सूरदास के पदों में प्रतिपादित भक्ति तत्व
भागवत में भक्ति को सर्वोपरि महत्ता देते हुए भी ज्ञान और कर्म को अपनाया गया है। प्रेमरूप भक्ति को महत्व देते हुए वैधी भक्ति को उसकी प्राप्ति का साधन माना गया है। सूरदास ने भी भागवतकार की भाँति भक्ति को महत्व दिया हैं लेकिन ज्ञान और धर्म की प्रतिष्ठा नहीं की है।
सूर की भक्ति का निम्नलिखित दष्टिकोणों से मूल्यांकन किया जा सकता है-
(i) साधारण भक्ति, (ii) वैराग्यपूर्ण भक्ति, (iii) वैधी भक्ति, (iv) प्रेमरूपा भक्ति, (V) पुष्टिमार्गीय भक्ति ।
साधारण भक्ति- सूर इस प्रपंचपूर्ण संसार से छूटने का एक मात्र उपाय हरिभक्ति मानते हैं। तुलसी की तरह अपने चारों ओर के संसार को आँखें खोलकर देखा, उसकी बुराइयों को समझा। भौतिक विषयों के दुष्परिणामों का उद्घाटन और प्रभु प्रेम का प्रतिपादन उन्होंने इस भावपूर्ण ढंग और सुन्दरता से किया कि लोग हरि लीला गान में अनायास ही रत हो गये। हरि का भक्त स्वयं हरि रूप हो जाता है जिस पर हरि की कृपा हो जाती है उसे फिर किस बात की कमी, साथ ही किसका भय-
जाकी मनमोहन अंग करै।
ताकौ कैस खसै नहि सिर तैं, जो जब बैर परे ।
भक्ति के बिना ज्ञान और कर्म व्यर्थ हैं, इस तथ्य का पोषण सूर के कई पदों में हुआ है। अनेक पापियों का उदाहरण देकर स्थान-स्थान पर सिद्ध किया है कि भक्ति को किंचित मात्रा भी जीव के समस्त पापों का विनाश कर देती है। सन्त मत की भांति ही सूर ने भी जाति-पांति का विरोध किया है, स्त्री को भी भक्ति का अधिकार दिया है, जिसका सन्त समाज बहुत विरोधी था।
(1) हरि हरि हरि सुमिरौ सब कोई।
ऊँच नीच हरि गनत न दोई।
(2) हरि हरि हरि सुमिरौ सव कोई।
नारि पुरुष हरि गनत न दोई।
वैराग्यपूर्ण भक्ति- सूर का समकालीन समाज विषयासक्त और आचार-विचार विरत था। सच्ची भक्ति के लिए विषय विरक्ति अपेक्षित थी इसलिये सूर तथा उनके समकालीन सभी भक्त कवियों ने भक्ति के विवेचन में वैराग्य का महत्व प्रतिपादित किया है। विषय के पदों में सूर ने जहाँ एक ओर हरिजन की आवश्यकता पर बल दिया है वहीं दूसरी ओर भक्तों के विचारों में वैराग्य भी अनिवार्य बताया है क्योंकि वैराग्य पूर्ण भक्ति से ही सांसारिकता का मोह होना सम्भव है और पूर्ण आत्मसमर्पण का भाव उदित हो सकता है। बिना वैराग्य के इष्ट देव की अनन्य भक्ति नहीं हो सकती-
जौ लौ मन कामना न छूटै।
तो कहा जोग व्रत कीन्हें, बिनुकन तुस कौ कूटै।
सूरदास तब ही तम नासै ज्ञान अगिन झर फूटै।
