सूरदास की भ्रमरगीत की विशेषता
भ्रमर गीत प्रसंग की चर्चा सर्वप्रथम श्रीमद्भागवत में की गयी है। श्रीमद्भागवत के 46वें एवं 47वें अध्याय के दस श्लोकों में इसकी पूर्ण कथा वर्णित की गयी है। उद्धव कृष्ण का सन्देश लेकर वृन्दावन पहुँचते हैं। उन्हें देखकर गोपियाँ जहाँ वहाँ से उनकी ओर दौड़ पड़ती हैं। उद्धव से मिलने पर समस्त लौकिक व्यवहारों को छोड़कर वे कृष्ण के ध्यान में लोन हो जाती हैं। उनकी वह स्मृतियाँ ताजी हो जाती हैं, वे क्षण नजरों के सामने आ जाते हैं जिन्हें उन्होंने अपने प्रियतम कृष्ण के साथ गुजारा था। कुछ गोपियाँ लोक-लज्जा त्यागकर उद्धव से कृष्ण का कुशल मंगल पूछती हैं। इतने में एक भौरा गुनगुनाता हुआ वहाँ दिखाई पड़ता है। एक गोपी उसे कृष्ण का दूत समझकर उपालम्भ देना शुरू कर देती है। बाद में दूसरी गोपियाँ भी उपालम्भ देने लगीं। इस तरह हिन्दी के अधिकांश भ्रमर गीतकारों में श्रीमद्भागवत के भ्रमर गीत कथा को अपना आधार बनाया। सूर भी वहीं से प्रेरित हुए। किन्तु श्रीमद्भागवत में जहाँ प्रेम पर ज्ञान की विजय दिखलाई। इस तरह सूर के भ्रमर गीत में भागवत के भ्रमरगीत की अपेक्षा कुछ मौलिक उदभावना है।
सूरसागर का एक महत्वपूर्ण अंश है भ्रमरगीत। इसका उल्लेख सूरदास की एक अन्दर चला सूर सम्बली में भी हुआ है। मौलिक उद्भावनाओं की दृष्टि से सुर सागर में वीरभर्त भ्रमर गीत अधिक उपयुक्त है। कृष्ण का सन्देश लेकर उद्धव बज में पहुंचते हैं। गोपियों के सम्मुख जब ये निर्गुण ब्रह्म की चर्चा शुरू करते हैं तो इसी समय मथुरा की ओर से उड़ता हुआ एक भँवरा गोपियों के पास आकर गुनगुनाने लगता है-
यहि अन्तर इक मधुकर आयो।
निज स्वभाव अनुसार निकट होई सुन्दर शब्द सुनायो।
पूछन लागी वाहि गोपिका कुब्जा तोहि पठायो ।
कैधों सूर स्याम सुन्दर को हम सन्देसो लायो ।
गोपियाँ इसी भौरे को संकेत करते हुए उद्धव को अपनी बात कहने का लक्ष्य बनाती हैं। यही प्रसंग भ्रमर गीत के नाम से अनिहित किया जाता है। सूर के भ्रमर गीत की विशेषतायें निम्नलिखित हैं-
(i) मौलिकता – भ्रमरगीत प्रसंग में गोपियाँ अपनी बात को कहने के लिये सीधे नहीं अनेक युक्तियों का सहारा लेती हैं। निम्न पद में गोपी हारिल पक्षी के माध्यम से कृष्ण के प्रति अपने एकात्मक भाव की अभिव्यक्ति करती हैं। हारिल पक्षी की विशेषता होती है कि वह अपने चंगुल में सदैव एक छोटी पतली लकड़ी या तिनका लिये रहता है। जब जमीन पर उतरता है तो उसी लकड़ी या तिनके को रखकर बैठता है। उस पर-
हमारे हरि हारिल की लकरी ।
मन क्रम वचन नन्दनन्दन उर यह दृढ़ करि पकरी ।
जागत, सोवत, स्वप्न, दिवस निसि कान्ह-कान्ह जकरी ।
सुनत जोग लागत हमें ऐसौ ज्यौ करुई ककरी ।
सोई व्यक्ति हमें लै आये देखी सुनी न करी ।
