नहीं समातीं। जैसे यशोदा कृष्ण के निकले हुए दो दाँत देखकर प्रफुल्लित हो उठती हैं-
सुत मुख देखि जसोदा फूली ।
हरषति देखि दूध की दैतियाँ, प्रेम मगन तन की सुधि भूली।
बाहिर तें तब नन्द बुलायो, देखौ धौं सुन्दर सुखदाई।
तनकतनक सी दूध की दैतियाँ, देखौ नैन सुफल करौ आई।।
कृष्ण के बाल चेष्टाओं का वर्णन करते हुए भी कवि यह नहीं भूलता कि कृष्ण परमात्मा के रूप हैं। जैसे-
कर पग गहि अंगूठा मुख मेलत ।
प्रभु पौढ़े पालने अकेले, हरपि हरषि अपने रंग खेलत।
सिव सोच, विधि बुद्धि विचारत, बट चाढ्यो सागर जल झेलत ।
सूर ने बाल कृष्ण छवि का स्वाभाविक चित्र विभिन्न अवस्थाओं में बड़ा ही सुन्दर खींचा है। “शोभित कर नवनीत लिये”, “किलवत कान्ह घुटरुवन आवत” आदि पदों में शिशु की बाल सुलभ प्रकृति का अद्भुत चित्रण है। अपने इष्ट देव कृष्ण के शिशु और बालरूप चित्रण के साथ ही साथ उनकी बाल संगिनी राधा (शक्ति) का भी चित्र उपस्थित किया है-
औचक ही देखो वहाँ राधा, नैन विशाल भाल दिये रोरी।
नील बसन फरिया कटि पहिरे, बेनी पीठि रुलत झकझोरी।
संग लरकिनी चलि इति आवति, दिन थोरी अति छवि तन गोरी ।
कृष्ण जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं उनकी क्रियायें और भी विकसित होती जाती हैं, उनकी लीलाओं और कार्यों के इतने विविध रूप हैं कि मानव हृदय आकर्षित हुए बिना रह ही नहीं पाता। निम्न पद में बालक कृष्ण मक्खन माँगते हैं परन्तु शब्द का ज्ञान न होने से चाहते हुए भी बोल नहीं पाते और इशारे से बताते हैं। इसी प्रकार अपनी परछाई पकड़ने का प्रयत्न भी करते हैं-
बाल विनोद खरो जिय भावत।
मुख प्रतिबिम्ब पकरिवे कारन हुलसि घुटरुवन धावत ।
* * * *
शब्द जोरि बोलन चाहत है, प्रगट वचन नहिं आवत ।
कमल नैन माखन माँगत हैं करि करि सैन बतावत ॥
कृष्ण को चलता देखकर यशोदा को बड़ा सुख प्राप्त होता है (चलते देखि जसुमति सुख पावें), चलते हुए कृष्ण के पैर कभी डगमगा जाते हैं, लड़खड़ा जाते हैं तब यशोदा उन्हें अपना हाथ पकड़ा देती है। (अखराइ कर पानि गहावत डगमगाय धरनी धेरै पैंया ।) इसी प्रकार नहाते समय का मचलना भी बच्चों की स्वाभाविक प्रवृत्ति है (जसुमति जबहि कहयो अन्हावन रोड़ गये. हरि लोटत रौं)। इसी प्रकार दूध न पीना भी बच्चों का स्वभाव सिद्ध है। किसी प्रकार न मानने पर यशोदा मनोवैज्ञानिक रीति अपनाती है, दूध के कितने ही लाभ बताते हुए कहती हैं-
कुंजरी के पय पियह लाल, जासो तेरी बेनि बढ़े।
जैसे देख और ब्रज बालक त्यो बल-वैस चढे ।
इस बात पर कृष्ण दूध तो पीने को तैयार हो जाते हैं साथ ही साथ अपनी चोटी की टटोलते रहते हैं कि बढ़ रही है। अथवा नहीं लेकिन वह तो वैसी है तब कृष्ण खीझते हुए कहते हैं-
मैया कबहि बढ़ेगी चोटी
किती बार मोहि दूध पियत भई, यह अजहुँ है छोटी।