वैधी- यद्यपि सूर भक्ति से साध्यरूप को ही महत्व देते थे और प्रेम ही उनकी साध्यरूपा भक्ति का आधार है तथापि स्थान-स्थान पर वैधी भक्ति का भी उदाहरण मिल जाता है। गोपियों को प्रेम भक्ति का आश्रय मानकर उनके माध्यम से अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। वैधी भक्ति के अन्तर्गत नवधा भक्ति की सभी स्थितियाँ मिलती हैं। वल्लभ ने नवधा भक्ति को प्रेम स्वरूप भक्ति का साधन माना है सूर ने भी यही अनुसरण किया। नवधा भक्ति इस प्रकार है-श्रवण स्मरण, कीर्तन, पाद सेवन, वन्दन, अर्चन, दास्य संख्य और निवेदन । इनमें पहले तीन भगवान के नाम और लीला से, दूसरी तीन रूप से और अन्तिम तीन मन से सम्बद्ध हैं। मन से सम्बद्ध भक्ति ही रस की कोटि तक पहुँचती है।
श्रवण, स्मरण कीर्तन- इन तीनों में भगवान के नाम का महत्व मिलता है। नाम महिमा के अनेक पद सूर ने गाए हैं। हरि नाम का प्रभाव ऐसा है कि बड़े से बड़ा पापी भी इसके सहारे सहज रूप से भक्ति प्राप्त कर भव-सागर को पार कर लेता है।
को न तरयो हरिनाम लिये।
सुआ पढ़ावति गनिका तारी, व्याध तरो सरधान किए।
हरि स्मरण के बिना मुक्ति भी सम्भव नहीं उसी से सब सुखों की प्राप्ति यहाँ तक कि भगवान का साक्षात्कार भी मिलता है। भगवान के नाम, गुण, लीला, लीला-धाम आदि का प्रेम और श्रद्धा के साथ पाठ करना और गान कीर्तन कहलाता है। कोर्तन के पद भी सूर ने गाये हैं। हरिकीर्तन और स्मरण के समान ही भगवान का गुण श्रवण के महत्व को स्थान-स्थान पर प्रतिपादित किया है। भगवान की लीला आदि को सुनना-सुनाना ही श्रवण भक्ति है। बहुधा सूर ने भगवान की लीला का वर्णन करके अन्त में कह दिया।
‘जो यह लीला सुनै सुनावै, सौ हरिभक्ति पाइ सुख पावै।”
पाद सेवन, वन्दन, अर्चन- ये तीनों प्रकार के भक्ति साधन भगवान के रूप से सम्बन्ध रखते हैं। पुष्टि सम्प्रदाय की सेवा विधि में इनका बड़ा महत्व है। इन पूजाओं के बाद हो भक्त में दास्य और विनय भाव का आविर्भाव होता है। सूरदास जी वल्लभ की आज्ञा के अनुसार गोवर्धन पर्वत पर श्रीनाथ जी के मन्दिर में भगवान की पूजा करते थे जिसमें तीनों प्रकार के भक्ति साधन थे। सूरदास का पहला पद ही भगवान के चरण कमलों की वन्दना से शुरू होता है।
चरन कमल बन्दौ हरि राई।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे, अन्धे को सब कुछ दरसाई ।
… … …
सूरदास स्वामी करुनामय, बार बार बन्द तिहि पाई।
लभ सम्प्रदाय के मन्दिरों में आठ पहर की सेवा में अर्जुन के अलग-अलग विधान हैं। भगवान के विराट स्वरूप और आरती का जो भव्य और दिव्य चित्रण सूरदास ने किया है वह अन्यत्र दुर्लभ है
हरि जू की आरती बनी।
अति विचित्र रचना रचि राखी, परति न गिरी वानी।
यह प्रताप दीपक सु निरंतर, लोक सकल भजनी ।
सूरदास सब प्रगट ध्यान में, अति विचित्र राजनी।
वन्दन और अर्चन दोनों भक्तियाँ साथ-साथ चलती हैं क्योंकि वन्दन में भी भक्त के दास्य रूप की ही अभिव्यंजना होती है। चास्य सख्य आत्म निवेदन ये तीनों मानसिक भाव हैं। इन भावों के अनुकूल भक्ति 5 प्रकार की हो जाती है- शान्ता भक्ति, सख्य भक्ति, वात्सल्य भक्ति, माधुर्य भाव की भक्ति या प्रेमाभक्ति और आत्मनिवेदन ।