यह तो सूर तिनहिं लैं सौंपो जिनके मन चकरी ।
(ii) वारिवदग्धता- वारिवदग्धता का तात्पर्य वचन-चातुर्य से है। उद्धव का ब्रज में आना गोपियों को हितकर लग रहा है। वह कहती है- उनका इतने अनन्य भाव से तुमने हम लोगों को निर्गुण का महत्व बताया, कृष्ण को भूलकर अब उसे अपना पुरुष और आराध्य मानकर अनुराग करने को कहा। यह सब हमारे लिये और भी हितकर सिद्ध हुआ क्योंकि कृष्ण के जाते समय जो बातें महत्वपूर्ण नहीं लगी थीं अब उनके न रहने पर कृष्ण का मूल्य मालूम हुआ। इसे कितनी चतुरता से गोपियाँ कहती हैं, दर्शनीय है-
ऊधौ भली भई ब्रज आये।
विधि कुलाल कीन्हे कांचे घट ते तुम आनि पकाये।
रंग दीन्हों हों कान्ह साँवरो अंग-अंग चित्र बनाये।
पातै रारै न नैन नेह ते अवधि अटा पर छाये।
ब्रज करि अवाँ जोग ईंधन करि, सुरति आग सुलगाये।
(iii) ज्ञान और योग पर भक्ति की प्रतिष्ठापना- ब्रज में पहुँचकर उद्धव कृष्ण का यह सन्देश- ‘हंस सुता की सुन्दर करारी, अरु कुंजन की छाँही – उधो मोहि ब्रज विसरत नाही।’ तो नहीं देते, मौका पाते ही ज्ञान मार्ग और निर्गुण ब्रह्म की उपासना का उपदेश देने लगते हैं। इसका कोई प्रभाव गोपियों के ऊपर नहीं पड़ता। वे इसे अपने लिये निरर्थक कहती हैं-
ऊधो तुम ब्रज में पैठ करी ।
यह निर्गुन निर्मूल गांठरी अब किन करहु खरी ।
हम ग्वालिन गोरस दधि बेचो लेहि अबै सबरी ।
सूर यहाँ कोड गाहक नाहीं देखियत गरे परी।
उद्धव गोपियों को योग की शिक्षा देते हैं। गोपियों उनका नाम योग का व्यापारी रख देती हैं और कहती हैं कि जो लोग योग के विविध अंगों की साधना करते हैं वे सब शिव की नगरी काशी में रहते हैं इसलिये तुम भी वहीं जाओ योगा के लिये गोकुल में स्थान नहीं है। यहाँ तो सब कृष्ण को अनुरक्ति में लीन हैं-
गोकुल सबै गोपाल उपासी।
जोग अंग साधत जे ऊथो ते सब वसत ईसपुर कासी।
जग अपराध जोग लिखि पठवत प्रेम भजन तप करत उदासी।
लेकिन उद्धव भी एक ही मिट्टी के बने हैं। वे बार-बार अपनी रट लगाये हैं निराकारोपासना की विशेषता और महत्व बताते हैं तब गोपियाँ मन में दुखी और उद्धव पर खीज व्यक्त करते हुए कहती है-
ऊधौ ! युवतिन ओर निहारो।
तब यह जोग मोट हम आगे हिये समुझि विस्तारो ।
जे कच स्थाम आपने का करि नितहि सुगन्ध रचाये।
तिनको तुम जो विभूति घोरिक, जरा लगावन आये।
लोचन आजि स्याम-ससि दरसति तयहीये तृप्ताति ।
सूर तिन्हें तुम रवि दरसावत यह सुनि सुनि करु आति ।
उद्धव फिर भी अपने ज्ञान एवं योग की शिक्षा देते ही रहते हैं तब गोपियाँ प्रश्न रखती है उद्धव के सामने एक मूलभूत प्रश्न कम से कम उस पुरुष का परिचय तो दो किसी के प्रति आकर्षण पैदा करने के लिये उसके गुण, रूपादि का परिचय तो मिलना चाहिये-
निर्गुण कौन देस को वासी ?