ऐसे अनेक प्रसंग हैं, सबका वर्णन करना एक ही स्थान पर कठिन है। बालक का सौन्दर्य उसकी ओर लोगों को आकर्षित करता है। बाल क्रीड़ा उसमें सहायक होती है तभी वात्सल्य का पोषण होता है। बाल वर्णन मैं सूर ने कृष्ण रूप सौन्दर्य का यथेष्ट वर्णन किया है। उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक के द्वारा अंग प्रत्यंग का विस्तृत वर्णन किया गया है। एक ही प्रसंग बार-बार कहने पर भी बासी या उबाऊ नहीं लगता। प्रत्युत हर प्रसंग मौलिकता और अपने में ताजगी लिए हुए है। बाल-रूप और बाल-प्रकृति दोनों में सूर अनुपम हैं। रूप वर्णन में स्थिर और गत्यात्मक दोनों प्रकार के वर्णनों में सूर के उपमान अत्यन्त सटीक हैं. बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव स्पष्ट करते हैं।
बालक कृष्ण की क्रीड़ा और छवि में नन्द यशोदा इतने तन्मय हो जाते हैं कि स्वयं खेलने लगते हैं। दोनों ही बच्चे को बुलाते हैं। बालक इधर भी जाता है उधर भी जाता है-
इततै नन्द बुलाई लेत है उतते जननि बुलावे री।
दम्पति होड़ करत आपस में, स्यामा खिलौना छीन्हे री।
बड़ी लालसा के बाद पुत्र प्राप्त होने पर दोनों पुत्र की क्रीड़ाओं को देखकर अपार सुख का अनुभव करते हैं। यशोदा प्रायः ऐसे मौके पर जब वह कृष्ण की कोई बाल क्रीड़ा देख रही होती तो नन्द को भी बुलाती है और दोनों देख-देखकर निहाल होते हैं-
बाल दसा सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नन्द बुलावति ।
अंचरा तर लै ढाँकि सूर के, प्रभु को दूध पियावति ।
इन प्रसंगों में सूर ने मातृत्व भावना का तथा नारीत्व भावना का स्वाभाविक चित्रण किया है। ढिठौना लगना, मिर्च खा लेने पर मुँह फूंकना, कन छेदन में रोने पर नाई को डाँटना आदि अनेक प्रसंग सूर ने प्रस्तुत किये हैं। जिस प्रकार अंगूठा चूसने और मथानी पकड़ने पर देवताओं को प्रलय सागर-मन्थन का भय दिखाया है उसी प्रकार सूरदास ने मिट्टी खाने का प्रसंग भी वर्णित किया है। यह पता लगने पर कि कृष्ण ने मिट्टी खायी है, यशोदा रुष्ट होकर छड़ी लेकर धमकाती हैं। इस पर कृष्ण कहते हैं कि मैंने मिट्टी नहीं खायी और मुँह खोलकर दिखा देते हैं तो यशोदा को उनके मुख में भी बल ब्रह्माण्ड का दर्शन और सुख मिलता है-
मैया मैं माटी नहि खाई, मुख देखौ निव होंगे।
वदन उधार दिखायो त्रिभुवन वन घन नदी सुमेर ।
नभ शशि रवि मुख भीतर है सब सागर धरती फेर।
बाल चरित्र में माखन चोरी का प्रसंग बड़ा ही रोचक और स्वाभाविक है। कृष्ण ज्यों ज्यों बड़े होने लगे त्यों त्यों और अधिक उत्पाती, बात और बहाना बनाने में माहिर होते जाते हैं। उनकी बहानेबाजी, असत्य बोलना और चोरी भी कितनी प्यारी है। माखन चरित्र पर सूर ने अनेक पद गाये हैं कदाचित् कृष्ण का यह रूप उन्हें बहुत प्रिय था। इस प्रसंग में जहाँ कृष्ण का शरारती बाल रूप उभरता है वहीं सूर ने मातृ-हृदय का वर्णन करने में कुछ उठा नहीं रखा-
चोरी करत कान्ह धरि पाये।