विनय भक्ति, वैराग्य, दैन्य, विनय आदि भावों से प्रेरित होकर जो पद सूर ने गाये हैं वह विनय भक्ति अथवा शान्ता भक्ति के अन्तर्गत आते हैं। स्वयं को लघु और भगवान को महान मानकर भक्त अपने जिस भाव को अभिव्यक्त करता है वही दैन्य भाव है। इस प्रकार के पदों में भगवान की दयालुता, पतति-पावनता तथा भक्तवत्सलता के महात्म्य का वर्णन करता है तथा स्वयं की अवलम्बहीनता, असमर्थता और दीनता-हीनता को व्यक्त करता है। ऐसे अनेक पद हैं जिनमें सूर ने अपनी लघुता का अतिरंजना के साथ वर्णन किया है और दयानिधि की कृपा की याचना की है-
प्रभु की देखो एक सुभाई ।
अति- गम्भीर- उदार- उदधि हरि, जान सिरोमनि राइ ।
तिनक सौ अपने जन को गुन मानत मेरू समान ।
सकुचि गनत अपराध समुद्रहिं बूंद तुल्य भगवान । – दयालुता, पतितपावनता
‘जाकौ मनमोहन अंग करै । -शरणागतवत्सलता
ताको केस खसै नहिं सिर तै, जौ खग बैर परै । सूरसागर में प्रहलाद चरित्र, कालिय- दमन, चीरहरण, गोवर्धन पर्वत लीला आदि प्रसंगों में भगवान की भक्त वत्सलता और भक्त के दैन्य का साथ-साथ वर्णन है।
पुष्टि मार्ग- वात्सल्य सख्य, माधुर्यादि भक्ति की विवेचना करने के पूर्व पुष्टि मार्ग क्या है, इससे परिचित हो जाना श्रेयस्कर है। आचार्य वल्लभ द्वारा उनके सिद्धान्तों शुद्धाद्वैतवाद के आधार पर संस्थापित मार्ग पुष्टि मार्ग है। वल्लभ के श्रीकृष्ण को ब्रह्म माना, राधा को उनकी स्त्री और क्रीड़ा स्थली बैकुण्ठ । उन्होंने ब्रह्म की सत्ता के अतिरिक्त किसी और की सत्ता को नहीं स्वीकारा। ब्रह्म के 3 रूप हैं (1) पूर्ण पुरुषोत्तम रस रूप आनन्द रूप परम ब्रह्म श्रीकृष्ण (2) अक्षर ब्रह्म (3) अन्तर्यामी रूप। ब्रह्म निराकार और साकार दोनों ही हैं। एक से अनेक होने की इच्छा जागने पर वह लीला करता है तथा नाना रूपों में प्रकट होता सृष्टि की रचना करता है। ब्रह्म से जीव और जगत भिन्न है। ब्रह्म के सत् अंश से जगत् तथा सत् और चित अंश से जीव उद्भूत हैं। इस प्रकार ब्रह्म तथा जीव और जगत के बीच अंशों और अंश का सम्बन्ध है। जगत के चराचर रूप में आविर्भाव होने का कारण ब्रह्म की इच्छा ही है। इसलिए ब्रह्म और जगत् में कार्य और कारण का सम्बन्ध है । ब्रह्म से वह इच्छा शक्ति जिससे सृष्टि का आविर्भाव होता है-माया है। ब्रह्म की माया की एक अविद्या नामक शक्ति होती है जो जगत् से भिन्न संसार की उत्पत्ति करती है। इसी के द्वारा जीव में अहम् भाव उत्पन्न होता है। अहम् और मम भाव जीव को मोह प्रस्त करता है और उसमें द्वैत बुद्धि का जन्म होता है फलस्वरूप जीव अनेक दुःख से पीड़ित होता है और मोह के जाल