मधुकर हँसि समुझाय, सौह दे बूझति साँच न हाँसी ।
को हैं जनक जननि को कहियत, कौन नारि को दासी।
कैसी वरन भेस है कैसो, केहि रस में अभिलाषी ।
सुनत मौन है रह्यो उग्यो सौ सूर सबै पति नासी ।
गोपियों द्वारा उस पुरुष का परिचय जानना आधारभूत मुद्दा है क्योंकि आधार के बिना कोई आधेय नहीं टिक सकता। फिर मन जैसी चंचल वस्तु जो सदैव अस्थिर और गतिशील रहती हो उसे बाँधने, संयमित करने के लिये कोई सहारा तो चाहिये। लेकिन गोपियों के इस मूलभूत प्रश्न पर उद्धव चुप हो गये। यह उद्धव की चुप्पी नहीं हर उस निराकारोपासक की स्थिति है जो साकारोपासक के इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाता। गोपियाँ उपदेशों की ओर ध्यान न देकर उलटे उद्भव की हँसी उड़ाती हैं-
ऊधौ जान्यौ ज्ञान तिहारो।
जाने कहा राजराति-लीला अन्त अहीर विचारो ।
भली भई हम सबै अयानी, स्यानी सौ मन मान्यो ।
आवत नहीं लाज के मारे मानहुँ कान्ह खिस्यान्यो ।
(iv) सगुण की विजय निर्गुण पर- सूरदास के भ्रमर गीत की प्रमुख विशेषता है-निराकारोपासना के ऊपर साकारोपासना की श्रेष्ठता तथा निर्गुण के ऊपर सगुण की प्रतिष्ठापना । उद्धव गोपियों को निर्गुण ब्रह्म की आराधाना की बार-बार शिक्षा देते हैं। गोपियाँ उनके निर्गुण ब्रह्म का पता पूछती हैं।
ऊधौ कह मत दीन्हो हमहि गोपाल ।
आवहु री सखी। सब मिलि सोच ज्यो पावै नन्द लाल ।
उद्धव के ज्ञानोपदेश के सुनते-सुनते गोपियाँ जब थक जाती हैं तब अत्यन्त मार्मिक शब्दों में अपनी विवशता प्रकट करती हुई कहती हैं-
ऊधो मन नहीं दस बीस
एक हुतो सो गयो स्याम संग को अवराधै ईस।
(v) प्रेम की उत्कृष्टता – सूर के भ्रमर गीत में प्रेम की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है। उद्धव की उपालम्भ देते समय गोपियों ने अनेक ऐसे उदाहरण दिए हैं जहाँ उनके प्रेम की उत्कृष्टता व्यक्ति हुई है। गोपियों प्रेम की महता को समझती हैं इसलिए उद्धव से कहती है-
ऊधो प्रीति न मरन विचारे ।
प्रीति पतंग जरै पावक परिजस्त अंग नहि टारे।
(vi) व्यंग्य की प्रधानता – अमर गीत में व्यंग्य स्थलों की भरमार है। गोपियों के असूया भाव की अभिव्यंजना इस व्यंग्य में दिखाई पड़ती है
बिलगि जनि मानहु ऊधो प्यारे ।
यह मथुरा काजर की कोठरी जे आवहिं से कारें।
तुम कारे सुफलक-सुत कारे मधुप भँवारे ।
तिनके संग अधिक छवि उपजत कमलनयन अनियारे ।
(vii) भावों की आवृत्ति – भावों की आवृत्ति भ्रमर गीत में बहुधा हुई है। आँसू, भौरों, कमल, चातक आदि को लेकर उन्होंने अनेक पदों की रचना की है। जैसे- “निशि दिन बरसत नैन हमारे।” “सखि इन नैननि ते घन हारे” ज्ञान और भक्ति जैसे गहन विषय को सूर ने इस परिहासपूर्ण एवं व्यंग्यात्मक मनोरंजक शैली में उपस्थित किया है कि बरबस मन आकृष्ट हो जाता है। इसमें उनकी काव्य प्रतिभा के साथ ही भक्ति के प्रति उनके प्रेम-प्लावित एक निष्ठ अनुराग का ज्ञान होता है।
साहित्य के रसात्मक भावों की दृष्टि से भी भ्रमर गीत उत्कृष्ट है तथा यह विप्रलम्भ शृंगार काव्य है। वियोग का मनोवैज्ञानिक चित्रण करते हुए सूर ने उस अवस्था को घनीभूत व्यथा का मार्मिक वर्णन किया है। सूर के भ्रमर गीत से कृष्ण और गोपिकाओं दोनों ओर से विरह व्यथा की व्यंजना की गयी है। यह परम्परागत शैली अर्थात् प्रेमिका की ओर से विरह प्रकाशन में एक कान्ति है। वे कृष्ण के अतिमानव चरित्र का संकेत अवश्य करते थे। किन्तु माधुर्य के स्थलों पर मानवीय रूप में उन्हें रसराज रूप में ही चित्रित करते थे। इसीलिये श्रीकृष्ण भी गोपियों के लिये विरह में कातर हैं-