दोउ भुज पकरि कहो कहँ जहाँ माखन लेऊ मँगाय।
तेरी सो मैं नेकन खायो सखा गये सब खाय।
नन्द गोकुल के सबसे सम्पन्न ग्वाले हैं और उनका एक पुत्र घर-घर मुंह मारता फिरे और इसके लिये उन्हें व्यग्यवाण सहने पड़ते हैं। यशोदा कृष्ण को दण्ड भी देकर देख चुकी हैं लेकिन कोई बदलाव नहीं तब वह समझाती हैं-
अनत सुत गोरस को कत जात
घर सुरभी कारी धौरी को माखन माँगिन खात।
दिन प्रति दिन सबै उरहने के मिस आवति है उठि प्रात ।
* * * * *
मोसो कहत कृपन तेरे घर ढाटाहू न अघात ।
* * * * *
सूर स्याम नित सुनत उरहनो दुख पावत तेरो तात ।
कृष्ण की चतुराई, झूठ आदि जानते हुए भी यशोदा उनका मुख और भोली बात देख-सुनकर द्रवित हो जाती हैं और पुत्र को स्नेह बरबस उनके झूठ और बहानेबाजी पर भी न्यौछावर हो जाता है। देखिये कितना प्यारा झूठ-
मैया मैं नहिं माखन खायौ।
ख्याल परे ये सखा सबै मिलि मेरे मुख लपटायी।
देखि तुही सीके पर भाजन, ऊंचे धरि लटकायौ ।
हौं जु कहत न्हान्हें कर अपने मैं कैसे कर पायी।
खेल-खेल में बच्चों में आपस में झगड़ा होता है तो ग्वाल बाल कहते हैं-
खेलत में को काको गुसैया ।
हरि हारे जीते श्रीदामा बरबरस ही कत करत रिसैया ।
इस पर बलराम चिढ़ाने के लिये कहते हैं- “इनके माय न बाप।” इस पर कृष्ण क्षुब्ध होकर घर लौट जाते हैं और यशोदा से बलराम की शिकायत करते हुए पूँछते भी हैं-
मोसो कहत मोल को लीनो तोहि जसुमति कब जायो ।
* * * * * *
पुनि-पुनि कहत कौन है माता को है तेरो तात
गोरे नन्द यशोदा गोरी, तू कत स्यामल गात।
* * * *
सुनहु कान्ह बालभद्र चबाई जनमत ही कौ धूत ।
सूर स्याम मोहि गोधन की सौं, हौं माता तू पूत ।।
ऐसी ही बाल प्रकृति, बाल-क्रीड़ा और मातृ-हृदय की गहरी अनुभूतियों के अनेक उदाहरण सूर सागर में भरे पड़े हैं। गोपियों की शिकायत पर उनके कोसने, गाली देने, शाप देने के डर से कि कहीं कृष्ण का कुछ अनिष्ट न हो जाय यशोदा गोपियों को समझाकर, खुशामद करके मक्खन के नुकसान का खमियाजा दे देकर सन्तुष्ट करती हैं- “करि मनुहार कोशिबे के डर भरि भरि देति जसोदा माता।” कृष्ण का दूध दुहना सीखने का आग्रह – “मैं दुहिहौं मोहि दुहन सिखावहु”, गाय चराये जाने का शौक- “मैया हाँ गाय चरावन जैहाँ। तू कहि महर नन्द बाबा सों, बड़े भयो न डरैहों।” खाते समय वन में ग्वाल बालों के मुख से ग्रास छीनना चकई भौरा माँगना आदि अनेक प्रसंग बाल लीला और मातृवात्सल्य के पदों में बिखरे पड़े हैं।