में फँसा रहता है। जन्म मरण के इसी चक्र का नाम संसार है। जीवों की अविद्या भगवान की कृपा अथवा अनुग्रह से ही दूर हो सकती है। सभी जीवों को यह अनुग्रह प्राप्त नहीं होता, जिस जीव पर ईश्वर का अनुग्रह होता है वह पुष्ट जीव कहलाता है। जितना भगवान का अनुग्रह होगा उतना ही जीव उन्मुख होगा, भगवान उसे अच्छे लगने लगते हैं। तत्पश्चात् वह भगवान के स्वरूप परिवयार्थ ज्ञान प्राप्त करता है जिसके बाद भक्ति का उदय शुरू होता है। इसकी तीन भूमियाँ हैं- (1) प्रेम (2) आसक्ति, (3) व्यसन । व्यसन प्रेम की परिपुष्ट दशा है। इस भूमि पर भक्त को बाहर भीतर सभी जगह भगवान दिखाई देते हैं। वल्लभ ने इसी अनुग्रह का नाम पुष्टि कहा है और इसका मार्ग पुष्टि मार्ग अथवा The path of divine grace कहलाता है।
पुष्टि चार प्रकार की होती है-
(क) प्रवाह पुष्टि – इसमें सांसारिक कर्मों में फंसे रहने पर भी साधक भगवद् प्राप्ति के लिये सतत् प्रयत्न करता है।
(ख) मर्यादा पुष्टि – इसमें साधक विषय भोगों पर संयम करके श्रवण, कीर्तनादि द्वारा कल्याण मार्ग पर अपसर होता है।
(ग) पुष्टि पुष्टि- इस मार्ग के साधक अनुग्रह प्राप्त किये रहते हैं तथा भक्ति के साथ ही साथ ज्ञान प्राप्ति में लगे रहते हैं। वे तत्व चिन्तन के द्वारा भगवान के नाना विधानों को समझने का प्रयास करते हैं।
(घ) शुद्ध पुष्टि- केवल प्रेम और अनुराग के आधार पर कृष्ण का अनुग्रह प्राप्त कर हृदय में कृष्ण की अनुभूति होना। यह अनुभूति भक्त के हृदय को कृष्ण का स्थान बना दें तथा गोप, गोपी, यमुना, कदम्ब आदि के साथ साम्य स्थापित कर श्रीकृष्णमय हो जावे।
वल्लभ ने शुद्ध पुष्टि को अपने सम्प्रदाय का चरम उद्देश्य माना है। जीव का राधाकृष्ण के साथ गोलोक में निवास पा जाना ही सार्थक समझते हैं। पुष्टि भाग की अभिव्यक्ति के लिये वल्लभ ने तीन माध्यम माने हैं। (1) वात्सल्य, (2) संख्य (3) माधुर्य। सूरदास ने इन तीनों का विशद विवेचन अपने पदों में किया है।
वात्सल्य भक्ति- मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाय तो वात्सल्य भक्ति अन्य सब प्रकार की भक्तियों से ऊँची प्रतीत होती है क्योंकि वात्सल्य भाव में किसी भी प्रकार के स्वार्थ को गन्ध तक नहीं होती, अतएव इसे हम निष्काम भक्ति का पोषक कह सकते हैं। सूर के वात्सल्य पर प्रकाश डालते हुए डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी जी लिखते हैं-‘यशोदा के वात्सल्य में वह सब कुछ है जो ‘माता’ शब्द को इतने महिमाशाली बनाये हुए हैं। सूरदास के वात्सल्य भाव का आश्रय केवल यशोदा ही नहीं है, नन्द, ब्रज, को वयस्क गोपियाँ, वसुदेव, देवकी में भी मिलता है। यह बात दूसरी है कि यशोदा में वात्सल्य की परिपक्वता है, जो भक्ति रस की कोटि तक जा पहुंचा है। इसी कारण वात्सल्य में भी संयोग और वियोग दोनों पक्षों को रखकर कवि ने वात्सल्य को देखा है। जन्म से कृष्ण के मथुरा गमन तक यशोदा में वात्सल्य का संयोग पक्ष अभिव्यक्त है तथा मथुरा गमन के पश्चात् वियोग पक्ष को अनुभूति है।
