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सूरदास के कला पक्ष की विशेषतायें
कलापक्ष काव्य का बाह्यरूप है। इसके अन्तर्गत अनुभूति की अभिव्यक्ति करने वाली शब्द-योजना, सौष्ठवपूर्व अलंकार की छटा, उक्तिवैचित्र्य तथा चमत्कार उत्पन्न करने वाली शक्ति का समावेश होता है। सूर के काव्य में कला-पक्ष के उपर्युक्त सभी गुण विद्यमान हैं।
भाषा
सूर की भाषा ब्रजभाषा है। बोलचाल की ब्रजभाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों का समावेश करके सूर ने ब्रजभाषा को सम्पूर्ण देश की भाषा बना दिया है। उसे और व्यापक बनाने के लिए स्थान-स्थान पर विदेशी भाषा-अरबी-फारसी के भी शब्दों का प्रयोग किया है। देशज भाषा के भी कुछ शब्द प्रयुक्त हुए हैं। इस प्रकार उनकी भाषा पूर्ण परिमार्जित न होते हुए भी है अत्यन्त प्रवाहमयी बन गयी है।
तत्सम शब्द- रूप-चित्रण, मुरली वादन, ऋतु समय आदि के साथ चित्रण के प्रसंगों में तत्सम शब्दों की अधिकता है। अम्बर, आनन्द आभा, इन्दु, उत्साह, कला, कृष्ण, क्रीड़ा, खंजन, गयंद, घृत, चन्द्र, जगत, त्याग, दधि, प्रीति, पीयूष, परिहास, परितोष, लता, विकास, विभावरी आदि तत्सम शब्दों का प्रयोग उनकी रचनाओं से मिलता है।
तद्भव शब्द- इस प्रकार के शब्दों की संख्या अधिक है। इससे सूरदास के अनेक पदों में उनकी ब्रजभाषा का सौन्दर्य अपने परिमार्जित रूप में सहज ही निखर आया है। अधकाई, निसरना, सकपकाना, अलसाना, उकसाना, समाना, झूखी, गोहन, घेरा, हैं अनकही, दुलरान, डहकना, धरना, हटकना आदि तद्भव शब्द उनकी भाषा में प्रयुक्त हुए हैं।
विदेशी भाषा के शब्द- अमल, सिकार, बेसरम, नीम, हकीम, दस्तक, दरबाजे, सुलतान सरहार, मुसाहिब, दुश्मन, जवाब, जहर, जहाज, साबित, गुलाम, गुनहगार, चुगली कमल, कसूर, कागद खरच, संदूक, लसकर आदि जैसे अरबी, फारसी, के शब्दों का प्रयोग भी सूर के काव्य में मिलता है।
साहित्यिक दृष्टि से सूर के काव्य में अर्थ गाम्भीर्य है। उसमें प्रवाहात्मकता, ध्वन्यात्मकता, चित्रात्मकता तथा नाटकीयता भी लक्षित होती है : उदाहरणस्वरूप देखिए-
प्रवाहमयता- प्रवाहमयता सूर की काव्य भाषा की प्रथम विशेषता है। इससे कवि को भावों के चित्रण में पर्याप्त सफलता मिली है और उसका शब्द चयन भी अनूठा बन पड़ा है। देखिए-
भहरात झहरात दावानल आयो ।
घेरि चहुँ ओर करि सोर अन्दोर वन धरनि आकास चहुँ पास छायो।
बरत वन बांस थरहरत कुछ काँस जारि उड़त है झाँस अति प्रबल धायो ।।
ध्वन्यात्मकता- ध्वन्यात्मकता सूर की भाषा का दूसरा गुण है। उनकी भाषा ध्वनि के माध्यम के रूप-गति, स्थिति लय आदि को व्यक्त करने में पूर्ण सक्षम है-
मानो भाई घन घन अन्तर दामिनि
धन दामिनि घन अन्तर सोभित हरि ब्रज भामिनि ।
चित्रात्मकता – चित्रात्मकता तो सूर के काव्य का प्राण है। सूर ने जिस दृश्य का चित्रण किया है। उसमें सौन्दर्य एवं चारुता का सुन्दर समावेश हो गया है एक चित्र देखिये-
नटवर वेष घरे ब्रज रावत ।
मोर मुकुट मकराकृति कुण्डल कुटिल अलक मुख पर छवि छावत।
* * * *
सोभित कर नवनीत लिये।
घुटुरुन चलत रेणुतन मंडित मुख दधि लेप किये।
नाटकीयता – नाटकीयता भी सूर के भाषा की एक प्रमुख विशेषता है। किसी अपरिचित से मिलकर सूर की भाषा जिस तरह उससे बात करने लगती है, वह दर्शनीय है।
कहाँ रहित ! काकी तू बेटी ? देखी नहीं कबहुँ ब्रज खोरी।
उत्तर मिलता है-
काहें की हम ब्रज तन अवति खेलति रहति अपनी पौरी।
मुहावरे एवं लोकोक्तियाँ- सूरदास ने अपनी भाषा में सजीवता और समृद्धता लाने के लिए जगह-जगह मुहावरों एवं लोकोक्तियों का प्रयोग किया है। उदाहरणार्थ देखिए-
जैसे उड़ि जहाज को पंछी पुनि जहाज पै आवै।
* * * *
तुम चाहति हौ गगन तरैया मांगे कैसे पावौ।
अलंकार-योजना