जिस प्रकार शृंगार रस में संयोग और वियोग दो पक्ष होते हैं उसी प्रकार सूरदास के वात्सल्य वर्णन में पहली बार दो पक्ष देखे गये। वात्सल्य का वियोग पक्ष और भी मार्मिक होता है। श्रृंगार रस के विप्रलम्भ पक्ष की सी स्वपीड़ा की अभिव्यक्ति और प्रियतम मिलन के हेतु छटपटाहट मात्र नहीं होती और न ही सारी प्रकृति एक सी विषम हो उठती है। प्रत्युत वात्सल्य में सन्तान के प्रति शुभ कामना, उसके स्वास्थ्य का ध्यान, उसके पसन्द की वस्तुओं का प्रेषण उदार भाव से स्वत्व का त्याग किसी भी दशा- स्थिति में सन्तान के मंगल- कुशल की जिज्ञासा व इच्छा ही प्रधान होती है। सूर के वात्सल्य में ये सभी भाव व्यक्त दिखाई पड़ते हैं। अक्रूर जब कृष्ण को मथुरा ले जाने के लिये आते हैं तभी से वात्सल्य का वियोग पक्ष आरम्भ होता है। कंस की क्रूरता और कृष्ण की कोमलता, सौन्दर्य तथा स्निग्ध व्यवहार ही इस वियोग जनित असह्य दुख का कारण है। यह वियोग ऐसा नहीं है कि केवल यशोदा को ही व्यथित करता है बल्कि नन्द को भी उतना ही सताता है, अन्तर यह है कि यशोदा की पौड़ा मुखर और बहिर्मुखी है, नन्द की मूक और अन्तर्मुखी। कृष्ण के चलने पर यशोदा और रोहिणी दोनों ही व्याकुल हो जाती हैं, उनकी स्थिति प्रस्तुत है-
जसुमनि अति ही भई बेहाल।
सुफलक-सुत यह तुमहि वृझियत हरत हमारे लाल ।।
ये दोइ भैया जीवन हमरे, कहति रोहिणी रोड़।
धननी गिरति उठति अति व्याकुल, करि राखत नहि कोई ।।
मातायें तो पुत्र का नाम ले लेकर बुक्का मार कर रोती हैं, दौड़ती हैं, गिरती हैं लेकिन अक्रूर का रथ आगे ही बढ़ता जाता है तो चित्रवत् ठगी सी खड़ी रह जाती हैं। लेकिन पिता नन्द की पीड़ा तो मन को झकझोर देती है-
फिरि करि नन्द न उत्तर दीन्हौ।
रोम-रोम झरि गयौ वचन सुनि, मनहु चित्र लिखि कान्हौ।
दुख समूह हृदय परिपूरन चलत कस भरि आयौ ।
अघ अघ पद झुव भई कोटि गिरि जो खगि गोकुले पैठो।
‘सूरदास’ अस कठिन कुलिस तें अजहुँ रहत तन बैठो।
नन्द तथा अन्य गोप-ग्वाले भी कंस के आयोजन में शामिल होने के लिये मथुरा जाते हैं। यशोदा आदि को विश्वास था कि कंस के निमन्त्रण को पूरा करके कृष्ण नन्द के साथ ही लौट आयेंगे। लेकिन नन्द अकेले लौटते हैं। गोपियों के धीरज का बाँध टूट जाता है, हृदयं हाहाकार कर उठता है, पुत्र वियोग में जशोदा विक्षिप्त सी हो जाती हैं और नन्द को भी भला बुरा कह देती हैं। नन्द कदाचित् इस स्थिति से अवगत थे। इसीलिये मथुरा से लौटने से पहले कृष्ण से कहते हैं-
मोहन तुमहिं बिना नहि जहाँ ।
महरि दौरि आगे जब ऐहैं, कहा ताहि मैं कैहौं ।
यशोदा तो अपने लाल कृष्ण के लिये देवकी की दासी वन फिर मथुरा जाने को तैयार हैं- “दासी है वसुदेव राय की दरसन देखत रैहौ।” अन्ततः सन्तोष करना ही पड़ता है। फिर भी कृष्ण के खान-पान के प्रति चिन्तित, देवकी उनकी आदतों से परिचित नहीं है ऊपर से कृष्ण संकोची पता नहीं कैसे रहते होंगे। इसीलिये वह एक पथिक के द्वारा भय से सन्देश भेजती हैं-
सन्देसी देवकी सों कहियो ।
ह्यौं तो धाय तिहारे सुत को मया करत ही रहियो ।
प्रातः होत मेरे लाल लड़ैते माखन रोटी भावे ।
तल उबटनो अरू तातो जल ताहि देखि भजि जाते।
जोइ-जोइ माँगत सोइ सोइ देती, क्रम-क्रम करि के न्हाते।
सूर पथिक सुनि मोहि रैन दिन, बढ्यो रहत उर सोच ।