(1) आँगन स्याम नचावहिं जसुमति नन्दरानी ।
तारी दै दै गावहिं मधुरी मृदु बानी ।। -संयोग पक्ष
(2) सन्देसौ देवकी सौ कहियौ ।
ही तो धाय तिहारे सुत की, दया करता ही रहियो ।
मेरी अड़त लड़ैतो मोहन है है करत संकोच -वियोग पक्ष
सख्य भक्ति- वल्लभ को दास्य और विनय उपासना रुचिकर न थी। वल्लभ का कथन था कि जब आराध्य से निष्कपट प्रेम हैं तो डरने-घबराने की क्या बात है ? भगवान को सखा स्वरूप मानकर अपनी सभी दुर्बलतायें उसके सामने प्रकट कर देना चाहिये। अतएव कृष्ण का सान्निध्य सखा भाव से प्राप्त करना चाहिये। सूर के पदों में सख्य भक्ति दो रूपों में मिलती है-
(क) जिसमें गोप, ग्वाल और कृष्ण का प्रसंग आता है। ब्रज के गोप ग्वालों के लिए कृष्ण सखा है, अभिन्न है। उनमें आपस में कभी ईर्ष्या, द्वेष, मनोमालिन्य, कलह, कुटिलता उत्पन्न नहीं होती। कृष्ण के मथुरा चले जाने पर गोपियों की ही भाँति सखा गोप भी विरहाकुल होते हैं। उनकी लीलायें नित्य हैं।
जेवत छाक गाइ बिसराई ।
सखा श्रीदामा कहत सबनि सौ, छाकहिं मैं तुम रहे भुलाई।
ल्याए ग्वाल घेरि गो, गो-सुत, देखि स्याम मन हरप बढ़ाई।
(ख) सूर सागर की रचना सख्य भाव से हुई है। यदि व्यापक दृष्टिकोण से देखा जाय तो कृष्ण जो भी लीलायें करते हैं। भक्त उनके साथ ही दिखाई देता है। सूर ने कृष्ण की प्रत्येक लीलाओं, प्रेम प्रसंगों गोपनीय से गोपनीय का भी चित्रण अभिन्न मित्र की तरह किया है। राधा-कृष्ण के केलि कौतूहल को भी वह तटस्थ होकर नहीं देखता प्रत्युत उसमें रस लेता है, आनन्द लाभ करता है-
पिया मुख देखी स्याम निहारि ।
कहि न जाइ आनन की सोभा रही बिचारि बिचारि ।
सनमुख दृष्टि पर मनमोहन, लज्जित भई सुकुमारि ।
लीन्ही उमगि उठाइ अंक भरि सूरदास बलिहारि ।
माधुर्य भाव-भक्ति- माधुर्य भाव की भक्ति गंगार प्रेम की भक्ति कही जा सकती है। लौकिक प्रेम के जितने रूप हैं वे सभी मधुर भक्ति में आ जाते हैं, अन्तर केवल इतना है कि लोक से हटाकर उन्हें ईश्वर से जोड़ दिया जाता है। लोक पक्ष में श्रृंगार और भक्ति पक्ष में मधुर रस एक ही है। अन्तर इतना ही है कि अनौचित्यपूर्ण रति में शृंगार रसाभास होता है, जबकि भक्ति रस में औचित्य अनौचित्य का विचार नहीं होता क्योंकि सभी सम्बन्ध परमात्मा से होते हैं। मधुर रस में शृंगार की ही भांति स्वकीया परकीया दोनों भाव की रति तथा संयोग और वियोग दोनों पक्षों का समावेश होता है। भक्ति रस में कान्तारूपी प्रीति कामरूपा भी हो सकती