ऊधौ मोहि व्रज बिसरत नाहीं ।
हंस सुता की सुन्दर कगरी अरु कुंजन की छाँही ।
वे सुरभी वै बन्द दोहनी, खरिक दुहावन गाही ।
ग्वाल बाल मिलि करत कुलाहल नाचत गाहि गाहि बाँही।
यह मथुरा कंचन की नगरी, मनि मुक्ताहल जाही।
जबहि सुरति आवत वा सुख की, जिय उमरात तन नाही।
सूरदास प्रभु रहे मौन हैं, यह कहि कहि पछिताही ।
विरह वर्णन सूर के भ्रमरगीत में इतना मार्मिक और हृदयग्राही है कि हर सहृदय पाठक या श्रोता उसमें तल्लीन होकर तदवस्थ सा हो जाता है और उसका रागात्मक सम्बन्ध हो जाता है। इस दृष्टि से सूर विरह की भावात्मक अभिव्यक्ति में पूर्ण सफल हुए हैं। शास्त्रीय दृष्टि से विरह की 11 दशायें बतायी गयी हैं जो सभी मिलती हैं। यह बात स्मरणीय है कि सूर ने इन अवस्थाओं का समावेश जान बूझ कर किया है अथवा श्रृंखलाबद्ध वर्णन किया है ऐसा नहीं है स्वतः अपनी मार्मिक अभिव्यक्ति के लिये प्रयुक्त होते गये हैं तथा अपने अन्दर स्वाभाविक सरसता तथा मर्मस्पर्शिता की भाव व्यंजना की क्षमता छिपाये हुए हैं।
सूर के भ्रमर गीत में जो विरह की अवस्थायें हैं उनका प्रभाव मानव तक ही नहीं पशु-पक्षी और वृक्ष, नदी तक पर भी है। ‘देखियत कालिन्दी अति कारी’ ‘परम दुखारी गाई’ आदि में अद्भुत व्यंजना है। मनुष्य का मन जब दुखी होता है तो उसे सभी प्रकृति, सारा संसार दुखी मालूम होता है। सूर के इस तिर्यक योनियों एवं जड़ पदार्थों की विरह व्यंजना में यही मनोवैज्ञानिक तथ्य है। इसीलिये गोपियों को ‘कुंज बैरिन हो गयीं, जमुना का बहना, पवन का बहना, पक्षियों का बोलना, भँवरों का गूंजना, कमलों का फूलना बुरा या व्यर्थ मालूम होता है। चन्द्रमा की किरणें भूँजने वाली दग्धकारी मालूम होती हैं। मधुवन के हरे रहने पर गोपियों को आश्चर्य होता है। सारांश यह है कि कृष्ण की विरह मानव तथा पशु-पक्षी और पेड़-पौधों दोनों को उत्पीड़ित कर रही हैं जिसका मार्मिक वर्णन भ्रमर गीत में हुआ है।
भ्रमर गीत की विरह व्यंजना में सूर ने पार्थिव से अपार्थिव का भी संकेत किया है। यहाँ विरह अखण्ड और अनन्त सा है। विरह में केवल कान्ताशक्ति नहीं है, वरन् सख्य और वात्सल्य भी है क्योंकि गोपी और यशोदा का विरह भी चित्रित है। सभी प्रकार से कृष्ण के प्रति तन्मयता और अनन्यता का भाव व्यक्त किया गया है।
भ्रमर गीत के काव्यात्मक गुणों की परिधि में उसको भाषा भी है। प्रसंग अनुकूल एवं पात्रा और भावव्यंजना के अनुसार सरल, प्रचलित, सशक्त एवं तदभव शब्दों से युक्त भाषा का प्रयोग किया है, जो जनभाषा के समीप है। सम्बोधनपूर्वक ग्रामीण शैली का स्वाभाविक वार्ता क्रम अत्यन्त आह्लादकारी है। समय-समय पर चुटीले परिहास के लिये टाडो, वैपारी, गाठि आदि का प्रयोग तथा लोकोक्तियों और मुहावरों का सहयोग और भी प्रभावोत्पादक है। जैसे-ये बतियाँ सुनि राखी हित को कहत कुहित। कै लागे, बाँध गाँठ कहूँ जनि छूटे, सूर सकल फीको लागत है आदि। सूर का अमर गीत उपालम्भ काव्य का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हैं। इसमें दार्शनिक विवेचना की सुबोधता प्रशंसनीय है। सूर सागर में अमर गीत का अंश अल्पन्त पुष्ट और महत्वपूर्ण रहा है। इसमें काव्य भी है और दार्शनिक पक्ष की विवेचना भी व्यंजना, माधुर्य तथा विप्रलम्भ शृंगार का अनूठा सम्मिश्रण किया गया। है। काव्य का सर्वागीण विकास है, साथ ही इसमें सूर की आत्मा का उपास्य रस उपस्थित है। व्यक्तिरता, व्यथा, दीनता, आत्मनिवेदन, शरणागति, अनन्योपासना, तन्मयासक्ति आदि सभी भक्ति तत्व अमर गीत में समाविष्ट हैं।
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