सूर की वाग्विदग्धता सहृदया समन्वित है। यही कारण है कि सूरदास ने अपनी अभिव्यक्ति को अलंकृत करने के प्रयास में कभी नहीं रहे। भक्ति-भावना के आवेश में उन्होंने कृष्ण-लीला का गान किया था। फिर भी, उनके पदों में अलंकार नाचते हुए दिखाई पड़ते हैं। अप्रस्तुत योजना, सांग-रूपक, उपमा एवं उत्प्रेक्षा उनके प्रिय अलंकार हैं। इनमें उत्प्रेक्षा उन्हें सर्वाधिक प्रिय हैं। कृष्ण के अधरों की लीला का वर्णन करते समय कवि ने एक पद में सात उत्प्रेक्षाओं की कल्पना की है। यथा-
देखि सखी अधरनि की लाली।
मनि मरकत तें सुभग कलेवर ऐसे हैं बनमाली ।
मानौ प्रति की घटा साँवरी तापर अरुन प्रकाश ।
ज्यों दामिनि बिच चमकि रहते हे फहरत पीत सुबास ।
कौधो तरुन तमाल बेलि चढ़ि जुग फल बिम्ब सुपाके ।
नीसा कीर आई मनु बैठयो लेत बनत नहि नाके। आदि
रूपकों की योजना भी सूर ने बड़ी कुशलता से की है। उनके अलंकारों के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं-
रूपक-
आयो घोष बड़ो व्यापारी।’
लादि खेप गुन ग्यान जोग की व्रज में आय उतारी।
सांगरूपक-
अब मैं नाच्या बहुत गोपाल ।
काम क्रोध के पहिरि चोलना कठं विषय की माल ।
माया मोह के नूपुर बाजत, निन्दा शब्द रसाल।
दृष्टांत-
छाड़ि मन हरि विमुखन के संग।
काहिं कहा कपूर खवाये, स्वान न्हावाये गंग।
खर को कहा अरगजा लेपन मरकट भूषन अंग ।
अनुप्रास-
चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए।
लटक लटकनि मनो मत मधुप गन मापक मदहिं पिए।
प्रतीप-
सकल सुख की नीव कोटि मनोज सोभाहरनि।
भुज भुजंग सरोज नयननि बदन विधु जित्योलरनि।
उपमा-
आइ उधरि प्रीति कलइ सी जैसी खाटी आभी।
सूर इते पर अनख मरत है उधो पीवत माथी।
* * * *
हरि सों भली सो पति सीता को ।
वन-वन खोजत फिरे बंधु संग कियो सिंधु बीता को ।।
श्लेष –
उधौ ! तुम अति चतुर सुजान।
जे पहिले रंग रंगी स्याम रंग तिन्हें न चढ़े रंग आन ।
निदर्शना-
मधुकर मन तौ एकै आहि ।
सौ तो लै हरि संग सिधारे जोग सिखावत काहि ।
अतिशयोक्ति-
जब मोहन मुरली अधर घरी ।
दूर गये कीर कपोत मधुप पिक सारंग सुधि बिसरी ।
उडुपति विद्रुम बिम्ब खिसान्यो दामिनी अधिक डरी।
विभावना-
जाकी कृपा पंगु गिरि लैधै अन्धे को सब कुछ दरसाई ।
शैलीगत विशेषता
सूर ने राधा-कृष्ण के गुणों का गान किया है। इस दृष्टि से कोमलतम भावों की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने गीत-शैली को ही चुना है। उनके पदों में गीत जैसी संगीतात्मकता, सरलता, संक्षिप्तता एवं सहजता व्याप्त है।
इसके अतिरिक्त कहीं-कहीं उन्होंने वर्णनात्मक शैली का भी सहारा लिया है। कालीय दमन-लीला गोवर्धन लीला, बसन्त, होली एवं हींडोल-लीला आदि उत्सवों में उन्होंने वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है। कुछ स्थलों पर उन्होंने दृष्टि कूट-शैली भी अपनायी है। यद्यपि वह शैली गीति-शैली के सदृश ही है, परन्तु उसमें गीति-शैली जैसी सरलता एवं सहजता नहीं है। एक उदाहरण देखें-
कोहु कौ श्याम बुलावत हैरी ।
नव अरु सात ताहि के ऊपर तहमां से अर्ध घटावत हैरी ।
इस पद में राधा को बुलाने की बात है। 9 + 7 नक्षत्र = 16 उसके ऊपर 17, सत्रहवां नक्षत्र अनुराधा है। उसमें से आधा निकाल देने पर ‘राधा’ ही बचता है। इन्हीं राधा को श्याम बुला रहे हैं। इसके अतिरिक्त सूर के काव्य में व्यंग्य शैली, उपालम्भ शैली तथा सम्बोधन शैली का भी प्रयोग हुआ है
छन्द योजना
अपने काव्य में सूर ने कई छन्दों का प्रयोग किया है। घनाक्षरी, दंडक, हरि गीतिका, चौपाई, लावनी, कुण्डल, सार, सवैया, विष्णुपद आदि छन्द कुछ मूल तथा कुछ विकृत रूप में लक्षित होते हैं। रौला और दोहा के मेल से सूर ने कुछ नये छन्दों की भी रचना की है। उनकी चौपाई का एक उदाहरण देखिए-
आजु बधाई नन्द के माई ।
ब्रज की नारि सकल जुरि आई।
सुन्दर नन्द महर के मंदिर ।
प्रगटयो पूत सकल सुख कन्दर।
निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि सूरदास का कलागत सौंदर्य उत्कृष्ट कोटि का है। भाषा, अलंकार, छन्द शैली आदि के दृष्टि से उनका काव्य सजीव एवं भावानुकूल है। इसी के गुण के कारण सूर के पद सर्वग्राह्य एवं सार्वजनीन बन गये हैं।
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