है और सम्बन्धरूप भी। सूर ने स्त्री भाव को प्रधानता तो दी है लेकिन परकीया की अपेक्षा स्वकीया भाव को अधिक प्रश्रय दिया है और उसी भाव से कृष्ण के साथ घनिष्ठता भी स्थापित की है। कृष्ण के प्रति गोपियों का आकर्षण ऐन्द्रिय है इसीलिए उनकी प्रति कामरूपा है। लेकिन यह कामरूपा भक्ति भी सूर द्वारा निष्काम ही वर्णित हुई है। आत्म-समर्पण और अनन्य भाव मधुर भक्ति के लिए आवश्यक है जो दान लीला, मान लीला, चीरहरण, रासलीला में पूर्णता को प्राप्त हुए हैं। दानलीला में मधुर रति की चरम परिणति कही गई है।
आराध्य और आराधक का प्रियतम प्रियतमा के रूप में मिलन मधुर भक्ति है। यह भक्ति हमें कबीर, जायसी, मीरा, विद्यापति, रसखान की कविताओं में मिलता है। भक्त के लिये गोपियाँ एक आदर्श हैं। पुष्टि मार्गी भक्त स्वयं गोपी नहीं बनता, न गोपी बनकर रिझाने का प्रयास करता है बल्कि अपने हृदय में गोपियों के समान प्रियतम कृष्ण से मिलने की विरह ज्वाला प्रज्ज्वलित करता है। सूर ने गोपी कृष्ण के मिलन में अपने संकल्पात्मक मिलन प्रेम की कल्पना की है और वियोग में विप्रलम्भ गंगार की सृष्टि । गोपियों के पूर्वराग से प्रारम्भ करके मधुर भक्ति का विकास कवि ने चित्रित किया है। पूर्वराग की अवस्था में गोपियों ने कुल मर्यादा का अतिक्रमण किया है। इसके पश्चात् संयोग रति की पूर्णावस्था मिलन में दिखाई पड़ती है। माधुर्य भक्ति में संयोग वियोग दोनों पक्षों का समावेश है। दान लीला, पनघट लीला, जल क्रीड़ा, मान-लीला, राम-लीला, होली, फाग हिंडोला आदि के अन्तर्गत आने वाले सभी पद मधुर भक्ति के संयोग पक्ष के अन्तर्गत आते हैं ।
मधुर भक्ति में संयोग पक्ष के साथ साथ वियोग पक्ष का भी चित्रण हुआ है। वल्लभ ने विरहावस्था को प्रेम भक्ति “के आध्यात्मिक साधन में बड़ा महत्व दिया है। सूर का विरह संयोग से भी अधिक उज्ज्वल और प्रभावशाली है। सूर ने ज्ञान. योग, यज्ञ, पूजा आदि की अपेक्षा माधुर्य भक्ति की श्रेष्ठता प्रतिपादित की है। भ्रमर गीत प्रसंग में जहाँ एक ओर गोपियों का विरहातुर हृदय द्रवित हो उठा है वहीं दूसरी ओर गोपियाँ उद्धव के माध्यम से सगुणोपासना की विजय निर्गुणोपासना पर माधुर्य भाव की भक्ति द्वारा ही स्थापित करती हैं।
(1) देखियति कालिन्दी अति कारी
अहौ पथिक कहिधा उन हरि सौ, भइ विरह जुर जारी।
(2) ऊधौ मन न भये दस बीस।
एक हुतौ सो गयौ स्याम संग को अवराधे ईस।
सूर हमारे नंदनंदन बिनु और नाहि जगदीश ।
सूर की भक्ति पर वृन्दावन में प्रचारित अन्य वैष्णव सम्प्रदायों का भी प्रभाव पड़ा है-चैतन्य सम्प्रदाय, निम्बार्क सम्प्रदाय, राधावल्लभीय सम्प्रदाय आदि का ।