मेरो अलक लड़ैतो मोहन, हैं करत संकोच ।
बाल छवि और मातृ हृदय को अनुभूति जितने व्यापक रूप में सूर सागर में अंकित हुई है, उतनी किसी अन्य कवि के काव्य में नहीं। सूर का वात्सल्य रस अत्यन्त स्वाभाविक और अद्वितीय है। मातृ-हृदय का चित्रण ही सूर के वात्सल्य की विशेषता है। चूंकि वात्सल्य रस का आश्रय माता और पिता का हृदय है। अतः उनकी ही मार्मिक दशा का दृश्य वात्सल्य का सच्चा चित्र है। डा० हरवंश लाल शर्मा के शब्दों में- “पुरुष होते होते भी वे माता के हृदय से विभूषित थे और अन्धे होते हुए भी सूक्ष्मदर्शी और दूरदृष्टा थे।
वात्सल्य में वियोग- कृष्ण के मथुरा-गमन के उपरान्त माता यशोदा की विवशता, व्याकुलता और उनके विदीर्ण हृदय की ममता का वर्णन कवि ने बड़ी भावुकता से किया है। माता यशोदा करुण, ग्लानि, क्षोभ, उदासीनता, आक्रोश आदि की समन्वित भाव भूमि पर पहुँच जाती है जिसे पंडितों ने भाव सबलता की संज्ञा दी है। कृष्ण मथुरा चले गये हैं। सारा राज सूना पड़ा है। कृष्ण के अभाव में माता यशोदा की विरह-व्याकुलता बढ़ती जाती है। अन्त में वे खीझकर नन्द को उलाहना देती हुई कहती हैं-
नन्द बज लीजै ठोंकि बजाई।
देह विदा मिलि जाहि मधुपुरी जाँ गोकुल के राइ ।
नैननि पथ कहो क्यों सुभन्यो उलट दियो जब पाइ।
नन्द मथुरा जाते हैं लेकिन वहाँ से अकेले लौटते हैं। नन्द को द्वार पर अकेला देखकर यशोदा के मृत हृदय का वात्सल्य प्रिय पुत्र के अभाव में आकुल हो जाता है। वह पति पर बिगड़ उठती हैं-
जसुदा कान्ह-कान्ह कैसे बूझौ।
फुटि न गई तुम्हाई तुम्हारी चारा कैसे मारग सूझै ।।
आगे वह पुनः कहती हैं-
छाँड़ि सनेह चले मथुरा कत दौरि न चीर गह्यौ।
फाट न गयी ब्रज की छाती, यह कत सूत सह्यौ ।।
कृष्ण के वियोग में यशोदा एक तरह से विक्षिप्त हो गयी हैं। रात दिन उन्हें कृष्ण की सुख-सुविधा की ही चिन्ता सताती रहती है। जब उनसे कृष्ण का वियोग सहा नहीं जाता तो वह एक पथिक के द्वारा देवकी के पास सन्देश भेजती हैं। उसमें कितनी निरीहता, विवशता और मार्मिकता है, दृष्टव्य है
संदेसौ देवकी सो कहिये ।
हौं तो धाय तिहारे सुत की कृपा करत ही रहिये ।
जदपि देव तुम जानति उनकी, तऊ मोहि कीह आवे ।
प्रातः होत मेरे लाल लड़ैते माखन रोटी भावे ।
तेल उबटनो अरु तातो जल, ताहि देखि भजि जाते ।
जोइ जोड़ माँगत सोइ सोइ देती, क्रम क्रम करिकै न्हाते।
सूर पथिक सुनि मोहि रैन दिन, बढ्यो राहत उर सोच ।
मेरो अलक लड़ैतो मोहन हृै है करत संकोच ||
वात्सल्य भाव की एक झलक ही उपरोक्त पद झलकाती है लेकिन अपने अन्दर मातृ- हृदय की जो स्वाभाविकता, तन्मयता एवं मनोवैज्ञानिकता सहज एवं आकर्षक ढंग से सिमेटे हुए है जिसकी हृदयग्राही, मार्मिक, आह्लादकारी झाँकियाँ प्रस्तुत करने में सूर पूर्णतया सफल हुए हैं।
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