आत्म निवेदन- माधुरी भाव की अन्तिम सीढ़ी आत्म निवेदन है। इसी का एक पक्ष शरणागति है, जिसका सूर के पद में महत्व है। विनय के पदों में ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ श्रीकृष्ण के प्रति आत्म निवेदन किया है। सभी प्रकार के गर्व और अहंकार को त्याग कर अनन्य भाव से भजन ही आत्म निवेदन का शुद्ध स्वरूप है-
माधौ जू जो जन ते बिगरै ।
तऊ कृपाल, करुनामय केसव, प्रभु नहि जीय घरै।
कारन करन दयालु दयानिधि, निज भय दीन डरै।
इहि कलि कालव्याल-मुख-शासित सूर सरन उबरै ।।
प्रेमख्या-भक्ति- सुर की प्रेमाभक्ति माधुर्य भाव की भक्ति है, जिसका प्रतिनिधित्व गोपियाँ करती हैं। वल्लभ सम्प्रदाय में प्रेमभक्ति की प्राप्ति का साधन हरिकृपा या अनुग्रह बताया गया है। सूर ने प्रेम भक्ति की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा है-
प्रेम भक्ति विनु मुक्ति न होइ नाथ, कृपा कर दीजै सोइ ।
और सकल हम देख्यौ जोड़, तुम्हारी कृपा होड़ सो होड़।।
नारद जैसे ज्ञानी भक्त भी गोपियों को प्रेमी भक्तों में सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरि मानते हैं क्योंकि वे अहर्निश कृष्ण का चिन्तन करती हैं, तन-मन-धन सर्वांग कृष्ण के प्रति समर्पित हैं। उद्धव के हर प्रकार से समझाने और मोक्ष का प्रलोभन देने पर भी अटल रही गोपियाँ अपने पथ पर उनमें प्रेम की अनन्यता है, जो भ्रमर गीत उनके किसी भी कथन में देखा जा सकता है-
ऊधौ मन माने की बात ।
दाख छुहारा छाँड़ि अमृत फल विषकारा विष खात।
सूरदास जाको मन जासों ताको सोइ सुहात ।
नारद भक्ति सूत्र में वर्णित प्रेम भक्ति के स्वरूप का पूर्ण विवेचन हमें सूर सागर में मिलता है। भागवत की भांति सूर की प्रेम भक्ति साधन नहीं- साध्य है जिसकी प्राप्ति के पश्चात् कुछ प्राप्त नहीं रह जाता। इसलिए सूर ने स्थान-स्थान पर भक्ति प्राप्ति की ही प्रार्थना की है।
प्रेम भक्ति का मूल स्रोत है प्रेम और भक्ति से परमार्थ और मोक्ष की प्राप्ति होती है। प्रेम भगवद्प्राप्ति का सबसे सुलभ साधन है। प्रेम प्रेम से उपजता है लेकिन उसकी गहन अनुभूति विरह में अधिक निखरती है –
ऊधौ विरही प्रेम करै ।
ज्यों बिनु पुट पट गहत न रंगहि पुट गहि रसहि परै ।
वास्तव में विरह व्यथा का अनुभव करने पर ही हृदय में सच्चे प्रेम की उद्भूति होती है। इस प्रेम के क्षेत्र में जाति वर्ण धर्म की व्यवस्था आड़े नहीं आती। अन्त में सूर की भक्ति के विषय में इतना ही कह सकते हैं कि कान्ता भाव की प्रीति में प्रेम का आत्मोत्सर्ग और आत्मा विस्मृति की अवस्था पूर्ण रूप में आ जाती है। आत्म-निवेदन तथा आत्म-समर्पण प्रेम भक्ति को सर्वोच्च स्थिति है। नवधा भक्ति के साधन में जो अन्तिम अवस्था आत्म निवेदन की कही गई है वह कान्ता भाव में हो पूर्ण होती है।
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